सवारी / हरजीत अटवाल

Gadya Kosh से
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।। एक ।।

आयरश था। यू.के. और आयरलैंड के मध्य सहस्र मीलों तक फैला समुद्र। कई लोग इसे प्रिय समुद्र भी कहते हैं और कई मौसम का गुलाम भी। यह शीघ्र ही मौसम के प्रभाव में आ जाता है। जैसा कि आज है। खुशगवार मौसम में यह समुद्र ऐसा है मानो यह समुद्र न होकर कोई झील हो।

अगस्त की सुबह है। इतनी सुबह कि अभी मछलियों ने भी खेलना शुरू नहीं किया है। फिर, पानी पर बैठी कालिमा धीरे-धीरे उठने लगी। दूर, कहीं पानी में हुई आवाज से कइयों ने अंदाजा लगा लिया कि यह व्हेल होगी। लोग लान्ज में से उठकर ऊपर वाले डैक पर जाने लगे। बलदेव ने शौन की तरफ देखा। वह अभी भी गहरी नींद में सोया पड़ा था। उसने अपने बैग का तकिया बना रखा था। बलदेव आहिस्ता से उठा और जैकेट पहनते हुए वह भी डैक पर जा चढा। यह बड़ा-सा जहाज चलते हुए पानी में छोटी-छोटी लहरें उत्पन्न कर रहा था, ऐसा लग रहा था जैसे किसी खूबसूरत औरत के हँसने पर उसके गालों पर गडढ़े पड़ रहे हों। बलदेव डैक की रेलिंग पर झुकते हुए क्षितिज की ओर देखने लगा। एक बार तो उसके मन में आया कि काश, गुरां उसके साथ यहाँ होती।

पूरब का क्षितिज रक्तिम होने लगा। डैक पर घूमते कुछ यात्रियों ने कैमरे संभाल लिए। कुछ यूं ही एकटक देखे जा रहे थे। सूर्य की एक छोटी-सी फांक ने झांका। कालिमा के स्थान पर अब लालिमा समुद्र की सतह पर आ बैठी थी। फिर, देखते ही देखते, सूरज बच्चे की भांति छलांग लगाकर पूरे का पूरा बाहर आ गया। इस नजारे का जिक्र शौन ने कई बार किया था। बलदेव ने सूर्य उदित होते तो कई बार देखा था, परन्तु समुद्र में फैलती ऊषा की लालिमा पहली बार देख रहा था। न चिड़ियाँ चहचहाईं, न परिन्दों की कतारें सफ़र पर निकलीं। उसका दिल कर रहा था कि वह इस अनुभव को किसी के संग साझा करे।

बलदेव ने गर्दन घुमायी। एक खूबसूरत लड़की उसकी बगल में खड़ी इस दृश्य को देख रही थी। उसका आयरश चेहरा छोटी-छोटी खाकी बिंदियों से भरा पड़ा था। ये बारीक दाग उसके आयरश होने को और पक्का करते थे और उसकी कम आयु को भी। बलदेव को अपनी ओर देखते पाकर वह बोली–

-- बहुत सुंदर!

-- हाँ, एकदम अद्भुत!

-- पहली बार देख रहे हो?

-- हाँ, पहली बार। और तुम?

-- मैं तो पहले भी देख चुकी हूँ, पर कई बार आज की तरह मौसम साफ नहीं होता। आज तो हम बहुत लकी हैं।

-- हाँ।

बलदेव ने कहा और खामोश हो गया। उसका ध्यान सूरज पर से हटकर उस लड़की की ओर जा रहा था। वह कहने लगा–

-- इस सूर्योदय में तुम भी बहुत खूबसूरत लग रही हो।

-- सच !

-- हाँ।

-- तुम्हारे चश्मे का नंबर तो ठीक है?

वह लड़की हँसते हुए बोली। बलदेव झुंझला गया और उसका हाथ एकदम अपने चश्मे पर चला गया। लड़की ने पुन: कहा–

-- मैं तो मजाक कर रही हूँ, बुरा मत मानना। क्या नाम है तुम्हारा?

-- मेरा नाम डेव है और तुम्हारा?

-- मैं जीन हूँ। तुम आयरलैंड में रहते हो?

-- नहीं, अपने दोस्त शौन के साथ घूमने जा रहा हूँ। लंदन में रहता हूँ मैं।

-- लंदन में किस इलाके में?

-- करिक्कल वुड।

-- सच !... मैं भी वहाँ कुछ दिन रह कर आयी हूँ। छुट्टियों में।

-- वैसे कहाँ रहती हो?

-- डबलिन।

-- फिर डबलिन वाली फ़ेरी क्यों नहीं ली?

-- वो फैरी मुझे लेट कर देती। कल मुझे कालेज जाना है।

-- क्या पढ़ती हो?

-- मैं नर्सिंग का कोर्स कर रही हूँ।

-- बहुत खूब! नर्सों की तो पहले ही बहुत कमी है। फिर तो लंदन में ही काम करोगी?

-- नहीं, शायद मैं अमेरिका चली जाऊँ।

फिर वे दोनों चुप हो गये और समुद्र की ओर देखने लगे। सूरज अब कुछ ऊपर उठ चुका था। मौसम सुहावना था। और भी बहुत सारे लोग डैक पर चढ़ आए थे। बात आगे बढ़ाने के लिए बलदेव बोला–

-- मौसम अच्छा हो तो सफ़र करने का मज़ा ही कुछ और होता है।

-- हाँ, पर आज की फोर-कास्ट भी बहुत अच्छी नहीं है।

-- तुम अकेली हो?

-- हाँ, अकेली हूँ। आगे रसलेअर से बस पकड़ूंगी और कुछ घंटों में डबलिन पहुँच जाऊँगी। मेरा घर डबलिन के निकट टारा गांव में है।

-- जीन, मेरे साथ पब में चलना पसंद करोगी?

-- क्यों नहीं। पर अभी तो खुला भी नहीं होगा... और तुम बता रहे थे कि तुम्हारा दोस्त तुम्हारे साथ है।

-- दोस्त है शौन, पर उसके साथ तो मैं रोज ही पीता हूँ। तुम्हारे जैसी खूबसूरत लड़की का साथ तो किस्मत से ही मिलता है।

जीन थोड़ा शरमाई। तब तक शौन भी उनके बराबर आ खड़ा हुआ। उसने जीन से हैलो कहा और बलदेव से पूछने लगा–

-- कैसा लगा, समुद्र में से सूरज का उगना।

-- शानदार! कभी ऎसा सोचा भी न था।

कहते हुए बलदेव ने शौन का जीन से परिचय करवाया। शौन बोला–

-- भाजी(भाई), रेस्टोरेंट खुल गया है , चलो, नाश्ता कर लें। तूने रात में भी कुछ नहीं खाया।

शौन के संग जाने को तैयार बलदेव जीन से पूछने लगा–

-- हमारे साथ नाश्ते के लिए चलोगी?

-- नहीं, मैं ठीक हूँ, तुम चलो।

-- फिर मेरे संग ड्रिंक ज़रूर लेना। पब के खुलते ही आ जाना, मैं प्रतीक्षा करुंगा।

-- मैं आ जाऊंगी।

कहते हुए जीन ने हाथ हिलाया। बलदेव शौन के पीछे-पीछे डैक की सीढि़याँ उतरने लगा।

शौन काफी समय से पंजाबियों के बीच में विचरता आ रहा था। उसने पंजाबी के कुछ मोटे-मोटे शब्द कंठस्थ कर लिए थे, जिन्हें गाहे-बेगाहे प्रयोग कर लेता था। इन शब्दों के सहारे ही कई बार वह पूरा वाक्य भी समझ लेता था। ऐसे ही बलदेव ने भी उससे कुछ आयरश शब्द सीख रखे थे। कई बार मजा लेने के लिए वह भी बोलने लगता।

रेस्टोरेंट में जाकर उन्होंने हल्का-सा नाश्ता किया। रात में शराब अधिक पी लेने के कारण वे कुछ खा नहीं सके थे। बलदेव को तो समुद्री सफ़र में लगने वाली उल्टियों से भी डर लगता था। ‘सी-सिकनैस’ की गोलियां लेना उसे पसंद नहीं था। शराब के साथ ली ये गोलियां उल्टा असर भी कर जाती थीं। नाश्ता करके शौन ने कहा–

-- हम पहले ड्यूटी-फ्री वाला काम खत्म कर लें, फिर फुर्सत पाकर दुनिया देखेंगे।

-- शौन मुझे लगता है कि मैंने तो दुनिया देख ली। शायद, जीन मेरे सफ़र को सफल बना दे।

-- हाँ, लड़की सुंदर है। अब ढील मत कर देना, जैसा कि तू कर ही दिया करता है।

-- तू फिकर न कर, तुझे शिकायत का मौका नहीं दूंगा। तेरे लिए खोजूं कुछ ?

-- नहीं, कुछ खास नहीं हैं, पुराने से मॉडल ही घूम रहे हैं यहाँ तो।

-- अभी तड़का है न, थकावट की मारी पड़ी हैं बेचारी। जरा ठहर, इन्हें मेकअप करने दे, फिर देखना – मॉडल को बदलते।

कहकर बलदेव हँसने लगा। वे दोनों ही लड़कियों को देखने के शौकीन थे। लड़कियों की कारों के मॉडल से तुलना करते। शौन कहने लगा–

-- मेकअप से मॉडल बदला तो क्या बदला। और फिर मुझे तो इंडिया जाकर मारुतियाँ ज्यादा पसंद आने लगी हैं।

शौन की बात पर दोनों हँसे। हँसते हुए वे ड्यूटी-फ्री दुकान में जा घुसे। शौन पिछले दिनों बलदेव के साथ इंडिया का चक्कर लगा आया था। इंडियन लड़कियाँ उसे विशेष तौर पर पसंद थीं। ड्यूटी-फ्री दुकान में से व्हिस्की की बोतलें इकट्ठी करता शौन बोला–

-- इतनी तो व्हिस्की, बरांडी और रम ले ही जाएं कि पेट्रोल का खर्च निकल आए।

-- कितनी ले जाने की इजाज़त है?

-- इंडिया जितनी ही।

कहकर शौन व्यंग्य में बलदेव की तरफ देखने लगा। बलदेव हँस पड़ा। इंडिया जाते समय वे काफी व्हिस्की ले गये थे। जब दिल्ली के एक अधिकारी ने ऐतराज किया तो दस पौंड बलदेव ने उसके हाथ में थमा दिए थे। तभी शौन ने हँसते हुए कहा था कि हमारे मुल्क में भी इसी तरह मुट्ठी गरम करके काम चल जाता है।

शौन ने तकरीबन पच्चीस लीटर शराब इकट्ठी कर ली। उन्होंने बैग बड़ी मुश्किल से उठाये और फैरी के निचले डैक की तरफ की सीढ़ियाँ उतरने लगे, जहाँ उनकी कार खड़ी थी। नीचे, दो मंजिलें कारों की थीं और तीसरी निचली मंजिल पर लारियाँ और वैनें खड़ी थीं। यहाँ का माहौल एकदम अलग था। चारों तरफ गहरी चुप्पी थी, सिवाय फ़ेरी के चलने की आवाज के। फ़ेरी की आवाज डरावना-सा माहौल पैदा कर रही थी। बलदेव के लिए यह सब एकदम नया-सा था। जब वह महसूस करता कि यह जगह समुद्र के कई फीट नीचे है तो उसे भय-सा लगने लगता। पर वह शौन के पीछे-पीछे चलता गया। उसकी चुप्पी को देखकर शौन पूछने लगा–

-- क्या सोच रहा है?

