सर्व धर्मान्परित्यज्य / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
अब हमें विशेष कुछ नहीं कहना है। फिर भी गीता के अठारहवें अध्या य के अंत में जो 'सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:' (66) श्लोक आया है उसके ही संबंध में कुछ लिखना हम जरूरी समझते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि अब तक के हमारे कथन ने उस पर प्रकाश नहीं डाला है। उसकी चर्चा तो बार-बार आई है। यह भी नहीं कि हम कोई नई बात खास तौर से यहाँ कहने जा रहे हैं। इस संबंध में इतना कहा जा चुका है कि नई बात मालूम पड़ती ही नहीं। यों तो गीता हीरा ठहरी। इसीलिए इसे जितना ही कसो, इस पर जितना ही विचार करो यह उतनी ही खरी निकलती है और इसकी चमक उतनी ही बढ़ती है। बात असल यह है कि एक तो अठारहवें अध्याीय को ही गीता का उपसंहार-अध्याढय माना जाता है। उसमें भी अंत में यह श्लोक आया है। इसलिए गीता के उपसंहार का भी उपसंहार इसे मान के लोगों ने अपने-अपने मत और संप्रदाय के अनुसार इसके अर्थ की काफी खींच-तान की है। यदि यह कहें कि यह श्लोक एक प्रकार से गीतार्थ का कुरुक्षेत्र बना दिया गया है तो कोई अत्युक्ति न होगी। इसलिए हम यहाँ यही दिखाना चाहते हैं कि सांप्रदायिकता के आग्रह में गीता को उसके अत्यंत महान एवं उच्च स्थान से बेदर्दी के साथ घसीट के गहरे गढ़े में गिराने की कोशिश बड़े से बड़े विद्वान भी किस प्रकार करते हैं। इसी बात का यह एक नमूना है। इसी से समूची गीता में की गई खींच-तान और जबर्दस्ती का पता लग जाएगा। हमारा काम यह नहीं रहा है कि इतने लंबे लेख में किसी का भी खासतौर से खंडन-मंडन करें। हम इसे अनुचित समझते हैं। इसके लिए तो स्वतंत्र रूप से लिखने का हमारा विचार है। मगर अंत में थोड़ा-सा नमूना पेश किए बिना शायद यह प्रयास अपूर्ण रह जाएगा। इसीलिए यह यत्न है।
इस श्लोक का अक्षरार्थ तो यही है कि 'सभी धर्मों को छोड़ के एक मेरी - भगवान की - ही शरण में जा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा। सोच मत कर।' गीता को तो उपनिषदों का ही रूप या निचोड़ मानते हैं और उपनिषदों में धर्म-अधर्म के संबंध में बहुत कुछ लिखा जा चुका है कि उन्हें कैसे, कब और क्यों छोड़ना चाहिए। 'त्यज धर्ममधम च' ये स्मृति वचन धर्म-अधर्म सभी के त्याग की बात कहते हैं। कठोपनिषद के भी 'अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मात्' (2। 14) तथा 'नाविरतो दुश्चरितात्' (2। 23) में धर्म-अधर्म सभी के छोड़ने की बात मिलती है। बृहदारण्यक (4। 4। 22) से धर्मों का संन्यास आवश्यक सिद्ध होता है यह हमने पहले ही सिद्ध किया है। आत्मा और उसके ज्ञान को न सभी झमेलों से बहुत दूर की बात इन वचनों ने कही हैं। इसके सिवाय गीता में ही 'सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:' (6। 31), 'एकत्वेन पृथक्त्वेन' (9। 15) आदि वचनों के द्वारा यही कहा गया है कि असली भजन या भक्ति यही है कि हम अपने को परमात्मा के साथ एक समझें और जगत को भी अपना ही रूप मानें। यहाँ एक शब्द का अर्थ गीता ने स्पष्ट कर दिया है। यह भी बात है कि यद्यपि गीता का धर्म कर्म से जुदा नहीं है, बल्कि गीता ने दोनों को एक ही माना है; तथापि सभी कर्मों का त्याग तो असंभव है। गीता ने तो कही दिया है कि 'यदि सभी कर्म छोड़ दें तो शरीर का रहना भी असंभव हो जाए' - "शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:" (3। 