सर गणेश से मनमुटाव / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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पहले कहा जा चुकाहैकि सर गणेशदत्त सिंह सेसन 1926 की गर्मियों में मेरा कुछ हेलमेल हो गया था कई वर्षों के मनमुटाव के बाद। इसीलिए'लोक संग्रह'से छुटकारा पाते हीसन 1928 की गर्मियों में मैं राँची गया उनके ही आग्रह से, और कुछ दिन वहाँ ठहरा। गर्मियों के दिन बीत रहे थे और बरसात आने ही वाली थी। मैंने अगस्तवाला कौंसिल का अधिवेशन भी वहीं देखा। फिर वापस आया।

राँची में रह के मैं बराबर सुबह-शाम आस-पास के गाँवों में दूर-दूर तक घूमने जाया करता था। मैं हर मुंडा या उरांव को जो वहाँ के निवासी है,देखकर उनके सिर पर नजर दौड़ाता यह देखने के लिए कि चोटी (शिखा) है या नहीं। वहाँ ईसाई काफी है। उस समय भी थे। इसीलिए देखता था। चोटी देखकर मैं एकाएक अनायास रो पड़ता और सोचता था कि हिंदुओं की शिखा उनके पूर्वजों के सिर पर न जानें कब आई थी। ईधर तो हजारों वर्षों तक हिंदुओं के धर्म के ठेकेदारों ने इनकी खबर भी न ली! फिर भी चुटिया कैसे पड़ी हैं! आश्चर्य है! धर्म तो सिखाया सही, मगर पशुवत जीवन बना रहने दिया! मुद्दतों तक पूछा भी नहीं कि मरते हो या जीवित हो। फिर भी अंधविश्वास के करते यह शिखा पड़ी है। मगर सभ्यता का एक धक्का लगते ही उड़ जाएगी यह ख्याल होता था।

मैं स्त्री, पुरुष, सबों को हट्टा कट्टा देखकर मुग्ध हो जाता था और सोचता कि यदि इन्हें सुंदर भोजन मिलता तो कैसे अच्छे जवान और मजबूत होते। स्त्रियाँ भी कितनी तगड़ी होतीं। चाहे धर्म-प्रचार के ही ख्याल से सही, मगर घोर जंगलों में सैकड़ों वर्ष पूर्व, जब न रेल थी और न तार, ईसाई यहाँ आए। उन्होंने डेरा जमाया! यह गैरमामूली हिम्मत और बहादुरी थी, अध्यवसाय प्रियता थी। इसीलिए उनकी इस मर्दानगी, धुन और कर्तव्यपरायणता के सामने मैंने सिर झुकाया। लोगों का केवल दोषोद्धाटन और छिद्रान्वेषण कदापि उचित नहीं कि मिशनरी लोग सीधे लोगों को तरह-तरह से फुसलाकर ईसाई बनाते हैं। उन्हीं की तरह त्याग और हिम्मत चाहिए लगन चाहिए और धुन का पक्का होना चाहिए। तभी काम चलेगा। केवल ऐसे ही धुनी को हक है कि ईसाइयों का दोष दिखाए!

मुझे वहाँ पहले-पहल मालूम हुआ कि छोटा नागपुर के आदिवासी (मुंडा, उराँव) आदि में तीन गुण थे, जो अब धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं। जैसे-जैसे सभ्यता की हवा पहुँचती जाती है! एक समझदार आदमी ने मुझसे एक बार वहीं कहा था कि हिंदुओं ने तो इन लोगों को पशु बना रखा था। मगर मिशनरियों ने उन्हें, या कम-से-कम उन लोगों को, जो ईसाई बने, आदमी तो बनाया। बात तो ठीक ही है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनका पशु जीवन मिटाकर सभ्य बनाया। उनके पढ़ने-लिखने का प्रबंध् किया। मगर खेद इतना ही है कि इसी के साथ उनमें पहले से चले आनेवाले तीन अपूर्व गुणों को भी खत्म कर दिया! लेकिन इसमें उनका क्या दोष?सभ्यता तो इसे ही कहते हैं और अगर ईसाई वहाँ न भी जाते तो भी ये तीन गुण मिट ही जाते, जैसा कि अन्यत्रा हुआ है। सभ्यता पिशाची उन्हें मिटा ही छोड़ती!

