सविता सिंह से बातचीत / कुमार मुकुल

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सविता सिंह से कुमार मुकुल की बातचीत

प्रकृति सम्बंधी कविताओं में सविता सिंह खुद प्रकृति स्वरूप होकर स्थितियों को अभिव्यक्त करती हैं। मायकोवस्की ने आत्महत्या के पहले तारों भरे आकाश का जिक्र करती एक कविता लिखी थी। सविता सिंह की कविता में भी प्रकृति का वह मारक सम्मोहन बार-बार अभिव्यक्त हुआ है। जो संशय अरुण कमल की कविताओं की जान है वह सविता के यहाँ मौजूद है। पर जिजीविषा और अपार धैर्य को अभिव्यक्त करतीं कविताएँ सविता के पास ज़्यादा हैं। यह संतुलन उनकी परंपरान्वेषी व्यापक जीवन दृष्टि के कारण संभव हो सका है-कोई हवा मुझे भी ले चले अपनी रौ में / उन नदियों, पहाड़ों, जंगलों में... / मुझे भी दिखाए कठिनतम / स्थितियों में भी कैसे / बचा रहता है जीवन (कोई हवा) ।

प्रस्‍तुत हैं कवयित्री सविता सिंह से कुमार मुकुल की बातचीत के कुछ अंश-

1. अपने जैसा जीवन' की एक कविता में आप लिखती हैं 'जब पत्ते झर रहे होते हैं / क्या कुछ झर रहा होता है तुम्हारा'। यह जो जीवन जगत को एक दार्शनिक की तरह देखना है वह आपकी कविता की ताकत है। प्रकृति और जीवन को इस तरह निस्‍संगता से देखना आपने कहाँ पाया? आपकी प्रेरणा के श्रोत कौन हैं?

निस्‍संगता का यहाँ विपरीत अर्थ है, निस्‍संगता उस जीवन से कह सकते हैं आप जो सामाजिक जीवन है, जिसमें मनुष्‍य ही मनुष्‍य हैं, सम्बधं ही सम्बंध हैं। हुआ क्‍या है कि प्रकृति के साथ जो सम्बंध हैं मनुष्‍य के उसका सामाजिक रूप से आधुनिक समय में विच्‍छेद हो गया है। सिर्फ़ अपनी ही चिंताओं से घिरा मनुष्‍य अपनी प्रगति को इस तरह से देखने लगा है जैसे वह सिर्फ़ उसका अपना मसला हो, उसका प्रकृति आदि से कोई सम्बंध ना हो। इस सम्बंध विच्‍छेद की वजह से शायद यह निस्‍संगता लगती हो। पर जो लोग संलग्‍नता के साथ नि: स्‍वार्थ ढंग से जीवन जीते हैं, सम्बंधों की गरिमा को उसकी संपूर्णता में देखते हैं, उनके लिए प्रकृति और बाकी जीवों से लगाव सहज होता है। मेरे जीवन में प्रकृति हमेशा वर्तमान रहती है। परिवार में तमाम लोगों के साथ होने के बाद भी मेरा सम्बंध प्रकृति से बना रहा। शाम को मैं अक्‍सर अकेले रहना पसंद करती थी, छत पर या खिडकी से प्रकृति को देखती रहती थी। सूरज का डूबना, बादलों का रंग बदलना, चिडियों की आवाजें आदि देखती सुनती रहती थी, उस पर मनन करती थी। आज भी पेड-पौधों से मेरा रागात्‍मक सम्बंध है। यह सम्बंध किसी लाभ हानि पर आधारित नहीं होता। प्रकृति से पुरूष के सम्बंध विच्‍छेद ने उन्‍हें क्रूर बना डाला है, इसी क्रूरता का वे स्‍त्री के प्रति भी इस्‍तेमाल करते हैं। प्रकृति जीवनदायिनी है उससे दूर जाकर, उसे नष्‍ट कर हम जीवन को नष्‍ट करते हैं। मुझे यह लगता है कि कहीं न कहीं आपके भीतर भी वह सर्वव्‍यापी चेतना है, इसीलिए वह कविता आपको भाती है,।

2. भारत में आधुनिकता का विमर्श' आपके शोध का विषय रहा है। आधुनिकता का मतलब सामान्‍यतया पश्‍चिमी चाल-चलन के नकल के तौर पर लिया जाता है, इससे अलग आधुनिकता क्‍या है? भारत और पश्चिम के आधुनिकता के विमर्श में क्‍या अंतर है?