8)। इसीलिए इस श्लोक में कर्म की जगह धर्म शब्द दिया गया है; हालाँकि इससे पहले के बीसियों श्लोकों में केवल कर्म शब्द ही पाया जाता है, धर्म-शब्द लापता है। इसीलिए परिस्थितिवश धर्म शब्द सामान्य कर्म के अर्थ में न बोला जाकर कुछ संकुचित अर्थ में ही यहाँ आया हुआ माना जाना उचित है। फलत: कुछ विस्तृत एवं व्यापक रूप में शास्त्रीेय विधि-विधान के अनुसार ही यहाँ धर्म शब्द का अर्थ लिया जाना उचित प्रतीत होता है। दूसरे अध्याीय के 'स्वधर्ममपि' (2। 31) में जिस अर्थ में यह प्रयुक्त हुआ है या खुद अर्जुन ने ही 'धर्मसंमूढ़चेता:' (2। 7), 'कुलधर्मा: सनातना:' (1। 40) आदि वचनों में जिस संकुचित अर्थ में इसे कहा है यहाँ भी वही अर्थ या उसी से मिलता-जुलता ही मान लेना ठीक है। छांदोग्योपनिषद में 'एकमेवाद्वितीयम्' (6। 2। 1) में ब्रह्म को एक कहा भी है।
इसीलिए शंकर ने अपने गीताभाष्य में धर्मशास्त्री(य बंधनों को छोड़ के और उनमें लिखे धर्मों-अधर्मों से पल्ला छुड़ा के 'अहं ब्रह्मास्मि' - "मैं खुद ब्रह्म ही हूँ" इसी अद्वैतज्ञाननिष्ठा के प्राप्त करने का प्रतिपादन इस श्लोक में माना है। हम तो पहले अच्छी तरह बता चुके हैं कि बिना शास्त्री य धर्मों को छोड़े या उनका संन्यास किए ज्ञाननिष्ठा गैरमुमकिन है। उसी जगह इस श्लोक का भी उल्लेख हमने किया है। यह भी बताई चुके हैं कि अठारहवें अध्यानय के शुरू में जिस संन्यास और त्याग की असलियत और हकीकत जानने के लिए अर्जुन ने सवाल किया है वह संन्यास इसी श्लोक में स्पष्ट रूप से बताया गया है। इससे पहले 49वें श्लोक में सिर्फ उसका उल्लेख आया है। उससे पहले तो त्याग की ही बात को ले के बहुत कुछ कहा गया है। इसी श्लोक में जो 'परित्यज्य' शब्द आया है और जिसका अर्थ है 'परित्याग करके या छोड़के,' उससे ही साफ हो जाता है कि अद्वितीय या जीव से अभिन्न ब्रह्म की शरण जाने और उसका ज्ञान प्राप्त करने के पहले धर्मों को कतई छोड़ देना पड़ेगा। क्योंकि 'समान कर्त्तृकयो: पूर्वकाले क्त्त्वा' (3। 4। 21) इस पाणिनीय सूत्र के अनुसार पहले किए गए के मानी में ही 'क्त्त्वा' और 'ल्यप्' प्रत्यय हुआ करते हैं। परित्याग में त्याग के अलावे जो 'परि' शब्द है वह यही बताने के लिए है कि धर्म-अधर्म के झमेले से अपना पिंड कतई छुड़ा लेना होगा। विपरीत इसके अगर धर्म का अर्थ धर्मों का फल लेते हैं तो उसका त्याग तो भगवान की शरण में जाने पर भी होता ही रहेगा। क्योंकि ऐसा अर्थ करने वाले तो श्रवण, कीर्त्तन आदि नौ प्रकार की भक्ति को ही असल चीज मानते हैं। उनके मत से शरण जाने का अर्थ ही है यही नवधा - नौ प्रकार की - भक्ति करना। अन्य धर्मों को भी करते रहना वे मानते ही हैं। ऐसी दशा में उनके फलों का त्याग तो बाद में भी होता ही रहेगा। फिर यह कहने के क्या मानी कि सभी धर्मों से अपना पिंड पहले ही छुड़ा लो, अगर धर्मों का अर्थ है उनका फलमात्र?
