सवेदनाओं से साक्षात्कार / अंजू खरबंदा

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संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण (लघुकथा-संग्रह): डॉ. सुषमा गुप्ता, पृष्ठः 120 , मूल्य पेपर्बैकः 260 रुपये, संस्करणः 2024 , प्रकाशकःप्रवासी प्रेम पब्लिशिंग इंडिया, 3/186, राजेन्द्रनगर,सेक्टर-2, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद-201005

निशांतर के अनुसार श्रेष्ठ लघुकथाएँ वे ही हैं, जिनको पढ़ने के बाद पाठक चौंकें नहीं; वरन् सोचने को मजबूर हो। हो सकता है, कभी-कभी लघुकथाएँ पाठकों को अपनी समाप्ति पर स्तब्ध कर जाएँ; परंतु यह स्तब्धता की स्थिति सहज और स्वाभाविक ढंग से आनी चाहिए; क्योंकि सहज स्तब्धता ही पाठकों को गंभीर चिंतन में परिवर्तित कर सकेगी।

सुषमा गुप्ता का सद्य प्रकाशित लघुकथा-संग्रह मेरे सामने है। ‘दहलीज’ के अन्तर्गत ‘संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण’ पढ़ते हुए मन भीग गया। सोशल मीडिया हमारे जीवन में इतना अधिक प्रवेश कर गया है कि रिश्तों से अधिक हम उसे महत्त्व देने लगे हैं। वास्तविकता की दुनिया से दूर एक झूठी दुनिया बसा ली गई है, जिसमें सहानुभूति पाने के लिए पिता की जलती चिता की फोटो तक अपलोड कर दी जाती है। जीवित माँ की दवाइयों से अधिक चिंता सोशल मीडिया पर आए लाइक कमेंट्स की होने लगी है। डायरी शैली में लिखी ये लघुकथा गहरे तक मन को बींध जाती है।

‘अंतिम विदा’ लघुकथा पढ़ते हुए मन बेहद भावुक हो उठा। सत्तर बरस का साथ जब छूटता है, तो खुद को सँभालना कितना मुश्किल हो जाता है न! दादाजी का यह कहना- “साड़ी सुंदर- सी लाए हो न!” यह वाक्य मन को गहरे तक भिगो देता है। आज के युग में नई पीढ़ी को ये बातें शायद अजीब लगें; पर मन से जुड़े रिश्ते मिठास से भरपूर होते हैं। ये समाज के लिए एक आदर्श स्थापित करते हैं।

‘दर्द के पंख’ केवल लघुकथा नहीं, बल्कि दर्द को उकेरती एक टीस है, जो गहरे तक ह्रदय में धँसी है। भाई का यूँ एकाएक चले जाना! जैसे एक युग का समाप्त हो जाना। वह भाई, जिसके अंग- संग एक-एक पल बीता, जिसकी हँसी-ठिठोली से घर गुलज़ार था, जिसकी कमाई के एक हिस्से पर साधिकार कब्जा था, जिसके हर राज़ में शरीक थी बहन! उस बहन के सामने जवान भाई का चले जाना! यह लघुकथा पढ़ते हुए कब आँसू छलक आए, पता ही नहीं चला!

‘मोहपाश’ लघुकथा का अंत पढ़ते हुए जी धक्क से रह गया। माता पिता के सामने उनकी औलाद चली जाए, तो माता पिता जीते-जी मर जाते हैं। यह सदमा इतना गहरा होता है कि इससे उबरना नामुमकिन-सा लगने लगता है। हर पल आँखें दरवाज़े पर ही टिकी रहती है इंतज़ार में!उसका इंतज़ार, जो अब कभी नहीं आएगा। मोहपाश में बँधा इंसान एक पल को भी इससे निकल ही कहाँ पाता है!

