सलीम खान की सादगी की पहल / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 16 अक्टूबर 2014
जीवन के रंगमंच पर शिक्षाप्रद और मनोरंजक घटनाएं होती हैं। लगभग बीस वर्ष पूर्व सूरज बड़जात्या ने अपने पिता के आग्रह के कारण उनकी संस्था की पुरानी फिल्म "नदिया के पार' की कहानी पर ही निर्माण स्केल ऊंचा उठाकर सलमान खान और माधुरी अभिनीत "हम आपके हैं कौन' बनाई जिसमें एक दर्जन से अधिक गीत थे और कहानी का केंद्र परिवार तथा विवाह था। इस फिल्म के पात्र कभी मंदिर से जुड़ी भव्य धर्मशाला में रहते हैं तो कभी अपने मंदिरनुमा घर में रहते हैं। एक प्रोफेसर पूरी फिल्म में कभी कक्षा जाते या किताब हाथ में लिए नजर नहीं आता, वरन् उसके हाथ में कड़छुल होता है, वह स्वादिष्ट कचौरियां बनाता, खाता है और अपनी समधन के साथ एक युगल गीत में मासूम सी छेड़छाड़ करता है। परिवार का मित्र एक मुसलिम दंपती है जो उनसे अधिक शाकाहारी और वैष्णव ध्वनित होते हैं गाेयाकि कांग्रेस के सेक्युलर पात्रों की तरह है और पूरा वातावरण बीजेपी के विचार मंथन की तरह नजर आता है। देवर भाभी का मधुर रिश्ता भी है।
इस फिल्म की विराट व्यावसायिक सफलता ने ही औद्योगिक घरानों को फिल्म में पूंजीनिवेश के लिए प्रेरित किया। पूरे भारत में विवाह नाच-गाने का पांच दिनी उत्सव हो गया। आर्थिक उदारवाद के प्रात: काल की इस फिल्म से प्रेरित नवधनाड्य वर्ग को अपनी पूंजी ओर वैभव के अभद्र प्रदर्शन के लिए इस फिल्म ने एक राह दिखा दी। भारत एकमात्र देश है जहां का मध्यम और गरीब वर्ग वैभव के प्रदर्शन के खिलाफ विद्रोह की भावना से उत्प्रेरित नहीं होते हुए वैभव के उस अभद्र प्रदर्शन की भोंडी नकल अपने बजट में करता है या "उधार लेकर घी खाता है'। समाज सुधाने के सौ दो सौ वर्ष के सारे प्रयास आर्थिक उदारवाद के अश्लील दौर में इस फिल्म को बहाना बनाकर खर्चीली शादियों के शगल में नष्ट हुए। यह भी संभव है कि स्वयं बड़जात्या परिवार ने फिल्म से कमाए धन का अंश अपने परिवार में हुए विवाह में खर्च किया हो।
बहरहाल सलीम खान ने अपनी पुत्री अर्पिता को यह विश्वास दिला दिया कि वैभवशाली विराट विवाह की फिजूलखर्ची से बचा जाए और सादगी से विवाह किया जाए। अर्पिता के भावी श्वसुर का भी यही विचार था। वे स्वयं भी धनाड्य व्यक्ति हैं। पहले इस विवाह को 27 जनवरी 2015 में अत्यंत भव्य पैमाने पर आयोजित करने का विचार था। सबसे अधिक आश्चर्य और खुशी की बात यह है कि अर्पिता और उसके भावी पति ने सहज ही सादगी के प्रस्ताव को स्वीकार किया। आजकल की युवा पीढ़ी अपने धनाड्य परिवार की संपदा के प्रदर्शन के किसी अवसर को नहीं छोड़ते और यहां सलीम खान की बेटी और सलमान खान की बहन ने सादगी को स्वीकार किया। ज्ञातव्य है कि सलमान खान अपने ट्रस्ट के माध्यम से करोड़ों रुपया प्रतिवर्ष दान देता है। इस ट्रस्ट को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने के लिए कई योजनाएं बनाई गई हैं।
सलीम साहब स्वयं अधिकतम मेहनताना लेने वाले पटकथा लेखक रहे हैं और उनके पिता का परिवार भी हमेशा अच्छा-खासा खाता-पीता परिवार रहा है। अत: पैदायशी "नवाबियत' के साथ स्वयं की अर्जित संपत्ति और अब बेटों की अपार कमाई वाले सलीम खान ने अपनी लाड़ली बेटी को ऐसे समय सादगी का महत्व समझाया जब पूरा देश काल्पनिक वैभवशाली दिनों में नशे में गाफिल वैभव प्रदर्शन की प्रतिस्पर्धा में जुटा है। समाज सुधार के प्रयास अगर धनाड्य समर्थ लोगों की ओर से हों तो उसका भी असर होता है। कल्पना करें कि देश में सारे धनाड्य व्यक्ति शादियों को सादगी से करें और बचत का एक अंश उन लड़कियों को शिक्षित करने में लगाएं जिनके विवाह दहेज के अभाव में नहीं होने वाले हैं और शिक्षा के माध्यम से प्राप्त आर्थिक स्वतंत्रता ही उन महिलाओं को मुक्ति दिला सकती है।
राजकपूर की "प्रेम रोग' में भी जमींदार की सहायता से शिक्षा प्राप्त करके एक अनाथ उनकी युवा विधवा बेटी से विवाह करना चाहता है तो सामंतवादी व्यक्ति कहता है कि तुम उसे भगा ले जाओ, परंतु युवा का आग्रह है कि समाज सुधार का उदाहरण वह जमींदार स्वयं दिखाए। दरअसल धनाड्य वर्ग को यह समझना होगा कि गरीब वर्ग की मदद उनके अपने हितों की रक्षा के लिए आवश्यक है। सरकारें सामाजिक क्रांति नहीं लातीं और सदैव ही क्रांति की पहल गरीब वर्ग या मध्यम वर्ग से होती रही है परंतु इन वर्गों को व्यवस्था ने मानसिक अय्याशी में डुबा दिया है अत: अब पूंजीवाद स्वयं की रक्षा की खातिर समाज सुधार करे- ऐसी आशा करना दुस्साहस है परंतु और कोई रास्ता नजर नहीं आता। पूंजीवाद को अपने अस्तित्व के लिए मध्यम वर्ग को मानसिक विलास से बाहर िकलना होगा जहां स्वयं उसने उन्हें वहां ढकेला है।