सवैया छन्दों की छटा / ओम नीरव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छंदों के संसार में सवैया छंद का विशेष महत्त्व है। तुलसी, रसखान और नरोत्तमदास जैसे अनेक कवियों ने कोमल भावों की सरस और मधुर अभिव्यक्ति के लिए इस छंद का मनोहारी सर्जन किया है। सवैया छंद की गति किसी सरिता कि लहरों जैसी होती है जिनके साथ पाठक बहता चला जाता है और उसे पता नहीं चलता कि बहते-बहते कब वह सागर की अनंत गहराई में उतर गया। इसीलिए यह छंद जन-मानस में अति लोकप्रिय है। रसखान के कृष्ण-भक्ति में पगे मधुरिम सवैया हों या नरोत्तमदास के सुदामाचरित के मार्मिक सवैया हों, पाठक इनको पढ़ते-पढ़ते सम्मोहित-सा हो जाता है। शिल्प की दृष्टि से देखें तो सवैया एक मापनीयुक्त वर्णिक छंद है। इसका अर्थ है सवैया छंद के प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या निश्चित होती है और प्रत्येक वर्ण का मात्राभार भी निश्चित होता है अर्थात वर्णों में गुरु-लघु का एक निश्चित क्रम होता है जिसे मापनी कहते हैं। ऐसे छंदों को वर्णवृत्त भी कहते हैं। इन छंदों के मर्म को समझने के लिए इतना जान लेना आवश्यक है कि तीन-तीन वर्णों के समूहों को गण कहते हैं। यदि लघु को ल और गुरु को गा से व्यक्त किया जाये तो लगागा को यगण, गागागा को मगण, गागाल को तगण, गालगा को रगण, लगाल को जगण, गालल को भगण, ललल को नगण और ललगा को सगण कहेंगे।

सवैया छंद में समतुकान्त चार समान चरण होते हैं। इसके चरण में वर्णों की संख्या 22 से 26 तक हो सकती है, जिसमें एक ही गण की कई आवृत्तियाँ होती है जिसके अंत में एक से तीन तक वर्ण अलग से भी जुड़े हो सकते हैं। दो लघु वाले गणों अर्थात भगण (गालल) , सगण (ललगा) और जगण (लगाल) की आवृत्ति से बनने वाले सवैया अधिक प्रचलित हैं, इनकी गति द्रुत होती है। इसप्रकार के सवैया छंदों में सबसे छोटा 22 मात्रा का मदिरा सवैया होता है, इसके पूर्व-पश्चात एक-दो वर्ण जोड़ने से इस प्रकार के अन्य सभी सवैया छंद बन जाते हैं। दो गुरु वाले गणों अर्थात यगण (लगागा) , तगण (गागाल) और रगण (गालगा) की आवृत्ति से बनने वाले सवैया कम प्रचलित हैं, इनकी गति मंद होती है। सभी लघु या सभी गुरु वर्णों वाले गणों अर्थात मगण (गागागा) और नगण (ललल) की आवृत्ति से कोई सवैया नहीं बनता है।

उपजाति

सवैया छंद रचते समय कवि-मन में इसकी लय तरंगित होने लगती है जिसमें मत्त होकर वह कभी तरंग कि निर्धारित सीमा के आगे निकल जाता है तो कभी पीछे चला जाता है। इसलिए सवैया रचते समय मापनी की सीमा पर सजग दृष्टि रखना आवश्यक होता है अन्यथा चूक हो जाने की संभावना बनी रहती है। तुलसी, रसखान जैसे महाकवियों से भी ऐसी चूक हुई है और उन्होंने कुछ ऐसे भी सवैया रच दिये हैं जिनके चरणों में वर्णों की संख्या असमान है। ऐसे सवैया छंद न तो शास्त्रीय व्यवस्था पर आधारित हैं और न अनुकरणीय हैं। तथापि महाकवियों के सम्मान में इन्हें उपजाति सवैया के रूप में स्वीकार कर लिया गया है।

सवैया नाम क्यों?

