सरहद पर / नन्द किशोर विक्रम

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

“छोड नजमे मुझे सामान बाँधने दे ।” शाहिदा ने पल्लू छुडाते हुए कहा।

“तो बताओ ना अम्मी!”

“देख नजमी अगर नहीं मानेगा तो पीटूँगी।”

“फिर बताओ ना अम्मी हम कहाँ जा रहे हैं?”

“अरे बाबा हम पाकिस्तान जा रहे हैं।” शाहिदा ने तंग आकर जवाब दिया। यह सुनकर नंजमी जोर-जोर से चिल्लाने लगा, “हम पाकिस्तान जाएँगे । लेकर रहेंगे पाकिस्तान। पाकिस्तान जिन्दाबाद कायदे-आजम जिन्दाबाद!” मगर अभी नजमी नारे लगा ही रहा था कि उसके अब्बा बाहर से आ गये। जैसे ही उन्होंने नजमी को नारे लगाते सुना वह चिल्ला उठे-

“नजमी!”

बेचारा नजमी सहम कर एक कोने में जा खड़ा हुआ जैसे कोई खरगोश शिकारी को देखकर झाड़ी में जा छुपता है और सलीम शाहिदा के पास आकर शोर मचाने लगा-

“न जाने ये औरतें किस तरह काम करती हैं। तीन घंटे से सामान बाँध रही हैं, मगर अभी तक तैयार नहीं हुईं। एक तो देर कर रही हैं ऊपर से नजमी पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगा रहा है। अगर किसी हिन्दू या सिख ने सुन लिया तो फिर हमारी लाशें भी पाकिस्तान नहीं पहुँच सकेंगी!”

सलीम का पारा हाई डिग्री पर देखकर सलीम की बहन जुबैदा और उसकी बीवी शाहिदा बड़ी तेजी से सामान बाँधने लगीं मगर उन्हें घर की कोई चीज छोड़ने को जी नहीं चाहता था। वे चाहती थीं कि ग्रामोफोन, मूल्यवान आभूषण, जरी और मखमल के कपड़े, वर्षों की इकट्ठी की हुई तस्वीरों और पुस्तकों को भी साथ ले जाएँ मगर सलीम ने दोबारा चीखते हुए कहा-

“छोड़ो इन ग्रामोफोन और तस्वीरों को, अगर जिन्दगी हुई तो और बना लेंगे। बारह बज चुके हैं और रातोंरात हमने हिन्दुस्तान की सरहद को पार करना है।”

और सवा बारह बजे यह छोटा-सा काफिला घोड़ों पर सवार चल पड़ा हिन्दुस्तान को छोड़कर पाकिस्तान की ओर...अपनी मातृभूमि से दूर...

चारों ओर घटाटोप अँधेरा छाया हुआ था। हर कोई गहरी नींद सो रहा था। केवल गाँव के चौकीदार और कुत्तों की आवाजें ही कानों में पड़ रही थीं। उस वक्त सलीम, शाहिदा, जुबैदा, नजमी और उनका नौकर अकरम घोड़ों पर सवार, कदम-कदम पर ठोकरें खाते हिन्दुस्तान से दूर पाकिस्तान जा रहे थे। उस समय सलीम की हालत उस सारस की तरह थी जिसका साथी उससे बिछड़ गया हो। उसकी ऐसी हालत क्यों न होती। वह अपने गाँव से हमेशा के लिए दूर जा रहा था। उस समय सलीम को हिन्दुस्तान के नेताओं की खुदगरजी याद आ गयी जो देश की जनता की भलाई की उपेक्षा करके अपने स्वार्थ में लगे हुए हैं जबकि इस स्वर्ग समान देश में जहाँ सुबह से शाम तक आग बरसाने वाले दिनों और अत्यन्त ठंडी रातों को किसान खून-पसीना एक करता है मगर पैदा होने वाला अनाज साहूकार के एक फर्लांग लम्बे गोदाम में भर दिया जाता है और उस समय उसका जी चाहा कि वह चिल्ला उठे-

'ऐ हिन्दुस्तान के हिन्दू-मुसलमानो ! तुम इस धरती पर न तो पाकिस्तान बनने दो और न ही खालिस्तान, बल्कि तुम इस धरती पर एक ऐसा 'स्तान'बनाओ जहाँ साम्प्रदायिक दंगे न हों। हर इनसान का दिल मानव-प्यार से भरा हो। मजदूर और किसान पर पूँजीपति का अत्याचार न हो और अगर ऐसा नहीं हो सकता तो खुदा से दुआ करो कि ऐ खुदा! इस भूमि पर एक ऐसी बाढ़ ला जिसमें यह भूमि और इसके वासी हमेशा-हमेशा के लिए डूब जाएँ और हिमालय पर्वत की सिर्फ वही चोटी और उसका आँचल रह जाए जहाँ हंजरत नूह की किश्ती आकर किनारे लगी थी और उस उच्चतम चोटी पर एक सुर्ख झंडा लगा होख़तरे की निशानी अर्थात् इसके निकट न आओ और उसके पास ही एक बोर्ड लगा हो जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में निम्नलिखित इबारत तहरीर हो :

