सही अंग्रेजी का रुतबा और गलत का हास्य / जयप्रकाश चौकसे

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सही अंग्रेजी का रुतबा और गलत का हास्य

प्रकाशन तिथि : 29 जून 2012

आजकल अजय देवगन और रोहित शेट्टी की फिल्म ‘बोल बच्चन’ के प्रोमो दिखाए जा रहे हैं। इस फिल्म में अजय देवगन, अभिषेक बच्चन, असिन और प्राची देसाई के अलावा कुछ दृश्यों में अमिताभ बच्चन भी नजर आएंगे। फिल्म के प्रोमो में दिखाया गया है कि अजय अभिनीत पात्र अपने संवाद का अंग्रेजी अनुवाद भी बोलता है, जो गलत होता है। इस पात्र को अंग्रेजी बोलना अपनी श्रेष्ठता दिखाने की तरह लगता है। इस फिल्मी बात में यह तथ्य निहित है कि आज भी इस देश में अंग्रेजी बोलने वाले की हैसियत ऊंची मानी जाती है, समाज में उनकी इज्जत की जाती है। अंग्रेजी भाषा में लिखने वाले का लुगदी साहित्य भी बिक जाता है और अंग्रेजी में प्रकाशित अखबारों में कार्यरत पत्रकारों का वेतन हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के कलम घिसियारों से ज्यादा होता है, जबकि आज भी उनकी प्रसार संख्या कम है। भारतीय भाषाओं के अखबार भी अंग्रेजी में लिखने वालों के अनुवाद छापते हैं। कभी ऐसा नहीं हुआ कि हिंदी के लेख का अंग्रेजी अनुवाद किसी अखबार में प्रकाशित हुआ हो। अंग्रेजियत आज भी सम्माननीय है।

फिल्मों में इस तरह के संवाद पात्र का रुतबा जमाने के लिए या हास्य उत्पन्न करने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। मनोज कुमार की ‘पूरब और पश्चिम’ का नायक भारत, हिंदी और हिंदुस्तान का नुमाइंदा है। लंदन में वह अंग्रेजों की महफिल में संकट की स्थिति में धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलता है तो तब तक उससे चिढ़ने वाली, लंदन में जन्मी-पली नायिका उससे प्रभावित होती है और प्यार करने लगती है। अमिताभ बच्चन ने मनमोहन देसाई की ‘अमर अकबर एंथोनी’ में एक धांसू संवाद इस खूबी से अदा किया था कि दर्शक तालियां बजाने लगे। दरअसल उस संवाद का कोई अर्थ नहीं है, वह बस कुछ बेसिर-पैर की बात है। ‘पूरब और पश्चिम’ में भी तालियां बजाई गई थीं। भारतीय दर्शक बेपर की बेतरतीब अंग्रेजी का सम्मान करता है और उसे इस तरह के पात्र पसंद हैं। अजय देवगन के संवाद पर भी खूब तालियां पड़ने वाली हैं। क्या दर्शक की यह प्रतिक्रिया अंग्रेजी के प्रति उसका औपनिवेशिक प्रेम है? क्या अवाम के अवचेतन में शासक की भाषा तलछट की तरह आज भी जमी है? भाषा का बर्तन है कि मांजने पर भी तलछट कायम रहती है। अंग्रेजियत ऐसा नशा है, जो कभी दिमाग से निकलता ही नहीं। फिल्मकार यह बात बखूबी जानते हैं और इस फॉमरूले का प्रयोग करते रहते हैं, क्योंकि दर्शक सही अंग्रेजी बोलने वाले पात्र से प्रभावित है और गलत अंग्रेजी सुनकर हंसता है। क्या गलत भाषा उसे गुदगुदाती है?

यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि हिंदुस्तानी सिनेमा में कोई भी भाषा पूरी तरह सही नहीं बोली जाती। हिंदी भी दोषपूर्ण है। जिस तरह अंग्रेजी विभन्न क्षेत्रों के लोग अपने-अपने भाषायी लहजे में बोलते हैं, उस तरह हिंदी भी बोली जाती है। सीरियल संसार में तो भाषा का विकृत रूप ही सुनने को मिलता है। फिल्म उद्योग में सही भाषा बोलने वाले और लिखने वालों का भी मखौल उड़ाया जाता है। उनकी पंडिताई हास्य उत्पन्न करती है।

आजकल अनेक भारतीय लोग अंग्रेजी को अमेरिकी लहजे में बोलने का प्रयास करते हैं। यह अप्रवासी भारतीय का डॉलर दबदबा है कि उनको इज्जत की निगाह से देखा जाता है। हाल ही में एक पुरस्कार सम्मेलन में माधुरी दीक्षित नेने कुछ ऐसे ही अमेरिकन अंदाज में अंग्रेजी झाड़ रही थीं। जीवन के अधिकांश वर्षो में मुंबई में रहने वाली माधुरी चंद वर्ष अमेरिका में क्या बिताकर आईं कि उनका लहजा ही बदल गया। जिस तरह डॉलर के मुकाबले में रुपए की कीमत गिर रही है, उसी तरह हिंदी का भी अवमूल्यन हमेशा होता रहा है।

आजादी के बाद हिंदी के कुछ पक्षधरों ने भाषा की शुद्धता के नाम पर कठिन ‘संस्कृतनिष्ठ’ भाषा की रचना की और इसी कारण कुछ लोगों को हिंदी हास्यास्पद लगी। भारत की सभी भाषाओं में अन्य अनेक भाषाओं के शब्द मिल गए हैं और रोजमर्रा की कामकाजी भाषा ऐसी खिचड़ी है कि उसके अलग-अलग तत्व पहचाने ही नहीं जाते। संगीत की दुनिया में ‘सिंथेसिस’ सफल रही है और यह मिश्रित ध्वनि कान को सुहाती है। इसी तरह भाषाओं का भी मिश्रण हो चुका है। भाषाएं उन सहेलियों की तरह हैं, जो आपस में खूब हंसी-ठट्टा करती हैं, परंतु कभी-कभी ईष्र्या के कारण एक-दूसरे को धक्का भी देती हैं। अंग्रेजी भाषा सबसे अधिक ताकतवर घुसपैठिया है, जो भारत के अवचेतन में दूर तक पैठ गई है। शायद अपनी इसी लोकप्रियता के कारण अपने बोलने वालों के मन में वह अहंकार की तरह बसी है।