-- सोचता हूँ कि यह सीलन, यह चुप्पी, बड़ा फिल्मी-सा माहौल पैदा कर रही है।

-- तेरा समुद्री जीवन से वास्ता जो नहीं पड़ा।

--शायद, इसीलिए।

-चिंता न कर, आज से तू आदी हो जाएगा।

कार तक पहुँचते-पहुँचते उन्होंने देखा कि कुछ युगल इधर-उधर कारों में बैठे अपने आप में मस्त थे। शौन बोला–

-- भाजी, जीन को यहाँ ले आ। सब-कुछ यहाँ का रंगीन लगने लगेगा।

बलदेव ने कोई उत्तर नहीं दिया। सिवाय छोटी-सी मुस्कान के और उसके साथ शराब की बोतलें कार में रखवाने लगा । शौन ने बोतलें इस प्रकार रखीं कि बाहर से देखने वाले को पहली नज़र में कुछ पता न चले। सीटों के नीचे भी बोतलें छिपा दीं। कोई कोना नहीं होगा जहाँ उसने बोतल फंसाने की कोशिश न की हो। फिर, एक बोतल को बाहर निकालते हुए बोला–

-- पब खुलने में तो अभी देर है, आ जा तुझे मस्त करुँ।

वे दोनों कार में बैठ गये। शौन ने दो पैग बनाये। उसने कार में ही सब-कुछ रखा हुआ था। वह हमेशा ही कार में इसी तरह पीने का इंतजाम रखता था। वह ग्लव-बॉक्स खोलता हुआ बोला–

-- यह देख, यहाँ सभी कुछ पड़ा है। ये पैकेट देख, ये टीशू, पिछली सीट पर तौलिया भी है, मेरा मतलब है, जब मर्जी हो, आ जाना।

फिर वह अपने पिछले सफ़रों के किस्से सुनाने लगा कि कैसे हर बार कोई न कोई लड़की उसे मिल जाती थी। कई बार दोस्ती लम्बे समय के लिए भी हो जाती थी। लेकिन ज्यादातर वास्ता सफ़र तक का ही रहता है। बहुत से नौजवान लड़के-लड़कियों का इस प्रकार फ़ेरी से सफ़र करने का मतलब ही आनन्द उठाना होता है। फ़ेरी में घुसते ही नौजवान आँखें अपने हम-उम्र को तलाशने लगती हैं। ये कहानियाँ शौन बलदेव को अक्सर सुनाया करता। लेकिन, हर कहानी उसे हर बार नयी ही लगती। अब भी वह नई कहानी सुनते हुए आनंदित हो रहा था।

कार में से निकल कर वे वापस ऊपर की ओर चले तो एक जोड़ा उनके आगे-आगे जा रहा था। सीढि़याँ चढ़ते हुए एक जोड़ा नीचे उतरता हुए मिला। यह सीलन और यह चुप्पी, अब बलदेव को इतनी परायी नहीं लग रही थी। वह फिर से मेन लांज में आ गए। उन्हें हल्का-सा सुरूर महसूस हो रहा था। लांज की चहल-पहल बहुत सुहावनी लग रही थी। सुबह सभी सोए हुए ऐसे लग रहे थे मानों इन्हें कभी उठना ही न हो। जहाँ जिसको जगह मिली थी, सो गया था। कोई सोफे पर तो कोई नीचे ही। भीड़ में बलदेव जीन को खोजने लगा। शौन ने कहा–

-- आ जा बैठते हैं। उसे भी तेरी जरूरत होगी, खुद ढूंढ़ लेगी।

फिर शौन उसका ध्यान एक औरत की ओर दिलाता हुआ बोला–

-- वो देख मर्सडीज।

-- शौन, तू बहुत लिबरल है, करटीना को मर्सडीज कहे जा रहा है।

-- डेव, तुझे सुंदरता की जरा भी समझ नहीं। मर्सडीज नही तो बी.एम. डब्ल्यू. कह ले, तू तो करटीना पर ही गिर पड़ा है।

-- होंडा, मैं होंडा से ऊपर नहीं उठ सकता।

-- तेरी तंग नज़र... मैं कुछ नहीं कह सकता। तू यहाँ रुक, मैं बात करके आता हूँ।

यह कहता हुए शौन उस औरत की तरफ चला गया।

बलदेव वहीं बैठ कर सामने चल रहे टेलीविजन पर समाचार देखने लगा। टी.वी. पर मौसम के बारे में बता रहे थे कि मौसम खराब है। बलदेव ने खिड़की में से समुद्र की ओर देखा, उसका नीलापन धूप में दुगना हो गया था। बलदेव सोचने लगा कि मौसम विभाग वाले भी कई बार धोखा खा जाते हैं। कल भी मौसम ठीक नहीं बता रहे थे, पर सारा दिन और फिर सारी रात भी मौसम साफ रहा था। टेलीविजन देखता बलदेव साँप की तरह सिर घुमाता जीन को खोजे जा रहा था।

कुछ देर बाद शौन एक आदमी के साथ सामने आ खड़ा हुआ। बलदेव मन ही मन हँसा कि औरत के पीछे गया था, पर मर्द ले आया है। शौन ने उस आदमी की तरफ इशारा करके कहा–

-- डेव, यह है एंड्रीयू, मेरी बहन आयरीन का पुराना बॉय–फ्रेंड... और एंड्रीयू, यह है मेरा दोस्त डेव।

बलदेव ने उससे हाथ मिलाया और हालचाल पूछा। वे बातें कर ही रहे थे कि सामने जीन आती दिखाई दी। बलदेव उन्हें ‘एक्सक्यूज मी’ कहते हुए जीन की ओर बढ़ गया। जीन उसे देखते ही बोली–

-- डेव, किधर चले गए थे?

-- मुझे थोड़ी शापिंग करनी थी। अब फुर्सत में हूँ, आ जाओ कहीं बैठते हैं।

बलदेव ने घड़ी देखी। बारह बज रहे थे। पब खुल चुका था। उसने जीन का हाथ पकड़ा और पब की ओर चल पड़ा। जीन ने अपना बैग पिट्ठू की भांति पीठ पर लटका रखा था। पब में से वाइन के गिलास भरवा कर वे फ़ेरी की रेलिंग के पास आकर खड़े हो गए। धूप हल्की-सा चुभ रही थी। बलदेव ने जेब में कार की चाबी टटोलकर देखी। शौन की कार की एक चाबी हमेशा उसके पास हुआ करती थी और इसी तरह उसकी कार की एक चाबी शौन के पास। बलदेव ने कहा–

-- मुझे तुम्हारा इस थोड़े से सामान के साथ सफ़र करना बहुत अच्छा लगा।

-- हाँ, बहन के घर जाती हूँ तो मुझे अधिक सामान की जरूरत नहीं पड़ती। उसके कपड़े मुझे आ जाते हैं।

-- तुम्हें बाई-एअर सफ़र कैसा लगता है?

-- ठीक है, एक घंटा लगता है बस, पर फ़ेरी का मजा कुछ और ही है। डबलिन वाली फ़ेरी में तो नाइट-क्लब भी है, रात भर म्युजिक बजता है।

-- फिर तो अगली बार मैं भी उसी में जाऊंगा।

-- पर समय बहुत लग जाता है।

कहते हुए जीन ने अपनी वाइन खत्म कर दी। बलदेव और भरवा लाया। ठंडी हवा चलने लग पड़ी थी। समुद्र की लहरें चूहों की कतारों की भांति दौड़ने लगीं। दूर, उत्तर दिशा में बादल का एक टुकड़ा उभर रहा था। हवा जरा-सी तेज हुई तो लहरें खरगोश जितनी हो गईं और जल्द ही कुत्ते जितनी। जहाज हिचकोले खाने लगा। उसकी रफ्तार भी धीमी पड़ गई। बलदेव जीन का हाथ थामे पब के अंदर आ गया। वे एक तरफ कुर्सियों पर बैठ गए। जहाज इतना हिल रहा था कि बैठना कठिन हो रहा था। मेजों पर गिलास तो क्या टिकते। बार-मैन को गिलास भरने कठिन हो रहे थे। लांज में बैठे लोग भी हिल गए। कई तो उल्टियाँ करते हुए बाथरूम की ओर भागने लगे। बच्चों पर कोई असर नहीं था। उनका शोर पहले से भी ज्यादा था। बलदेव ने जीन की आँखों में आँखें डाल कर कहा–

-- जीन, यू फैंसी ए गुड्ड टाइम?

जीन का चेहरा सकुचा गया। उसकी आँखें झुक गईं। बलदेव को आस नहीं थी कि वह यूं शरमा जाएगी। उसने फिर कहा–

-- जीन, घबराने की कोई जरूरत नहीं। किसी तरह की फिक्र न कर। मेरे पास सारे इंतजाम हैं, मेरी कार भी नीचे डैक में ठीक जगह पर खड़ी है। तू कोई चिंता न कर।

-- नहीं डेव, मुझे कोई फिक्र नहीं, कंडोम तो मेरे पास भी है, पर तुम कुछ जल्दी नहीं कर रहे?

