सवेरे जो कल आँख मेरी खुली / सआदत हसन मंटो
अज़ब थी बहार और अज़ब सैर थी! यही जी में आया कि घर से निकल टहलता-टहलता ज़रा बाग़ चल। बाग़ में पहुँचने से पहले ज़ाहिर है कि मैंने कुछ बाज़ार और गलियाँ तय की होंगी और मेरी आँख ने कुछ देखा भी होगा। पाकिस्तान पहले का देखा-भाला था। लेकिन, जब से ‘ज़िंदाबाद’ हुआ, वह कल देखा। बिजली खंभे पर देखा, परनाले पर देखा, छज्जे पर देखा, हर जगह देखा; जहाँ न देखा, वहाँ देखने की हसरत लिए घर लौटा।
पाकिस्तान ज़िंदाबाद, ये लकड़ियों का टाल है, पाकिस्तान ज़िंदाबाद! फ़टाफ़ट मुहाज़िर (शरणार्थी) हेयर कटिंग सैलून - पाकिस्तान ज़िंदाबाद! यहाँ ताले मरम्मत किए जाते हैं - पाकिस्तान ज़िंदाबाद! गर्मागर्म चाय - पाकिस्तान ज़िंदाबाद! बीमार कपड़ों का हस्पताल - पाकिस्तान ज़िंदाबाद! अलहमद उलइल्ला की यह दुकान सैयद हुसैन मुहाज़िर जालंधरी के नाम एलॉट हो गई है। एक मकान के बाहर यह भी लिखा देखा - पाकिस्तान ज़िंदाबाद - यह घर एक पारसी भाई का है - यानी, हज़रत कहीं इसे न एलॉट कर लीजिएगा।
सुबह का समय था। अज़ब बहार थी और अज़ब सैर थी। क़रीब-क़रीब सारी दुकानें बंद थीं। एक हलवाई की दुकान खुली थी। मैंने कहा, चलो, लस्सी ही पीते हैं। दुकान की तरफ़ बढ़ा, तो क्या देखता हूँ कि बिजली का पंखा चल तो रहा है, लेकिन उसका मुँह दूसरी तरफ़ है। मैंने हलवाई से कहा, “यह उलटे रुख़ पंखा चलाने का क्या मतलब है?”
उसने घूरकर मुझे देखा और कहा - “देखते नहीं हो!”
मैंने देखा, पंखे का रुख़ क़ायदेआज़म मुहम्मद अली जिन्ना की रंगीन तस्वीर की तरफ़ था, जो दीवार के साथ लगी हुई थी। मैंने ज़ोर का नारा लगाया - ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ और लस्सी पीये बग़ैर आगे चल दिया। बंद दुकान के थड़े पर एक आदमी बैठा पूरियाँ तल रहा था। मैं सोचने लगा, अभी परसों मैंने इस दुकान से चप्पल ख़रीदी थीं। पूरीवाला किधर से आ गया? ख़्याल आया, शायद कोई दूसरी दुकान हो, लेकिन बोर्ड नहीं था। सामने दंगों में झुलसा हुआ मकान था, जिसकी बरसाती में बिजली का पंखा लटक रहा था। इसको देखकर मैंने सोचा था कि आग जलाने में इसने भी काफ़ी मदद दी होगी।
पूरीवाले ने मुझे कहा - “क्या सोच रहे हैं आप बाबू जी! गर्मागर्म पूरियाँ हैं।”
पूरीवाला अपने माथे का पसीना पोंछकर मुस्कराया - “जूतों की दुकान अब भी है, लेकिन वह नौ बजे शुरू होती है और मेरी सुबह छह बजे से शुरू होती है और साढ़े चार बजे ख़त्म होती है।”
मैं आगे बढ़ गया।
क्या देखता हूँ कि एक आदमी सड़क पर काँच के टुकड़े बिखेर रहा है। पहले मैंने ख़्याल किया, भला आदमी है। इस बात का ध्यान रखता है कि लोगों को तक़लीफ़ देंगे, इसलिए सड़क पर से चुन रहा है, लेकिन जब मैंने देखा कि चुनने के बजाय वह बड़ी तरतीब से उन्हें इधर-उधर गिरा रहा है, तो मैं कुछ दूर खड़ा हो गया। झोली खाली करने के बाद वह सड़क के किनारे बिछे हुए टाट पर बैठ गया। पास ही एक दरख़्त था। उस पर एक बोर्ड लगा था - “यहाँ साइकिलों के पंक्चर लगाये जाते हैं और उनकी मरम्मत की जाती है।”
