सहारे / सुरेश सौरभ
घर की तंगहाली से परेशान हो, उसे दूर करने हेतु, वह भगवान के सहारे होकर, एक दूर के पहुँचे, भगवान के पास पहुँची।
शाम हो गई, भगवान के घर से लौटते वक्त उसे। कोई वापस आने का साधन न मिला। भगवान से, वह मन ही मन प्रार्थना करने लगी, 'हे! भगवान मेरी मदद करो।' तभी उसे गाँव के दो परिचित बाइक से जाते दिखे, वह उन्हें देख ठिठकी, तब वे उसके पास रुके। कुशल-क्षेम पूछी। उसकी तकलीफ जान, बाइक पर बैठने का आग्रह किया। वह भगवान के सहारे, अनमनी-सी पीछे बैठ ली।
थोड़ी दूर गाड़ी चली ही थी कि घने झाड़-झंखाड़ के पास रुक गई एकाएक। उसका मन घोर संशय से भर गया। भगवान को, अपनी तेज धड़कनों से याद करने लगी।
फिर फिर... दो बाज झपट्टा मारकर एक चिड़िया को झाड़ियों में खींचने लगे, ईश्वर का वास्ता देकर वह उन्हें रोकती रही, उनके आगे हाथ जोड़ कर रोती-गिड़गिड़ाती रही पर ...पर बाज न माने। शाम की काली स्याही में वासना का विष घुल गया। दोनों बाजों ने झाड़ियों में सड़ांध फैला दी गई। ... जीभर कर नोंचा-खसोंटा और फिर ... बाइक में पर लग गए ...सर सर सर... बाज फुर्र हो गये।
किसी तरह भगवान-भगवान करते हुए घर पहुँची वह। पति ने उसकी दशा देखी। अवाक! हैरान-परेशान हुआ। व्यथा पूछी, फिर दोनों क्रोधावेश में थाने पहुँचे। गरीबों की तूती नक्कारखाने में नहीं बोलती। थानेदार ने अपनी आंतें उलट कर डांट पिलाई उन्हें, गालियाँ दीं-चुनाव आने वाले हैं, इसलिए तुम जैसी बदचलन औरतों को ढाल बनाया जा रहा है, भाग जाओ वर्ना ढोल बनाकर मैं भी पीट डालूंगा समझीं। "
दो गरीबों की दुःखी मायूस आत्माएँ वापस घर की ओर मुड़ी। अगले दिन किसी की सलाह की घुट्टी पी, दोनों जिले के एसपी साहब के सामने खड़े अपनी करूण फरियाद कर रहे थे—साहब! ईश्वर के लिए हमें न्याय दो। "