सिमरन से जुदा होने के बाद बलदेव का मूड कुछ बदल गया था। अधिक घूमना-फिरना उसे अब पहले जैसा अच्छा नहीं लगता था। रिवर थेम्ज़ ही थी जो उसे घर के अंदर से बाहर निकाल लेती, नहीं तो वह कहीं भी न जाता, कमरे के भीतर ही बैठा रहता। आयरलैंड जाने की योजना भी शौन की ही थी। वह तो जैसे ‘हाँ’ करके ही फंस गया था। शौन ने कहा था-

--चल, दो सप्ताह के लिए आयरलैंड चलें।

प्रत्युत्तर में उसने कह दिया था–- ‘चल।'

जब शौन इंडिया गया तब भी ऐसा ही हुआ था। बलदेव ने सहज भाव में कहा था–- ‘आ, इंडिया का चक्कर लगा आएं।' और शौन चल पड़ा था।

उसका शौन को ‘हाँ’ करने के पीछे यह भी एक कारण था कि शौन के जाने के बाद वह कैरन के पास अकेला कैसे रह सकता था। लगभग एक साल हो गया था उसे शौन और कैरन के संग रहते हुए। वह अब सोचता था कि यहाँ से मूव कर जाए। अपना घर या फ्लैट ले ले। मूव होने का ख़याल पिछले कुछ महीनों से कुछ अधिक ही पीछा कर रहा था, जब से कैरन और शौन के बीच लड़ाई-झगड़ा रहने लगा था। लंदन से आयरलैंड के लिए चलते समय भी बलदेव ने शौन को कह दिया था –

-- शौन, वापस लौटकर मैं कहीं और मूव हो जाऊँगा।

-- जैसी तेरी इच्छा।

पहले की भांति उसने रुक जाने के लिए जोर नहीं डाला था।

लंदन से चलते समय उसका मूड इतना लम्बा सफ़र करने का कतई नहीं था, पर जब शौन ने कार मोटर-वे पर चढ़ाई तो बलदेव को जैसे चाव-सा चढ़ आया। घर से ही एक-एक पैग पीकर चले थे। बोतल पास थी। एक-एक चलती कार में ही बना लिया तो बलदेव ने रेडियो की आवाज़ ऊँची कर दी। उसकी मनपसंद सिंगर बलौंडी का गीत चल रहा था–- ‘टाइड इज़ हाई बट आय एम होल्डिंग आन।’ शौन बोला–

-- भाजी, बस ऐसे ही, ऐसे ही रहा कर... खुशी से भरा हुआ।

-- शौन, तू तो जानता ही है कि मैं कभी भी कोई प्रोग्राम प्लैन नहीं करता। जिंदगी जैसे आती है, उसे वैसे ही स्वीकार किए जाता हूँ।

-- ठीक है पर डेव, यह बहुत अच्छी बात नहीं। प्लैन करना चाहिए।

-- तूने बहुत प्लैन कर-कर के देख लिए, तू मेरे से कहाँ बेहतर है! तू भी पत्नी का सताया हुआ और मैं भी।

उसकी बात सुनकर शौन जोर से हँसा और बलदेव भी।

वे सुबह के चले लगभग दोपहर के समय वेल्ज़ जा पहुँचे। एक पब में रुक कर बियर पी और आगे चल दिए। पहले से टिकटें बुक न होने के कारण ज़रा जल्दी फिशगार्ड पहुँचना चाहते थे, पर करते-कराते देर हो ही गई। रात के बारह बज गए थे बंदरगाह पर पहुँचते। सैकड़ों की गिनती में गाडि़याँ खड़ी होकर फ़ेरी में चढ़ने की प्रतीक्षा कर रही थीं। कारें, वैनें और लारियाँ। शौन ने दौड़-भाग करके टिकट लिए। कार में पेट्रोल भरवाया क्योंकि आयरलैंड में पेट्रोल यहाँ से महंगा था। कार को उन्होंने लाइन में खड़ा कर दिया और इंतज़ार करने लगे।

तीन बजे फ़ेरी को चलना था। एक बजे गाडि़या फ़ेरी में चढ़नी आरंभ हो गईं। नीचे की मंजि़ल लारियों, बसों और बड़ी गाडि़यों की थी और ऊपर की दो मंजि़लें कारों के लिए। फ़ेरी में जाने का बलदेव का यह पहला अवसर नहीं था। फ्रांस वह फ़ेरी से ही गया था, पर वह छोटा-सा सफ़र था। आधे घंटे का। यह फिशगार्ड से रसलेअर तक तो कई घंटों का सफ़र था।

उन्हें रसलेअर पहुँचने के लिए आम दिनों से ज्यादा वक्त लग गया। पहले मौसम साफ था, फिर खराब हो गया। समुद्र गुस्से में दहाड़ने लगा। लहरें फ़ेरी के अंदर तक समुद्र का पानी फेंक जातीं। जहाज के हिचकोलों से लोग बेहाल हुए पड़े थे। उल्टियाँ करके फर्श गंदा कर डाला था। बलदेव उल्टी आदि से बच गया था। जीन के संग होने के कारण उस तरफ ध्यान ही नहीं गया था उसका।

फैरी के रसलेअर पहुँचने तक सूर्यास्त का समय था। बारिश होने के कारण भी अंधेरा जल्दी हो गया था। उसने जीन से विदा ली। वह पैदल जाने वाली भीड़ में शामिल हो गई। शौन और बलदेव अपनी कार की ओर आ गए। शौन कार में बैठते ही कुछ सूंघने लगा। बलदेव ने हँसते हुए कहा–

-- मुझे तो मालूम ही नहीं था कि आयरश लड़कियाँ इतनी दरिया-दिल होती हैं।

-- अब तू इसे मर्सडीज़ कहेगा कि नहीं।

-- अगर कोई कार अपनी हो जाए तो उसकी किस्म तो नहीं बदल जाती।

-- डेव, इस मामले में तू बहुत कंजूस है। तुझे औरत की कद्र करनी नहीं आती।

-- शौन, यूं क्यों नहीं कहता कि मैं नरम होकर परख नहीं करता।

बात करते-करते उनकी कार पुलिस चैकिंग तक पहुँच गई। पुलिसमैन ने सरसरी-सी नज़र दौड़ाई और बढ़ जाने का इशारा कर दिया। उन्होंने राहत की सांस ली। कुछ और आगे बढ़े तो बलदेव को जीन जाती हुई दिखाई दी। उसने शौन से कहा–

-- वो देख जीन... ज़रा कार इसके बराबर रोक... पूछ लेते हैं अगर लिफ्ट की ज़रूरत हो तो...।

शौन ने उसके बराबर जाकर कार को धीमा कर लिया। बलदेव ने कहा–

-- हैलो जीन!

जीन ने यूँ हाथ हिलाया मानो अजनबी आदमी को हाथ हिला रही हो। बलदेव ने फिर पूछा–

-- यू फैंसी लिफ्ट?

-- नो थैंक्स।

कह का वह मुँह घुमाकर चलने लगी। बलदेव हैरान होकर कहने लगा–

-- कमाल है!... इतनी जल्दी भूल गई। देख तो, कंधे उचकाती कैसे गुजर गई।

शौन हँसा पर बोला कुछ नहीं। उसने कार दौड़ा ली। फिर उसने घड़ी देखते हुए कहा–

-- हम वाटरफोर्ड पहुँचकर पब में बैठेंगे और वहीं कुछ खाएंगे।

-- तू ही मेरा वाली-वारिस है, जैसा चाहे करता चल। पर रास्ते में कहीं गीनस तो पिलाएगा ही, बहुत थकान हो गई है।

।।दो।।

बलदेव को पता था कि आयरलैंड में गीनस लोगों को बहुत प्रिय है और हर बीमारी का इलाज गीनस को ही मानते हैं। रसलेअर से निकल कर वे मोटर-वे पर हो गए। आगे जाने पर एक पब आया तो वे रुक गए। दो-दो गिलास पिए, पर दो घंटे बैठे रहे। वक्त का पता ही न चला। फिर थकान भी इस तरह थी कि उठने को मन ही नहीं हो रहा था। घड़ी की ओर देखते हुए शौन उछलकर उठा और बोला–

-- जल्दी कर डेव, हम तो बहुत लेट हो गए, हमें वाटरफोर्ड में रुकना है। बारह बजे तो पब बंद हो जाएगा, अभी लम्बा रास्ता बाकी पड़ा है।

-- फिक्र न कर शौन, बियर न सही, व्हिस्की पी लेंगे।

-- आयरलैंड आकर भी व्हिस्की ही पियेगा?

कह कर शौन हँसने लगा।

बरसात यद्यपि बंद हो गई थी, लेकिन हवा अभी भी तेज थी। कार की रफ्तार ज्यादा होने के कारण हवा अधिक साँय- साँय कर रही थी। सड़क पर अंधेरा ही अंधेरा था। कार की लाइट में सड़क कुछ गज तक ही नज़र आ रही थी। इंग्लैंड की तरह मोटर-वे पर रोड-लाइट का कोई इंतज़ाम नहीं था। वाटरफोर्ड पहुँचते-पहुँचते उन्हें बारह बज ही गए। शौन बोला–

-- अब गीनस नहीं पी सकेंगे। अब कोई पब वाला सर्व नहीं करेगा। पर आ जा, कोशिश करके देखते हैं।

कह कर उसने कार को एक पब के सामने रोक दिया। वे दोनों फुर्ती से पब में जा घुसे। काउंटर के पीछे खड़ा व्यक्ति तेज स्वर में कहने लगा–

-- सॉरी मिस्टर्ज़, पब बंद हो चुका है।

शौन ने बहुत मुलायम स्वर में कहा–

-- यह मेरा दोस्त बहुत दूर से आया है। मैं जानता हूँ कि कुछ मिनट ऊपर हो गए हैं... पर अगर हमें एक गिलास गीनस का मिल जाए तो मेहरबानी होगी। हम अधिक समय नहीं लगाएंगे, हमारा वादा रहा।

पबवाले ने बलदेव की ओर देखा और फिर शौन की तरफ और कहा–

-- ठीक है, पर जल्दी करना।

कहकर उसने पब में बैठे दूसरे लोगों की तरफ भी देखा क्योंकि पहले वह कइयों को इंकार कर चुका था। उसने फिर बलदेव से पूछा–

-- तुम सेलर हो?

-- नहीं।

-- तुम डॉक्टर हो?

-- नहीं।

बलदेव के पीछे ही शौन कहने लगा–

-- यह बहुत बड़ा बिजनेसमैन है। यह यहाँ कोई फैक्ट्री खोलना चाहता है। जायजा लेने आया है इस शहर का।

-- वाटरफोर्ड जैसे छोटे शहर में भला क्या कोई फैक्ट्री खोलेगा!

समीप खड़े किसी व्यक्ति ने हैरानी प्रकट की। शौन ने फिर कहा–

-- अब ई.ई.सी. जो बन रही है। आयरलैंड को इससे बहुत मदद मिलेगी। फिर वाटरफोर्ड से अच्छा बंदरगाह कौन-सा हो सकता है, यूरोप से जुड़ने के लिए।

शौन की दलील के सभी कायल हो गए। पब के मालिक ने फिर पूछा–

-- किस चीज की फैक्ट्री खोलेंगे?

