सहजता और सरलता / सुधेश
सहजता की बात कविता के सन्दर्भ में अधिक की जाती है , यद्यपि इस की आवश्यकतागद्य की अनेक विधाओं में भी है। किसी ज़माने में अमृत राय ने सहज कहानी की बातकरके कहानी में सहजता की ज़रूरत रेखांकित की थी। हिन्दी के कवि ( इन पंक्तियोंका लेखक ) सुधेश ने सन १९९४ में सहज कविता नाम की पत्रिका निकाल कर कवितामें सहजता की आवश्यकता रेखांकित की थी।
आज भी साहित्य में सहजता का उल्लेखयदा कदा आलोचक और लेखक करते हैं। सहजता के अनेक पक्षों और आयामों की चर्चामेरी पुस्तक सहज कविता , स्वरूप और सम्भावनाएँ में विस्तार से की गई है। पर सहजता को कभी सरलता का पर्याय समझ लिया जाता है , जिस का मैं खण्डनकरता रहा हूँ। इसलिए मैं ने सोचा कि यहाँ सहजता और सहजता के अन्तर पर विचारकर लिया जाए। यहाँ मैं सहजता को सरलता के साथ रख कर देखना चाहता हूँ। क्या सहजता औरसरलता दोनों पर्यायवाची शब्द हैं ? नहीं , तो फिर दोनों में क्या अन्तर है ? सहजताको कविता या साहित्य सृजन की प्रक्रिया से जोड़ कर देखना होगा। सरलता कोअभिव्यक्ति की भाषा से जोड़ा जाना चाहिए। सृजन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है औरजो स्वाभाविक है वह सहज है। स्वाभाविक का अर्थ स्वभाव से जुड़ा हुआ है अर्थातउस में स्व और भाव दोनों शब्द शामिल हैं। जो अपने भाव के अनुकूल हो वहीस्वाभाविक है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जब कविता भावों के दबाव मेंलिखी जाती है ,तब वह स्वाभाविक कविता है , जिसे सहज कविता भी कह सकते हैं।
कोई तर्क देगा कि कविता ही क्यों साहित्य की प्रत्येक विधा भावों या अनुभवोंके दबाव में लिखी जाती है। इस से कोई मतभेद नहीं हो सकता। प्रेरणा के बिनाकोई साहित्यिक रचना नहीं लिखी जा सकती और प्रेरणा भावोद्रेक से ही मिलती है। पर कविता के साथ स्थिति यह है कि उस में भावों की तीव्रता अभिव्यक्ति के लिएप्रतीक्षा नहीं कर सकती , जब कि उपन्यास , कहानी आदि वर्णन प्रधान होने केकारण कथा की बनावट , पात्रों के चयन और वातावरण निर्माण के उपकरणों कोखोजने की प्रक्रिया में काफी समय लगता है। तो सहजता सृजन की प्रक्रिया से सम्बन्धित है और सरलता को भाषा के परिप्रेक्ष्यमें अथवा अभिव्यक्ति के साधनों के सन्दर्भ में देखा जाता है।
इस से आगे बढ़ कर सहज कविता के बारे में कहा जा सकता है कि वह प्राय:सरल भाषा में लिखी जाती है , पर केवल भाषा की सरलता ही सहज कविता काएक मात्र लक्षण नहीं होता , यद्यपि भाषा की सरलता कविता के सम्प्रेषण में सहायकहोती है। सरलता पाठक सापेक्ष भी है ा शिक्षित व्यक्ति के लिए जो भाषा बोधगम्य होती है , वहअशिक्षित व्यक्ति के लिए वैसी नहीं होती। इस का मतलब यह हुआ कि जो भाषा किसी कीसमझ में आसानी से आजाए , वह उस के लिए सरल है। तो भाषा की सरलता का सम्बन्धउस की बोधगम्यता से भी है। तो सरलता केवल भाषा के प्रयोग तक सीमित नहीं है , वहपाठकों के बौद्धिक धरातल , उन के शैक्षिक स्तर और सांस्कृतिक सुरुचि के धरातल सेभी सम्बन्धित है। इस का आशय यह नहीं है कि शिक्षित व्यक्ति ही उच्च सांस्कृतिकधरातल पर होता है ,( यद्यपि शिक्षित व्यक्ति से इस की अधिक अपेक्षा रहती है ) औरअनपढ़ ग्रामीण में कोई सांस्कृतिक चेतना या सुरुचि नहीं होती। शिक्षित व्यक्ति भीअन्धविश्वासी , अतार्किक ,और जड़मति हो सकता है और अशिक्षित व्यक्ति सत्संगतिऔर नैसर्गिक प्रतिभा के कारण उदार और प्रगतिशील विचारों वाला हो सकता है। पर कविता की सरलता भाषागत अधिक होती है और कविता की सहजता सहज भावोंऔर प्रेरणाओं से अधिक सम्बन्धित है , यद्यपि कविता भाषा में ही लिखी जाती है और उसके बिना कविता का कोई अस्तित्व ही मूर्त्त नहीं होता।
कविता की सहजता को सपाटबयानी से भी जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि सपाटबयानी सरलता है और उसी से कविता में सहजता आती है। पर सपाटबयानी क्या है ?वर्णनात्मक अभिधात्मक कथन ही सपाटकथन अथवा सपाटबयानी है। तो इसे सरलताकहा जा सकता है। पर कठिनाई यह है कि सपाटबयानी एक तरह की शैली है और सरलताप्राय: भाषागत होती है। भाषा और अभिव्यक्ति मेंं शब्द की लक्षणा और व्यंजना शक्तियों पर मुग्ध आलोचकों के बीचअभिधा मानो कोई गर्हित वस्तु है। सपाटबयानी में भी अभिधा की अधिक सक्रियता होती है, तोसपाटबयानी को भी अनेक कवितालोचक कविता का एक दोष मानते हैं।
सहज कविता के सन्दर्भ में मैं सपाटबयानी को कोई गर्हित वस्तु नहीं मानता , बल्कि उपयोगी साधन मानता हूँ। सपाटबयानी स्वभावोक्ति के निकट है। इस लिए वह सहज कविता की उपस्कारक है। पर सहजता को सरलता का पर्यायवाची नहीं माना जा सकता।