सलाम आखिरी / मधु कांकरिया / पृष्ठ 1

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हिंदी उपन्यास में देह व्यापारः स्त्री की नजर से
बटरोही

हिंदी उपन्यास


हिंदी में साहित्य-चर्चा की हालत अनेक तरह के अंतर्विरोधों से ग्रस्त है। अमूमन चर्चा उन्हीं लोगों और मुद्दों को लेकर होती है जिनका संबंध किसी-न-किसी रूप में सत्ता केंद्रों के साथ होता है। हिंदी समाज के लोग सांसें एक भाषा की लेते हैं, जबकि खुद को व्यक्त दूसरी भाषा में करते हैं। लिखते हैं किसी और भाषा में पढ़ते हैं किसी और भाषा को। शायद इसीलिए हिंदी समाज में दो समानांतर समाज एक साथ जी रहे हैं, जो एक दूसरे के एकदम पलट, मगर एक-दूसरे के पूरक हैं। एक-दूसरे के दुश्मन हैं मगर दोस्त की तरह दिखाई देना जिनकी मजबूरी है।

ये बातें मेरे दिमाग में एकाएक तब कौंधीं, जब पिछले दिनों मैंने प्रकाशन के ठीक दस साल बाद मधु कांकरिया का उपन्यास सलाम आखिरी (2002) नए सिरे से पढ़ा। इसी क्रम में मैं नई सदी के पहले दशक में पढ़ी गई उन किताबों को याद करने लगा था, जिन्होंने मेरे दिमाग में स्थायी असर डाला था। उस दौरान भी सलाम आखिरी ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। मैं अपने ही समाज को एकदम अलग तरीके से महसूस करने लगा था। शर्म तो नहीं कहूंगा, पर खुद को बेगाना महसूस करने लगा। अपने जीवन काल में औरत और मर्दों के मैंने भी अनेक रूप देखे हैं, मगर इस रूप के (जो मेरे देखते-देखते और न चाहते, एक ‘समाज’ बन चुका था) मेरे लिए मनुष्य जाति से अलग कुछ और ही था, जिसे पशु-पक्षी या कीट-पतंगों के समाज की तरह भी रेखांकित नहीं किया जा सकता।

वेश्याएं हमारे समाज का ऐसा हाशिया हैं, जहां एक-दूसरे के पूरक समझे जाने वाले स्त्री और पुरुष आपस में ही नहीं, अपने से जुड़े समाज के लिए ऐसी गलाजत बनकर उभरते हैं, जिसके बारे में टिप्पणी करना बहुत मुश्किल काम है। इस समस्या को पुरुषों के द्वारा स्त्री को अपने उपभोग की वस्तु समझे जाने की मानसिकता की तरह ठीक ही देखा जाता रहा है, हालांकि आरंभ से ही इससे जुड़े दोनों पक्षों में कुछ ऐसे अंतर्विरोध उजागर होते रहे हैं, जिस कारण इसे किसी एक लिंग के शोषण की समस्या समझना भी इसका सरलीकरण करना होगा। उपन्यास पढऩे के बाद लगता है, वेश्यावृत्ति का ‘गलीज’ पक्ष मुख्य रूप से पुरुषों के द्वारा कम उम्र लड़कियों की आर्थिक मजबूरियों का फायदा उठाकर सामने आता है। मानव इतिहास इस बात का साक्षी है कि समर्थों की वेश्यावृत्ति को खराब नजरिए से कभी नहीं देखा गया है, कभी-कभी तो इसे खुद को आगे बढ़ाने के हथियार के रूप में अपनाया जाता रहा है। ऐसे में क्या यह सच नहीं है कि हमारे समाज में वेश्या का सामान्य अर्थ ‘कोठे वाली’ से लिया जाता है! लेकिन नए समाज में, जहां कोठे खत्म हो गए हों, मगर देह का शोषण पहले की तरह ही मौजूद हो, इस प्रवृत्ति को किस रूप में देखा जाए?