मैंने क़दम तेज़ कर दिए। दुकानों के साइनबोर्डों में एक अच्छी तब्दीली नज़र आई। पहले क़रीब-क़रीब सब अंग्रेज़ी में होते थे, अब कुछ दुकानों पर नाम और लिखावट दोनों उर्दू लिबास में नज़र आए। किसी ने ठीक कहा है कि जैसा देश, वैसा भेस। आगे चलकर एक दुकान थी, जिसका नाम ‘पापोशियाना’ था, यानी जूतों का आशियाना। मैंने ख़ुश होकर ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ कहा और चलता रहा।
चलते-चलते साइकिल के चार पहियों पर एक अजीब ढंग की हाथगाड़ी देखी। पूछा - ‘यह क्या है’, जवाब मिला - ‘होटल’। चलता-फिरता होटल था। चपातियाँ पकाने के लिए अँगीठी और तवा मौजूद, चार सालन, शामी कबाब, तलने के लिए फ़्राईपेन हाज़िर। पानी के दो घड़े, बर्फ़, लैमोनेड की बोतलें, दही का कुंडा, नींबू निचोड़ने का खटका, गिलास, प्लेटें -- हर चीज़ मौजूद थी।
कुछ दूर आगे बढ़ा तो देखा, एक आदमी छोटे-से लड़के को धड़ाधड़ पीट रहा है। मैंने वजह पूछी, तो मालूम हुआ कि लड़का नौकर है और उसने एक रुपये का नोट गुम कर दिया है। मैंने उस ज़ालिम को झिड़का और कहा -- “क्या हुआ, बच्चा है, काग़ज़ का छोटा-सा पुर्जा ही तो होता है एक रुपये का नोट, कहीं गिर पड़ा होगा। ख़बरदार, जो तुमने इस पर हाथ उठाया।”
यह सुनकर वह आदमी मुझसे उलझ गया और कहने लगा -- “तुम्हारे लिए एक रुपये का नोट काग़ज़ का छोटा-सा पुर्जा है, लेकिन जानते हो कि कितनी मेहनत के बाद यह काग़ज़ का छोटा-सा पुर्जा मिलता है आजकल!”
यह कहकर वह फिर उस बच्चे को पीटने लगा। मुझे बहुत तरस आया। जेब से एक रुपया निकाला और उस आदमी से बच्चे की जान छुड़ाई।
कुछ क़दमों का फ़ासला तय किया होगा कि एक आदमी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और मुस्कराकर कहा -- “रुपया दे दिया आपने उस पाजी को?”
मैंने जवाब दिया “जी हाँ, बहुत बुरी तरह पीट रहा था बेचारे को।”
“बेचारा, उसका अपना लड़का है।”
“क्या कहा?”
“बाप और बेटे दोनों का यही कारोबार है। दो-चार रुपये रोज़ इसी ढोंग से कर लेते हैं।”
मैंने कहा -- “ठीक है।” और आगे क़दम बढा लिए।
एक दम शोर-सा पैदा हो गया। क्या देखता हूँ कि लड़के हाथों में काग़ज़ के बंडल लिए चिल्ला रहे हैं और अंधाधुंध भाग रहे हैं। भाँति-भाँति की बोलियाँ सुनने में आईं। अख़बार बिक रहे थे। ताज़ा-ताज़ा और गर्म-गर्म ख़बरें -- देहली में जूता चल गया। लखनऊ में अमुक लीडर की कोठी पर कुत्तों ने हमला कर दिया। पाकिस्तान के एक ज्योतिषी की भविष्यवाणी -- कश्मीर दो हफ़्तों में आज़ाद हो जाएगा। सैकड़ों ही अख़बार थे। आज का ताज़ा ‘निव-ए-सुबह’ (सुबह की आवाज़), आज का ताज़ा ‘सुनहरा पाकिस्तान’।
अख़बार बेचने वाले लड़कों की बाढ़ गुज़र गई, तो एक औरत नज़र आई। उम्र यही कोई पचास के लगभग, गंभीर सूरत। एक हाथ में थैला था, दूसरे में अख़बारी बंडल। मैंने पूछा -- “क्या आप अख़बार बेचती हैं?”
