सहज प्रवृत्ति / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'
जागरण की ऊर्जा के साथ स्वर्णिम आलोक रश्मि क्षितिज को आलोकित कर रही थी। सन-सन की मधुर धुन के साथ मंद-मंद उन्मुक्त वायु बंधन-मुक्ति का संगीत सुना रही थी। किचिर-मिचिर की चहचहाहट के साथ पक्षियों की वार्ता चारों तरफ प्रेम-सुधा का वर्षण कर रही थी। परंतु कांव-कांव की कर्कश ध्वनि वातावरण को बोझिल बना रही थी। शांति में खलल डाल रही थी।
मैंने खिड़की से झांककर देखा। मैदान के एक कोने में मेरी दृष्टि गई। कौए के एक बच्चे को उसकी माँ उड़ना सिखा रही थी। बच्चे को खदेड़ रही थी। चोंच से आघात कर रही थी। बच्चा दौड़ रहा था... भाग रहा था। परंतु वह पंख नहीं फैला रहा था।
मैंने मैदान की दूसरी तरफ देखा। चिंटू की माँ उसे मॉर्निंग वॉक के लिए लेकर आई थी। वह चिंटू को दौड़ने के लिए प्रेरित कर रही थी। पर चिंटू नहीं दौड़ रहा था। वह माँ का आंचल पकड़कर खड़ा था।
तभी उधर से दौड़ते हुए कौए का बच्चा चिंटू के सामने आ गया। उसे देखते ही चिंटू एक साथ प्रफुल्लित और उत्तेजित हो उठा। वह तत्क्षण उसके पीछे दौड़ पड़ा...एक आक्रामक दौड़। कौए के बच्चे ने भी आतंकित होकर दौड़ते-दौड़ते पंख फैला दिया और वह हवा में उड़ने लगा... एक सुरक्षात्मक उड़ान।
उधर काक-शिशु आसमान में था और मानव-शिशु मैदान के दूसरे छोर पर! इधर प्रसन्नता के साथ मानव-माता खिलखिला रही थी और काक-माता कांव-कांव कर रही थी!