क्या इसे दास-प्रथा की तरह की समस्या मानें, जो अंतत: एक दिन हमारे सभ्य होते चले जाने के साथ ही लगभग खत्म हो गई। लेकिन सच यह भी है कि इस समस्या को लेकर जितनी ही हमारी और समाज की चिंताएं उभरने लगती हैं, उसकी शाखा-प्रशाखाओं के रूप में कितने ही दूसरे अंतर्विरोध उजागर होते दिखाई देने लगते हैं। जब कि वास्तव में ऐसा है नहीं। हमारे नए समाज में वेश्यावृत्ति के पक्ष में भी तर्क दिए जाते रहे हैं, जिनका विश्लेषण उपन्यास में ही अनेक अवसरों पर खुद लेखिका ने किया है, मगर उससे समस्या की जटिलता कहीं अधिक बढ़ी है। इसके अलावा इस बात की जरूरत भी है कि स्त्री और पुरुष के आपसी टकराव से अलग हटकर भी, इसे एक अभिशाप के रूप में देखा जाना चाहिए। यह ठीक है कि वेश्यावृत्ति का जन्म भूख, बेरोजगारी और अनियंत्रित आकांक्षा के गर्भ में से हुआ है, क्या इन तीनों विषमताओं के खत्म होते ही वेश्यावृत्ति समाप्त हो जाएगी?

सलाम आखिरी विशेष रूप से इसलिए हमारा ध्यान आकर्षित करता है कि इस समस्या को कम से कम हिंदी में पहली बार एक औरत की आंख से देखा गया है। अंतत: वेश्यावृत्ति में दमन तो औरत का ही होता है, और यह दमन पुरुष की लिप्सा में से जन्म लेता है। समलिंगी वेश्यावृत्ति में भी मानसिकता के रूप में पुरुष की लिप्सा ही मौजूद रहती है, हालांकि लेस्बियन (स्त्री समलैंगिक) एकाएक इस तर्क को स्वीकार नहीं करेंगे। शायद इसीलिए इस समस्या के बारे में लिखना हमेशा से ही चुनौती-भरा काम रहा है, और जैसा कि इसके बारे में विस्तार से अध्ययन-मनन करने के बाद खुद लेखिका ने भी स्वीकार किया है, ‘कई विदेशी लेखकों तक ने इस विषय पर छद्म नाम से लिखा।’ इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि मधु कांकरिया के लिए इसे लिखना कितना चुनौतीपूर्ण रहा होगा।

उपन्यास के इसी असहज और प्रत्यक्षदृष्टा की तरह उठाए गए विषय की रचना-प्रक्रिया की चुनौतियों की ओर संकेत करती हुई लेखिका लिखती है, ”इस उपन्यास के दौरान लेखनी जैसे हाथों से छूट-छूट जाती थी। यहां पग-पग पर चुनौतियां थीं। प्रश्नों की नुकीली नोकें थीं। श्लीलता-अश्लीलता की चाबुकें थीं। संस्कार और संस्कृति के कठघरे थे। भाषा की अनावृत्ति का सवाल था।… एक आत्मसंघर्ष निरंतर चलता रहा – क्या रहे लेखिका की लक्ष्मण-रेखा?” प्रसंगवश, यहां पर यह स्पष्टीकरण देना गलत नहीं होगा कि ऐसा नहीं है कि वेश्याओं पर हिंदी में नहीं लिखा गया है, पुरुष-स्त्रियों दोनों के द्वारा लिखा गया है, मगर वह सारा विवेचन समस्या को दूर से, अकादमिक चिंता की तरह, एक सामाजिक विषय के रूप में देखकर लिखा गया है।


क्या भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में देखने पर वेश्या समस्या कुछ अलग और खास दिखाई देती है? क्या यह समस्या अलग-अलग मानव समाजों में अलग-अलग तरीके से देखी जाती है? सलाम आखिरी को पढ़ते हुए वास्तविकता ऐसी ही नजर आती है। उपन्यास की भूमिका के रूप में दिए गए अपने ‘आत्मकथ्य’ में लेखिका ने इस विचित्र अंतर्विरोध का खुद भी उल्लेख किया है: ”किसी मित्र ने सुझाया कि मैं वेश्याओं के जीवन पर लिखी कुप्रिन की विश्वप्रसिद्ध कृति- गाड़ीवालों का कटरा के हिंदी अनुवाद की भूमिका अवश्य पढ़ लूं। अनुवादक चंद्रभान जौहरी ने अपनी भूमिका में लिखा है कि भारत की स्थितियां भी उतनी ही भयावह और लगभग एक जैसी ही हैं जैसी कि कुप्रिन ने अपने उपन्यास में तत्कालीन रूसी चकलाघरों की चित्रित की है। मैं यह बात जोर देकर कहना चाहूंगी कि भारत में लालबत्ती इलाकों (रेड लाइट एरिया) की स्थितियां कुप्रिन के चित्रण से न केवल भिन्न वरन् कहीं ज्यादा यांत्रिक, भयावह, कुत्सित और कुरूप हैं।” इस संदर्भ में यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि वेश्याओं को उस क्षेत्र की संस्कृति के साथ जोड़कर देखना भी ठीक नहीं होगा, जहां वे स्थित हैं। वे हमारे ही समाज का अंग होते हुए भी अपना एक स्वायत्त समाज गठित कर लेती हैं, जहां उनकी अपनी भाषा, रहन-सहन और शेष समाज को देखने का स्वतंत्र नजरिया जन्म ले लेता है। कलकत्ता महानगर के विभिन्न क्षेत्रों में फैला यह संसार भौगोलिक दृष्टि से बंगाली समाज का ही हिस्सा है, मगर इसे देखकर साफ पहचाना जा सकता है कि यह उसी के गर्भ में से पैदा हुआ एक अलग समाज है। लेखिका ने खुद भी लिखा है,

