सर्वज्ञदेव की कथा / कमलेश पाण्डेय
उस रोज चोंच में दबे मत्स्य का रस लेते हुए शुक मुनि अकस्मात् बोले, ‘हे भक्तों! आज मैं महाभारत की ऐसी कथा कहता हूँ, जिसका ज्ञान स्वयं महाभारतकारों को भी नहीं। यह सर्वज्ञदेव की कथा है, जो महाराज धृतराष्ट्र के निजी सचिव थे। ये महानुभाव महाराज के निकटतम सेवक थे और इनके समक्ष महाराज का कोई राज़ राज़ न था। यही थे जो कि महाराज के आयकर, भत्तों, बिजली-टेलिफ़ोन आदि शुल्कों के भगतान से लेकर महाराज के आदेशों का भोजपत्रों पर टंकण करवाने तक का काम करते थे। यही महाराज तथा उनके मंत्राी-सभासदों ही नहीं, वरन् उनके सौ राजकुमारों के बीच भी संपर्क का सूत्र थे। यद्यपि सर्वज्ञदेव ही महाराज के प्रथम और अंतिम परामर्शदाता थे, तथापि वे मामा शकुनि की भांति हाथ चमकाते और आँख नहीं घुमाते थे अपितु मौन और गुप्त रहते थे। सर्वज्ञदेव महाराज के हर मित्रा और शत्रु की जन्मकुंडली रखते तथा यथानुसार महाराज के लिए व्यवहार संहिता रचते। अंतःपुर में भी उनकी गहरी पैठ थी। महारानी गांधरी के आभूषणों से लेकर नेत्र-पट्टिका तक का प्रबंध वही करते थे।
‘हे भक्तों! इस परम प्रभावशाली व्यक्ति के इशारों पर ही महाराज चलायमान थे। अतः पृष्ठभूमि में होते हुए भी वह इस प्रकार राज-काज से अभिन्न थे कि उनके सिंहासन का पाया ही प्रतीत होते थे। जब-जब धृतराष्ट्र की सभा में आयोजित द्यूत-क्रीड़ा में पांडव हारकर अपमानित हुए, महाराज के आसन से एकाकार इस अतिमानव ने महाराज के कानों में फुसफुसाकर मौन रहने का परामर्श दिया या घटना का और ही विवरण देकर दिग्भ्रमित किया। अंधे महाराज का उन पर सम्पूर्ण अंध-विश्वास था। कठिन स्थितियों में प्रेस-वार्ताओं में वे ही तथ्यों को उलझाकर राज्य के सम्मान की रक्षा करते। वे महाराज के नेत्र ही नहीं मुख भी थे। वे महाराज की निर्बल आत्मा पर कुंडली मारे बैठा सर्प थे, उनके नैतिक बल के गुब्बारे में हुआ छिद्र थे और उनकी बुद्धि को मार गया काठ थे।
‘हे भक्तों! मैं कहता हूं, सर्वज्ञ देव न होते तो महाभारत ही न होता। द्रौपदी चीरहरण के समय नेत्रहीन महाराज धृतराष्ट्र के इस उत्कंठा पर कि ये क्या हो रहा है, सर्वज्ञदेव ने सूचित किया कि सभा में द्रौपदी स्वयं ही अपने वस्त्र उतारकर प्रहसन करती युवराज दुःशासन का चरित्र-हनन कर रही है। यह सुनकर महाराज न केवल शांत हुए अपितु भविष्य में भी मौन रहकर पांडवों के मान-मर्दन के हर प्रस्ताव पर स्वीकृति-लक्षण दर्शाते रहे।’
यहां शुक मुनि ने अपने गोल-गोल नेत्रों को घुमाकर रोमांच पैदा किया और पूछा, ‘सोचो! आखिर इस इतिहास पुरुष को महाभारत कथा में यथोचित गौरव क्यों नही मिला?’
फिर सभी ज्ञानियों की भांति स्वयं ही उत्तर दिया, ‘वस्तुतः इसका कारण भगवान श्रीकृष्ण का श्राप है, जो उन्हें महाभारत युद्ध के उपरांत पाण्डवों के शिविर में अपनी सेवायें प्रस्तुत करते समय प्राप्त हुआ। आज मैं इसी श्राप की कथा सुनाता हूं। किन्तु पहले सर्वज्ञदेव की जन्म कुंडली का वाचन करता हूँ, सो ध्यान से सुनो!
