सवा लाख की बाँसुरी / दीनानाथ सुमित्र / सत्यम भारती

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दर्द, विरह, आँसू, घूटन अगर न होते मित्र।
तो फिर कवि होता नहीं दीनानाथ सुमित्र॥

स्वभाव से अक्खङ, बातों से फक्कङ, चेहरे पर तेज, हाथों में क्रांतिकारी कलम, चेहरे पर सामाजिक चश्मा, सिर पर भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की टोपी, बांहों में आशा का झोला, पैरों में परिवार का चप्पल-ऐसे है कवि दीनानाथ सुमित्र। मैंने कबीर को तो नहीं देखा लेकिन सुमित्र को देखा, ये ऐसे अवधूत है जो अकेले समाज को बदलने का मद्दा रखते है। इनकी लेखनी में कबीर का व्यंग्य, तुलसी का लोकमंगल, जायसी का दर्शन, रहीम की नीतिपरकता, निराला कि क्रांतिकारी चेतना, दिनकर का देशप्रेम तथा धूमिल का लोकतंत्र के प्रति असंतोष एक साथ दृष्टिगोचर होता है। पैसे के इस दौर में जब लोग त्राहि-त्राहि करते फिर रहे है तो वही कवि सुमित्र बिना किसी मंच की चाहत किये बिना, बेपरवाह निश्चछल नदी की तरह अनवरत लिखें जा रहें है। वे कहते है-मैं मरने से पहले हिन्दी साहित्य को बहुत कुछ दे देना चाहता हूँ और उन्होने दिया भी है। उन्होनें कुछ चार पुस्तक माँ हिन्दी को समर्पित किया है-राह आगवाली, लड़ों उल्फत की खातिर, हमन है इश्क मस्ताना तथा सवा लाख की बाँसुरी; जिसमें प्रथम तीन गजल, गीत, रूबाईयों का संग्रह है तो वही सवा लाख की बांसुरी दोहों का संग्रह है।

अब बात करते है चौथी पुस्तक "सवा लाख की बाँसुरी की" , जिसमें कुल 700 मारक दोहे संग्रहित हैं। वर्तमान समय में सबसे ज़्यादा दुर्गति समाज में कलाकारों की है। सबके चेहरे पर हंसी देने वाला कलाकार खुद गरीबी में जीवन काट रहा है, कोई उसके कष्टों तथा समस्याओं से नहीं टकराता है। आज कलाकारों की स्थिति ताश की गड्डी के जोकर समान हो गई है, आज वही कलाकार माना जाता है जो एक सफल चाटुकार हो या जिसके पास धन हो। आजकल कला सीखने के लिए ज़रूरी इंस्ट्रूमेंट और कला सिखाने वाले शागिर्द दोनों महंगे हो गए हैं, इस पुस्तक का शीर्षक कलाकारों के जीवन को समर्पित है-

सवा लाख की बाँसुरी, पाँच लाख की तान,
इन अधरों का क्या करूं, व्यर्थ हो गये गान।

काव्य हेतु, काव्य-प्रयोजन, काव्य-लक्ष्ण से दूर वर्तमान दौर के कवि जब चुटकीले अंदाज में मंचों से कविता पढते है तो कविता का मन आहत होता है। कविता चाटुकारिता या तुकबंदी का नाम नहीं बल्कि यह मानवीय भावनाओं का उत्कृष्ट व्याख्यान है जिसमें समाज, व्यक्ति, देश, प्रकृति, समस्या, उपदेश, भूत, वर्तमान, भविष्य सब सन्निहित होता है। मैथिलीशरण गुप्त लिखते है-

केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए,
उसमें उचित उपदेश का मर्म होना चाहिए।

कवि सुमित्र के दोहें वर्तमान समय में सजे काव्य-मंच और कवियों के श्वेत जमात पर तंज कसता है और इनसे हिन्दी साहित्य को बचाने की बात करता है-