'इसके आँचल में एक देश आबाद था जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था। इस जगह दुनिया को शान्ति और एकता की शिक्षा देनेवाले, सच्चाई के देवता, नेकी के अवतार, मानवता के प्रचारक, दीन-दुखियों के सहायक, सत्य और प्यार के उपदेशक पैदा हुआ हुए थे लेकिन यहाँ की कौमें अल्पसंख्यकों,निहत्थे इंसानों को मौत के घाट उतार कर, औरतों के सतीत्व को दांग लगाकर अपने आपको बहादुर खयाल करती थीं। हर साल गाय और सूअर के नाम पर साम्प्रदायिक दंगे हो जाते थे, जिसके परिणाम में हजारों इनसान मुफ्त में दंगों की भेंट हो जाते थे।

'इस देश के पानी में डूबने से कुछ समय पहले यहाँ जनूनी राजनीतिज्ञ रहा करते थे, जिनके कारण यह देश दो टुकड़ों में बंट गया। यहाँ एक तरफ अमीरों के रहने के लिए महल खड़े थे तो दूसरी तरफ तंग और अँधेरी गलियाँ थीं, जहाँ चिराग थे मगर मद्धम! जहाँ ठंडी आहें थीं मगर दबी हुई! जहाँ जिन्दगी थी मगर तड़पती हुई। यहाँ अमीरों के महलों और हवेलियों की बुनियादें मजदूर और मिट्टी तथा चीथड़ों में लिपटे उनके बच्चे रहा करते थे। यहाँ के लेखकों और कवियों की कृतियाँ इश्क-ओ-मुहब्बत में डूबी हुई होती थीं। शायद वे अपने देश की प्रगति और विकास के बारे में लिखना अपना अपमान समझते थे। दुनिया के देश शिक्षा तथा उद्योग में उन्नति कर रहे थे, किन्तु यहाँ के लोगों ने बच्चे पैदा करने में रिकार्ड तोड़ दिया था और वे बड़े गर्व से कहा करते थे कि हमारी आबादी दुनिया में दूसरे नम्बर पर है। हालाँकि वे सिर्फ कमजोर और दुबले-पतले, नंग-धड़ंग, मरियल तथा मिट्टी और चीथड़ों में लिपटे हुए बच्चे पैदा करना ही जानते थे। उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और प्रशिक्षण की व्यवस्था करना नहीं जानते थे ।यहाँ एक देश आबाद था जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था।'

एकाएक उसके विचारों का ताँता टूटा और उसने देखा, कुछ दूरी पर अमृतसर शहर है और शोले अमृतसर के मकानों से आसमान की ओर उठ रहे थे। हर-हर महादेव, सत सिरी अकाल और नारा-ए-तकबीर के गगन-भेदी नारों के साथ ही नगरवासी मारकाट में मग्न थे। चारों ओर एक हंगामा मचा हुआ था। औरतों और बच्चों की चीख-पुकार से कान पड़ी आवाज सुनाई नहीं देती थी। यह अमृतसर शहर था यहाँ ईदें और गुरुपरब इकट्ठे मनाये जाते थे। यहाँ जालियाँवाला बाग है, जहाँ हिन्दू-मुसलमानों ने सीना तानकर गोलियाँ खायी थीं । सिसकती हुई सभ्यता में नई आत्मा फूँकने के लिए, आजादी हासिल करने के लिए और हिन्दू-मुस्लिम एकता को कायम करने के लिए। यहाँ सुनहरी गुरुद्वारा है। अमन और शान्ति के देवता, एकता के उपदेशकसच्चाई के अवतार का जिन्होंने सच्चाई और एकता की शिक्षा देकर हमें खोया हुआ रास्ता दिखाया लेकिन आज ! आज हर तरफ खून-खराबा हो रहा था। औरतों की इज्जत लूटी जा रही थी। बच्चों को नेंजों की नोकों पर खड़ा किया जा रहा था शायद आज इसी को गुरु की शिक्षा खयाल किया जा रहा था।

अभी उसकी नजर शहर पर जमी हुई थी कि बीस-पच्चीस बलवाई हाथों में तलवारें और पिस्तौल लिए उन पर टूट पड़े। उन्होंने सलीम की बहन जुबैदा की उनके सामने ही इज्जत लूटकर उसे मौत के घाट उतार दिया। उन्होंने एक ही वार से अकरम को समाप्त कर दिया और तलवार से नंजमी के दो टुकड़े कर दिये। उन्होंने अपनी ओर से सलीम और शाहिदा को भी सीमित जीवन से वंचित कर दिया, किन्तु वे दोनों मरे नहीं। सलीम तो सिर्फ जख्मी ही हुआ मगर शाहिदा बेटे के गम और चोटों के कारण पागल-सी हो गयी। सलीम ने उसे सहारा दिया और पाकिस्तान की तरफ चल पड़ा, मगर शाहिदा कदम-कदम पर ठहरकर चीख उठती