‘हे जनों! बाल्यकाल में सर्वज्ञदेव एक सामान्य बुद्धि, परंतु अति वाचाल बालक थे। किसी भी विषय पर अपने अल्प ज्ञान को भी वे इतनी चतुराई से प्रकट करते कि बड़े-बड़े आचार्य भी चित्त हो जाते। एक कौरव-सभासद का पु़त्र होने के नाते उनकी शिक्षा-दीक्षा आचार्य कृप के कान्वेंटाश्रम में हुई। यहां उन्होंने अर्थशास्त्र से लेकर जीव-शास्त्र तक हर विषय के संक्षिप्त संस्करण रट लिए। इसी विधि से शिक्षा ग्रहण करते हुए युवक होते-होते उन्हें पूरे ब्रह्माण्ड में उपस्थित समग्र ज्ञान की प्राप्ति हो गई। आगे चलकर इनकी दक्षता इतनी बढ़ी कि वे सूचना मात्र के आधार पर किसी भी विषय पर शास्त्रार्थ कर प्रतिद्वंद्वी को मौन कर सकते थे। उनकी इस अद्भुत मेधा को परखकर दूरदर्शी आचार्य द्रोण ने उन्हें ‘सर्वज्ञदेव’ की उपाधि से विभूषित किया एवं महाराज के निजी सचिव के पद हेतु उनकी अनुशंसा की।
‘इसके पश्चात् सर्वज्ञदेव को मसूरवती पर्वत पर स्थित मसूराचार्य के आश्रम में प्रशासन-शास्त्र की दीक्षा दिलवाई गई। यहां पर सर्वज्ञदेव की सर्वज्ञता को और तराश कर उस पर प्रशासनिक चपलता का लेप चढ़ाया गया। वे कुंदन होकर लौटे और महाराज धृतराष्ट्र के सिंहासन से एकाकार हो गये।’
इतना कह शुकमुनी ने एक भक्त द्वारा अर्पित किये हुए फ़िश-फ्राई नामक व्यंजन के कुछ कण चुगे और सरोवर के मिनरल-जल से आचमन किया। तब उन्होंने कथा आगे सुनाई-
‘हे भक्तों! सर्वज्ञदेव का कार्यकाल ज्यों ही प्रारम्भ होता है, त्यों ही महाभारत का षड्यंत्र-पर्व भी आरम्भ होता है। सर्वप्रथम उन्होंने अपने गुप्तचरों का जाल बिछाया। महाभारत युद्ध से पूर्व कौरवों की ओर से पांडवों को हस्तिनापुर से खदेड़ने के जितने कार्यक्रम रचे गये, उनके रचियता सर्वज्ञदेव ही थे। राजकीय अभिलेखागार हेतु उन्होंने सभी घटनाओं का गुप्त विवरण विशेष प्रकार के भोजपत्रों पर लिखकर लाल-फीतों से बांध छोड़ा था। सूचनाधिकार द्वारा प्राप्त उन भोजपत्रों के अंशों से ज्ञात होता है कि सर्वज्ञदेव के कार्यकलापों से ही महाभारत युद्ध संभव हुआ। हर घटना को उनके दृष्टिकोण से देखने पर एक नया ही महाभारत बनता है। अब मैं उन्हीं भोजपत्रों के कुछ अंश सुनाता हूँ:-
‘.....पाण्डवों का वानप्रस्थ के पश्चात विराटनगर में अज्ञातवास- कानून के उल्लंघन का समाचार पाते ही अधोहस्ताक्षरी ने अपने मसूरवती आश्रम के सहपाठी को, जो कि महाराज विराटनगर का मुख्य सचिव है, सूचना दी। उसने तत्काल पुलिस भेज कर भेस बदल कर घुमते पाण्डवों को पकड़वा कर उनका अज्ञातवास निरस्त करवाया। .....
‘....जब कौरव सभा में शांतिदूत श्रीकृष्ण ने पाण्डवों का युद्ध विराम प्रस्ताव रखा तब अधेहस्ताक्षरी, जो कई संहिताएं पकड़े माननीय महाराज धृतराष्ट्र के निकट बैठा था, उस प्रस्ताव की धाराओं को उपयुक्त तर्कों से निरस्त करता रहा। ज्योंहि कृष्ण ने भावुक होकर पाण्डवों का भाग देकर युद्ध रोकने की अपील की, अधेहस्ताक्षरी ने भूमि राजस्व विभाग के नक़्शे प्रस्तुत कर सिद्ध कर दिया कि पाण्डवों के अध्किार में तो सूचिका के नोक के बराबर भी भूमि नहीं है । जब श्रीकृष्ण ने युद्ध के परिणामों की व्याख्या की, तब अधेहस्ताक्षरी ने समुचित आकड़ों से सिद्ध कर दिया कि कौरवों की सैन्यशक्ति पाण्डवों से चौगुनी है।....
‘....युद्ध होना तय हो जाने पर युद्ध -आयोग की अधिसूचना से पूर्व ही अधेहस्ताक्षरी ने कई महारथियों को कौरव पक्ष से लड़ने हेतु आमंत्रण भेजे और वार्ताएं की। यहां तक कि स्वयं श्रीकृष्ण से भी वार्ता के लिए युवराज दुर्योधन को भिजवा कर उनकी सेनायें अपने पक्ष में करवा लीं.....