-- शायद कपड़े की।

शौन ने एकदम उत्तर दिया। उसने यह उत्तर पहले से ही सोच रखा था। वे सभी उससे हाथ मिलाने लगे। उन्हें बलदेव बहुत अच्छा व्यक्ति दिखाई दे रहा था जो कि शहर में रोज़गार ला रहा था। बलदेव बेंच पर बैठकर गीनस के घूंट भरता हुआ पब का निरीक्षण-सा करने लगा। छोटा-सा पब था। एक तरफ आयरलैंड का प्रमुख वाद्य हार्प पड़ा था। उसे ध्यान आया कि पब का नाम भी ‘द हार्प’ ही था। एक तरफ छोटी-सी स्टेज थी, जिस पर एक स्टूल पर गिटार जैसा कोई वाद्य-यंत्र पड़ा था। बलदेव पब में उपस्थित लोगों के लिए आकर्षण का कारण बन चुका था। हर कोई उसकी तरफ देख रहा था। वह भी एक-एक व्यक्ति से नज़र मिलाता और मुस्करा कर उससे मेल-मिलाप का हुंकारा भरता। फिर एक गंजे व्यक्ति ने स्टेज पर पड़ा वाद्य उठाया और उस पर उंगलियां फिराने लगा। धीरे-धीरे उसने ऐसी धुन छेड़ी कि सभी खुशी में शोर मचाने लग पड़े। फिर एक स्त्री माइक हाथ में पकड़े मंच पर आई और गाने लगी। कोई कंटरी-साइड धुन थी जैसी पुरानी अमेरिकन फिल्मों में हुआ करती है। इस गीत के बोल मस्ती भरे थे। कोई मल्लाह खौफ़नाक समुद्र में से वापस अपनी महबूबा के पास लौटा था। कुछेक लोग उठकर स्टेज के सामने खड़े होकर नाचने लगे। कुछ फ्लोर पर पैर मार-मार कर संगीत का साथ देने लगे।

बलदेव की थकावट कहीं गुम हो गई। वह कंधे हिला-हिलाकर संगीत का आनंद उठाने लगा। गाने वाली स्त्री में उसे गुराँ का भ्रम हो रहा था। जब वह मुस्कराती तो गुरां जैसी लगती। उसने गीत समाप्त किया। सभी तालियाँ बजाने लगे। वह बलदेव के करीब आकर बोली–

-- तुम अपने मुल्क का कोई गीत नहीं गाओगे?”

-- नहीं, मुझे गाना नहीं आता।

बलदेव ने कहा तो शौन हँसने लगा। शौन जानता था कि वह गाएगा तो क्या, उसे तो संगीत से भी अधिक लगाव नहीं था। बलदेव ‘न-न’ कर रहा था कि उस स्त्री ने उसकी बाँह पकड़ ली। वैसा ही गुराँ जैसा नरम स्पर्श। बलदेव उस स्पर्श के पीछे चलता हुआ स्टेज पर जा पहुँचा। स्त्री ने माइक बलदेव के हाथ में थमा दिया। बलदेव ने चश्मा उतारा, उसे जेब में रखा और गाने लगा–

-- भट्ठी वालिये चम्बे दिये डालिये, नी पीड़ां दा परागा भुन्न दे...।

( भट्ठी वाली, चम्बे(पुष्प) की डाली, री दर्दो का हाड़ा भून दे...।)

उसने पूरे का पूरा गीत गा डाला। स्वर अधिक ऊँचा न उठा सकने के कारण वह पास से ही लौट आता था, पर वह गीत खत्म करके ही रुका। पब में बैठे सभी लोगों ने जोरदार तालियाँ बजाईं। उस स्त्री ने उसे अपनी बाहों में भर लिया। पब का मालिक अंदर से पब को बंद करता हुआ ऊँची आवाज़ में बोला–

इसी खुशी में एक-एक प्वाइंट मेरी तरफ से... फ्राम द हाउस...।"

शौन अवाक् हुआ खड़ा था कि बलदेव ने गीत गाया। बलदेव स्वयं भी हैरान था। वह सबका हीरो बना हुआ था। बारी-बारी से लोग उससे हाथ मिला रहे थे। हर कोई उसके लिए ड्रिंक खरीदना चाहता था। कई अपने गिलासों में से घूंट भरने के लिए कर रहे थे। पब के मालिक ने दुबारा काउंटर खोल दिया। अब उसे पब बंद करने की कोई जल्दी नहीं थी। उन्हें पब में से निकलते ढाई बज गए। शौन बुदबुदाया–- ब्लडी लेट!

फिर कार स्टार्ट करते हुए बोला–

-- भाजी, तूने तो कमाल कर दिया।

-- हाँ, पर पता नहीं यह सब कैसे हो गया।

-- जैसे भी हुआ, पर मुझे नहीं पता था कि तू गा भी लेता है।

यह तो मुझे भी आज ही पता चला। पता नहीं दिमाग के किस कोने में से निकलकर यह गीत सामने आ खड़ा हुआ। शौन उसे वाटरफोर्ड शहर के बारे में बता रहा था। बलदेव कोई ध्यान नहीं दे रहा था। फिर शौन उसके बिजनेसमैन होने की बात सूझने के बारे में बात करने लगा, लेकिन बलदेव तो उस गीत के बारे में सोचे जा रहा था जो कि गुराँ का गीत था। वह हैरान था कि यह गीत कैसे शब्द-दर-शब्द उसके दिमाग में अंकित हो गया था और अब अचानक कैसे आ प्रकट हुआ था। न कभी उसने इस गीत को गुनगुनाया था और न ही कभी गौर किया था। उसने मन ही मन कहा-- गुराँ, मुझे भी गाना आ गया।

।। तीन ।।

माहिलपुर का कालेज। आश्की के लिए ज़रखेज ज़मीन। इसी कालेज में जाने लगा था बलदेव।

वह घर से सम्पन्न था। पिता-भाई इंग्लैंड में थे। उन्होंने उसे कालेज जाने की खुशी में मोटर साइकिल ले दी थी। यद्यपि उसके गाँव से सीधी बस माहिलपुर जाती थी, पर वह मोटर साइकिल ही दौड़ाये फिरता। दो लड़के रास्ते में उसके साथ हो जाते। मोटर साइकिल होने के कारण उसकी दोस्ती का दायरा भी जल्द ही बड़ा हो गया था। सवेरे बस-अड्डे पर जा खड़ा होता और फिर कालेज के गेट के सामने। ये उसके रोजाना के काम हो गए थे। शीघ्र ही वह ग्रुप बनाकर लड़ाई-झगड़ों में भी हिस्सा लेने लगा था।

घर में उसे रोकने-टोकने वाला कोई नहीं था। माँ मर चुकी थी। भैया-भाभी थे जो बड़ों वाले फर्ज़ तो निबाहते, पर आयु का फ़र्क कम होने के कारण उस पर रौब नहीं बना सके थे। शिंदा उससे सिर्फ दो साल बड़ा था। दोस्तों की तरह था। इकट्ठे मिलकर खेती करते थे, शराब निकालते थे और हुड़दंग मचाते थे। शिंदा अगर कोई बात करता तो उसे सलाह देने जैसी ही करता। कालेज जाते ही बलदेव ने खेती का काम छोड़ दिया था। शिंदा एक बार भी उसे जोर देकर नहीं कह सका था कि वह उसकी मदद किया करे। उसकी भाभी थी, अगर किसी बात पर खीझी होती तो उसके बेटे गागू को मोटर साइकिल पर बिठाकर दो चक्कर लगवा देता, वह खुश हो जाती।

पंडोरी माहिलपुर से दूर नहीं है। पश्चिम की ओर सिर्फ चार मील। माहिलपुर की खबर गाँव में पहुँचती तो लोग तरह-तरह की बातें करने लगते कि यह लड़का कहीं न कहीं खता खाएगा। लोग शिंदे से कहते। शिंदा उसे समझाने लगता, पर बलदेव एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देता।

कालेज में यूथ फेस्टिवल के दिन थे। बलदेव को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसने अपने मित्रों के साथ होशियारपुर देखने के लिए निकलना था, पर किसी बात पर लेट हो गए। यूँ ही वक्त काटने के लिए पंडाल में जा घुसे। कविता पाठ की प्रतियोगिता चल रही थी। भाग लेने वाले विद्यार्थी बारी-बारी से कविता पढ़ रहे थे। बलदेव की मंडली पीछे बैठकर बातें कर रही थी, जिससे पंडाल का ध्यान भंग हो रहा था। स्टेज सचिव ने कई बार उन्हें चुप भी करवाया लेकिन बेअसर रहा। तभी एक लड़की स्टेज पर आई। उसने माइक पकड़ा और मुँह ऊपर उठाकर आँखें मूंदकर हेक लगाई– “भट्ठी वालिये, चम्बे दिये डालिये... नी पीड़ां दा परागा भुन्न दे...।"

सारा पंडाल शांत हो गया। बलदेव तो जैसे कील दिया गया हो। पास बैठा तेजा कहने लगा–

-- अरे यह तो गुराँ है ... चक्क वाली... यह तो भई बढ़कर निकली, लगती नहीं थी।

बलदेव को तेजा की बात सुनाई नहीं दी थी। वह तो गुराँ को सुन रहा था। वह गुराँ को देख रहा था। उसकी लम्बी गर्दन में से होकर निकलता एक-एक शब्द उसको मस्त किए जा रहा था। उसका गीत समाप्त हुआ। अनाउंसर ने कुछ कहा। गुराँ के बाद अगले विद्यार्थी की बारी आई। लेकिन बलदेव को अभी भी वही गीत सुनाई दे रहा था। उसके दोस्त उसे फिल्म देखने जाने के लिए उठाने लगे। अगले शो का समय हो रहा था। पहुँचना भी होशियारपुर था। पर वह न उठा। मंच की तरफ ही देखे जा रहा था। दोस्तों से कहने लगा–

-- छोड़ो यारो फिल्म... ये यूथ फेस्टिवल देखते हैं, फिल्म तो कल भी देखी जा सकती है।

बलदेव की बात सुनकर वे सब बैठ गए। बलदेव की नज़रें गुराँ को खोज रही थीं। वह न जाने कहाँ जा छिपी थी। फिर प्रतियोगिता के परिणाम की घोषणा हुई। गुराँ को इसमें फर्स्ट प्राइज़ मिला था। तालियों से सारा पंडाल गूँजने लगा, पर बलदेव जस का तस बैठा रहा। किसी ने कहा–

-- पता नहीं यार, यह ईनाम कैसे ले गई। चलती तो गर्दन झुका कर है।

फिर जब गुराँ ने ईनाम लिया तो बलदेव अपने हाथों की तरफ देखने लगा। गुराँ ईनाम लेकर चली गई। लेकिन बलदेव ज्यों का त्यों बैठा रहा। यूथ फेस्टिवल के समाप्त होने पर उसे दोस्तों ने पकड़कर उठाया।

उस दिन के बाद बलदेव बदल गया। खामोश रहने लगा। पहले वाली जल्दबाजी खत्म हो गई। मोटर साइकिल की स्पीड कम हो गई। बस-अड्डे पर जाकर खड़ा होना बंद कर दिया। दोस्त राहों में खड़े होकर उसका इंतज़ार करते रहते, वह दूसरी तरफ से निकल जाता। गुराँ की तरफ दूर से खड़े होकर देखता रहता। कक्षा में भी ऐसी जगह पर बैठता जहाँ से गुराँ दिखाई देती हो। गुराँ इस बात से बेखबर थी, पर बलदेव को इस बात की परवाह नहीं थी कि गुराँ उसकी तरफ देखती थी कि नहीं। बस, वह उसकी ओर देखता रहता।

यह जज्बा जिसे वह पाल बैठा था, कभी-कभी उसको बहुत आनंदमय लगता और कितनी-कितनी देर वह आनंदित हुआ घूमता रहता। लेकिन कभी-कभी खीझने भी लगता कि कैसी बीमारी लगा ली थी उसने।

एक दिन शराब पीते हुए शिंदे ने पूछा–

-- तेरी तबीयत तो ठीक है?