आधुनिकता का अर्थ, सोलहवीं-सतरहवीं सदी में जो कुछ भी पश्चिम में हुआ उसको बहुत ही रूढ बनाकर कर के, जड रूप में हमारे यहाँ ग्रहण किया गया। आधुनिकता का मतलब होता है नयापन। जो कुछ भी नया है, वह आधुनिक है। हमारे यहाँ भी आधुनिक शब्‍द का प्रयोग शास्‍त्रों में हुआ है, साहित्‍य में हुआ है।

पश्चिमी आधुनिकता विवेकशीलता का परिचायक है। यही उसकी पहचान है। यह विवेक आधारित है। विवेक यहाँ पर सर्वोपरि है। मनुष्‍यों के बाकी गुणों से उपर है। यह धार्मिक-सामाजिक संवदेना सहित सबकुछ को परिचालित करता है।

पर पश्चिम की तरह हमारे यहाँ ऐसा नहीं हुआ। यहाँ धर्म, शास्‍त्र और विवेक में पश्चिम की तरह विच्‍छेद नहीं हुआ। पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता इसी चेतना का परिणाम है। इसी की वजह से चर्च स्‍टेट के अधीन हो गया। हमारे यहाँ यह सब चीजें नहीं हुईं। हमारे यहाँ आधुनिकता धार्मिक विचार और पद्धितियों से परिभाषित हुई. यहाँ चेतना और विवेक को महत्‍वपूर्ण बताया गया, खासकर शास्‍त्रों में, वेदांत में। वेदांत की व्‍याख्‍या राममोहन राय ने की। उन्‍होंने बताया कि हमारे यहाँ जो ब्रहम की कल्‍पना है, वह बहुत ही रैशनल है। क्‍योंकि ब्रहम निर्गुण है उसे कोई शक्ति परिचालित नहीं कर सकती। वह स्‍वयंभू, आटोनामस है और इस अर्थ में वह बहुत रैशनल है। वे रैशनालिटी और परंपरा के गुणों को साथ-साथ स्‍थापित करते हैं। हमारे यहाँ आधुनिकता के नाम पर तमाम रिफार्म हुए और इसका उददेश्‍य सिर्फ़ राष्‍ट्र बनाना नहीं था बल्कि समाज में नये ढंग से धर्म को आधुनिक बना कर सामाजिक जीवन में प्रवाहित करना था।

यूं कई मामलों में हमने अपने आप को पश्चिमी आधुनिकता के हिसाब से भी परिमार्जित किया।

3. आपके दूसरे और तीसरे कविता संग्रह में नींद, रात और स्‍वप्‍न पर कई कविताएं हैं। सामान्‍यतया नींद रात को रचती है और स्‍वप्‍न नींद में उजाला लाने की कोशिश करते हैं, क्‍या यह कोई रहस्‍य है, इसे आप किस तरह देखती हैं?

रहस्‍य की तरह बहुतों को यह बातें लगती हैं, बहुत-सी ऐसी सच्‍चाईयां है जिनको हम देखते हुए भी नहीं देख पाते। हमने एक पूर्वग्रह पाल लिया है। जैसे हम रात, अँधेरा व नींद को निगेटिव मानते हैं। नींद को हमेशा अनकांशस माना गया। नींद का मतलब हमारे यहाँ यह हुआ कि-जो सोया, वह खोया। इस तरह की सारी नकारात्‍मकता को सचेतन और अमानवीय ढंग से स्‍त्री से जोड दिया गया। ये रात के जीव हैं, सिर्फ़ सपने देखते हैं, जैसे सपने सच का विलोम हों।

तो मैंने अपनी कविता में इन्‍हे स्‍त्रियेाचित प्रवृतियों से जोडकर देखा है। इन्‍हें समझने की कोशिश करती एक्‍सप्‍लोर किया। जिस तरह शून्‍य तमाम अंकों में सबसे बड़ा, सबसे अर्थगर्भित है पर चूंकि उसे एबसौल्‍यूट ढंग से जानना संभव नहीं इसलिए वह रहस्‍यमय है। इसी तरह रात को भी जानने की तरकीब नहीं है। वहाँ चीजें दिखती ही नहीं हैं। तो मैंने खुद को उनपर केंद्रित करने की कोशिश की तो पाया कि इसमें बहुत-सी चीजें हैं, बहुत सारे रंग हैं, बहुत सारी चेतना है। उसे मैंने कविता में सकारात्‍मक और स्‍वीकार्य बनाने की कोशिश की।

मैंने इधर समझा कि जो हमारा अवचेतन है वही रात है, वही है स्‍व्‍ाप्‍न, वही है जीवन का रहस्‍य।

4. पुरुषसत्‍ता, नारीवाद और मनुष्‍यता ये हमेशा से विमर्श के विंदु रहे हैं। क्‍या वह समय कभी आएगा जब मनुष्‍यता पुरुषसत्‍ता और नारीवाद को ढक ले और सहकार के नये विमर्श को जगह दे?