अब जरा दूसरों का अर्थ भी देखें। माधव संप्रदाय के आचार्य अपने इसी श्लोक के भाष्य में लिखते हैं कि 'यहाँ धर्मों के त्याग का अर्थ है उनके फलों का ही त्याग, न कि खुद धर्मों का ही। क्योंकि तब युद्ध करने की जो आज्ञा दी गई है वह कैसे ठीक होगी। इसके अलावे खुद गीता के अठारहवें अध्या्य के 11वें श्लोक में तो कही दिया है कि जो कर्मों के फलों का त्याग करता है उसे ही त्यागी कहते हैं - 'धर्मत्याग: फलत्याग:। कथमन्यथा युद्धविधि:?' 'यस्तुकर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयत' इति चोक्तम्।'
रामानुज-संप्रदाय के आचार्य स्वयं रामानुज के भाष्य में भी कुछ इसी तरह की बात लिखी गई है। वह कहते हैं कि 'मुक्ति के साधन के रूप में जितने भी काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तियोग के नाम से प्रसिद्ध हैं वे सभी भगवान की आराधना ही है। इसलिए प्रेम के साथ जिसे जो धर्म करने को शास्त्रों ने कहा है उसे करते हुए ही पूर्व बताए तरीके से उनके फलों एवं कर्त्तृत्व के अभिमान को छोड़ के केवल हमीं को सबका कर्त्ता तथा आराध्यदेव मानो' - "कर्मयोग ज्ञानयोग भक्तियोग - रूपान्सर्वान्धर्मान् परमनि: श्रेयससाधनभूतान मदाराधनत्वेनातिमात्रप्रीत्या यथाधिकारं कुर्वाण एवोक्तरीत्या फलकर्मकर्त्तृत्वादिपरित्यागेन परित्यज्य मामेकमेव कर्त्तारमाराध्यं प्राप्यमुपायं चानुसन्धत्स्व।" 'एष एव सर्वधर्माणां शास्त्रीेय परित्याग' - "यही-फलादि का त्याग ही - सब धर्मों का शास्त्र रीति के अनुसार त्याग माना जाता है, न कि स्वयं धर्मों का त्याग ही।'
ये दो तो पुराने आचार्यों के अर्थ हुए। अब जरा हाल-साल के लोकमान्य तिलक के हाथों लिखे गए गीता रहस्य में माने गए अर्थ को भी देखें। वह पहले यह लिखते हैं कि 'यहाँ भगवान श्रीकृष्ण अपने व्यक्त स्वरूप के विषय में ही कह रहे हैं। इस कारण हमारा यह दृढ़ मत है कि यह उपसंहार भक्ति प्रधान ही है।' फिर कहते हैं कि 'परंतु इस स्थान पर गीता के प्रतिपाद्य धर्म के अनुरोध से भगवान का यह निश्चयात्मक उपदेश है कि उक्त नाना धर्मों के गड़बड़ में न पड़कर मुझे अकेले को भज, मैं तेरा उद्धार कर दूँगा, डर मत।' मगर आखिर में कहते हैं कि 'मेरी दृढ़ भक्ति करके मत्परायण बुद्धि से स्वधर्मानुसार प्राप्त होने वाले कर्म करते जाने पर इहलोक और परलोक दोनों जगह तुम्हारा कल्याण होगा; डरो मत।' इसे पढ़ने से तो एक अजीब झमेला खड़ा हो जाता है। एक ओर सब धर्म करते रहने की बात और दूसरी ओर उन्हें छोड़ने की बात! लेकिन तिलक ने कुछ खास धर्मों को यहाँ गिना के कहा है कि इन अहिंसा, दान, गुरुसेवा, सत्य, मातृपितृसेवा, यज्ञयाग और संन्याय आदि धर्मों को, जो परमेश्वर की प्राप्ति के साधन माने जाते हैं, छोड़ के साकार भगवान की ही भक्ति करो। इस श्लोक के धर्म से उनका मतलब उन्हीं चंद गिनेगिनाए धर्मों से ही है। उनने धर्म शब्द का अर्थ धर्मों का फल करना मुनासिब न समझ यह नवीन मार्ग स्वीकार किया है। कुछ नवीनता भी तो आखिर चाहिए ही।
हमने सांप्रदायिक अर्थों की बानगी दिखा दी। यह ठीक है कि तिलक ने अपने अर्थ को सांप्रदायिक नहीं माना है। बल्कि उनने शंकर, रामानुज आदि के ही अर्थों को सांप्रदायिक कह के निंदा की है। मगर सांप्रदायिकता के कोई सींग-पूँछ तो होती नहीं। जो बात पहले से चली आती हो उसी का समर्थन करना यही तो सांप्रदायिकता है। तिलक ने यही किया है भी। भक्तिमार्ग तो पुराना है। व्यक्त या साकार भगवान की उपासना करना ही भक्तिमार्ग माना जाता है। तिलक ने न सिर्फ इसी श्लोक में, बल्कि गीतारहस्य में सैकड़ों जगह इसी भक्तिमार्ग पर जोर दिया है। वह तो गीता का विषय ही मानते हैं 'तत्वज्ञानमूलक भक्ति प्रधानकर्मयोग।' उनने भक्तिमार्गियों के ज्ञानकर्म-समुच्चय के समर्थन में भी बहुत