-- हाँ, ठीक है।

-- फिर यह खोया-खोया-सा क्यों घूमता रहता है?

-- कुछ नहीं यार, यूँ ही...।

-- अगर कुछ नहीं तो मैंने यह गुड़ की इतनी ज़बरदस्त चीज बनाई है, एक बार भी नहीं कहा तूने।

-- यार शिंदे, एक लड़की देखी है...।

-- पसंद है?

-- यार, पसंद वाली बात तो बहुत छोटी है।

-- चक दे फट्टे ! देखता क्या है, अपना ट्यूबवैल वाला कोठा सही जगह पर है।

-- छोड़ यार, तू उल्टी बात कर रहा है।

-- फिर तूने लड़की पूजा करने के लिए देखी है !

बलदेव ने उसकी बात का जवाब नहीं दिया। उसे लग रहा था कि उसकी यह बात किसी से करने वाली थी ही नहीं। उसके दोस्त भी उल्टा-सीधा बोलने लगते थे। उसने एक-दो बार जब कहा कि गुराँ की आवाज़ उसके कानों में अचानक गूँजने लगती है, तो सब उस पर हँसने लगते।

गुराँ इस सारे घटनाचक्र से अनजान थी। वह चक्क से सवेरे साइकिल से आती और चुपचाप शाम को लौट जाती। राह में कभी वह रुकती नहीं थी। किसी से फालतू बात नहीं करती थी। कक्षा में भी लड़कियों के बीच में बैठती। कक्षा में कौन-कौन सा लड़का था, उसे कुछ मालूम नहीं था। कालेज आने का उसका मकसद सिर्फ पढ़ना था। उसका बाप बहुत साधारण किसान था जो उसे बहुत मुश्किल से पढ़ा रहा था। गुराँ का छोटा भाई था जो कि पढ़ नहीं सका था। माँ-बाप की इच्छा थी कि लड़की ही पढ़-लिख जाए। गुराँ का लक्ष्य बी.ए.,बी.एड करके अध्यापिका बनने का था। वह इस लक्ष्य के पीछे चलती अपने आसपास को अनदेखा करती आ रही थी।

मैडम फ्लौरा यूथ फेस्टिवल की तैयारी में जुटी हुई थी। वह कालेज के नये विद्यार्थियों में से टेलेण्ट तलाशने निकली तो उसने गुराँ के कंधे पर आकर हाथ रखा। गुराँ के साथ स्कूल से आई लड़कियों ने गुराँ के गाने के बारे में बता दिया था। गुराँ सोचती थी कि स्कूल में तो बचपन था, वहाँ लोगों में गाना और बात थी, पर कालेज अलग जगह थी। अब वह बड़ी हो चुकी थी। पूरी औरत थी। लोगों के सामने गाना ठीक नहीं था। और फिर, उसका लक्ष्य तो पढ़ना था, गाना नहीं। उसने मैडम को मना कर दिया। मैडम रिहर्सल करने के लिए दबाव डालने लगी कि गाकर देख ले, अगर पसंद न आए तो न गाए। पर जब उसने कुछेक रिहर्सलें कीं तो उसे यह सब पसंद आने लगा। यह सब-कुछ नया-नया और स्कूल से बहुत भिन्न था। मैडम ने उससे कई गीत गवा कर देखे। अंत में, ‘भट्ठी वालिये...’ ही पसंद किया गया। कालेज के स्टेज से गाती तो विद्यार्थी उसे शांत होकर सुनते।

यूथ फेस्टिवल में से जीते ईनाम ने उसकी कालेज में वाह-वाह करवा दी। मंच के प्रधान ने तो यहाँ तक कह दिया कि इस गीत का गीतकार भी शायद इतने बढ़िया ढंग से न गा सका हो, जैसा गीत गुराँ ने गाया था। कालेज की वह विशेष विद्यार्थी बन गई थी। उसके मन में थोड़ा अंहकार भी आने लगा था। वह थोड़ा बन-सँवर कर भी रहने लगी। कालेज के कितने ही लड़के उस पर जान छिड़कते थे। उससे बात करने का बहाना खोजते थे। हिम्मत वाले लड़के प्यार का इजहार भी करने लगते। पर उसने किसी तरफ ध्यान नहीं दिया और अपनी राह पर चलती चली गई। प्रथम वर्ष अच्छे अंकों में पास हो गई।

पास तो बलदेव भी हो गया था पर मुश्किल से ही। उसकी एक अन्य समस्या थी कि वह इंग्लैंड की तरफ देख रहा था कि कोई न कोई सबब बनेगा ही। भाई किसी ने किसी तरह भिजवा ही देगा वहाँ।

उसका भाई शिंदा एक दिन कहने लगा–

-- बलदेव, ये तू लड़कियों के चक्कर में न फंस जाना... यह अपने प्रोफेसर की तरह कोई पंगा न ले बैठना...कालेज में ध्यान से रहना चाहिए। देखने-दिखाने में तू चंगा है, खुरली पर खड़ा ही लाख का है, कोई न कोई बाहर का रिश्ता हो ही जाएगा। नहीं तो उधर से वे भी जोर लगाएंगे ही, पर तू ध्यान से रह।

बलदेव ने कोई उत्तर न दिया। वह सोच रहा था कि शिंदे की किस बात का जवाब दे, जवाब कोई था ही नहीं। वह किसी लड़की के चक्कर में था ही नहीं। वह तो बस गुराँ को दूर से देखा करता था, इससे अधिक कुछ नहीं था। पूरा साल यूँ ही गुजर गया।

उसकी यह हालत सफ़र करती-करती गुराँ तक भी पहुँच गई। उसके लिए यह बात कोई नई बात नहीं थी। कितने ही दीवाने थे उसके। कई उसे राह में चलती को आवाज़ें भी कसते। कइयों ने तो उसका नाम ही ‘भट्ठी वाली’ रख छोड़ा था। उसे पता था कि कई खामोश आशिक भी होंगे। लेकिन उसे इन बातों से कोई सरोकार नहीं था। उसने तो अपनी पढ़ाई पूरी करनी थी। फिर भी उसने सोचा कि एक नज़र बलदेव को देखे तो सही। लम्बा-चौड़ा बलदेव, बड़ी-बड़ी आँखें, गोल चेहरा, भरवीं दाढ़ी और खड़े सिर के बाल। उसे अच्छा लगा। उसी पल उसने सोचा कि अच्छे-बुरे से उसे क्या लेना था।

बलदेव ने कालेज चक्क की तरफ से होकर जाना प्रारंभ कर दिया था जबकि चक्क माहिलपुर के दूसरी ओर पड़ता था और उसको कई मील का सफ़र अधिक तय करना पड़ता था। उसे अधिक सफ़र हो जाने से कुछ नहीं था, उसने तो एक नज़र गुराँ को देखना होता था। गुराँ साइकिल पर जा रही होती और वह मोटर साइकिल धीमी करके उसके करीब से निकल जाता। अब तक गुराँ भी उसके मोटर साइकिल की आवाज़ पहचानने लग पड़ी थी। पास आते ही आवाज बदलने लगती।

फिर वह इस आवाज़ की प्रतीक्षा करने लगी। अगर आवाज़ न सुनाई देती तो उसे बेचैनी होने लगती। फिर वह बलदेव को क्लास में आते-जाते देखने लगी और मन ही मन हँसती कि इतना बड़ा आदमी है, पर ज़रा-सी बात करने की हिम्मत नहीं। कभी-कभी उसका दिल करता कि वह स्वयं ही बलदेव को बुला ले, पर ऐसा वह नहीं कर सकती थी। ऐसा उसने नहीं करना था। अब इतना अवश्य हो गया था कि अगर वह गाने के लिए स्टेज पर चढ़ती तो सबसे पहले उसकी नज़रें बलदेव को खोजने लगतीं और आखिर एक कोने में बैठे को वे खोज ही लेतीं। वह पहले की भांति आँखें मूंदकर गाती और बीच-बीच में आँखें खोलकर बलदेव की तरफ देखती। बलदेव की आँखों की प्यास उसके अंदर उथल-पुथल मचाने लगती। कई बार उसका ध्यान भी उखड़ जाता और वह कुछ गलत भी गा जाती, जिसके बारे में बाद में कोई सहेली या मैडम उसे बताती। वह उनकी बात सुनने के बजाय बलदेव के बारे में सोचने लगती।

एक दिन अपने घर में खड़ी वह अपने आंगन को देख रही थी कि यह आंगन कहीं बलदेव के लिए छोटा तो नहीं पड़ जाएगा। वह उसी वक्त अपने आप को झिड़कने लगी कि वह यह क्या फिजूल का सोचे जा रही थी।

उसे बलदेव के ख़याल रह-रह कर आने लगते। जितना वह खुद को बरजती या रोकती, उतना ही अधिक तंग होती। कई बार वह पसीने-पसीने हो जाती। उसे भय सताने लगता कि कोई बीमारी ही न लगा बैठे। उसका दिल करता कि इस बारे में किसी सहेली से ही मिलकर बात करे ताकि मन का बोझ हल्का हो सके। लेकिन वह डर जाती कि बात कहीं फैल ही न जाए। बलदेव को ही न मालूम हो जाए। कई बार यह भी सोचती कि क्यों न बलदेव से ही सारी बात करे। उसे सब-कुछ बताए। शायद इसके अच्छे नतीजे ही निकलें। सोच-सोच कर वह पागल होने लगती। और एक दिन उसकी सारी समस्याओं का हल निकल आया। उसके माँ-बाप ने उसके लिए कोई लड़का पसंद कर लिया था और विवाह की तारीख भी दस दिन बाद की रख दी थी।

।। चार ।।

वैलजी वे प्रात: चार बजे पहुँचे। मुख्य सड़क से हटकर जो रोड थी, उस पर कुछ मील जाकर शौन का घर था। सड़क पर इस तरह के इकहरी मंज़िल वाले अन्य भी इक्का-दुक्का घर थे। सड़क से घर के लिए दो रास्ते थे। एक अंदर जाने के लिए और दूसरा बाहर आने के लिए। घर के बाहर खड़ी कार की ओर इशारा करते हुए शौन बोला–