सवैया छंद की प्रभविष्णुता और मारक क्षमता अन्य छंदों से सवाई अर्थात सवा गुनी होती है इसलिए संभवतः इसका नाम सवैया रखा गया है। जब कोई कवि सवैया छंद को जन-समूह के मध्य सस्वर पढ़ता है तो श्रोताओं को छंद के साथ झूम जाते देख कर इस तथ्य की पुष्टि सहज ही हो जाती है। दूसरे मत से सवैया छन्द के चरण की लम्बाई सामान्य छंदों से सवाई होने के कारण भी इसे सवैया कहा गया है।

सवैया छंदों में मापनी

छंदों की पारम्परिक व्याख्या के लिए गणों का उल्लेख आवश्यक हो जाता है लेकिन रचना-कर्म के लिए इसकी कोई अनिवार्यता नहीं है। प्रस्तुत छन्द-परिचय में लघु-गुरु वर्णों का क्रम दिया हुआ है जिसे परंपरा से सम्बद्ध रखने किए गणों के अनुसार विभाजित कर दिया गया है, इस क्रम को मापनी कहते हैं। प्रस्तुत मापनी में गुरु के स्थान पर दो लघु प्रयोग करने की छूट न होने के कारण इसे 'वर्णिक मापनी' कहा जायेगा। केवल वर्णिक मापनी से छन्द की गति और प्रकृति का भरपूर ज्ञान हो जाता है और फिर कुछ अन्य पढ़ने-समझने की बाध्यता नहीं रहती है। वर्णिक मापनी से सवैया छन्द रचने की विधि इतनी सरल और सुबोध है कि कोई भी जिज्ञासु साधक खेल-खेल में ही सवैया छंदों में गत हो सकता है।

कुछ लोकप्रिय सवैया छन्द

(1) मदिरा सवैया-यह आकार में सबसे छोटा 22 वर्णों का सवैया छन्द है। यह भगण की 7 आवृत्तियों के बाद एक गुरु जोड़ने से बनता है। सरलता से समझने के लिए इसकी वर्णिक मापनी को निम्नप्रकार लिखा जा सकता है, जो छन्द के पूर्ण परिचय के लिए पर्याप्त है जबकि चरण-संख्या और तुकान्तता का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है-

गालल गालल-गालल गालल गालल-गालल गालल गा

अब यदि इस मापनी को निम्नप्रकार लिखा जाये तो भी छन्द को समझने में कोई बाधा नहीं पड़ेगी-

गा ललगा-ललगा ललगा ललगा-ललगा ललगा ललगा

तथापि हम परम्परा से जुड़े रहने का ही प्रयास करेंगे जो विचार-विनिमय के लिए आवश्यक भी है।

उदाहरण

दो वर तात भले जिसके प्रतिभा धन वैभव पास न हो।

कंटक-कानन में रह लूँ हँस यों कि कभी उपहास न हो।

बाबुल व्याह करो न करो अपना मन रंच उदास न हो।

हैं विनती पर एक यही उर-दाहक त्रासक सास न हो। -स्वरचित

(2) मत्तगयंद या मालती सवैया-इसमें 23 वर्ण होते हैं। यह भगण की 7 आवृत्तियों के बाद दो गुरु जोड़ने से अथवा मदिरा के अंत में एक गुरु जोड़ने से बनता है। इसकी वर्णिक मापनी इस प्रकार है-

गालल गालल-गालल गालल गालल-गालल गालल गागा

उदाहरण

दो वर तात भले जिसके प्रतिभा धन वैभव पास नहीं हो।

कंटक कानन में रह लूँ हँस यों कि कभी उपहास नहीं हो।

बाबुल व्याह करो न करो अपना मन रंच उदास नहीं हो।

हैं विनती पर एक यही उर-दाहक त्रासक सास नहीं हो। -स्वरचित

(3) किरीट सवैया-24 वर्णों का यह छन्द भगण की 8 आवृत्तियों से अथवा मदिरा के अंत मैं दो लघु लल जोड़ने से बनता है। वर्णिक मापनी-