इस सवाल में प्रायरिटी का प्राब्‍लम है। पुरुषवाद नारीवाद को कभी खा या पचा नहीं सकता और स्‍त्री चेतना अब पुरूष चेतना के अधीन नहीं रह सकती। हर क्षेत्र में आज नारी चेतना मौजूद है। उसे अब कोई दूसरी चेतना आच्‍छादित नहीं कर सकती। इस चेतना के विकास से ही संपूर्णता आएगी। ऐसा मैं समझती हूँ। मनुष्‍य की चेतना की जो ऐतिहासिक कमियां हैं वह विकसित होकर इस नारी चेतना में अपनी पूर्णता को प्राप्‍त करेंगी। वह समय निश्चित तौर पर आयेगा। 1960 का नारीवादी विमर्श आज बहुत आगे जा चुका है। आज पहले की तरह स्‍त्री चेतना पुरूष चेतना के खिलाफ नहीं है।

अब यह है कि एक बड़ा आर्डर कैसे बनाया जाए. जिसमें एक शब्‍द के कई अर्थ हों और जिसमें सभी लोग अपने अर्थों को पा सकें। उसमें यातना पर आधारति सम्बंध न हों। उसमें कोई डामिनेशन ना हो, न भाषा में, न जीवन में। कोई शब्‍द ऐसा ना हो जिसके अंदर कई अर्थ न हों। किसी शब्‍द के एक अर्थ को इस तरह न रूढ करें कि बाकी अर्थ दब जाएं या खो जाएं। यह नारीवाद अब पहले वाली कोई गडबडी नहीं चाहता और न वह डामीनेट करना चाहता है।

मनुष्‍यता की परिभाषा भी आधुनिक चेतना की देन है। जिसमें मनुष्‍य वही है जिसके पास रैशनालिटी है, विवे‍कशीलता है। मनुष्‍यता की इस परिभाषा को उत्‍तरआधुनिकतावाद वैसे ही खारिज कर चुका है।

5. आज जब लोकतंत्र के तमाम स्‍तंभ प्रासंगिकता खोते नजर आ रहे, सोशल मीडिया इन स्‍तंभों के आभासी पर्याय की तरह दिख रहा। इसकी भूमिका को आप किस तरह देखती हैं?

मनुष्‍य में यह क्षमता है कि खराब से खराब स्थिति हो तब भी वह उसमें एक सकारात्‍मक स्थिति पैदा करने की कोशिश करता है। या उसकी तैयारी उसके अंदर होती है। सोशल मीडिया इसीलिए आया क्‍योंकि जो मुख्‍य मीडिया है उस पर बड़ी पूंजी ने पूरी तरह कब्‍जा कर लिया और अपनी सुविधा के हिसाब से चलाने लगा और इससे मीडिया के जो उदारवादी नार्म्‍स थे-कि मीडिया को आब्‍ज्‍ेाक्टिव होना चाहिए, दोनों पक्षों की बातें सामने लानी चाहिए जिस कारण लोग उस पर विश्‍वास करते थे। उसे इस बड़ी पूंजी ने निरस्‍त कर दिया और मीडिया उनका माउथपीस बन गया। वे उनके निजी हितों के प्रसारण त‍क सीमित होते गए.

यानि के आज जो टेलीविजन का संसार है हमको लगता है कि बहुत सारे लोग अब टेलिविजन नहीं देखते। आज वहाँ प्रोपगंडा के अलावा कुछ नहीं है। ऐसे माध्‍यम के लिए अब कौन वक्‍त देगा। सोशल मीडिया उसी के प्रतिकार के रूप में सामने आया। सोशल मीडिया में भी बडी पूंजी का हस्‍तक्षेप शुरू है पर सोशल मीडिया के श्रोत अनेक हैं इसलिए इस पर अब बाकी मीडिया की तरह कब्‍जा संभव नहीं। यहाँ पर लोग पैसा लेने के लिए कोई बात नहीं कहते, यहाँ लोग अपने विवेक के अधार पर, अपने मन से बात करते हैं और जो उनकी समझ है, उसके आधार पर बात करते हैं। इस अर्थ में सोशल मीडिया से उम्‍मीद तो है ही।