ज्यादा जोर दिया है। यदि और नहीं तो गीतारहस्य के 'भक्तिमार्ग' तथा 'संन्यास और कर्मयोग' इन दो प्रकरणों को ही पढ़ के और खासकर रहस्य के 358-365 पृष्ठों को ही देख के कोई भी कह सकता है कि उसमें घोर सांप्रदायिकता है। भक्तिमार्ग की आधुनिक वकालत तो ऐसी और कहीं मिलती ही नहीं। श्लोकों के अर्थ करने में प्राचीन लोगों की अपेक्षा कुछ नई बात कह देने से ही सांप्रदायिकता से पिंड छूट नहीं सकता। हरेक संप्रदाय के टीकाकारों में पाया जाता है कि वे लोग शब्दार्थ में कुछ न कुछ फर्क रखते ही हैं। वे प्रतिपादन की नई शैली भी निकालते हैं। आखिर पुराने अर्थों एवं तरीकों में जो दोष विरोधी लोग निकालते हैं उनका समाधन भी तो करना जरूरी होता है।
हाँ, तो इन अर्थों पर विचार कर देखें कि ये कहाँ तक युक्तिसंगत और सही हैं। सबसे पहले तिलक की बात लें उनके अर्थ में दो बातें हैं। एक तो वे कृष्ण के साकार या व्यक्त स्वरूप की ही उपासना, पूजा या भक्ति का निरूपण इस श्लोक में मानते हैं। दूसरे धर्म का अर्थ कुछ खास धर्ममात्र करके संतोष कर लेते हैं। अब जहाँ तक व्यक्त कृष्ण की उपासना की बात है वह तो कुछ जँचती नहीं। चाहे और बातें कुछ हों या न हों, लेकिन क्या कृष्ण जैसे महान पुरुष के लिए कभी भी उचित था कि अपने व्यक्त स्वरूप की पूजा और उपासना की बात कहें? यह कितनी छोटी बात है! यह उनके दिमाग में आ भी कैसे सकती थी? वे ठहरे महान विभूति। फिर इतनी-सी मामूली बात को भी क्या वे समझ न सके कि खुद अपनी पूजा-प्रशंसा की बातें कितनी बुरी और निंदनीय होती हैं? वे इतने नीचे उतरने की बात सोच भी कैसे सकते थे? उनकी ऐसी हिम्मत हो भी कैसे सकती थी? यदि यह मान लें कि उनने अपने साकार स्वरूप की उपासना की बात नहीं कह के भगवान के ही वैसे रूप की भक्ति का उपदेश किया, तो फिर यह लिखने का क्या अर्थ है कि 'यहाँ भगवान श्रीकृष्ण अपने व्यक्त स्वरूप के विषय में ही कह रहे हैं?' इस वाक्य में 'श्रीकृष्ण अपने' इन शब्दों की क्या जरूरत थी? इनसे तो कृष्ण की अपनी ही प्रशंसा का प्रतिपादन सिद्ध होता है।
अच्छा, यदि यही मान लें कि भगवान के ही व्यक्त रूप की उपासना है और कृष्ण अपने को भगवान समझ के ही ऐसा उपदेश करते है; इसीलिए उन्हें अपनी व्यक्तिगत बड़ाई से कोई भी मतलब नहीं है; तो दूसरी ही दिक्कत आ खड़ी हो जाती है। यदि गीतारहस्य में लिखे इस श्लोक का शब्दार्थ पढ़ें तो वहाँ लिखा है कि 'सब धर्मों को छोड़कर तू केवल मेरी ही शरण में आ जा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त करूँगा, डर मत।' यहाँ जो 'आ जा' लिखा गया है वह श्लोक के 'व्रज' का ही अर्थ है। मगर 'व्रज' का तो अर्थ होता है 'जा'। व्रज धातु तो जाने के ही अर्थ में है, न कि आने के अर्थ में। इसलिए जब तक श्लोक में 'आवाज' नहीं हो तब तक 'आ जा' अर्थ होगा कैसे? यह तो उलटी बात होगी। हमने पहले भी यह लिखा है और बताया है कि उस दशा में इस श्लोक का क्या रूप बन जाएगा। जब तक 'आ जा' या 'आओ' अर्थ नहीं करते तब तक अर्जुन के सामने खड़े कृष्ण के व्यक्त स्वरूप की शरण जाने की बात इस श्लोक से सिद्ध हो सकती ही नहीं। क्योंकि जब कृष्ण खुद सामने खड़े हैं तो अर्जुन से अपने बारे में 'मेरी शरण आ जा' यही कह सकते हैं। अगर 'मेरी शरण जा' कहें तब तो प्रत्यक्ष साकार रूप को छोड़ के अपने किसी और या निराकार रूप से ही उनका मतलब होगा। जो चीज सामने नहीं हो, किंतु परोक्ष में या दूर हो, उसी के संबंध में यह कहा जा सकता है कि उसकी शरण में जाओ। परंतु ऐसी चीज - कृष्ण का ऐसा परोक्ष स्वरूप - तो केवल वही निर्गुण निराकार ब्रह्म ही हो सकता है और यही अर्थ शंकर ने किया भी है। तो फिर इसीलिए शंकर पर तिलक के बहुत ज्यादा बिगड़ने और उन्हें खरी-खोटी सुनाने का मौका ही कहाँ रह जाता है?
