सहबास बिल अवश्य पास होगा / प्रताप नारायण मिश्र
कहीं मुँह की फूँक से पहाड़ नहीं उड़-उड़ जाते। अखबारों का चाएँ-चाएँ करना अथवा लोगों की छोटी-छोटी, बड़ी-बड़ी सभाएँ करके उसके विरुद्ध मेमोरियल भेजना नक्कारखाने में तूती की आवाज मात्र है। यह बातें उस देश में प्रभावशालिनी हो सकती हैं जहाँ के समाज में कुछ जीवन हो, जहाँ के समुदाय को तत्रस्थ राजपरिकर कुछ समझता हो। पर भारत के भाग्य से अभी यह सौभाग्य सौ कोस दूर है। हमें ऐसी किसी बृहद घटना का स्मरण नहीं है कि जिसमें प्रजा की पुकार ने 'राजा करे सो न्याव' वाले सिद्धांत को रोक रक्खा हो। फिर क्योंकर मान लें कि Consent Bill न पास होगा। हमने माना कि इसके द्वारा हमारे गर्भाधान संस्कार (जो हमारे परम माननीय वेदों के अनुसार सबसे पहिला संस्कार है) पर हस्तक्षेप होता है और कसी के धर्म पर हस्तक्षेप होना महारानी विक्टोरिया की प्रतिज्ञा के विरुद्ध है, पर क्या वह लाख हाय-हाय करने भी रुक गया?
और भाई, वह बिल तो हमारे ही चिरसिंचित पाप वृक्ष की बतिया है, फिर क्यों न पकेगी? अपूर्णयौवना स्त्री के साथ पुरुष का संपर्क वेद शास्त्र पुराण तो क्या आह्ला तक में अनुमोदित नहीं है। बाल्यविवाह के लतियों ने श्री काशीनाथ भट्टाचार्य कृत शीघ्रबोध के 'अष्टवर्षा भवेद्गौरी' इत्यादि दो श्लोकों का आश्रय ले रखा है, पर उनके किसी अक्षर में उक्त अवस्था के विवाह की आज्ञा कैसी ध्वनि भी नहीं पाई जाती।
यदि कन्यादान शब्द से दस वर्ष की ही का अर्थ लीजिए (यद्यपि युक्ति और प्रमाणों से यह भी दूर है, क्योंकि स्त्री चाहे जितनी बड़ी हो माता पिता की कन्या ही है) तौ भी उसका पतिगृह गमन सात वर्ष, पाँच वर्ष वा न्यूनातिन्यून तीन वर्ष के पूर्व न शास्त्र रीति से कर्तव्य है न लोक रीति से। इस प्रकार तैरह वर्ष से पहिले पति सहवास का उसे अवसर ही न मिलना चाहिए। पर जो लोग धर्म ग्रंथों का तिरस्कार एवं लोक लज्जा को अस्वीकार करके जगदंबा शिवप्रिया गौरी अथवा श्री बलदेव दाऊ की माता रोहिणी अथवा विश्वकन्या के पति अथवा उपपति बन के कामांधता के वश पशुत्व का व्यवहार कर उठाते हैं या उसमें सहायता देते हैं उन्हें सरकार की कौन कहे, परमेश्वर भी लोक परलोक के काम का नहीं रखता और इसी विचार से सैकड़ों मस्तिष्क मान देशभक्त लोग बरसों से चिल्लाते-चिल्लाते थक गए कि अपना भला चाहो तो बाल विवाह की रीति उठाओ, दूध के बच्चों का बलवीर्य मट्टी में न मिलाओ, पर किसी के कान में चींवटी न रेंगी।
रेंगे कैसे, जिस देश की दुर्दशा अभी पराकाष्ठा को नहीं पहुँची वहाँ अपने हितैषियों की बात कब सुनी जाती है। लातों के देवता कहीं बातों से माने हैं? वहीं जब मिस्टर मालाबारी ने विलायत तक धूम मचाई और एतद्विषयक कानून बनने की नौबत आई तब कान खड़े हुए है कि यदि उपर्युक्त बिल पास हो गया तो हमारे चरऊ व्यवहार भी दूसरों के हाथ जा पड़ेंगे और जो इन स्त्रियों की परदादारी को भारतवासी सदा से प्राणों से अधिक रक्षणीय समझते आए हैं, 'धन दै के लिय राखिए जिय दै रखिए