ढेचूं-ढेचूं कर रहे, काव्य कर्म से दूर,
कुछ कवि गदहा कर्म कर, आज हुए मशहूर।

समकालीन साहित्य लेखन में 'मुक्ति' पर खूब बहस होती है, जिसमें दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श, आदिवासी-विमर्श उभर कर सामने आया, खूब साहित्य रचे गये, समस्या दूर करने तरह-तरह के तरकीब बताये गये लेकिन समस्या जस का तस बनी रही, लेकिन विमर्शकार और विद्वान करोङपति ज़रूर बन गए। ए.सी. में बैठ कर साहित्य रचने से कुछ नहीं हो सकता जब तक यथार्थ की धरातल पर पहुँच कर उस समस्या का समाधान न निकाला जाय, कवि सुमित्र ने लोगों का ध्यान इस ओर आकृष्ट करते हैं तथा इनके बहकावे में आने से रोकते भी हैं-

पाँच सितारा में रहे, नौकर रखें सात,
ऐसे जनवादी रचे, होरी के हालात।

आधुनिकता के इस दौर में जब रिश्तों में अलगाव होने लगा, खेतों में अट्टालिकाएँ बनने लगी, मशीनीकरण हुआ, पूंजीपतियों का वर्चस्व बढ़ा, अंग्रेजिएत डीएनए में घुस गया तथा पश्चिमी सभ्यता भारतीय सभ्यता पर हावी हो गयी तब कवि-हृदय व्याकुल हो उठता है तथा समाज की इस कुत्सित प्रवृत्ति की तीव्र भर्त्सना करता है-

आँखों में छाने लगे, चमक -दमक के ख्वाब,
जूते हैं शोरूम में, भू पर पड़ा किताब।

कवि ने अपने दोहों के माध्यम से हिन्दी के प्रचलित कवियों तथा उनकी प्रचलित एवं कालजयी रचनाओं से तथा उसकी प्रमुख विशेषताओं से पाठकों को रूबरू कराया है। कामायनी, मधुशाला, रश्मिरथी, लहर, ऑसू, पुष्प की अभिलाषा आदि का उल्लेख कर कवि ने कुछ नया प्रयोग करने का सफल प्रयास किया है, वे प्रसाद के संदर्भ वे में लिखते है-

पढ़ी नहीं कामायनी, जाना नहीं प्रसाद,
माँ हिन्दी व्याकुल हुई, मन पर पङा विशाद।

भारतीय सभ्यता-संस्कृति, देशप्रेम, प्रकृति-प्रेम, कवि सुमित्र के रग-रग में बसा है जो भाषिक स्याही द्वारा उनके दोहों में दृष्टिगोचर होती है। कवि ने होली, दीवाली, रक्षाबंधन, ईद आदि पर्व त्यौहारों का वर्णन किया है तो वही आदिकालीन प्रवृत्ति 'षटमाषा-वर्णन' का भी। भारतीय दर्शन, अध्यात्म और भक्ति जैसे व्यापक विषयों को भी दोहे में समाहित करते हैं-

मनसा, वाचा, कर्मणा से जन-जन का मोल,
रूप-रंग कुछ भी नहीं, यह तन है बस खोल।

तुलसी, कबीर, रैदास, गांधी तथा अम्बेडकर ने जिस 'समतामूलक-समाज' की स्थापना का सपना देखा था वही सपना इस दौर में सुमित्र देखते हैं। वैसा समाज जहाँ हर जाति, हर धर्म के लोगों को समान अधिकार प्राप्त हों, सभी आपस में प्रेम पूर्वक निवास करें, एकता व्यक्ति का भुजबल हो और मेहनत ताबीज। कोई किसी से वैर ना रखें तथा सभी के मन में एक दूसरे के प्रति आदर का भाव हों। आज हम 21 वी सदी में जी रहे हैं, बस जी रहे हैं जहाँ न मानवीय संवेदना का त्राण है और ना ही जीवन में उल्लास। दोहाकार समाज में उपस्थित सारी विसंगतियों को दूर कर एक नए समाज की परिकल्पना करना चाहता है-

जितना मुझको मिल गया, हर जन को मिल जाय,
यह है मेरी कामना, सुख हर घर में आय।

समकालीन कवि धूमिल और रघुवीर सहाय को जिस तरह वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था से असंतोष था उसी तरह कवि सुमित्र को भी है। सत्ता कि लोलुप्ता, भ्रष्टाचार, चुनावी हथकंडे, दंगा-फसाद, आरक्षण, नेता सब पर कटाक्ष और चुटकी लेते हुए यथार्थ से रूबरू कराया है-

