सवाल जामचक्कों की दुरूस्ती का / सूर्यबाला
महिलाओं को मालूम है, हर असफल महिला के पीछे कोई-न-कोई पुरूष होता है। आप भी मानें न मानें, स्त्री-स्वातंत्र्य या महिला-मुक्ति का आंदोलन भी, जो माकूल स्पीड नहीं पकड़ पा रहा, उसके पीछे भी यही कारण है। इसे यों समझिए कि अपने हिंदुस्तान की जनसंख्या के हिसाब से ही बेहिसाब तादाद में महिलाएँ सामाजिक, राजनीतिक विकास की गाड़ी पकड़ने को चुस्त-दुरूस्त तैयार है। इंजन ने सीटी भी मार दी है। महिलाएँ हचककर फुटबोर्ड पर लटक लीं, लेकिन चक्का जाम! भई, यह तो वही बात हुई कि इंडियन एयरलाइंस के आसमान से टूटे तो भारतीय रेलवे के खजूर में अटके. गाड़ी थी कि न टस, न मस।
पड़ताल हुई तो पता चला, पिछला पहिया या पिछले पहियों के नट-बोल्ट इतने खस्ताहाल कि ये अगलों को खिसकने ही नहीं दे रहे।
यहाँ हम पाठकों का परिचय इस पिछले पहिए या पिछले पहियों से करा दें। ये पिछले पहिये, पुरूष हैं। पाठकों को यह भी ज्ञात होग कि स्त्री और पुरूष को हमने समाज और परिवार की गाड़ी के दो पहिए माना है। अब एक पहिया चालू हो और दूसरा पंचर, कैसे चलेगा भई.
बस इसीलिए हम जागरूक और प्रबुद्ध महिलाओं ने सोचा, चलो अपनी भारतीय रेलगाड़ी के इन जाम चक्कों की मरमत्त और दूरूस्ती पर ध्यान दिया जाए. इनके पूर्वाग्रहों के स्पीड ब्रेकर सपाट किए जाएँ, तभी अपनी गाड़ी सरपट दौड़ेगी।
वरना यह क्या कि हम तो प्रगति और विकास की नसेनी पर सोत्साह फेंटा कसकर चढ़ने को तैयार, लेकिन यह मुंआ (सॉरी पुरूष...) अभी बेड टी के इंतजार में सोया पड़ा है। इसका क्या ठिकाना, नींद के झोंके में एक पांव फटकारेगा तो हमारी लगाई सीढ़ी धडाम से चारों खाने नीचें। वहीं, असफल महिला के पीछे एक पुरूष।
इसलिए कई महिला संगठनों ने अनेक शिखर वार्ताओं के बाद यह निर्णय लिया कि नहीं हमें अपने कांउटर पार्ट बेचारे पुरूष को यूं ही सोता नहीं छोड़ना है। अर्थात उसे जगा कर ही छोड़ना है कि-'उठ जाग मुसाफिर देर भई, ...तुझे नहीं ंतो मुझे तो ऑफिस जाना है।'
सो, हे पति, हे पुरूष! इनमें से एक या दोनों उठ और अपने आप को हमारे हवाले कर दे। हमारी दूरदर्शिता और उदारता का लोहा मान... जो हमने अपनी दशा सुधारने का काम बीचों बीच छोड़कर, तुझे उबारने, तुझे उठाने और तेरी धूलधक्कड़ झाड़ने का टास्क हाथ में ले लिया है।
यह काम उतना आसान नहीं। इसके लिए हमें पूरी तरह समर्पित और एकजुट होकर काम करना होगा। क्योंकि महिलाओं द्वारा किए गए सर्वेक्षणों से पता चलता है कि आज का पुरूष अनेक प्रकार के हीनता बोधों से ग्रस्त है। अनेक अहं, अनेक वहम, अकर्मण्यता तथा आलस्य इसके मूल कारण है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम उनकी वर्तमान, गिरी हुई दशा पर तरस खाएँ तथा उन्हें उनकी संकीर्ण विचारों की चारदीवारी से बाहर लाने की हर चंद कोशिश करें।