जवाब मिला -- “जी हाँ।”
मैंने दो अख़बार ख़रीदे और दिल में उस अख़बार बेचने वाली औरत का सम्मान लिए आगे बढ़ गया।
थोड़ी ही देर में कुत्तों का एक जमघट सामने आया। कुत्ते भौंक रहे थे और एक-दूसरे को भँभोड़ रहे थे, प्यार कर रहे थे और काट भी रहे थे। मैं डरकर एक तरफ़ हट गया, क्योंकि पंद्रह दिन हुए एक कुत्ते ने मुझे काट खाया था और पूरे चौदह दिन सी० सी० के टीके मुझे अपने पेट में भुकवाने पड़े थे। मैंने सोचा, क्या ये सब कुत्ते मुहाज़िर (शरणार्थी) हैं? या वे हैं, जिन्हें यहाँ से जाने वाले अपने पीछे छोड़ गए हैं? कोई भी हों, इनका ख़्याल तो रखना ही चाहिए। जो शरणार्थी हैं, उनको फिर से आबाद किया जाए और जो बिना मालिक के रह गए हैं, उनको नस्ल के मुताबिक उन लोगों के नाम एलॉट कर दिये जाएँ, जिनके कुत्ते उस पार रह गये हैं -- और जिनका कोई वाली-वारिस नहीं, उनके लिए लकड़ी की टाँगें लगवा दी जाएँ, ताकि वे उन्हीं से अपना शगल पूरा करते रहें। कुत्तों का झुरमुट चला गया, तो मेरी जान में जान आई।
मैंने क़दम बढाने शुरू किए। मैंने एक अख़बार खोला और उसे देखना शुरू किया। मुखपृष्ठ पर एक फ़िल्म एक्ट्रेस की तस्वीर थी -- तीन रंगों में एक्ट्रेस का जिस्म अधनंगा था। नीचे लिखा थाः ‘फ़िल्मों में बेहयाई की नुमायश कैसे की जाती है, इसका कुछ अंदाज़ा ऊपर की तस्वीर से हो सकता है।’ मैंने दिल-ही-दिल में ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ का नारा लगाया और अख़बार को फ़ुटपाथ पर फेंक दिया। दूसरा अख़बार खोला। एक छोटे से इश्तिहार पर नज़र पड़ी। लिखा था: ‘मैंने कल अपनी साइकिल लायड्ज बैंक के बाहर रखी। काम से फ़ारिग होकर जब लौटा, तो क्या देखता हूँ कि साइकिल पर पुरानी गद्दी कसी हुई है, लेकिन नयी ग़ायब है। मैं ग़रीब मुहाज़िर हूँ। जिस साहब ने ली हो, मेहरबानी करके मुझे वापस कर दें।’
मैं ख़ूब हँसा और अख़बार तह करके अपनी जेब में रख लिया। कुछ गज़ों के फ़ासले पर एक जली हुई दुकान दिखाई दीं। उसके अंदर एक आदमी बर्फ़ की दो मोटी-मोटी सिलें रखे बैठा था। मैंने दिल में कहा, इस दुकान को आखि़र किसी तरह ठंडक पहुँच ही गई।
दो-तीन साइकिलें देखीं। थोड़े-थोड़े अर्से के बाद मर्द चला रहे थे और एक-एक बुर्कापोश औरत पीछे कैरियर पर बैठी थी। पाँच-छह मिनट के बाद एक और इसी क़िस्म की साइकिल नज़र आई, लेकिन अब बुर्कापोश औरत आगे हैन्डिल पर बैठी थी। अचानक खरबूजे के छिलके पर से साइकिल फिसली, सवार ने ब्रेक दबाए। फिसलने और ब्रेक के दोहरे अमल से साइकिल उलटकर गिरी। मैं मदद के लिए दौड़ा। मर्द औरत के बुर्के में लिपटा हुआ और औरत बेचारी साइकिल के नीचे दबी हुई थी। मैंने साइकिल हटाई और उसको सहारा देकर उठाया। मर्द ने बुर्के में से मुँह निकालकर मेरी तरफ़ देखा और कहा -- “आप तशरीफ़ ले जाइए। हमें आपकी मदद की ज़रूरत नहीं।”
यह कहकर वह उठा और औरत के सिर पर औंधा-सीधा बुर्का अटकाया और उसको हैन्डिल पर बिठा यह जा, वह जा। मैंने दिल में सोचा कि आगे सड़क पर खरबूजे का कोई और छिलका पड़ा हुआ न हो!
थोड़ी ही दूर दीवार पर एक इश्तिहार देखा, जिसका शीर्षक बहुत ही अर्थ-पूर्ण था -- ‘मुसलमान औरत और पर्दा’।
अब तक मैं बहुत आगे निकल आया था। जगह जानी-पहचानी थी, मगर वह बुत कहाँ था, जो मैं देखा करता था। मैंने एक आदमी से, जो घास के तख़्ते पर आराम फ़रमा रहा था, पूछा -- ‘क्यों साहब, यहाँ एक बुत होता था, वह कहाँ गया?”
