सर सैय्यद अहमद का खत / बालमुकुंद गुप्त
अलीगढ़ कालिज के लड़कों के नाम
मेरे प्यारो, मेरी आंखों के तारो, मेरी कौम के नौनिहालो!
जिन्दगीमें मैंने इज्जत, नामवरी बहुत कुछ हासिल की, मगर यह कहूंगा और मेरा यह कहना बिलकुल सच है कि तुम्हारी बेहतरी की तदबीरही में मैंने अपनी उमर पूरी कर दी। तुम लोगोंकी तरक्की और बेहबूदीके खयालहीको मैं अपनी जिन्दगीका हासिल समझता रहा। होश सम्हालनेके दिनसे अखीर दमतक इस कौमेमरहूमका मरसियाही मेरी जुबानपर जारी था। लाख लाख शुक्रकी जगह है कि मेरी मेहनत बेकार न गई। तुम्हारे लिये मैं जो कुछ चाहता था, उनमेंसे बहुत कुछ पूरा हुआ और तुम्हें एक अच्छी हालतमें देखलेनेके बाद मैंने खुदाको जान सौंपी।
उस दिन मेरे मजार पर आकर तुमने निढाल होकर अपने आंसुओंके मोती बखेर दिये। उस वक्तकी अपने दिलकी कैफियत क्या जाहिर करूं कि मुझपर क्या गुजरती थी और तबसे मुझे कितनी बेचैनी है। हाय!
चि मिकदार खूं दर अमद खुर्दा बाशम।
कि बर खाकम आई ओ मन मुर्दा बाशम।।
काश! मुझमें ताकत होती कि मैं उस वक्त तुमसे बोल सकता और तुम्हारे पास आकर तुम्हें गोदमें लेकर कलेजा ठण्डा करता और तुम्हारे फूलसे मुखड़ोंसे आंसू पोंछकर तुम्हें हंसानेकी कोशिश कर सकता। मगर आह! यह सब बातें नामुमकिन थीं, इससे मुझपर जो कुछ बीती वह मैं ही जानता हूं। मर कर भी मुझे आराम न मिला। इस नई दुनियामें आकर भी मुझे कल न मिली।
अजीजो! जिस हालतमें तुम इस वक्त पढ़े हो, इसका मुझे जीते जी ही खटका था। खासकर अपनी जिन्दगीके अखीर दिनोंमें मुझे बड़ाही खयाल था। इसके इन्सदादकी कोशिश भी मैंने बहुत कुछ की, मगर खुदाको मंजूरन थी, इससे काम बनकर भी बिगड़ गया। तुममेंसे बहुतोंने सुना होगा कि मैंने अपनी मौजूदगीही में यह फैसला कर दिया था कि मेरे बाद महमूद तुम्हारे कालिजका लाइफ सेक्रेटरी बने। इसपर वह शोरिश मची और वह तूफाने बेतमीजी बरपा हुआ कि अल अमान! मेरी सब करनी धरनी भूल कर लोग मुझे खुदगरज और मतलबी कहने लगे। उस कौमी कालिजको मेरे घरका कालिज बताने लगे और ताने देने लगे कि मैं अपने बेटेको अपना जानशीन बनाकर कौमसे दगा करता हूं। मुझपर "अहमदकी पगड़ी महमूदके सिर" की फबती उड़ाई गई। पर मैंने कुछ परवा न की। सय्यद महमूदको लाइफ सेक्रेटरी बनाया। अपने जीतेजी एक अपनेसे भी बढ़कर लायक सेक्रेटरी तुम्हारे कालिजको दे गया था। पर अफसोस उसकी उमरने वफा न की। मेरे थोड़े ही दिन पीछे वह भी मेरे ही पास चला आया।
इस वक्त तुमपर जो कुछ गुजरी है, अगर मैं होता तो उसकी यह शकल कभी न होती। न सय्यद महमूदकी मौजूदगीमें ऐसा करनेकी किसीकी हिम्मत होती। मगर अफसोस हम दोनों ही नहीं। जो हैं, उनके बारेमें और क्या कहा जाय, अच्छे हैं। कालिजके नसीब। कौमके नसीब। अजीजो। यह कालिज तुम्हारे लिये बना था। तुम्हीं उसमेंसे निकाले जाते हो, तो यह किस काम आवेगा? उफ। मेरी समझमें नहीं आता कि मैंने तुम्हारे लिये यह दारुलउलूम बनाया था या गुलामखाना। तुम्हारे मौजूदा सेक्रेटरी क्या खयाल करते होंगे?
