सहयात्री / सुभाष नीरव

Gadya Kosh से
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बस रुकी तो एक बुढ़िया बस में चढ़ी। सीट खाली न पाकर वह आगे ही खड़ी हो गयी। बस झटके के साथ चली तो वह लड़खड़ाकर गिर पड़ी। सीटों पर बैठे लोगों ने उसे गिरते हुए देखा। जब तक कोई उठकर उसे उठाता, वह उठी और पास की एक सीट को कसकर पकड़कर खड़ी हो गई।

जिस सीट के पास वह खड़ी थी, उस पर बैठे पुरुष ने उसे बस में चढ़ते, अपने पास खड़ा होते और गिरते देखा था। लेकिन अन्य बैठी सवारियों की भाँति वह भी चुप्पी साधे बैठा रहा।

अब बुढ़िया मन ही मन बड़बड़ा रही थी-- कैसा जमाना आ गया है! बूढ़े लोगों पर भी लोग तरस नहीं खाते। इसे देखो, कैसे पसरकर बैठा है। शर्म नहीं आती, एक बूढ़ी-लाचार औरत पास में खड़ी है, लेकिन मजाल है कि कह दे, आओ माताजी, यहाँ बैठ जाओ...।

तभी, उसके मन ने कहा-- क्यों कुढ़ रही है ?... क्या मालूम यह बीमार हो ? अपाहिज हो ? इसका सीट पर बैठना ज़रूरी हो। इतना सोचते ही वह अपनी तकलीफ़ भूल गयी। लेकिन, मन था कि वह कुछ देर बाद फिर कुढ़ने लगी-- क्या बस में बैठी सभी सवारियाँ बीमार-अपाहिज हैं ?... दया-तरस नाम की तो कोई चीज रही ही नहीं।

इधर जब से वह बुढ़िया बस में चढ़ी थी, पास में बैठे पुरुष के अन्दर भी घमासान मचा हुआ था। बुढ़िया पर उसे दया आ रही थी। वह उसे सीट देने की सोच रहा था, पर मन था कि वहाँ से दूसरी ही आवाज निकलती-- क्यों उठ जाऊँ? सीट पाने के लिए तो वह एक स्टॉप पीछे से बस में चढ़ा है। सफ़र भी कोई छोटा नहीं है। पूरा सफ़र खड़े होकर यात्रा करना कितना कष्टप्रद है। और फिर, दूसरे भी तो देख रहे हैं, वे क्यों नहीं इस बुढ़िया को सीट दे देते?

इधर, बुढ़िया की कुढ़न जारी थी और उधर पुरुष के भीतर का द्वंद्व। उसके लिए सीट पर बैठना कठिन हो रहा था-- क्या पता बेचारी बीमार हो?.. शरीर में तो जान ही दिखाई नहीं देती। हड्डियों का पिंजर। न जाने कहाँ तक जाना है बेचारी को ! तो क्या हुआ ?.. न, न ! तुझे सीट से उठने की कोई ज़रूरत नहीं।

--माताजी, आप बैठो। आखिर वह उठ खड़ा हुआ। बुढ़िया ने पहले कुछ सोचा, फिर सीट पर सिकुड़कर बैठते हुए बोली-- तू भी आ जा पुत्तर, बैठ जा मेरे संग। थक जाएगा खड़े-खड़े।