आराम फ़रमाने वाले ने आँखें खोलीं और कहा -- “चला गया।”
“चला गया? आपका मतलब है, अपने आप चला गया?”
वह मुस्कराया, “नहीं, उसे ले गये।”
मैंने पूछा -- “कौन?”
जवाब मिला -- “जिनका था।”
मैंने दिल में कहा -- लो, अब बुत भी हिज़रत करने लगे।
एक दिन वह भी आएगा, जब लोग अपने मुर्दे को भी क़ब्रों से उखाड़कर ले जाएँगे।
यही सोचते हुए क़दम उठाने वाला था कि एक साहब ने, जो मेरी ही तरह टहल रहे थे, मुझसे कहा --”बुत कहीं गया नहीं, यहीं है और महफ़ूज़ है।”
मैंने पूछा -- “कहाँ?”
उन्होंने जवाब दिया -- “अजायबघर में।” मैंने दिल में दुआ माँगी -- ख़ुदा, वह दिन लाइयो कि हम सब अजायबघर में रखे जाने के काबिल हो जाएँ।
फ़ुटपाथ पर एक देहलवी मुहाज़िर अपने साहबज़ादे के साथ सैर फ़रमा रहे थे। साहबज़ादे ले उनसे कहा -- “अब्बाजान, हम आज छोले खाएँगे।”
अब्बाजान के कान और सुर्ख हो गए -- “क्या कहा?”
साहबज़ादे ने जवाब दिया -- “हम आज छोले खाएँगे।”
अब्बाजान के कान और सुर्खं हो गये -- “छोले क्या हुआ, चने कहो।”
साहबज़ादे ने बड़ी मासूमी से कहा -- “नहीं अब्बाजान, चने दिल्ली में होते हैं। यहाँ सब छोले ही खाते हैं।”
अब्बाजान के कान अपनी असली हालत पर आ गए।
मैं टहलता-टहलता लॉरेंस बाग़ पहुँच गया। वही बाग़ था पुराना, लेकिन वह चहल-पहल नहीं थी। औरतें तो क़रीब-क़रीब बिलकुल ग़ायब थीं। फूल खिले हुए थे। कलियाँ चटक रही थीं। हल्की-फुल्की हवा में ख़ुशबुएँ तैर रही थीं। मैंने सोचा, औरतों को क्या हुआ है, जो घर में क़ैद हैं? ऐसा ख़ूबसूरत बाग़, इतना सुहावना मौसम -- इससे लुत्फ़ क्यों नहीं लेती? लेकिन, मुझे फ़ौरन ही इस सवाल का जवाब मिल गया -- जब मेरे कानों में एक बिलकुल भौंडे और बाज़ारू गाने की आवाज़ आयी -- और जब मैंने लॉरेंस बाग़ की पगडंडियों पर फटी-फटी निगाहों वाले गोश्त के बेहंगम लोथड़ों को धीमी चाल से चलते देखा, तो मुझे दुख हुआ और यह दुख और बढ़ गया, जब मैंने सोचा कि फूल बेकार खिल रहे हैं, कलियाँ बेमतलब चटक रही हैं। ये जो इनकी तरफ़ देखे बग़ैर चले जा रहे हैं, ये जो इनकी ख़ुशबू से बिलकुल बेखबर हैं, क्या इनकी जगह इस बाग़ के बजाय कोई दिमाग़ी हस्पताल नहीं? कोई स्कूल नहीं, जहाँ इनके दिमाग़ों की बंद खिड़कियाँ खोली जाएँ? इनकी रूहों के ज़ंग लगे ताले तोड़े जाएँ? अगर कोई ऐसा नहीं कर सकता, मेरा मतलब है, अगर इन्सान का दिमाग़ मजबूर है इन इन्सानों के मन का सुधार करने में, तो क्या वह इन्हें चिड़ियाघर में नहीं रख सकता, जो लॉरेन्स गार्डन में ही कायम है? मेरी तबियत ख़राब हो गयी। बाग़ से बाहर निकल रहा था कि एक साहब ने पूछा -- “क्यों साहब, यही जिन्ना बाग़ है?” मैंने जवाब दिया -- “जी नहीं, यह लॉरेंस बाग है।”
वे साहब मुस्काए --”आप चिड़ियाघर से तशरीफ़ ला रहे हैं?”
“जी हाँ।”
वे साहब हँस पड़े -- “जनाब, जब से पाकिस्तान कायम हुआ है, इसका नाम जिन्ना बाग़ हो गया है।”
मैंने उनसे कहा -- ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद।”
वे और ज़्यादा हँसते हुए लॉरेंस बाग़ में चले गए और मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मैं दोजख (नर्क) के बाहर निकला हूँ।