”दूसरी समस्या जो मेरे सामने आई वह थी इनकी भाषा को लेकर। कलकत्ता में प्राय: सभी वेश्याएं, कुछेक नेपाली और आगरावालियों को छोड़कर बंगालीभाषी हैं। अब इसे बंगला भाषा की समृद्धि कहा जाए, इस भूमि की तासीर कहा जाए या कि यहां के बंग साहित्य की अंतर्शक्ति का कमाल कि अशिक्षित होते हुए भी यहां के सब्जीवाले, घरों में काम करने वाली बाई, श्रमिक वगैरह भी आम हिंदी भाषा से उच्च स्तर की भाषा बोलते हैं। वेश्याओं के लिए भी यही सत्य था। मुझे उनकी उच्च बंगाली को निम्न हिंदी में रूपांतरित करने की कवायद करनी पड़ी, पर अंतत: मुझसे वह कवायद सधी नहीं। इसी बिंदु पर एक बार राजकमल प्रकाशन के संपादकीय विभाग ने भी ऐतराज जताया कि वेश्याएं इतनी अच्छी भाषा कैसे बोल सकती हैं? पांडुलिपि लौटा दी गई।…” और यह समस्या ठीक इसी रूप में नवाबों के शहर लखनऊ में वेश्याओं द्वारा बोली जाने वाली परिनिष्ठित-सी दिखाई देने वाली उर्दू की भी है। वहां इसलिए नहीं खटकती कि उर्दू और हिंदी का चरित्र एक है, हालांकि वहां भी सामान्य रूप से बोली जाने वाली हिंदी/उर्दू में और वेश्याओं के द्वारा बोली जाने वाली भाषा में जमीन-आसमान का अंतर था।

उपन्यास इसलिए भी उल्लेखनीय है कि यह न तो यथार्थ का कोरा विवरण है और न सामाजिक समस्याओं का प्रतीकीकरण। इसमें चित्रित घटनाओं को एक औरत ने उस सड़ांध के बीच जाकर प्रत्यक्ष देखा है। यह उस रूप में नरक को भोगना भले ही न हो, स्त्री के जीवन में अनचाहे, परिस्थितिवश पैदा हो गए नरक की व्यथा को भोगकर तो व्यक्त किया ही गया है। जिस ‘हिंदी समाज’ की सड़ांध के बीच इस उपन्यास का केंद्रीय चरित्र रचा गया है, वह ‘भारतीय’ या ‘वृहत्तर’ समाज से अलग है; जाहिर है कि इस रूप में उसकी समस्याएं और अंतर्विरोध भी अलग हैं। मानव-संस्कृतियों की हमने जो अलग-अलग स्वायत्त टुकडिय़ां तैयार की हैं, और उसे अपनी पहचान मानकर हम जिस तरह लड़ते रहे हैं, उसी का बहुत साफ आईना है वेश्याओं का संसार, लेकिन भिन्न रूपों में। फर्क यह है कि वेश्याओं के अपने स्वायत्त संसार की भाषा अलग होते हुए भी उनकी व्यथा एक है जब कि हमारे वास्तविक संसार में भाषाएं ही उनकी स्वायत्त ‘व्यथाओं’ को निर्मित करती हैं और एक-दूसरे को अपना दुश्मन बनाती हैं। लगभग यही स्थिति भारतीय समाज के बड़े छाते में रहने वाले हमारे पुरखों के सामंती समाज की भी है जिसमें कुलीनों के द्वारा देवभाषा संस्कृत और सामान्यों के द्वारा तद्भव भाषाओं का प्रयोग किया जाता था।