मगर क्या पस्तखयाली का नतीजा पस्ती न होना चाहिये? तुम्हारी और तुम्हारे कालिज की मौजूदा हालतका क्या मैं ही जिम्मेदार नहीं हूं? क्या यह इस वक्तका दर्दनाक नज्जारा मेरी चालका नतीजा नहीं है? हां। यह जंजीरें कौमी तरक्कीके पांवोंमें अपने ही हाथोंसे डाली गई हैं, दूसरा कोई इसके लिये कसूरवार नहीं ठहर सकता। अगर इबतिदासे अखीरतक मेरी चाल एक ही रहती तो यह खराबी काहेको होती? कौमी पस्तीका ऐसा सीन देखनेमें न आता।
न जिल्लत से नफरत न इज्जत का अरमां।
मैं वही हूं, जिसने "असबाबे बगावत" लिखकर विलायत तकमें खलबली डाल दी थी। इन सूबोंमें मैं ही पहला शख्स हूं, जिसने अंग्रेजोंको आम रिआयाकी रायका खयाल दिलाया। मैंने ही सबसे पहले डंकेकी चोट यह जाहिर किया था कि अगर हिन्दुस्थानकी कौंसिलोंमें अंग्रेज, रिआयाके कायममुकाम लोगोंको शामिल करते तो कभी गदर न होता। तुम कभी न समझना कि मैं अंग्रेजोंकी खुशामद किया करता था, या खुशामदको किसी कौमकी तरक्कीका जीना समझा करता। बल्कि मैंने सदा अंग्रेजोसे बराबरीका बरताव किया है। कितने ही बड़े-बड़े अंग्रेज अफसर मेरे दोस्त रहे हैं, मैंने सदा उनसे दोस्ताना और बेतकल्लुफाना गुफ्तगू की है। कभी उनकी अफसरी या हाकिमीका रोब मानकर उनसे बरताव नहीं किया। खुदाकी इनायतसे सय्यद महमूदकी तबीयतमें मुझसे भी ज्यादा आजादी थी और साथ ही उसने मगरबी इल्मोंमें भी फजीलत हासिल की थी, जिससे उस आजादीकी चमक दमक और भी बढ़ गई थी। यही वजह थी कि मैंने महमूदको जीतेजी अपना कायममुकाम और तुम्हारे कालिजका सेक्रेटरी मुकर्रिर किया था। अगर वह होता तो आज तुम लोगोंकी आजादी और इज्जत एक मामूली हिन्दुस्थानी कान्स्टबलकी हिमायतमें ठोकर न खाती फिरतीं और तुम्हें कालिजसे निकालकर कान्स्टबलोंको कालिजके अहातेमें न ला खड़ा किया जाता।
मेरे बच्चो! मेरी एक ही कमजोरीका यह फल है, जिसे तुम भोग रहे हो और जिसके लिये आज मेरी रूह कब्रमें भी बेकरार है। मेरी उस कमजोरीने खुदगरजी और खुशामदका दरजा हासिल किया। पर सच यह है, मैंने जो कुछ किया कौमकी भलाईके लिये किया, अपने फायदेके लिये नहीं। पर वैसा करना बड़ी भारी भूल थी, यह मैं कबूल करता हूं और उसका इतना खौफनाक नतीजा होगा, इसका मुझे ख्वाबमें भी खयाल न था। मैंने यही समझा था कि इस वक्त मसलहतन यह चाल चल ली जाय, आगे चलकर इसकी इसलाह कर ली जायगी। मैं यह न समझा था कि यह चाल मेरी कौमके रगोरेशेमें मिल जायगी और छूटनेके बजाय उसकी खूबू और आदत बन जायगी। अफसोस! खुद कर्दा अम खुद कर्दारा इलाजे नेस्त।
