सलमान खान की भारत की खोज / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 06 जून 2019
किसी भी देश का पूरा परिचय देश के पहाड़ों, नदियों, खेत-खलिहान से उतना नहीं होता, जितने देश के अवाम की विचार प्रक्रिया से होता है। भारत एक विचार है, जिसके लिए अनगिनत लोगों ने बहुत कुछ त्याग किया है और आज भी कर रहे हैं। किसी व्यक्ति को उसके भरे हुए पेट से हम उतना नहीं जान पाते जितना हम उसकी भूख से जान पाते हैं। सलमान खान शिखर सितारे हैं और अपनी ताजा फिल्म में वे नायक के जीवन के साथ उसके देश को समझने का प्रयास कर रहे हैं। यह पहली बार हुआ है कि एक नायक केंद्रित फिल्म में नायिका जहां खड़ी होती है, वहीं एक आभामंडल बन जाता है गोयाकि वह लाइम लाइट में खड़ी है। हर महिला सितारे के मन में एक 'मदर इंडिया' या 'पाकीजा' करने की चाह होती है। इस फिल्म में कटरीना कैफ ने कमाल कर दिया है। उसकी उजास से परदा जगमग जगमग बना रहता है।
हर कलाकार और फिल्मकार के मन में एक अदद 'कागज का फूल' या 'मेरा नाम जोकर' बनाने की इच्छा कुलबुलाती है। 'भारत' सलमान खान की 'कागज का फूल' या 'मेरा नाम जोकर' की तरह है। गुरुदत्त और राज कपूर के प्रयास अलग-अलग कारणों से आम दर्शक को पसंद नहीं आए परंतु पहले प्रदर्शन के कुछ दशक पश्चात इन फिल्मों का पुनरावलोकन हुआ और फिल्म इतिहास में मील का पत्थर सिद्ध हुए। इस फिल्म में सलमान खान अपनी लोकप्रिय छवि के विरुद्ध एक नई इबारत लिखते हुए नजर आते हैं।
सलमान खान ने 'सुल्तान' और 'बजरंगी भाई जान' में ऐसा ही प्रयास किया था और सशक्त पटकथा तथा माधुर्य ने फिल्मों को यादगार बना दिया। 'भारत' में गीत-संगीत से इन्हें कोई खास सहायता नहीं मिलती। एक अदद 'जग घूमिया' की कमी अखरती है। 'मिट्टी में मेरा खून' भी नदारद है।
इस फिल्म में नायक अपने दादा, परदादा और पिता की दुकान को बचाए रखने का प्रयास करता है, जबकि विदेशी पूंजी निवेशक उस दुकान को तोड़कर वहां शापिंग मॉल बनाना चाहता है और पुराने दुकानदारों को ही मॉल में किराएदार की तरह रखना चाहता है। 1936 में पेरिस में पहला मॉल खुला था। एक जर्मन दार्शनिक ने कहा था कि ये मॉल पूंजीवाद की पताकाओं की तरह दिखते हैं परंतु यही पूंजीवाद की शिकस्त का कारण बनेंगे। अनेक मॉल दुकानदार किराया तक नहीं निकाल पा रहे हैं। इस ज्वलंत समस्या को भी फिल्म में उठाया गया है। कोई एक फिल्म किसी देश के अवाम की सारी समस्याओं को कैसे प्रस्तुत कर सकती है। भीड़ की नकारात्मकता उन्हें बांधती है परंतु मनुष्य हमेशा सकारात्मक होता है। अपने घर में अपने परिवार के साथ मनुष्य सप्रेम भोजन करता है। यही मनुष्य सड़क पर चलते हुए एक उन्मादी भीड़ का हिस्सा हो जाता है और हाथ में पत्थर उठा लेता है। यही मनुष्य जब शाम को घर लौटता है, तो उसे बदला हुआ पाता है। गुरुदत्त की 'कागज का फूल' और राज कपूर की 'जोकर' आत्म-कथात्मक फिल्में मानी जाती हैं परंतु हकीकत यह है कि वे फिल्में उनकी लोकप्रिय छवि की आत्म-कथाएं हैं, जिनमें दर्शक को गुरुदत्त और राज कपूर नदारद मिले। इसी तरह 'भारत' भी सलमान की आत्म-कथात्मक फिल्म है परंतु इसमें एंटरटेनर सलमान कुछ हिस्सों में ही अपनी झलक मात्र दिखाता है। बहरहाल, ऊंचे इरादों का सम्मान किया जाना चाहिए भले ही वह साकार नहीं हो पाए हों। यह 'बीइंग ह्यूमन' की कथा है। सलमान इसमें कैसे समा पाते। वे तो सुल्तान हैं, जो इस फिल्म में अपनी सल्तनत खोज नहीं पाते। या यूं कहें कि हेमलेट अपना डेनमार्क खोज रहा है।