दूसरी दिक्कत भी सुनिए। धर्म शब्द का इतना संकुचित अर्थ करने के लिए कारण क्या है? यदि इस प्रकार अर्थ किया जाने लगे तो क्या यह भद्दी खींचतान न होगी? जिस खींचतान का आरोप तिलक ने खुद शंकर पर बार-बार लगाया है उसके शिकार तो वे इस प्रकार स्वयं हो जाते हैं। इतना ही नहीं। स्वयं गीतारहस्य के 440 और 848 पृष्ठों में महाभारत के अश्वमेध पर्व के 49 और शांतिपर्व के 354 अध्यायों का हवाला दे के जिन खास-खास धर्मों को गिनाया है और जिनमें 'क्षत्रियों का रणांगण में मरण', 'ब्राह्मणों का स्वाध्या य', मातृपितृसेवा, राजधर्म, गृहस्थ धर्म आदि सभी का समावेश है, उन्हीं के त्यागने की बात इस श्लोक में कही गई है ऐसी मान्यता तिलक की है। तो क्या इससे यह समझा जाए कि अर्जुन को युद्ध करने से भी उनने रोका है? गृहस्थ धर्म से भी उन्हें हटाया है? माता-पिता की सेवा और क्षत्रिय के धर्म - राजधर्म - से भी उसे उनने रोका है और इन सभी को झंझट कहा है? यह तो अजीब बात होगी। युद्ध करने का आदेश बार-बार देते हैं, यहाँ तक कि उस श्लोक के पहले तक उसी पर जोर दिया है; और 'चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं' (4। 13) तथा 'ब्राह्मणक्षत्रियविशां' (18। 41-44) में न सिर्फ वर्णों के धर्मों पर ही जोर दिया है, बल्कि उन्हें स्वाभाविक, 'स्वभावज' (Natural) कहा है। तो क्या अंत में सब किए-कराए पर लीपा-पोती करते हैं? और अगर स्वाभाविक धर्मों के छोड़ने की बात का कहना माना जाए तो सिंह को अहिंसक होने की भी शिक्षा व्यावहारिक मानी जानी चाहिए। शंकर के अर्थ में तो यह दिक्कत नहीं है। क्योंकि वह तो ज्ञानोत्पत्ति के ही लिए धर्मों का त्याग कुछ समय के लिए जरूरी मानते है। वे ज्ञान के बाद का त्याग सबके लिए जरूरी नहीं मानते। मगर जो लोग ऐसा नहीं मान के धर्म करने की बात के साथ ही इन धर्मों के इमेले से छुटकारे की बात बोलते हैं उनके लिए ही तो आफत है। और अगर अर्जुन इस प्रकार के धर्मों को छोड़ ही दे तो फिर वह करेगा कौन से 'स्वधर्मानुसार प्राप्त होने वाले कर्म?'