लाज' की कहावत प्रसिद्ध है, रामायण और महाभारत ऐसे प्रसिद्ध धर्म ग्रंथों में राक्षस कुल और कौरव वंश के सर्वनाश का कारण सूर्पनखा की नाक का काटना, सीताजी का हर जाना और द्रोपदी जी का कैशाकर्षण मात्र लिखा है, इस महा अवनति की शताब्दी में भी जितने लोग फाँसी चढ़ाए जाते हैं उनमें से अधिकों के अपराध का मूल पता लगा के देखिए जो स्त्रियों की अप्रतिष्ठा ही पाई जाएगी। उस परदादारी की जड़ में मानों दिन रात कुठार रक्खी रहेंगी।
जहाँ किसी द्वेषी अथवा दुराचारी ने किसी रीति से लोकल गवर्नमेंट के कानों तक झूठ सच यह बात पहुँचा दी कि अमुक के यहाँ बारहवर्ष से स्वल्प अवस्था वाली स्त्री के साथ अनुचित व्यवहार हुआ है, वहीं विचारी पर्दे में रहने वाली बहू बेटियों का डाक्टर के सामने अपमानित और कचहरी में आकर्षित होना अमिट हो जाएगा, बड़े-बड़े प्रतिष्ठितों का लाख का घर खाक हो जाएगा, पुरुषों की नाक पर छुरी फिर जाएगी, पानीदार लोग यदि डूब न मरेंगे अथवा विषादि के द्वारा आत्मघातन करेंगे तौ भी किसी को मुँह दिखाने के योग्य तो अवश्य ही न रह जाएगे। फिर सच्चे अपराधी अथवा मिथ्या कलंक लगाने वाले उपाधि को दंड तो जब मिलेगा तब मिलेगा।
इसी से लाखों हृदयवान लोगों का कलेजा काँप रहा है। समाचार पत्रों और सभाओं में हाहाकार मच रही है, चारों ओर से बड़े लाट साहब की सेवा में निवेदन जा रहे हैं कि इस विषय में शीघ्रता न की जाए, बहुत सोच समझ से काम लिया जाए। पर विचार शक्ति को निश्चय नहीं है कि इन विनय पत्रों पर कुछ भी ध्यान दिया जाएगा। लक्षण कुलक्षण ही देख पड़ते हैं। इधर तो बिल के विरोधियों की संख्या यद्यपि अधिक है किंतु समर्थक लोग बड़े-बड़े हैं और उधर हमारे गवर्नर जनरल महोदय ने एतद्विषयक विचार के लिए केवल पाँच सप्ताह का समय दिया है। भला इतने अल्पकाल में इतनी बड़ी बात का निर्णय क्या होना है!
हमारे धर्म प्रतिष्ठा और समाज का महा अपमान होना निश्चित है। पर जो लोग इस विषय के कर्ता संहर्ता हैं उन्हें हमारे मर्मातक आघात का बोध भी नहीं है। उलटा यह विश्वास है कि यह नियम चल जाने से स्त्री जाति की रक्षा होगी। फिर हम क्योंकर कहें कि सहवास बिल न पास होगा। हाँ,अपने बचाव का उपास करने में चूकना हृदयवान पुरुषों को उचित नहीं है, इससे हमारे पाठकों को चाहिए कि आलस्य छोड़ के, सारे संसार का संकोच छोड़ के, जिस प्रकार हो सके बहुत शीघ्र यथासंभव बहुत बड़ी सभाएँ जोड़ के, निवेदन पत्रों के द्वारा हाथ जोड़ के, सर्कार को समझावैं कि इस विषय को हमारे ही हाथ में रहने दे।
इधर देश भाइयों को भी पूर्ण उद्योग के साथ चितावें कि अब लड़के लड़कियों के ब्याह को गुड़िया गुड्डे का ब्याह समझना ठीक नहीं है। बस इतना ही भर हमारा कर्तव्य है। उसे करना ही परम धर्म है। पर होगा क्या, परमेश्वर जानता है। शायद हमारी अबला बालाओं पर दया करके वह लोगों की मति पलट दें। किंतु वर्तमान आसार यही निश्चय दिलाते हैं कि सहबास बिल अवश्य पास होगा ओर उसके द्वारा सहस्त्रों घर त्राहि-त्राहि करेंगे।