-- यह मैथ्यू की है, बहुत रफ़ चलाता है, देख तो ज़रा इसकी हालत।

वे दोनों कार में से निकले। ताज़ी हवा के बुल्ले इनके जिस्मों को स्पर्श करने लगे। काफ़ी ठंड थी। वे कमीज़ों में ही थे। भारी कपड़े कार के बूट में ही पड़े थे। शौन ने दरवाज़े की घंटी बजाई। कोई नहीं आया। फिर बजाई, दरवाज़ा भी खटखटाया। कोई उत्तर न मिला। फिर उसने मैथ्यू को आवाज़ देकर पुकारा और अंत में गालियाँ बकने लगा। जब दरवाज़ा न खुला तो वह बलदेव से कहने लगा–

-- आ चल, रसोई की तरफ से चलते हैं।

वे घर के पिछवाड़े चले गए। शौन ने खिड़की का शीशा उतारा और अंदर जा घुसा। अंदर जाकर उसने बलदेव के लिए दरवाज़ा खोल दिया। रसोई में बर्तन जस के तस बिखरे पड़े थे। शौन हँसते हुए बोला–

-- देख, लगता है न पंजाबी का घर।

फिर उसने अल्मारी में से आयरिश व्हिस्की बु्शमिल की बोतल उठा ली। दो पैग बनाए। एक गिलास बलदेव को देते हुए बोला–

-- वैलकम टू आयरलैंड !... मेरे मुल्क की व्हिस्की ट्राई कर।

बलदेव ने कई बार आयरिश व्हिस्कियाँ पीकर देख रखी थीं। इन व्हिस्कियों के स्वाद में धुआंखेपन की बू होती थी। वह सोचने लगा कि ये लोग किस तरीके से शराब बनाते होंगे कि वह स्मोकी हो जाती है। एक बार शौन से बहस भी कर चुका था कि व्हिस्की के धुआंखे होने का सवाल ही पैदा नहीं हो सकता। वह इस बारे में सोच ही रहा था कि मैथ्यू आ गया। वह सीधा बैड पर से ही आँखें मलता हुआ आ रहा था। बलदेव ने शक्ल से ही पहचान लिया। वह उनसे हाथ मिलाता हुआ बोला–

-- हम तो सारी रात इंतज़ार करते रहे...।

शौन ने उसके लिए भी पैग बनाया और गुस्सा होकर कहने लगा–

-- दरवाज़ा क्यों नहीं खोला?

-- तुम्हारी इन्तज़ार करते-करते हम बहुत देर से सोये थे।

मैथ्यू की अंग्रेज़ी इतनी गूढ़ आयरिश उच्चारण में थी कि बलदेव को समझने में कठिनाई महसूस हो रही थी। वे रसोई में से बैठक में आ गए। अब तक शौन की माँ भी उठ आई। बलदेव ने उसका हाथ पकड़कर ‘हैलो’ कहा। वह पश्चिमी बुजुर्गों से मिलने का तरीका नहीं जानता था। भारतीय बुढ़िया होती तो पैरों को हाथ लगाता। फिर मैथ्यू की पत्नी कुमैला और बच्चे भी आ गए। शौन ने बच्चों का तआरुफ़ करवाते हुए कहा–

-- यह है बड़ा शौन और यह है कुमैला... शौन का नाम मेरे वाला है, मेरे बाप का भी यही था, यह हमारा ख़ानदानी नाम है। कुमैला का नाम इसकी माँ वाला है।

बलदेव को क्रिश्चियनों के नामकरण का पता था कि एक ही नाम पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आता है। उसने बच्चों को उठाने की कोशिश की लेकिन वे भाग गए। बलदेव से शरमा रहे थे। कुमैला भी रसोई के काम में जा लगी। शौन ने बलदेव से कहा–

-- डेव, हम घंटा भर सो लें, नहीं तो बेकार परेशान होंगे। अपना शैड्यूल बहुत बिजी है।

शौन उसे एक कमरे में ले गया, जहाँ उसका बैग रखा हुआ था। उनके बैठते ही मैथ्यू कार में से सामान निकाल लाया था। दो हफ़्तों के कपड़े आदि थे। शौन बलदेव को बिस्तर पर लिटाकर स्वयं दूसरे कमरे में जा पड़ा। अब सोने का वक्त नहीं रहा था। परदों में से भी रोशनी अंदर आ रही थी।

मैथ्यू को बेचैनी हो रही थी। शौन और बलदेव का इस तरह सो जाना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। उसने उनका रात में इतना इंतज़ार किया था कि पब तक नहीं जा सका था यह सोचकर कि कहीं वे आ ही न जाएं। उसे इस बात की चिंता नहीं थी कि वे दो रात से सो नहीं पाए थे। अभी घंटा भर भी नहीं हुआ था कि वह बलदेव के कमरे में चला गया। उसे करवटें बदलता पाकर बोला–

-- डेव, चल उठ, बेकरी चलती हैं।

बलदेव उठ खड़ा हुआ। नींद तो उसको न के बराबर ही आई थी। उसे ज़बरदस्त थकान थी। उसकी हालत देखकर मैथ्यू बोला–

-- चिंता न कर, गीनस ठीक कर देगी।

बलदेव हँसता हुआ बाथरूम में जा घुसा। तैयार हुआ तो कुमैला घर की बनी ब्रेड के टोस्ट सामने रख गई। उसे यह ब्रेड बहुत स्वादिष्ट लगती थी। सिमरन भी घर में ही ब्रेड बेक कर लिया करती थी। मैथ्यू इतना उतावला था कि बलदेव को नाश्ता भी नहीं करने दे रहा था। बलदेव के आने पर वह बेहद उमंगित था।

उसने अपनी कार के बजाय शौन वाली कार ले ली और बोला–

-- हम शौन के जागने से पहले ही लौट आएंगे। मुझे तो वह अपनी कार को हाथ ही नहीं लगाने देता।

यह कहकर उसने कार को पीछे की ओर ही भगा लिया और बाहर सड़क पर ले आया। कार को सीधा करते हुए बताने लगा– -- दायीं ओर कौर्क और वाटरफोर्ड है, जहाँ से तुम रात में आए थे। यहाँ से हमारा गाँव वैलजी एक मील पर है, मिंटले आधा मील... यह बायीं ओर वाला फार्म पहले हमारा हुआ करता था... वो सामने चर्च था, गिर पड़ा था। अब दुबारा बनाएंगे...यह फार्म हमारे परिवार के आदमी का ही है, यह भी मरफी है। हमारे बाबा और इनके बाबा के बाप दोनों भाई थे। इन्होंने फॉर्म बीसेक साल पहले ही लिया है। इनका एक लड़का गठिये का मरीज है, कच्चा दूध जो पी लिया था... वो सामने चीज़-फैक्टरी है। मैंने भी यहाँ काम किया था। इसकी मालकिन पाग़ल हो गई। सामने वाली सड़क ज़ोज़ी के पब की ओर जाती है...।

जब तक वे एक दुकान के आगे न रुके, वह बोलता ही गया। उसके उच्चारण के कारण बलदेव को कई बार दुबारा पूछना पड़ता कि वह क्या कह रहा है। वह बलदेव को बाँह से पकड़कर दुकान के अंदर ले गया और फिर वहाँ सबको प्रसन्न होकर बताने लगा– -- यह डेव है, मेरे भाई शौन का दोस्त। लंदन में रहता है। आज ही आया है, दो सप्ताह ठहरेगा।

दुकान में दो ग्राहक थे और दो काम करने वाले। सभी बलदेव को उत्साह से मिल रहे थे। पराये रंग का आदमी उन्हें अधिक देखने को नहीं मिलता था। दुकान में ग्राहक आ-जा रहे थे। हर कोई उससे विशेष तौर पर मिलता। मैथ्यू साथ के साथ कमेंटरी करता जा रहा था। बिलकुल ग्रामीण माहौल था। पंजाब के लोगों के साफ़ स्वभाव जैसे लोग सीधी-सरल बातें कर रहे थे। किसी ने पूछा–

-- तू डाक्टर है?

-- नहीं तो।

-- तेरे जैसे रंग वाले लोग डाक्टर ही तो होते हैं। हमारा एक डाक्टर था, हम उससे मज़ाक किया करते थे कि तूने हाथ नहीं धोये, जा हाथ धोकर आ।

वहाँ खड़े सभी लोग हँस पड़े। टाईवाले एक आदमी ने सोचा कि कहीं मेहमान गुस्सा ही न हो जाए, कहने लगा–

-- यहाँ एशियन और काले लोग बहुत कम हैं... यहाँ ज्यादातर लोग तो ऐसे होंगे, जिन्होंने काले लोग देखे ही नहीं होंगे। ऐसे लोग भी हैं जिन्हें यह भी नहीं पता कि धरती पर रंगदार लोग भी होते हैं। कभी कहीं गए ही नहीं, अशिक्षा भी बहुत है।

बलदेव उसकी बात का असली भाव समझ गया था। उसने मुस्कराते हुए कहा–

-- अशिक्षा और अज्ञानता तो हर मुल्क के गाँवों में होती है, इंग्लैंड के गाँवों में तो बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने अभी तक लंदन नहीं देखा और बहुत से तो लंदन देखे बगैर ही मर जाते हैं।

मैथ्यू ने साबुत ब्रेड्स खरीदीं। बलदेव ने देखा कि दुकान में कटी हुई कोई ब्रेड नहीं थी। वह सोच रहा था कि यहाँ साबुत ब्रेड का ही रिवाज होगा। कहने को तो यह बेकरी थी, पर आम दुकानों की तरह यहाँ भी सब-कुछ मिलता था। मैथ्यू ने एक टेप भी खरीदा। कार में बैठते ही टेप लगाकर कहने लगा–

-- यह हँसी-मज़ाक से भरा टेप है, ज़रा सुन, तुझे पसंद आएगा।

बलदेव ने ध्यान से सुनने की कोशिश की। बहुत कुछ उसके पल्ले नहीं पड़ रहा था। वह मैथ्यू की ओर देखकर ही हँसने लगता। उसे हँसता देखकर मैथ्यू को अजीब-सी ख़ुशी हो रही थी। उसकी आँखें तसल्ली से भर जाती थीं।

उनके लौटकर आने तक शौन भी सो कर उठ चुका था। कुछ देर बाद वे तीनों एक साथ निकल पड़े। मैथ्यू कार चला रहा था। शौन उसके बराबर में बैठा था और बलदेव पीछे। पहले उन्होंने उसे अपना गाँव दिखाया और फिर आसपास का इलाका। इंग्लैंड के गाँवों की तरह ही ये गाँव भी थे। उन्होंने अपनी पारिवारिक कब्रें भी दिखलाईं, जहाँ उनके बुजु़र्ग दबे हुए थे और उनकी जगहें सुरक्षित थीं।

एक बात जो उसने नोट की, वह यह कि यहाँ पबों की बहुत भरमार थी। वे दो पबों में बियर पी कर बारह बजे वाली सर्विस तक चर्च में आ पहुँचे। शौन कैथलिक क्रिश्चियन था और बहुत ही कट्टर। हर इतवार चर्च जाया करता था। बलदेव भूल ही गया था कि आज इतवार है। उसने एक पल के लिए सोचा कि आज तो गुराँ भी फ़ुर्सत में होगी।