और भी तो देखिए। यदि कुछ इने-गिने धर्मों का ही त्याग करना इस श्लोक में बताया माना जाए, तो फिर धर्म शब्द के पहले सर्व शब्द की क्या जरूरत थी? 'धर्मान' यह बहुवचन शब्द ही तो काफी है। उन धर्मों को इसी से समझ ले सकते हैं। ऐसी हालत में सर्व कहने का तो यही मतलब हो सकता है कि कहीं ऐसा न हो कि बहुवचन धर्म शब्द से कुछी धर्मों को ले के बस कर दें। इसीलिए सर्वधर्मान कह दिया। ताकि गिन-गिन के सभी धर्मों को ले लिया जाए। पूर्व मीमांसा के कपिंजलाधिकरण नामक प्रकरण में 'कपिंजलानालभेत' - "कपिंजल पक्षियों को मारे", इस वचन में बहुवचन के खयाल से तीन ही पक्षियों की बात मानी गई है। जब तीन पक्षी भी बहुत हईं और उतने ही लेने से 'कपिंजलान्', बहुवचन सार्थक हो जाता है, तो नाहक ज्यादा पक्षियों का संहार क्यों किया जाए? यही बात वहाँ मानी गई है। वही यहाँ भी लागू हो सकती थी। इसीलिए 'सर्व' विशेषण सार्थक हो सकता है। मगर तिलक के अर्थ में तो यह एकदम बेकार है। उनने खुद गीतारहस्य में शब्दों के अर्थ में जगह-जगह बाल की खाल खींची है और दूसरों को नसीहत की है। मगर यहाँ? यहाँ तो वही 'खुदरा फजीहत, दीगरे रा नसीहत' हो गई। यहाँ 'अन्यहिं राह दिखावहीं आप अँधरे जाहिं' वाली बात हो गई!
सबसे बड़ी बात यह है कि गीता के उपदेश का यही आखिरी श्लोक है। इसके बाद जो बातें कही गई हैं वे तो शिष्टाचार वगैरह की हैं कि गीता की ये बातें किन्हें सुनाई जाए, किन्हें नहीं आदि-आदि। मगर इस श्लोक में जो पेचीदगी आ जाती है। उससे बात की सच्चाई के बदले घपला और भी बढ़ जाता है। यहाँ धर्म कहने से सभी धर्मों को लें या कुछेक को ही। यदि कुछेक को ही लेने की बात कहें तभी गड़बड़ होती है। सभी के लेने में तो रास्ता एकदम साफ है - कहीं रोक-टोक नहीं। कुछेक लेने में किन्हें लें, किन्हें नहीं, यह सवाल खामख्वाह खड़ा हो जाता है। यदि यह भी लिखा होता कि शांति पर्व या अश्वमेध पर्व के उन दो अध्यायों में लिखे धर्मों को ही ले सकते है, दूसरों को नहीं, तो भी काम चल जाता और घपला न होता। मगर ऐसा तो लिखा है नहीं। यहाँ तो धर्म शब्द से ही अटकल लगाना है कि किनको लें किनको न लें। ऐसी हालत में यदि कुछ ऐसे धर्म छूट गए जिन्हें लेना जरूरी है, या कुछ ऐसे लिए गए जिनका लेना ठीक नहीं, तो क्या होगा? तब तो सारा मामला ही गड़बड़ी में पड़ जाएगा। ऐसा नहीं होगा यह कैसे कहा जाए? आखिर अटकलपच्चू बात ही तो ठहरी। फलत: अर्जुन का दिमाग साफ होने के बजाए और भी आगा-पीछा में पड़ जाएगा - अगर ज्यादा नहीं तो कम से कम उतना आगा-पीछा में तो जरूर, जितना गीतोपदेश के शुरू में था। ऐसी हालत में इसके बाद ही अर्जुन का यह कहना कैसे ठीक हो सकता है कि 'आपकी कृपा से मेरा मोह दूर हो गया, मुझे सारी बातें याद हो आईं और अब मुझे जरा भी शक किसी भी बात में नहीं है; इसलिए आपकी बात मान लूँगा' - "नष्टोमोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मिगतसंदेह: करिष्ये वचनं तवं" (18। 73)? यह तो उलटी बात हो जाती है। अंत में कृष्ण की आज्ञा क्या हुई इसका पता भी लगता नहीं। फिर उनकी किस बात को मानने का वादा अर्जुन ने किया? और जब रणांगण में मरनेवाला धर्म आखिर में छोड़ देने को ही कहा गया था तो अर्जुन कृष्ण की बात मान के लड़ने क्यों लगा?
