सही रास्ता / सुकेश साहनी

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प्रेमप्रकाश जी अपने पुत्र केशव की एक विचित्र आदत से बहुत परेशान थे। केशव पाँचवी कक्षा का छात्र था। वह अपना ध्यान पढ़ाई में एकाग्रता से लगा नहीं पाता था। फ़िल्म देख कर लौटता, अभिनेता बनने की बात करने लगता। शीशे के सामने खड़े होकर घंटों मंँुह बनाता रहता, कभी ब्रुश, रंग आदि लेकर बैठ जाता, बड़ा चित्रकार बनने की बात करनेेेेेे लगता। फिर एकाएक उस पर पढ़ाई का भूत सवार हो जाता। दो दिन बाद ही वह अपनी रुचि किसी दूसरी बात में जाहिर करने लगता। परिणाम स्वरूप वह किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त नहीं कर पा रहा था।

प्रेमप्रकाश जी की समझ में नहीं आ रहा था कि केशव को किस प्रकार समझाए. अंत में उन्होंने इसका हल ढूँढ लिया।

उस दिन रविवार था। उन्होंने केशव को बुलाया और कहा, "बेटा, मैंने अपना पीले रंग का एक कार्ड कहीं रख दिया है। मुझे ढूँढ कर ला दो।"

करीब चार घंटे बाद केशव थका-थका-सा उनके पास आया। उन्होंने पूछा, "तुम्हें वह कार्ड मिल गया?"

"नहीं पिता जी, मैं उसे ढूँढ़ न सका।"

"क्यों, करीब चार धंटे हो गए तुम्हें और फिर भी तुम उसे खोज न सकें!"

"पिता जी, सही स्थान तो आपने बताया नहीं। घर में कई अलमारियाँ हैं, उनके किस हिस्से में हैं, हर हिस्से में अनेक छोटी-छोटी दराजें हैं, दराजों में बहुत-सा सामान है। मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है कि उसे कहां-कहाँ ढूँढूँ।" कह कर केशव चुप हो गया।

कुछ देर तक प्रेमप्रकाश जी केशव का चेहरा पढ़ते रहे। केशव को अपने पिता बहुत गम्भीर लग रहे थे। उन्हांेने कहा, "देखो, बेटा, मेैंने कहीं कोई कार्ड नहीं रखा है। यह सब तुम्हें कुछ समझाने के लिए किया है। मैं देख रहा हूँ कि तुम्हारी रूचियाँ अनेक हैं। तुम अभिनेता, डॉक्टर, चित्रकार और खिलाड़ी तो बनना चाहते हो लेकिन अपना ध्यान किसी भी एक दिशा में केंद्रित नहीं करते हो। इसका परिणाम तुम्हारे सामने है। तुम किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो पा रहे। अतः बेटा, यदि तुम इसी प्रकार चलते रहोगे तो उस पीले कार्ड को न ढूँढ़ पाने की तरह जीवन में तुम्हारे हाथ कुछ भी न लगेगा।"

केशव ने अपने पिता की बात को बहुत अच्छे से समझ लिया और अपनी रुचि के क्षे़त्र में पूरा ध्यान केंद्रित कर अध्ययन करने लगा।

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