“मुझे छोड़ दो। वह देखो...नन्हा नजमी मुझे बुला रहा है। मुझे छोड़ दो। मैं अपने नजमी के पास जा रही हूँ।”

और उस समय सलीम भर्रायी हुई आवांज में कहता, “शाहिदा ! नजमी कहाँ ? नजमी तो खुदा ताला के पास पहुँच चुका है !” मगर शाहिदा पर उसकी बातों का कोई असर न होता, बल्कि वह चिल्लाने लगती, “मर तो सलीम गया है। मेरा नजमी तो मेरे साथ है। हाँ ! अब वह जवान हो गया है। वह देखो वह अपनी दुल्हन के साथ आ रहा है। मगर तुम उसे पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाने से नहीं रोक सकते। वह जोर-जोर से चिल्लाएगा। ऊँचा कहो मेरे लाल! मैं भी तुम्हारे साथ कहूँगी पाकिस्तान जिन्दाबाद! कायदे-आजम जिन्दाबाद !”

और उसी समय सलीम चीख उठा, “शाहिदा जल्दी चलो। वह देखो सामने सरहद है। सुबह होने वाली है। हम जल्दी ही सरहद पार कर लें।”

मगर शाहिदा पर इस बात का कोई असर नहीं होता। वह बोली, “नहीं-नहीं, मैं पाकिस्तान नहीं जाऊँगी। वहाँ मजहब के नाम पर अल्पसंख्यकों का खून किया जाता है। वहाँ इनसान के रूप में भेड़िये रहते हैं। मैं तो हिन्दुस्तान ही में रहूँगी।” और फिर खुद बोल उठतीं, “नहीं, नहीं, मैं यहाँ नहीं रहूँगी। यहाँ हमारी जान खृतरे में हैं। मैं पाकिस्तान जाऊँगी।”

इसी तरह उल्टी-सीधी बातें करते-करते वह सीमा के निकट पहुँच गयी, लेकिन यहाँ उसकी हालत बहुत बिगड़ गयी और उसने सलीम की गोद में ही जान दे दी।

शाहिदा की मृत्यु से सलीम दिमागी सन्तुलन खो बैठा और वह पाकिस्तान की ओर चल पड़ा। लेकिन...लेकिन वह पाकिस्तान में नहीं रहा। बल्कि आज भी एक दीवाना हरबंस पुरा और अटारी के दरमियान घूमता हुआ नंजर आता है। जब वह हरबंस पुरा पहुँचता है तो कहता है, “नहीं मैं यहाँ नहीं रह सकता। यहाँ औरतों को नंगा करके उनके जुलूस निकाले जाते हैं। बच्चों को वहशी बड़ी बेरहमी से कत्ल करते हैं। गाड़ी के इंजनों को औरतों के स्तनों से सजाया जाता है। मैं यहाँ नहीं रह सकता। मैं पाकिस्तान छोड़कर हिन्दुस्तान जा रहा हूँ।” यह कहकर वह हिन्दुस्तान की तरफ चल पड़ता है, मगर ज्योंही वह अटारी से एक फर्लांग आगे जाता है तो एक पत्थर उठा लेता है और सीने से लगाकर कहता है, “तू कहाँ रह गया था मेरे लाल! चल तुझे तेरी माँ के पास ले चलूँ। हम यहाँ नहीं रह सकते। यह हिन्दुस्तान है यहाँ के वासी इनसानियत का ढोल पीटकर इनसानियत का खून करते हैं। औरतों की इज्जत उतारना मामूली बात समझते हैं। मकान राख करके अल्पसंख्यकों के बच्चों को गोलियों को निशाना बनाते हैं और चीख उठते हैं हिन्दुस्तान जिन्दाबाद पाकिस्तान मुर्दाबाद जैसे उनके कहने से ही पाकिस्तान मुर्दा और हिन्दुस्तान जिन्दा हो जाएगा। चल बेटे तुझे तेरी माँ के पास ले चलूँ। वह कब से तुझे ढूँढ़ रही है।” यह कहकर वह पत्थर को उठाये हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की सीमा के निकट पहुँच जाता है और शाहिदा को न पाकर रोने लगता है, और कहता है-

“न जाने तेरी माँ कहाँ चली गयी है। मैं तो उसे यहीं छोड़कर गया था। डर नहीं मेरे लाल! तुझे यहाँ कोई कुछ नहीं कहेगा क्योंकि, यह हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की सीमा है। यहाँ पहुँचकर हर इनसान की जान में जान आती है। यहाँ पहुँचकर जिन्दगी के आसार दोबारा उभर आते हैं। यहाँ हिन्दुस्तान जिन्दाबाद और पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाए जा सकते हैं। यहाँ हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों मुर्दाबाद कहे जा सकते हैं, क्योंकि यह जगह हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के लीडरों की विरासत नहीं...यह हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की सरहद है।”