गीतारहस्य में लिखे अर्थ के बारे में जो कुछ कहा गया है उससे शेष दो अर्थों की भी बहुत कुछ बातों पर प्रकाश पड़ जाता है। असल में रामानुज भाष्य में आगे एक दूसरा भी अर्थ किया गया है जो तिलक के अर्थ से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। वहाँ धर्म का अर्थ कृच्छ्र, चांद्रायण, वैश्वानर आदि अनेक यज्ञ-याग और व्रत विशेष ही किया गया है। इसीलिए जो बातें इस तरह के अर्थ में गीतारहस्य पर लागू है, वही उस अर्थ पर भी। यह ठीक है कि तिलक ने एक ही धर्म शब्द के दो अर्थ कर डाले हैं। क्योंकि एक ओर तो वह कुछ गिने-चुने धर्मों को ही धर्म-शब्दार्थ मान के उनका त्याग चाहते हैं। लेकिन दूसरी ओर उसी शब्द का यह भी अर्थ करते हैं कि 'स्वधर्मानुसार प्राप्त होने वाले कर्म करते जाने पर।" इसीलिए उनके यहाँ ज्यादा गड़बड़ है। मगर धर्म शब्द का जो कुछ इने-गिने धर्मों से ही अभिप्राय माना गया है और उसके संबंध में जो आपत्ति हमने अभी-अभी बताई है वह तो दोनों पर ही लागू है।
एक बात और भी दोनों ही में समान रूप से पाई जाती है। यदि इस श्लोक के माधव एवं रामानुज भाष्यों को उनके उन भाष्यों के साथ पढ़ें जो गीता के अन्यान्य श्लोकों के ऊपर और खासकर ग्यारहवें तथा बारहवें अध्याकय के ऊपर लिखे गए हैं, तो पता लग जाता है, कि वे लोग सगुण ब्रह्म या साकार कृष्ण भगवान की उपासना को ही इस श्लोक का विषय मानते हैं। ऐसी दशा में जो भी आपत्ति तिलकवाले अर्थ में 'व्रज' को ले के या और तरह से उठाई गई हैं वह तो इनमें भी अक्षरश: लागू है। यह कहना कि गीता का पर्यवसान साकार भगवान की शरणागति में ही है, दूसरा मानी नहीं रखता और इसमें घोर से घोर आपत्ति बताई जा चुकी है। हम तो पहले ही 'अहम्', 'माम्' आदि शब्दों के अर्थों को समझाते हुए बता चुके हैं कि उन शब्दों से साकार या व्यक्त कृष्ण को समझना असंभव है - ऐसी कोशिश करना भारी से भारी भूल है। जो कुछ हमें इस संबंध में कहना था वही कह चुके हैं। उसे इन भाष्यों के भी संबंध में पूरा-पूरा लागू किया जा सकता है।
रह गई इन दोनों भाष्यकारों की यह दलील कि धर्म का अर्थ उसका फल और कर्त्तृत्ववादि है, न कि धर्म का स्वरूप; क्योंकि गीता के इसी अठारहवें अध्यारय के शुरू में ही त्याग का यही अर्थ माना गया है। हमने पहले योग या कर्म तथा फल में अनासक्ति एवं बेलगाव की बात पर विचार करते हुए गीता के श्लोकों के बीसियों दृष्टांत दिए हैं। उनके देखने से साफ हो जाता है कि गीता ने बार-बार कर्म और उसके फल का साथ-साथ वर्णन करके दोनों ही की आसक्ति को मना किया है। यही नहीं। 'सुखदु:खे समेकृत्वा' (2। 38) जैसे अनेक श्लोकों में कर्म का जिक्र न भी करके उसके फलों को ही साफ-साफ लिखा और उनमें आसक्ति को सख्ती से रोका है। जैसा कि पहले विस्तार के साथ समदर्शन की बात कही जा चुकी है, यह समदर्शन कर्मों के संबंध में न हो के अनेक स्थानों पर कर्म के फलों से ही ताल्लुक रखता है। 'यदृच्छालाभसंतुष्ट:' (4। 22), 'न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य' आदि (5। 20-22), 'सुहृन्मित्रार्युदासीन' (6। 9), 'अद्वेष्टा सर्वभूतानां' आदि (12। 13। 19) तथा 'उदासीनवदासीन:' आदि (14। 23-25) श्लोकों को यदि गौर से देखा जाए तो कर्मों का जिक्र न भी करके फलों से ही अलग रहने की बात पर जोर देते हैं। दूसरे अध्यादय के स्थितप्रज्ञ, बारहवें के भक्त और चौदहवें के गुणातीत - ये तीनों ही - हैं क्या यदि कर्मों के फलों से कतई निर्लेप रहने वाले लोग नहीं हैं?