वे तीन गुण है झूठ कभी न बोलना, व्यभिचार से दूर रहना और मर्दानगी। कहते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए लेकिन वे लोग बात कभी छुपाते न थे। असत्य कभी बोलना जानते न थे। इसीलिए चोरी कर न सकते थे। वह तो छिपाने की चीज है। मर्दानगी की तो यह बात बताई जाती है कि यदि चाहे पड़ोसी से या किसी गैर से मारपीट हो गई और कोई मर गया तो मारनेवाला डर के छिपने के बजाए, पुलिस या अधिकारियों से जा के साफ कह देता कि हमने मारा है। किसी के धमकाने-डराने से वे डरते न थे। इसी प्रकार व्यभिचार के वे सख्त दुश्मन थे। व्यभिचारी की जान तक ले लेते थे।

इस संबंध में दो कहानियाँ प्राय: उसी समय मुझे बताई गईं। जब सरकारी मकान बन गए और मिनिस्टर तथा गवर्नर गर्मियों में वहाँ रहने लगे तो आम सड़क के पास खड़े किसी मिनिस्टर के अर्दली ने सड़क से जानेवाली एक स्त्री से दिल्लगी की। इतने ही पर पीछे से आनेवाले एक आदिवासी ने अर्दली पर धावा बोलकर उसे पछाड़ ही तो दिया। अनंतर मजबूर करके जमीन पर नाक रगड़वाई तथा प्रतिज्ञा करवाई कि फिर कभी ऐसा न करेंगे! तब कहीं उसकी जान बख्शी! दूसरी घटना गवर्नर की कोठी की बताई जाती है। उसमें झाड़ू देनेवाली एक स्त्री पर किसी चपरासी ने आक्रमण करना चाहा तो बगल में रखे लंबे चाकू को निकालकर वह दुर्गा जैसी उस पर कूद पड़ी। अगर वह नौ-दो ग्यारह न हो जाता तो खैरियत न थी! मगर अब ये गुण चले गए, चले जा रहे हैं। सभ्यता के लिए हमें यह बड़ी गहरी कीमत चुकानी पड़ी है!

हाँ, तो सर गणेश की बात सुनिए। बेशक सरकार परस्ती उन्होंने खूब ही की। नहीं, तो उनका त्याग बिहार में तो सानी नहीं रखता। साथ ही, उन जैसा अतिथि-सत्कार करनेवाला और प्रतिज्ञा को पूरा करनेवाला मनुष्य मैंने नहीं देखा। जो दान देना बोलेंगे उसे फौरन पूरा करेंगे। समझ भी सुंदर। चालाक भी काफी।

एक दिन उन्होंने गया के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की बात मुझसे राँची में ही छेड़ी। बोले कि श्री अनुग्रह नारायण सिंह,चेयरमैन के करते बहुत गड़बड़ी हुई है। फलत: उस बोर्ड के तोड़ने (Superession) की बात चल रहीहै। मैंने पूछा कि आखिर इलजाम क्याहै?उनसे उन पर कोई कैफियत (reply) भी माँगी गई हैया नहीं?उन्होंने कहा कि अभी तक नहीं। लेकिन सारे इलजाम कौंसिल मेंबरों के पास भेजेजाएगे। मैंने पूछा कि यह तो बहुत ही अच्छी बात होगी। मगर सबसे बड़ी बात यह होगी कि उनसे उन आरोपों (Charges) के बारे में सफाई जरूर तलब कीजाए। बिना सफाई का मौका दिए बोर्ड के खिलाफ कोई भी काम करना निहायत नामुनासिब होगा। उन्होंने स्वीकार किया और कहा कि आरोप और उनकी सफाई दोनों ही कौंसिल के मेंबरों के पास भेजने के बाद ही कोई काम बोर्ड के बारे में कियाजाएगा।

बस इतनी बात के बाद मैं तो राँची से आ गया और श्री अनिरुद्ध शर्मा के पास उनके गाँव पर नए बगीचे में बने नए मकान में जा के रहने लगा। शर्मा जी ने मेरे ही लिए गाँव से बाहर एक सुंदर बँगला और उसके भीतर एक तहखाना (गुफा) बना दिया था। वहाँ मैं गर्मियों में बहुत बार रहा हूँ। उसमें हवा तो जाती ही थी। तरी भी बनी रहती, जब कि बाहर लू चला करती थी। बक्सर से सोलह मील दक्षिण वह जगह है। वहाँ इक्के भी आसानी से नहीं जा सकते। वैसी सड़क नहीं है। वर्ष में तो वह स्थान और भी दुष्प्रवेश है। उसका नाम सुलतानपुर है। वहाँ का डाकखाना धनसोई है। वह बाजार भी है। शर्मा जी ने तब से न सिर्फ मेरी अपार सेवा की है, वरन कांग्रेस और खासकर किसान-सभा के मामले में मेरा पूरा साथ दिया है। वे सुखी और चलता-पुर्जा आदमी भी है,खासकर उस इलाके में।