इसके लिए सबसे पहले तो रेलियाँ निकाली जाएँ और उनकी तख्तियों पर उत्साह वर्धक वाक्य लिखवाएँ जाएँ जैसे-'पति एक सम्मानजनक ओहदा है' ... या फिर 'पतित्व हीनता नहीं, गौरव का प्रतीक है... अथवा' गर्व से कहो, हम पति हैं... आदि इत्यादि।
सर्वे से प्राप्त सूचना के अनुसार, पत्नी और परिवार के नाम से नर्वस होने वाले पतियों की संख्या में भी इधर बहुत बढ़ोतरी हुई है। कुछ पति तो इसी भय के कारण, ड्यूटी ऑवर्स के बाद भी ताश-पपलू आदि के बहाने मारकर ऑफिस में ही दुबके रहते हैं। ऐेसे पतियों को समझाना चाहिए कि यह पलायन वाद अर्थात भगोड़ापन है। यही कारण है कि उनका पुरूष समाज अर्थात पूरा का पूरा पुरूष समाज, पलायन करते-करते आज इस दीन-हीन दशा को पहुंच गया है। हमारे देश की दुगर्ति का प्रमुख कारण भी यही है। इतिहास साक्षी है कि जब-जब पुरूष वर्ग पलायन करता रहा, तब-तब देश रसातल को जाता रहा, यानी हमेशा।
फिलहाल देश और रसातल वाले मुद्दे को छोड़कर अपने मेनिफेस्टों पर आते हैं जिसके अनुसार इन सामुहिक तथा एक जुट अभियानों के अतिरिक्त परिवारिक स्तर पर भी हर पत्नी का फर्ज बनता है कि वह कम से कम एक अदद पुरूष अर्थात पति को स्वावलंबी बनाने में प्राण पण से जुट जाए. मिसाल के तौर पर यदि वह किसी ज़रूरी काम में फंसी है तो निठल्ले पति द्वारा डपटकर पानी मांगे जाने पर हरगिज न उठे। उसे स्वयं उठकर पानी लेने की आदत डलवाए. साथ ही उसे स्वयं अपनी शर्ट में बटन टांकने तथा पाजामे में नाड़ा डालने के लिए प्रेरित करें।
पत्नी को स्मरण रखना चाहिए कि ऐसे मौकों पर पति पहले झल्लाएगा, उपटेगा तथा पत्नी को पागलखाने में भरती करने की धमकी भी देगा। किंतु पत्नी को अपनी फर्ज अदायगी से डिगना नहीं है। उसे फौरन समझ लेना है कि यह पुरूष नहीं, उसकी हीनभावना बोल रही है।
जरा कल्पना कीजिए, डाकखाने, दवाखाने और टेलीफोन, बिजली की लाइनों से लेकर मछली बाज़ार और भाजी गल्ली तक, जो जमें हैं जागरूक महिलाओं की क्रीड़ास्थली और लीलास्थली समझी जाती हैं, वहाँ यदि पुरूष समुदाय को, बलपूर्वक भेजा जाने लगे तो एक तो उनमें जागृति आयेगी, दूसरे इनमें से बहुत से स्थानों की बेवजह भीड़ भी कम होगी। बेशक बहुत से नाम अपनी अर्थवत्ता का ग्लैमर खो देंगे, जैसे भाजी गल्ली या मछली बाज़ार किंतु महिलाएँ पुरूषों के बेहतरी के लिए यह सदमा, हंसतें-हंसतें बर्दाश्त कर लेंगी।
कुलमिलाकर सिर्फ़ जरा-सी सूझ बूझ और चतुराई से वे पुरूषों का युगों से खोया आत्मबल उन्हें वापस दिला सकती हैं। सिर्फ़ कुछ हफ्तों के निरंतर अभ्यास से ही इस अभियान के उत्साहवर्धक परिणाम सामने आने लगेंगे।