चर्च के बाहर ‘आज का वाक्य’ लिखा हुआ था। शौन बता रहा था कि यह उनके परिवार का चर्च था। किसी बड़े बुज़ुर्ग ने बनवाया था। उनके पीछे ही बलदेव चर्च में घुसा। वह पहले भी शौन के साथ चर्च जाया करता था। वह इसमें विश्वास नहीं करता था पर साथ देने के लिए चला जाता था। ऐसे ही, शौन भी उसके साथ गुरुद्वारे जाता रहता था। चर्च में स्कूलों के डैस्कों की भांति डैस्क लगे हुए थे, जिन पर आज की अरदास के कुछ पन्ने और अन्य किताबचे-से पड़े हुए थे। अरदास के कई पड़ाव थे।

बलदेव को अधिक जानकारी नहीं थी। वह बाकी लोगों को देखकर उनकी तरह ही करता। चर्च में शौन के बहुत से परिचित मिल गए। वह किसी के पास रुकता नहीं था। हाथ मिलाकर वह आगे बढ़ जाता। उनमें से कुछ लोग बलदेव को भी आकर मिलते। मैथ्यू पब को जाने के लिए उतावला था। वह कह रहा था– “ज़ोज़ी के यहाँ चलते हैं, वह सड़क पार करके उसका पब है।” बलदेव सोच रहा था कि ज़ोज़ी का पब कोई खास जगह होगी जिसका जिक्र सुबह से मैथ्यू कई बार कर चुका था। यह नाम पहले शौन से भी सुन रखा था। जब लौटकर वे कार में बैठे तो उसने पूछा– “यह ज़ोज़ी का पब तो तुम्हारा खास पब लगता है।” “हाँ, तू भी देखेगा तो हैरान रह जाएगा। यह पब गवर्मेन्ट के किसी कानून के मुताबिक सहीं नहीं उतरता। न यहाँ टॉयलेट है, लोग बाहर ही खड़े हो जाते हैं, स्त्रियाँ ज़ोज़ी के फ्लैट में चली जाती हैं। न कोई हीटिंग है, न धुआं निकालने के लिए पंखा। पर फिर भी बेहद बिजी रहता है।” शौन के बाद मैथ्यू ने कहा। वह आगे बताने लगा– “बियर भी इसकी सस्ती होती है। बियर सस्ती होने का कारण तो वैसे यह है कि थरूरियों में जाकर यह बैठी हुई बियर ले आती है और ज्यादा गैस देकर बेची जाती है। रिजेक्टिड बियर तो मुफ्त के भाव ही मिल जाती है।” “कोई माइंड नहीं करता।” “माइंड ?... बल्कि खुश होकर पीते हैं। रात में तू भीड़ देखना एक बार।” सड़क के किनारे एक पहाड़ी के ऊपर था यह पब। पब कैसा, छोटा-सा घर था। खाली क्रेटों या ड्रमों से पब कहा जा सकता था। बीसेक कारें खड़ी करने की जगह थी जहाँ चार खराब कारें पहले ही खड़ी थीं। अधिकतर कारें मेन रोड पर ही पार्क थीं। कारों की संख्या देखकर लगता था कि अंदर काफी लोग थे। एक गीली-सी दीवार की ओर इशारा करते हुए मैथ्यू बोला– “यह है पब का टॉयलेट। बारिश हो या बर्फ़, लोग यहाँ आ खड़े होते हैं।” बताते हुए मैथ्यू हँसने लगा। वे पब के अंदर गए। एक ही कमरा था। अंदर भीड़ थी। धुएं से सारा वातावरण भरा पड़ा था। वे लोगों की भीड़ में से जगह बनाते हुए काउंटर तक पहुँच गए। गिलास भरती लड़की से मैथ्यू ने कहा– “ज़ोज़ी कहाँ है ?” “ऊपर है।” “जा, उसे कह कि गारडा आया है।” कहकर उसने बलदेव की तरफ इशारा किया। गारडा से उसका मतलब था– सिपाही। उस लड़की ने ज़ोज़ी को आवाज़ लगाई। कुछ देर बाद मोटी-सी, टेढ़े घुटनों वाली औरत आ प्रगट हुई। मैथ्यू ने उससे कहा– “ज़ोज़ी, तेरी कारगुजारी चैक करने के लिए गारडा आया है।” “मैथ्यू, अगर तूने इसके आने के बारे में पहले मुझे न बताया होता तो मैं तेरी बात पर ध्यान भी देती।” शौन ने उसे इशारा किया और एक तरफ बुला लिया। उसने ड्यूटी-फ्री वाली लाई हुई बोतलें बेचनी थीं। इसी तरह, पबों वाले इंग्लैंड से आने वालों की प्रतीक्षा करते रहते थे। बलदेव को कमरे का धुआं चढ़ने लगा। उसने अपना चश्मा उतार कर साफ किया। मैथ्यू ने उससे पूछा– “ऐलिसन का क्या हाल है?” बलदेव को ठीक से समझ में नहीं आया। हालांकि संगीत नहीं चल रहा था, पर फिर भी काफी शोर था। बलदेव ने ‘सॉरी’ कहकर सवाल दोहराने के लिए कहा। वह सोचने लगा कि कौन है यह ऐलिसन ? वह तो किसी ऐलिसन को नहीं जानता था। फिर उसे स्मरण हो आया कि शौन की बहन का नाम भी ऐलिसन था, जिससे शौन की कम ही बनती थी। शौन उससे नाराज था कि उसने कुंवारेपन में बच्चे पैदा कर लिए थे जो कि कैथोलिक धर्म के बहुत खिलाफ है। इसीलिए सभी ने ऐलिसन से सम्बन्ध तोड़ रखे थे। सिगरेटों के धुएं से बलदेव को खांसी होने लगी तो वह बाहर निकल आया। अपना गिलास थामे मैथ्यू भी पीछे-पीछे ही आ गया। उसने बलदेव से फिर पूछा– “ऐलिसन का क्या हाल है?” “बहुत अच्छा। वह बिलकुल ठीक है।” बलदेव ने शीघ्रता में कहा। मैथ्यू बोला– “डेव, वह बहुत अच्छी लड़की है। तूने जो उससे विवाह करने का फैसला किया है, वह बहुत सही है।”