‘इस तरह हे भक्तों! सर्वज्ञदेव के महाभारत कौरव-पक्ष का ऐसा वृत्तांत है, जिसमें पाण्डव घोर अनर्थकारी एवं निंदनीय प्राणी प्रतीत होते हैं। इस प्रकार राज्य के प्रति उनकी निष्ठा अटूट दिखाई पड़ती है।
‘युद्ध प्रारंभ होते ही सर्वज्ञदेव आपात-नियमावली के अनुसार सूचना-प्रसारण के कार्यभार से भी युक्त हुए जिससे उनकी भूमिका और महत्वपूर्ण हुई। वे महाराज धृतराष्ट्र और संजय के मध्य विराज कर भृकुटि से यह इंगित करते भए कि महाराज को कितनी और कैसी सूचनाएं देना पर्याप्त है। अभिमन्यु को चक्रव्यूह में मारने का दृश्य वे पूरी तरह गोल कर गए तो अर्जुन के हाथों कर्ण के वध का बड़ा ही अतिरंजित वर्णन करवाया। किंतु ज्यों-ज्यों युद्ध आगे चला, उन्हें कौरवों की हार का पूर्वाभास हो चला। अंतिम दिनों में उनके सूचना-छनन कर्म में पाण्डवों के पक्ष में झुकाव दिखने लगा। युद्ध के निर्णायक दृश्य मे उनके निर्देश पर संजय ने दुःशासन-वध् को धृतराष्ट्र के समक्ष यों वर्णित किया, ....” हे महाराज! इस क्षण जंघा पर हाथी का पांव पड़ जाने के कारण पीड़ा से चीत्कार कर रहे दुःशासन को अकस्मात् भीम ने आकर अपने बलिष्ठ कंधें पर उठा लिया है और तत्परतापूर्वक उसे अस्पताल की दिशा में ले जा रहे हैं.....”
‘ज्यों ही युद्ध का परिणाम आया, सर्वज्ञदेव महाराज को हतप्रभ अवस्था में छोड़कर पाण्डवों के शिविर की दिशा में छूट भागे।
‘वहां उन्होंने पाण्डवों को साष्टांग दण्डवत् कर उनकी वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्हें विजय की बधाई दी। तदुपरांत उन्होंने अपने गुणों, विशेषज्ञताओं एवं अपने कार्यकाल के विशेष अनुभवों का विस्तारपूर्वक उल्लेख करते हुए अपना बायोडाटा उनकी ओर बढ़ाया। पाण्डवों का अब तक ऐसे किसी प्राणी से सामना नहीं हुआ था सो वे पर्याप्त चमत्कृत हुए। भीम तो कह उठे, “हे भ्राताश्री! अब तो हमें भी निजी सचिव की आवश्यकता पड़ेगी, तो क्यों न इसे ही रख लें! आचार्य द्रोण ने कहा है कि अनुभवी सचिव ही राजा का सबसे बड़ा अस्त्र व ढाल है।“
‘युधिष्ठिर अभिभूत होकर तथास्तु कहा ही चाहते थे कि वहां अकस्मात् भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए। सर्वज्ञदेव की ओर देख सर्वशक्तिमान मुस्कुराते हुए बोले, ‘हे चतुर सचिव! तुम्हारे अनुभव और प्रबंध-कौशल की आने वाले धर्मराज्य में कोई आवश्यकता नहीं। इस युद्ध से जिस अन्याय और अधर्म का अंत हुआ है, उसे पुनः तुम्हारी सेवाएं लेकर पुनर्जीवित करने की हमारी कोई मंशा नहीं है। वस्तुतः इस द्वापर युग में ही तुम्हारी कोई जगह नहीं। तुमने ब्रह्मा जी की भूल से यहां जन्म लिया और तुम्हारे कर्मों का फल इन बेचारे कौरव-पाण्डवों ने भुगता। अतः हे सर्वज्ञदेव! जाओ कलिकाल में तुम्हारा पुनर्जन्म होगा। प्रजातंत्र कहलाने वाले उस युग में तुम मंत्रियों के निजी ही नहीं अपितु उप, संयुक्त, विशेष, अतिरिक्त अर्थात् अनेक प्रकार के सचिव बनाए जाओगे। तब संपूर्ण सत्ता तुम्हारे ही हाथों में होगी, सुख-समृद्धि और विलास तुम्हारे पुरस्कार होंगे, परन्तु यश-अपयश तब भी तुम्हारे हाथ नहीं होगा। तुम्हारे कर्मों का फल दूसरे ही भोगेंगे। यदा-कदा ही तुम्हारे पापों का घड़ा फूटेगा। तब शासक भी तुम्हारे समान ही कुटिल होंगे, अतः तुम जब अपनी सेवाओं द्वारा एक शासक का सर्वनाश कर जब दूसरे को अपनी सेवाएं अर्पित करने जाओगे तो वह तुम्हें निराश नहीं करेगा। किन्तु हे सर्वज्ञदेव! अभी नहीं!’’
ये शब्द कहते हुए श्रीकृष्ण ने सुदर्शन-चक्र की सहायता से सर्वज्ञदेव का सेवाकाल वहीं समाप्त कर दिया.
कथा समाप्त कर शुक-मुनि भी सेवानिवृत्ति के भाव से वहीं निद्रामग्न हुए।