इस समय कह नहीं सकता, कि सन 1928 का दिसंबर था, या कि 1929 ई. की जनवरी। तारीख याद नहीं। भरसक 1929के जाड़े का ही समय था, जब पटना में कौंसिल की बैठक हो रही थी। कौंसिल जनवरी से मार्च तक प्राय: हुआ करती थी। मैं गंगा के उत्तर किसी सभा में जा रहा था और पटना उतरा। उसी समय पता लगा कि गया के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड को सरकार ने हथिया लिया और चेयरमैन वगैरह हटाए गए। मैं घबराया कि यह क्या बात! न तो उनसे सफाई तलब होने की बात कहीं पढ़ी और न कौंसिल के मेंबरों के पास सारी बातें भेजने की ही। फिर अचानक यह क्या हो गया?मैं फौरन सर गणेश के बँगले पर गया। वहाँ नीचे ही बैठा। खबर भिजवाई कि मैं आया हूँ। थोड़ी देर में वे ऊपर से उतर कर आए। कहीं बाहर जाने की तैयारी में थे। मुझसे खड़े-खड़े बातें हुईं। मैंने तो देर तक काफी बातें करने की सोची थी। मगर वे शायद जल्दी में थे। इसीलिए खड़े-खड़े बातें हुईं।

मैंने पूछा, “यह गया के बोर्ड का क्या माजरा है?” उत्तर मिला,”तोड़ दिया गया।” मैंने कहा कि “सो तो ठीक है। मगर क्या आपने उन्हें सफाई का मौका दिया था!” उनने कहा, “नहीं।” 'क्यों?” मैंने पूछा। उत्तर दिया कि “ऐसी बात हो गई कि गवर्नर राँची से गया आने को थे। वहाँ कोई अभिनंदन-पत्र उन्हें मिलनेवाला था। उसके उत्तर में बोर्ड के बारे में सरकार का क्या फैसला है उन्हें यह भी सुनाना जरूरी था। इसीलिए उन्होंने मुझसे फौरन कोई निर्णय करने को कहा। जब मैं स्वयं इतनी जल्दी कुछ न कर सका तो कार्यकारिणी की मीटिंग में उन्होंने यह मामला पेश कर दिया। उसमें हम दो मिनिस्टर फौरन तोड़ने के फैसले के विरुद्ध रहे। बाकी वे तीन पक्ष में हो गए। फलत: मैं लाचार हो गया।” मैंने उत्तर दिया कि “लेकिन वह विभाग तो आपका है। अत: जवाबदेही आप ही की मानी जाएगी न?” उन्होंने कहा, “सो तो ठीक है। मगर गवर्नर की बात भी तो आखिर थी। मैं करता क्या?” मैंने फिर कहा, “आप ही ने इसी कौंसिल के चुनाव के जमाने में एक गोपनीय बात मुझसे कही थी कि गवर्नर ने झरिया के कोयले की खानों की सभावाले अंग्रेजों को वचन दे दिया था कि मानभूम से झरिया को अलग करके स्वतंत्र जिला उसे बना देंगे। मगर मैं इस बात पर डट गया कि ऐसा नहीं हो सकता। क्योंकि तब तो झरिया जिला काफी पैसेवाला होने से अफड़ के मरेगा और बाकी मानभूम पैसे बिना भूखों मर जाएगा। फलस्वरूप,आखिर गवर्नर को झुकना पड़ा। गो उनकी बात झूठी हुई। तो फिर यहाँ भी वही क्यों न किया?” तब उन्होंने कहा कि मैं कारण बताऊँगा। इस पर मैंने कहा कि मुझसे तो आपकी यही बात थी। सो उसका क्या हुआ? उन्होंने कहा कि यह भी पीछे बताऊँगा। ऐसा कह के वे चलते बने।

मुझे बड़ा गुस्सा आया। सोचा कि उस समय तो मुझे ठगने के लिए इस शख्स ने अपनी शाबासी की कितनी ही बातें सुनाईं। यों हम भी देशभक्त हैं इसका प्रमाण पेश किया। मगर आज क्या हुआ। माना कि अनुग्रह बाबू या औरों से हमारा मनमुटाव है। मगर यह तो समूचे कांग्रेस की और न्याय की बात थी। फिर इसको कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है? बस, मैंने तय कर लिया कि अब फिर सर गणेश के पास नहीं आऊँगा। मैंने इनका असली रूप पहचान लिया। मुझे शायद सीधा-सादा और बेवकूफ समझते हैं। इसी से पीछे कहने और समझाने की बात कर गए हैं। उसके बाद जो वहाँ से आया तो फिर कभी गया ही नहीं। पीछे 'सर्च लाइट' में तथा दूसरे समाचार-पत्रों में एक लंबा खुला पत्र भी छपवाया। उसमें सारी बातें लिख दीं। उसके बाद सुना कि लोगों से सर गणेश कहते थे कि स्वामी जी तो तानाशाही (Dictatorship) चाहते हैं। जो उनका हुक्म न माने उस पर रंज हो जाते हैं। भला, इसमें तानाशाही का क्या सवाल था? मगर मुझे तो बहुतों ने ऐसा समझा है! सो भी ऐसी ही बातों को लेकर! ताज्जुब!