इस प्रकार गीता ने असल चीज फल को ही माना है और उसी से बचने, उसी के त्याग और उसी की अनासक्ति पर खास तौर से जोर दिया है। यही कारण है कि कर्मों के साथ तो फलों को अलग लिखा ही है; मगर स्वतंत्र रूप से भी जगह-जगह लिखा है। दूसरे अध्याअय में जब गीता की अपनी चीज - योग - का स्वरूप उसे 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (2। 47-48) में बताया है, तो फल को अलग कहने की जरूरत पड़ी है। उसके बिना काम चली नहीं सकता था। यदि उसे अलग नहीं कहते तो योग ही चौपट हो जाता। उसकी असली शक्ल बन सकती न थी। गीता तो कर्म को न देख उसकी आसक्ति को ही देखती और उसी को रोकती है। उसी के साथ उसके फल की इच्छा और आसक्ति को भी हटाती है। यह बात हम बहुत अच्छी तरह सिद्ध कर चुके हैं। यह भी बखूबी बता चुके हैं कि अठारहवें अध्याखय के 'निश्चयं शृणु मे तत्र' (18। 4) से लेकर 'स त्यागीत्यभिधीयते' (18। 11) तक के श्लोकों में साफ ही उसी कर्मासक्ति तथा फलासक्ति का त्याग कहा गया है। फिर भी हमें आश्चर्य होता है कि उन भाष्यों के रचयिता महापुरुष इन्हीं 4 से 11 तक के श्लोकों के आधार पर 'सर्वधर्मान' में धर्म का अर्थ उसका फल और धर्म के करने का अभिमान यह अर्थ कर डालते हैं! दोनों की आसक्ति अर्थ करते तो एक बात थी।
यदि उन श्लोकों या गीता के योग - कर्मयोग - की बात यहाँ होती और उसी का उपसंहार इस श्लोक में माना जाता तो क्या कभी यह बात संभव थी कि कर्म और फल या धर्म और फल को साफ-साफ न कहते और दोनों की आसक्ति का अत्यंत साफ शब्दों में निषेध न करते? गीता की तो यही रीति है और इसे उसने कहीं एक जगह भी नहीं छोड़ा है। यह बात हम दावे के साथ कह सकते हैं। बीसियों जगह यह बात गीता भर में आई है। मगर सभी जगह नियमित रूप से कर्मासक्ति और फलासक्ति का त्याग साथ कहा है। फिर उपसंहार में भी वही बात क्यों न की जाती? ऐसा न करने से तो अर्जुन के लिए साफ ही शंका की गुंजाइश रह जाती कि कहीं दूसरा ही तो मतलब नहीं है? उपसंहार में साफ न बोलने से जरूर शंका होती और उसके बाद अर्जुन हर्गिज यह नहीं कहता कि 'स्थितोऽस्मि गतसंदेह:।' इसीलिए दोनों भाष्यकारों का अर्थ गीता को मान्य नहीं यह बात निर्विवाद हो गई। यह भी तो उन्हें सोचना चाहिए था कि यदि इस श्लोक में भी संन्यास के तत्व का निरूपण नहीं है और इसके पहले तो और किसी श्लोक में हुआ ही नहीं, जैसा कि अच्छी तरह दिखाया जा चुका है, तो आखिर वह है कहाँ? और अगर कहीं नहीं है तो अर्जुन की शंका तो रही जाती है। फिर 'नष्टोमोह:' कैसा?
शंकर के अर्थ में तो ऐसी एक आपत्ति भी नहीं हो सकती। वह तो गीता के कर्मयोग या योग का निरूपण इसमें मानते ही नहीं। फिर धर्म और फल को अलग- अलग लिख के उसकी आसक्ति के त्याग की बात का उनके मत से यहाँ अवसर ही कहाँ रह जाता है? वह तो तत्वज्ञान के पहले शास्त्री य विधि विधान के अनुसार कर्तव्य धर्मों का संन्यास ही इस श्लोक में ज्ञान के साधन के रूप में मानते हैं और वह काम 'सर्वधर्मान' से ही चल जाता है। मुख्यतया पुराने संस्कार के वश किसी एकाध धर्म में लोग चिपके न रह जाए इसीलिए सर्वधर्मान कह दिया है। सभी से पिंड छुड़ाना जरूरी है। एक भी रहेगा तो बाधक होगा जरूर। इस संबंध में अब और लिखना यहाँ ठीक नहीं है। इसका स्वतंत्र विचार श्लोकार्थ के प्रसंग से किया जाएगा।