नेताजी बतलाईये, क्यों बढ़ता है तोंद,
कुर्सी से चिपक रहें, लगा रहें है गोंद।

एक और दोहा देखें तत्कालीन परिदृश्य पर-

नेता के सिर पर चढ़ा, विकट राम का भूत,
रोगहीन है देश अब, पी-पी कर गोमूत।

इनके द्वारा माँ पर लिखा गया दोहा वर्तमान समय के गजलकार 'मुनव्वर राणा' की याद दिलाता है तो वही प्रेम-प्रसंग पर लिखे दोहे 'राहत इन्दौरी' की। माँ ईश्वर का वह रूप है जो प्रत्यक्ष रूप से हमारे सामने मौजूद रहती है, ऐसे में माँ से लगाव होना लाजमी है। मातृत्व, स्नेह, प्रेम आदि जैसे गुणों से बनी है माँ की देह; कवि माँ के प्रति अटूट प्रेम को दोहे में संजोता है और उनके प्रति समर्पण का भाव भी रखता है-

पल भर में ही छोड़ते दर्द हमारा साथ।
मां जब सिर पर प्यार से कभी फेरती हाथ॥

समाज में वृद्धों की समस्या सबसे बड़ी समस्या है, आदमी जब कोई काम करने के काबिल नहीं रह जाता तो उसे समाज त्याग देता है। कलयुगी बेटे अपने मां-बाप को दो वक्त की रोटी तक नहीं दे पाते हैं, यही कटु सत्य है। वर्तमान समय में रिश्तों का टूटन, पीढ़ीगत संघर्ष और परिवार में वृद्धों की समस्या काफी दयनीय है। यह समस्या शहरों में अधिक है गाँव की तुलना में। दोहाकार का ध्यान इस तरफ भी गया है; वे अपने कर्तव्य से विमुख होते बेटों के लिए लिखते हैं-

जीवन भर देती रही, जिसको प्यार दुलार,
उस माँ को देने लगा, बेटा आज उधार।

वर्तमान समय में प्रेम में बहुत सारी विसंगतियाँ प्रवेश कर गई है, प्रेम अब दो आत्माओं का मिलन नहीं बल्कि स्वार्थ और वासना का मिलन हो गया। चंद पैसे की लालच में प्रेम का ढोंग करने वाले तथा इसे अपना व्यापार बनाने वाले बहुत सारे लोग मिल जाएंगे, इस दलदल में बहुत सारे युवा अपना जीवन तबाह कर रहे हैं दोहा कार इस समस्या से भी हमें रूबरू कराते हैं, तो वहीं पैसे के लिए दिल का कारोबार करने वाली तितलियों पर वे लिखते हैं-

प्रेम-पंथ का हो गया, अब पैसा आधार,
अब पैसों को देखकर, लैला करती प्यार।

व्यंगपरकता, नीतिपरकता, समस्यामूलक, उपदेशात्मक, दिशापरक, ऊर्जापरक, तथा व्यक्तिमूलकता इनके दोहों की अन्य विशेषताएँ है।

भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी यह काफी उत्कृष्ट है। भाषा सरल, सुबोध, खङी बोली है जो जनमानस के काफी निकट है। अंग्रेजी, उर्दू तथा देशज शब्दों का खूब प्रयोग हुआ है साथ ही साथ मुहावरें एवं लोकोक्तियों का प्रयोग उसे और प्रबल बनाता है। हर दोहा छंदों की दृष्टि से सुदृढ तथा शैली व्यंग्यात्मक है। यह पुस्तक शुरू से अंत तक पाठकों को बाँधे रखती है, कहीं-कहीं लय ज़रूर टूटी है शब्दों के संयोजन में। उनकी अन्य तीन किताबों में यह रचना ' सवा लाख की बाँसुरी " अधिक सुदृढ और समग्रता को संजोये है-

सूखा होया बाढ़ हो मरता सिर्फ़ किसान।
नेता अफसर बांटते मिला हुआ अनुदान॥

ईश्वर कवि दीनानाथ सुमित्र को लंबी उमर बांचे, वह आगे भी माँ हिन्दी की अनवरत सेवा करते रहे, एक सफल पुस्तक लेखन के लिए कवि-हृदय को शुभकामना और बधाई, और अन्त उन्हीं की पंक्ति से-

"जीयो सुमित्र पत्थर बन कर।"