हिन्दुओं से मेल रखना मुझे नापसन्द नहीं था। मेरे ऐसे हिन्दू दोस्त थे, जिन्होंने मरते दमतक मुझसे दोस्ती निबाही और जिनकी सोहबतसे मुझे बड़ी खुशी हासिल होती थी। कालिजके लिये उनसे माकूल चन्दे मिले हैं। पञ्जाबमें कालिज के चन्देके लिये दौरा करनेके वक्त लेक्चरमें मैंने कहा था कि हिन्दू मुसलमानोंको मैं एकही आंखसे देखता हूं। क्या अच्छा होता जो मेरे एक ही आंख होती, जिससे मैं इन दोनोंको सदा एक ही आंखसे देखा करता? अफसोस! अपनी कौमकी शकस्ताहालीने मुझे उस सच्चे रास्तेसे हटाया। मैंने सन् 1888 ई. में इण्डियन नेशनल कांग्रेससे मुखालिफत करके हिन्दू-मुसलमानोंको दो आंखोंसे देखनेका खयाल पैदा किया और अपने उन्हीं सच्चे और पुराने खयालातपर पानी फेरा, जिनका दावेदार कांग्रेससे पहले मैं खुद था। खयाल करनेसे तअज्जुब और अफसोस मालूम होता है कि मैंने वह सच्चा और सीधा रास्ता छोड़ा भी तो किसके कहनेसे कि जो 'असबाबे बगावत' लिखनेके वक्त मेरे पिछले खयालातका तरफदार था और उसीने मेरी उस उर्दू किताबका अंग्रेजी तरजुमा कर दिया था। काश। सर आकलेण्ड कालविन इन सूबोंके लफटन्ट गवर्नर न होते और उसी हैसियतमें रहते, जैसे उस किताबके तरजुमा करनेके वक्त थे।
मेरे अजीजो! जमाने की रफ्तारको कोई रोक नहीं सकता। वह सबको अपने रास्तेपर घसीट ले जाती है। अगरचे तुम लड़के नहीं हो, जवान हो और`` माशाअल्लह तुममेंसे कितनोंहीके दाढ़ी मूंछें भी निकल रही है। मगर इस कालिजमें तुम परदेकी बूबूकी तरह रखे जाते हो, गैरके सायेसे बचाये जाते हो। तुम्हारे हर कामपर अंग्रेज प्रिन्सपल वगैरा वैसाही पहरा रखते हैं, जैसे दाया और मामा छूछू गोदके और उंगलीके सहारेके बालकोंपर रखती हैं। पर इतनेपर भी तुम निरे गोदके बच्चे नहीं बने रह सके। बहुत दबनेपर तुम्हें जवानोंकी तरह हिम्मत करनी पड़ी। गोदके बच्चे क्या सदा गोदहीमें रह सकते हैं? उफ! अजीब मखमसेमें फंसे हो। तुम्हारे गोरे अफसर एक गोरे हाकिमकी खुशामदको तुमसे अजीज समझकर एक कान्स्टबलपर तुम्हें निसार करते हैं और तुम्हारे सेक्रेटरी द्रस्टी अपनी वफादारीके दामनपर दाग नहीं लगने देना चाहते। अगर वह तुम्हारी तरफदारी करें तो अंग्रेज अफसर उन्हें बागी समझेंगे। तुम्हारी सांप छूछूंदरकीसी हालत हुई।
सबसे गजबकी बात है कि यह पस्तहिम्मती मेरी ही पालीसी बताई जाती है और इसका अमलदरआमद करना मेरी रूहको सवाब पहुंचाना समझा जाता है। मेरा जी घबराता है कि हाय! एक मामूलीसी कमजोरीके लिये यह जिल्लत! जो झूठे टुकड़े अंग्रेज अपनी मेजपरसे इस मुल्क के हिन्दू मुसलमानोंकी तरफ फेंक देते हैं, उनमेंसे दो चार मुसलमानोंके लिये ज्यादा लपक देनेके लिये यह जिल्लत। इस वक्त कुछ समझमें नहीं आता कि क्या कहकर तुम्हें तसल्ली दूं। इससे एक उलुलअज्म शाइरका एक मिसरा पढ़कर यह खत खत्म करता हूं -
"तुम्हीं अपनी मुशकिल को आसां करोगे।”
सय्यद अहमद - अज जन्नत
['भारतमित्र', 9 मार्च, 1907 ई.]