गालल गालल-गालल गालल गालल-गालल गालल गालल

उदाहरण

दो वर तात भले जिसके प्रतिभा धन वैभव हो कुछ पास न।

कंटक कानन में रह लूँ हँस यों कि कदाचित हो परिहास न।

बाबुल व्याह करो न करो अपना मन हो लव मात्र उदास न।

है विनती पर एक यही बस हो उरदाहक त्रासक सास न। -स्वरचित

(4) अरसात सवैया-24 वर्ण। 7 भगण और गालगा। मापनी-

गालल गालल-गालल गालल गालल-गालल गालल गालगा

अरसात = मदिरा + लगा

उदाहरण

दो वर तात भले जिसके प्रतिभा धन वैभव पास न हो कभी।

कंटक कानन में रह लूँ हँस यों घर का उपहास न हो कभी।

बाबुल व्याह करो न करो अपना मन रंच उदास न हो कभी।

हैं विनती पर एक यही उर-दाहक त्रासक सास न हो कभी। -स्वरचित

(5) चकोर सवैया-23 वर्ण। 7 भगण और ल। मापनी-

गालल गालल-गालल गालल गालल-गालल गालल गाल

चकोर = मदिरा + ल

उदाहरण

दो वर तात भले जिसके प्रतिभा धन वैभव हो मत पास।

कंटक कानन में रह लूँ हँस यों घर का मत हो उपहास।

बाबुल व्याह करो न करो अपना मन किंचित हो न उदास।

है विनती पर एक यही उरदाहक त्रासक हो मत सास। -स्वरचित

(6) सुमुखी सवैया-23 वर्ण। 7 जगण और लगा। मापनी-

लगाल लगाल-लगाल लगाल लगाल-लगाल लगाल लगा

सुमुखी = ल + मदिरा

मिले वर तात भले जिसके प्रतिभा धन वैभव पास न हो।

कुकंटक कानन में रह लूँ हँस यों कि कभी उपहास न हो।

भले कर पीत करो न करो अपना मन रंच उदास न हो।

करूँ विनती पर एक यही उरदाहक त्रासक सास न हो।

अथवा

सुनी यह बात कि रूप कुरूप रहे पर कंचन-कंचन है।

ढले बिन भूषण में फिर भी लगता वह मोहक रंच न है।

बिना अनुबंध नहीं प्रिय छंद बिना अनुशासन मंच न है।

लसे कविता न अछन्द कभी यह है कटु सत्य प्रपंच न है। -स्वरचित

(7) दुर्मिल सवैया-24 वर्ण। 8 सगण। मापनी-

ललगा ललगा-ललगा ललगा ललगा-ललगा ललगा ललगा

दुर्मिल = लल + मदिरा

उदाहरण

वर दो वह तात भले जिसके प्रतिभा धन वैभव पास न हो।

हँस कंटक कानन में रह लूँ कुछ यों कि कभी उपहास न हो।

प्रिय बाबुल व्याह करो न करो अपना मन रंच उदास न हो।

पर है विनती बस एक यही, उर दाहक त्रासक सास न हो। -स्वरचित

(8) सुंदरी सवैया-25 वर्ण। 8 सगण और गा। मापनी-

ललगा ललगा-ललगा ललगा ललगा-ललगा ललगा ललगा गा

दुर्मिल = लल + मदिरा + गा

उदाहरण

वर दो वह तात भले जिसके प्रतिभा धन वैभव पास नहीं हो।

हँस कंटक कानन में रह लूँ कुछ यों कि कभी उपहास नहीं हो।

प्रिय बाबुल व्याह करो न करो अपना मन रंच उदास नहीं हो।

पर है विनती बस एक यही, उर दाहक त्रासक सास नहीं हो। -स्वरचित

(9) कुंतलता सवैया-26 वर्ण। 8 सगण और लल। मापनी-

ललगा ललगा-ललगा ललगा ललगा-ललगा ललगा ललगा लल

दुर्मिल = लल + मदिरा + लल

उदाहरण

वर दो वह तात भले जिसके प्रतिभा धन वैभव हो कुछ पास न।

हँस कंटक कानन में रह लूँ कुछ यों कि कदाचित हो परिहास न।

प्रिय बाबुल व्याह करो न करो अपना मन हो लव मात्र उदास न।