‘परिपक्व बचपन’ लघुकथा में बिन माँ की दो नन्ही सी बच्चियाँ है। बिन माँ के बच्चे अपना बचपन बहुत जल्दी खो देते हैं। इस लघुकथा में मुझे मेरा अक्स दिखलाई पड़ा। बड़ी बेटी कब छोटे भाई बहनों की माँ बन जाती है वह खुद भी कहाँ जान पाती है। बचपन की शरारतें कब उसे छूकर चुपचाप निकल जाती हैं, पता ही नहीं चलता।

‘कैमिस्ट्री’ लघुकथा मोहनदास और रामदीन के वार्तालाप से से शुरु होती है। दोनों के वार्तालाप में कोई तालमेल नहीं दिखता। मोहनदास जी कमर दर्द से परेशान हो अपनी व्यथा सुना रहे है और रामदीन मोची चमड़ा महँगा होने की बात कर रहा है। दोनों बस अपना अपना राग आलाप रहें हैं। दूर खड़ी बहू ससुर मोहनदास को मोची के पास बैठा देख नाराजगी जताती है, तब पुत्र जिस केमिस्ट्री की बात बताता है, उसे सुन एकाएक हँसी आ जाती है, जिसके साथ एक गम्भीरता भी लिपटी है-खुद को अभिव्यक्त करने की। इस लघुकथा की खुशबू फ़िज़ा में बिखर जाती है।

‘आत्मा का गठजोड़’ लघुकथा पिता और बेटी के खूबसूरत रिश्ते को उकेरती लघुकथा है। बेटियों को हमेशा माता-पिता की चिंता ही लगी रहती है। बेटी विदेश में हो तब यह चिंता और अधिक बढ़ जाती है। बीमार पिता की चिंता में बेटी उन्हें अपने साथ विदेश ले जाना चाहती है पर पिता! वे अंतिम समय तक इसी घर में रहना चाहते हैं क्योंकि यहाँ उनकी पत्नी की प्यारी यादें उनके अंग संग हैं। सबसे बड़ी बात अब वे अधिक जीना ही नहीं चाहते; ताकि जल्द से जल्द अपनी प्रिया तक पहुँच सकें। अकेलेपन की व्यथा को दर्शाती एक मार्मिक लघुकथा है यह!

‘दरकती उम्मीद’ लघुकथा वृद्ध विमर्श को चित्रित करती देती हृदयस्पर्शी रचना है। दादा अस्पताल में भर्ती है और आज जनके पोते का जन्मदिन है। वह नर्स से बार-बार अनुरोध करते हैं घर में बात करवाने के लिए। साथ वाले बेड के मरीज की बहू आशा उन्हें किसी तरह बहलाकर खाना खिलाती है। बाद में नर्स से सच्चाई जानकर वह अचंभित है कि वृद्ध का बेटा अपने बेटे के जन्मदिन में इतना मगन है कि अस्पताल में पड़े पिता के लिए उसके पास फुरसत ही नहीं।

अब बात करूँगी सुषमा गुप्ता की मानवेतर लघुकथाओं की। ‘जात’ में लैबरो और शैफर्ड के बीच हुई बातचीत गहरे तक सोचने को विवश करती है। लैबरो का यह कहना- “पागल हो गया है क्या बे। हम इंसान हैं क्या? जो ऐसी बातों पर अपनी ही प्रजाति को नोचें मारें! खबरदार ऐसा कुछ किया तो।! हम कुत्ते हैं…’’ यह मनुष्य जाति पर गहरा कटाक्ष है।

‘अपनी अपनी बरसात’ लघुकथा गहरे तक मन को छूती है। इसका सीधा प्रभाव पाठक पर पड़ता है। रोजमर्रा की बातचीत में किसी न किसी बात पर हम नेताओं के बारे में बात करते ही रहते हैं; लेकिन इस लघुकथा में फौजी और नेता के बारे में दो ‘छतों’ में आपस में हुई बातचीत गहरे तक अपना प्रभाव छोड़ती है। यह लघुकथा यहाँ खत्म होकर भी खत्म नहीं होती। पाठक देर तक इस लघुकथा में ही डूबता-उतराता रहता है और यही है लघुकथा का असली प्रभाव! इस तरह हम देखते है कि प्रभावोत्पादकता कथ्य व शिल्प दोनों के आधार पर होती है। कथ्य प्रकटीकरण का यह कौशल, जो सुषमा गुप्ता में है, कम ही लेखकों में देखने को मिलता है।

यह लघुकथा संग्रह पढ़ते हुए मन कभी उद्वेलित हुआ कभी व्यग्र हुआ, कभी विक्षुब्ध हुआ कभी बेचैन! इस संग्रह ने कई रंग समेटे है। कभी आँखें भर- भर आती हैं कभी होंठों पर मुस्कान तिर आती है।

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