।। पाँच ।।

जुलाई का महीना है। गरमी बहुत पड़ रही है। इतनी भी नहीं कि रिकार्ड टूट जाए। सैंतीस डिग्री का रिकार्ड है लंदन की गरमी का। जुआरियों की कंपनी की ओर से इस साल की गरमी के रिकार्ड टूटने को लेकर शर्त लगाने के बारे में लोगों को उकसाया जा रहा है। तीन हफ्तों से पड़ रही गरमी से अब लोग ऊबने भी लग पड़े हैं। बारिश की दुआ कर रहे हैं। दुकानों और पबों वाले खुश है। आइसक्रीम, सोफ्टड्रिंक्स, बियर आदि की बिक्री अच्छी हो रही है। यद्यपि, टेक-अवे गर्म खाने इतने नहीं बिक रहे। गरमी का मौसम प्रदूषण को भी बढ़ाता है। यही कारण है कि ट्रैफिक के समय हाईबरी कॉर्नर के राउंड-अबाउट के इर्द-गिर्द माहौल दमघोंटू हो जाता है। इसी बात का ध्यान रखते हुए काउंसल ने कुछ नए दरख़्त लगाए हैं। पेड़ तो लगाए हैं पर राउंड-अबाउट के इर्द-गिर्द की प्रेड के लोगों को ये पसंद नहीं हैं, खासतौर पर दुकानदारों को। वे कई बार इन पेड़ों को उखाड़ फेंकने की बात भी करते हैं क्योंकि इससे दुकानें पूरी दिखाई नहीं देतीं। लेकिन पेड़ उखाड़ना ज़ुर्म है। जु़र्म करने के लिए कोई आसानी से तैयार नहीं है, इसलिए पेड़ फलने-फूलने लगे हैं। हाईबरी के इस बड़े-से राउंड-अबाउट के चारों ओर दुकानें और दफ्तर हैं। हौलो-वे रोड से इसमें दाख़िल हों तो चैरिटी वालों का बड़ा दफ्तर है। साथ ही, पीज़ा और साथ ही, सिंह-वाइन्स। उसके साथ एक ‘फिश एंड चिप्स’ और फिर सरकंडों की छत से बना पब जिसका नाम ‘बैच्ड हाउस’ है। जिसकी मालकिन शीला मिंटगुमरी है। वह अपने ब्वाय-फ्रेंड पॉल राइडर के साथ मिलकर इसको चलाती है। फिर सेंट पौल्ज़ रोड है। इसे पार करके दुकानें हैं जैसे कि कारों के स्पेअर पार्ट्स की, इस्टेट एजेंट है, इंश्योंरेंस का दफ्तर आदि। फिर सिटी रोड पर आगे काउंसल के दफ्तर हैं। इसी तरह आगे अपर स्ट्रीट पार करके ‘मैकडॉनल्ड’ ‘कंटकी’ आदि। बहुत व्यस्त जगह है। बिजनेस के नज़रिये से बढि़या मानी जाने वाली। बड़ी सड़कों का जंक्सन भी है। हौलो-वे रोड जिसे ‘ऐ-वन’ भी कहते हैं, सीधी सिटी में जाती है। दूसरी ओर से सेंट पौल्ज़ रोड ईस्ट लंदन से आकर सीधी वेस्ट एंड पहुँचती है। इस पर यदि सीधे चलते जाओ तो दरिया थेम्ज़ आ जाता है। करीब दस बजे ‘सिंह वाइन्स’ का शटर अंदर से खुला। सत्तर वर्षीय भारी देहवाला एक बुजु़र्ग बाहर आ खड़ा हुआ। वह सेंट पौल्ज रोड की ओर देखने लगा। सड़क के फुटपाथ पर कई आदमी चले आ रहे थे, पर टोनी दिखाई नहीं दे रहा था। उसने ऐनक ठीक की और आँखों पर हाथ की छ्त्तरी बनाकर फिर से देखने लगा। टोनी अभी भी नहीं दिखाई दिया। उस बुजु़र्ग ने घड़ी की तरफ देखा। दस बजने में पाँच मिनट शेष थे। वह मन ही मन बुदबुदाया, “यह लेजी पूरे टाइम पर ही आएगा। यह नहीं कि तू दो मिनट पहले ही आ जा। शटर उठा लेते हैं, लड़का भी माल लेकर आने वाला है,नहीं...यह तो पूरे टाइम पे ही पहुँचेगा।” उसके शटर उठाते ही पब का गवना पॉल राइडर भी पब खोलने लग पड़ा। उसने हवा से घूमने वाला साइनबोर्ड खींचकर फुटपाथ पर रख दिया, जिस पर कैपिटल अक्षरों में लिखा था– ‘हॉट फूड सर्व्ड हियर।’ पॉल ने सोहन सिंह को देखकर दूर से ही हैलो की और ऊँचे स्वर में पूछा– “हाऊ आर यू डैड ?” “मी ओ.के. पाल, यू ओ.के. ?” “यैस... नाइस डे अगेन।” “वैरी ब्यूटीफुल!... मी ड्रिंक टुडे, जू बाई ?” “आफ कोर्स ! कम आन हियर लेटर आन, आय बाई बियर फार यू।” “मी जोकिंग पाल, मी ड्रिंक बरांडी, बियर वाटर, मीन नो वाटर।” पॉल हँसता हुआ अंदर जा घुसा। सोहन सिंह ने वाहेगुरु कहते हुए दुकान खोल ली और साथ ही सिगरेट खरीदने के लिए एक ग्राहक ने अंदर प्रवेश किया। ग्राहक को सर्व करते हुए ही टोनी आ गया। सोहन सिंह ने उसे घड़ी दिखलाते हुए कहा– “फैव मिनट लेट जू लेजी।” “सॉरी डैड, बस गॉट लेट।” “नो बस लेट, टू मच वोमैन लेट।” “यैस डैड, मी यंग मैन, वोमैन वैरी गुड फार मी, यू ओल्ड मैन, नो गुड फार वोमैन।” “मी ओल्ड...ओल्ड गोल्ड।” कहते हुए सोहन सिंह हँसने लगा और टोनी भी। टोनी पैंतालीस साल का अफ्रीकन नस्ल का आदमी था जो कि कई सालों से दुकान में काम करता चला आ रहा था। वह अपने दुबले-पतले शरीर के कारण अभी जवान दिखाई देता था। बालों मे मणके-से डालकर रखता। वह दुकान से बाहर निकलते हुए बोला– “नो साइन आफ ऐंडी !... मे बी ट्रैफिक।” वह अभी कह ही रहा था कि अजमेर की वैन बाहर आकर खड़ी हो गई। राउंड-अबाउट की दुकानें होने के कारण गाड़ी खड़ी करने की बहुत समस्या थी। लगभग चार कारों की जगह उनकी दुकानों के आगे बनी हुई थी, पर वह हमेशा भरी रहती। यदि वैन खड़ी करने के लिए सही जगह न मिलती, तो जल्दबाजी में खाली करनी पड़ती। ट्रैफिक वार्डन का भय रहता। अजमेर को भी जगह न मिली। उसने डबल पार्किंग ही कर ली। टोनी ‘हैलो’ कहकर पिछला दरवाजा खोलने लगा और सामान का अंदाजा लगाने लगा कि कितना सामान है और पहले वह कौन-सा उतारे। उसने बियर के क्रेटों को हाथ लगाया और तीन क्रेट उठाकर अंदर ले गया। अजमेर ने वैन का साइड डोर खोलकर सामान उतारना शुरू कर दिया था। अभी थोड़ा-सा सामान ही उतरा होगा कि ट्रैफिक वार्डन आ गया। कहने लगा– “मिस्टर सिंह, तू डबल पार्किंग नहीं कर सकता।” “और क्या करूँ ? कहीं भी जगह नहीं है।” “तू आठ बजे से पहले अनलोड किया कर या फिर जगह खाली होने का इंतजार कर।” “ऐसा मैं नहीं कर सकता। भरी वैन को कहीं ओर कैसे खड़ी करूँ।” “वैन मूव कर नहीं तो मैं टिकट दे दूंगा।” अजमेर उसकी बात अनसुनी करके सामान उतारने लगा। ट्रैफिक वार्डन ने उसकी वैन का नंबर नोट करना शुरू कर दिया। अजमेर डर गया कि सचमुच ही टिकट न काट दे। उसने वैन स्टार्ट की और ले गया। चक्कर काटकर आया तो वार्डन जा चुका था। वे जल्दी-जल्दी वैन अनलोड करने लगे। टोनी कह रहा था– “यह कुछ ज्यादा नस्लवादी है। दूसरे वार्डन जबकि मान जाते हैं।” उन्होंने वैन खाली कर दी। अजमेर वैन को दुकानों के पिछवाड़े दुकानदारों के लिए सुरक्षित पार्किंग में खड़ी कर आया। वापस दुकान में आकर अजमेर सीधा पिछले स्टॉक रूम में गया। वहाँ लगे बड़े-से शीशे में खुद को देखा। वह थका-थका-सा लग रहा था। उसकी पगड़ी का सिरा पसीने से भीगा पड़ा था। वह ऊपर फ्लैट में जा चढ़ा। टोनी और सोहन सिंह सामान को सैल्फों में टिकाने लगे। सोहन सिंह प्राइसिंग गन से कीमत लगा देता और टोनी उसे सैल्फ में रख देता। हफ्ते में दो दिन शापिंग की जाती थी। मंगलवार और वीरवार। पहले दिन से ही अजमेर ने यह सिस्टम बना रखा था। ये दो दिन टोनी दस बजे काम पर आता नहीं था तो वह तीन बजे शुरू करता। तीन से ग्यारह। आठ घंटे। आफ लायसेंस होने के कारा शाम की बिक्री अधिक थी। दिन में ग्राहक इक्का-दुक्का ही आता। दिन में तो सोहन सिंह भी ‘टिल्ल’ का काम चला लेता था। अजमेर की पत्नी गुरिंदर भी आ खड़ी होती थी। सोहन सिंह की मुश्किल अंग्रेजी की ही थी, नहीं तो काम वह सभी कर लेता था। उम्र अधिक होने के कारण हाथों में भी फुर्ती नहीं रही थी। ग्राहक बढ़ जाने पर वह जल्दी-जल्दी सर्व नहीं कर पाता था। फिर काउंटर के पीछे लगी घंटी बजा देता जो कि ऊपर फ्लैट में बजती थी। घंटी सुनकर ऊपर से कोई न कोई आ जाता। गुरिंदर या अजमेर। सोहन सिंह का सारा दिन दुकान में शुगल-सा चलता रहता था। वह ऐसा बंदा था कि किसी बात को दिल पर नहीं लगाता था। उसने कभी भी घर की जिम्मेदारी नहीं संभाली थी। पहले उसका बड़ा भाई कामरेड परगट सिंह घर को देखता था और अब उसका यह बड़ा लड़का अजमेर का कर्ताधर्ता था। कामरेड परगट सिंह अपनी ओर से इलाके का माना हुआ व्यक्ति था, जिसका अजमेर पर बहुत प्रभाव था। अभी भी घर में उसे प्राय: याद किया जाता था। उसने ही अजमेर को इंग्लैंड भेजा था। उसके नाम पर अजमेर कई साल पार्टी को फंड भी देता रहा था। अजमेर की दुकान सही स्थान पर थी। आर्सनल की फुटबाल ग्राउंड के बिलकुल नज़दीक। जहाँ हर वीक-एंड पर कोई न कोई मैच चलता ही रहता। वैसे भी हाईबरी कॉर्नर अड्डे की जगह थी। सारी रात लोग चलते-फिरते रहते। रिश्तेदारों और गांव के लोगों में उसकी अच्छी जान-पहचान बन गई थी। ऐसी जान-पहचान बनाकर रखना उसके स्वभाव में था। प्रशंसा का भूखा भी था वह। कई लोग उसकी तारीफें करके उसका इस्तेमाल भी कर लेते थे। अजमेर की दुकान सामने से तो आम दुकानों जितनी ही चौड़ी थी, पर पीछे की ओर काफी लम्बी थी। जितनी दुकान थी, उतना ही पिछवाड़े में स्टॉक रूम था। बगल में एक कमरा और पीछे की ओर बाथरूम। पीछे एक छोटा-सा आंगन भी था। दुकान में प्रवेश करते ही दायीं ओर काउंटर था। मध्य में गंडोला था। तीनों दीवारों के साथ सैल्फें थीं। शीशे के फ्रंट को वह खाली रखता ताकि बाहर से देखने वाले को अंदर का व्यू पूरा दिखाई दे। बायीं तरफ वाली दीवार की सैल्फों में वाइन भरी हुई थी। बीच में गंडोले पर बियर और दायीं तरफ की सैल्फों में सोफ्ट ड्रिंक के डिब्बे और बोतलें थीं। व्हिस्की की छोटी-बड़ी बोतलें और सिगरेटें काउंटर के पीछे थीं। सैल्फों पर से सामान ग्राहक स्वयं उठा लेता और काउंटर के पीछे की वस्तु को मांग कर लेता था। दुकान की बड़ी सेल वाइन और बियर की ही थी। यद्यपि सामान उसने और भी कई किस्म का रखा हुआ था। जैसे कि चाकलेट, स्वीट्स, मुरमुरे-कुरकुरे आदि। आइसक्रीम का फ्रीज़र भी था। निरोध भी रखे हुए थे जो कि रात के समय बिक जाते थे। दुकान के पीछे स्टॉक रूम था जहाँ से ला-ला कर सामान सैल्फों पर रखा जाता था। यहीं एक आदमकद शीशा भी लगा हुआ था। स्टॉक रूम में घुसनेवाला शीशे के सामने अवश्य खड़ा होता। सबकी आदत-सी बन गई थी। स्टॉक रूम के साथ ही एक और कमरा था, जहाँ सस्ता मिला सामान भरा पड़ा होता। दायीं ओर फ्लैट को जाता रास्ता था। दुकान के ऊपर और दो मंजि़लें थीं। एक मंजि़ल पर रसोई, एक सिटिंग रूम और एक बैडरूम था। तीन बैडरूम ऊपरली मंजि़ल पर थे। फ्लैट में जाने के लिए रास्ता दुकान में से होकर जाता था और रोड पर भी एक दरवाजा था। दुकान बंद होती तो वही दरवाजा प्रयोग में लाया जाता। शैरन और हरविंदर स्कूल से लौटते तो दुकान में से ही ऊपर फ्लैट में जाते थे, पर स्कूल वे साइड-डोर से ही जाते थे। कभी-कभी गुरिंदर खिड़की में आ खड़ी होती और कितनी-कितनी देर वहाँ खड़ी होकर बाहर राउंड-अबाउट से गुजरती कारों को देखती रहती। अजमेर देखता तो पूछता– “क्या देख रही है ?” “लंदन।” “लंदन यहाँ से क्या दिखेगा।” “और तो तुम कहीं ले नहीं जाते, मैंने सोचा यहीं से देख लूँ।” “मैं दुकान चलाऊँ कि तुझे लंदन घुमाऊँ?” “मुझे न घुमाओ, कभी बच्चों को कहीं ले जाओ तो क्या हो जाएगा।” “मेरे पास टाइम नहीं, जा तू ले जा।” “मैंने लंदन का कुछ देखा हो तो इन्हें लेकर जाऊँ। मुझे तो इस दुकान का ही पता है। कभी नीचे, कभी रसोई में... निरी कै़द!”


(क्रमश: जारी…)