पर है विनती बस एक यही कि मिले उरदाहक त्रासक सास न। -स्वरचित

(10) महामंजीर सवैया-26 वर्ण। आठ सगण और लगा। मापनी-

ललगा ललगा-ललगा ललगा ललगा-ललगा ललगा ललगा लगा

महामंजीर = लल + मदिरा + लगा

उदाहरण

झमको-झमको गमको बदरा तुम सावन की पहचान बने रहो।

विरही उर को परितृप्त करो तुम यौवन की मुसकान बने रहो।

उर नीरव के दृग बिम्ब बनो छलको-छलको नभ में न तने रहो।

कवितांगन में मत केशव हो, रस-निर्झर हो रसखान बने रहो। -स्वरचित

(11) मुक्तहरा सवैया-26 वर्ण। आठ जगण। मापनी-

लगाल लगाल-लगाल लगाल लगाल-लगाल लगाल लगाल

मुक्तहरा = ल + मदिरा + ल

उदाहरण

न भूमि महान, न व्योम महान, न तीर्थ महान, न पुण्य, न दान।

न शैल महान, न सिंधु महान, महान न गंग, न संगम स्नान।

न ग्रंथ महान, न पंथ महान, महान न काव्य, न दर्शन ज्ञान।

महान सुकर्म, महान सुभाव, सुदृष्टि महान, चरित्र महान। -स्वरचित


(12) अरविंद सवैया-25 वर्ण। आठ सगण और ल। मापनी-

ललगा ललगा-ललगा ललगा ललगा-ललगा ललगा ललगा ल

अरविंद = लल + मदिरा + ल

उदाहरण

लगता परिवार कभी सुख-सिंधु, कभी लगता यह भीषण ज्वाल।

प्रिय-पात्र कभी लगते हित हेतु, कभी लगते डसते बन व्याल।

वनिता लगती सुर-गेह कभी, अघ गेह कभी लगती विकराल।

मन रे, निज चंचलता लखता न, रचा करता बस नित्य बवाल।

-स्वरचित

(13) मंदारमाला सवैया-22 वर्ण। सात तगण और गा। मापनी-

गागाल गागाल-गागाल गागाल गागाल-गागाल गागाल गा

आगे के दो गुरु गागा युक्त छंदों को मदिरा के पदों में व्यक्त करना संभव नहीं है।

उदाहरण

नारी कभी कोमला, तो कभी कर्कशा भी लगी, क्या कहेंगे उसे।

पाषाण-सी तो कभी मोम-सी माधुरी में पगी, क्या कहेंगे उसे।

निर्लज्ज हो भी अड़ी, तो कभी लाज ओढ़े खड़ी, क्या कहेंगे उसे।

संसार को जो ठगे जा रही, जा रही भी ठगी, क्या कहेंगे उसे। -स्वरचित


(14) महाभुजंगप्रयात सवैया-24 वर्ण। सात यगण। मापनी-

लगागा लगागा-लगागा लगागा लगागा-लगागा लगागा लगागा

उदाहरण

न माता पिता भामिनी या न कोई किसी का पले जा अकेले-अकेले।

अरे शैल, नदियाँ तुझे चूसती ही रहेंगी, गले जा अकेले-अकेले।

निशा-दीप, नीरव जगे जा, झमेला सँभाले जले जा अकेले-अकेले।

कभी तो, कहीं तो मिलेगा ठिकाना, चले जा चले जा अकेले-अकेले। -स्वरचित

(15) वागीश्वरी सवैया-23 वर्ण। सात यगण और लगा। मापनी-

लगागा लगागा-लगागा लगागा लगागा-लगागा लगागा लगा

उदाहरण

भले या बुरे, श्रेय या हेय हैं, आपके हैं, इसे जानते आप ही।

हमारे रचे यज्ञ में आपकी हव्य ही सर्वदा होम होती रही।

सदा आपके स्नेह की संपदा है हमारे लिए जाह्नवी-सी बही।

बनाये रखें स्नेह-आशीष ही कामना है यही, याचना है यही। -स्वरचित

(16) गंगोदक सवैया-24 वर्ण। सात रगण। मापनी-

गालगा गालगा-गालगा गालगा गालगा-गालगा गालगा गालगा

उदाहरण

छांदसी काव्य की सर्जना के लिए, भाव को शिल्प-आधार दे शारदे!

साथ शब्दार्थ के लक्षणा व्यंजना, से भरा काव्य संसार दे शारदे!

द्वेष की भीति को प्रीति की रीति से, दे मिटा, स्नेह संचार दे शारदे!

विश्व की वेदना पीर मेरी बने, आज ऐसे सुसंस्कार दे शारदे! -स्वरचित

सवैया छन्द और भी हैं जिनमें से कुछ पारंपरिक है जबकि अन्य कुछ ऐसे भी हैं जो प्रयोगधर्मी रचनाकारों द्वारा गढ़े गये हैं। गढ़े गये नव छंदों का भी स्वागत होना चाहिए जिससे काव्य शास्त्र में गत्यात्मकता बनी रहे और उसमें नयी-नयी संभावनाएँ साकार होती रहें किन्तु यह प्रयोग शास्त्रीय मर्यादा के भीतर ही होना चाहिए। कुछ रचनाकार अपने असंगत और अनर्गल सर्जन की दुर्बलता को छिपाने या उसे महिमामंडित करने के लिए एक नये छन्द का नाम दे देते हैं। यदि कोई नया छन्द गढ़ा जाता है तो उसका एक निश्चित विधान होना चाहिए और उस विधान का रचनाकार द्वारा दृढ़ता से पालन किया जाना चाहिए। सवैया छन्द के संदर्भ में उल्लेखनीय है कि कोई नव-निर्मित सवैया तभी मान्य होना चाहिए जब उसमें सवैया के मूल अभिलाक्षणिक गुण विद्यमान हो, यथा-वर्णों की संख्या 22 से 26 तक हो, अंत के अधिकतम तीन वर्णों को छोडकर शेष सभी वर्णों में उचित गण की आवृत्ति हो, इसप्रकार जो मापनी बने वह चारों चरणों में समान रूप से लागू हो और चारों चरण समतुकान्त हों। यदि इनमें से किसी प्रतिबंध का उल्लंघन होता है तो छन्द सवैया नहीं होगा, कुछ और भले ही हो।

मात्रापतन

वर्णिक छंदों में प्रत्येक वर्ण का मात्राभार निश्चित होता है इसलिए इसका सर्जन मात्रिक छंदों की तुलना में कठिन होता है। सटीक वर्णिक छन्द रचने के लिए विपुल शब्द भंडार और उत्कृष्ट काव्य कौशल की आवश्यकता होती है। जो शब्द छन्द के ढाँचे में समायोजित नहीं हो पाते हैं उनके पर्यायवाची ऐसा शब्द की खोज करना आवश्यक हो जाता है जो सटीकता से समायोजित हो सके लेकिन नामवाचक संज्ञा शब्द यदि समायोजित होने वाला न हो तो उसका विकल्प खोज पाना दूभर हो जाता है। ऐसी स्थिति में यदि किसी शब्द का प्रयोग मात्रापतन के साथ किया जाये तो वह क्षम्य मान लिया जाता है। आदिकालीन कवियों ने अपने सवैया छंदों में मात्रापतन के यथावश्यक प्रयोग में कोई संकोच नहीं किया गया है लेकिन इसे अनुकरणीय नहीं माना जा सकता है। जहाँ तक संभव हो मात्रापतन से बचना चाहिए। यदि मात्रापतन की छूट लेनी ही पड़े उसी सीमा तक करना चाहिए जिससे प्रवाह बाधित न हो। मात्रापतन कोई गुण नहीं है, अपितु एक प्रकार की छूट है और काव्य-कौशल के शैथिल्य का द्योतक है।