साँझ का गाछ / राजकमल चौधरी
1. माघ की पड़िवा की सांझ। पहले पहर के रक्तिम अंधेरे में खूब फैला हुआ पाकड़ का एक सहस्रशाख गाछ इस उदास सांझ को स्वरूप और कोई विशेष अर्थ दे रहा है। मैं अस्थाई एकांत की एकांत आत्मपीड़ा में अस्वस्थ और मानसिक रूप से जर्जर गांव की सीमा पर खड़ा हूं। चारों ओर फैले हैं हरे-पीले खेत-पुआलों की टाल से भी पीले, आलू, रहड़ और अन्य हरियालियों से भी हरे...इनमें कोई खेत मेरा अपना नहीं...यह गांव मेरा अपना नहीं...।
मेरा गांव कहां है? मन की निर्जनता में इस प्रश्न ने आज से पहले भी मुझे कितनी ही बार व्यग्र किया है। व्यग्र और निरीह, जैसे मैं जाति, कुल, घर, द्वार, समाज और परंपरा से उठाकर किसी अथाह कुएं में फेंक दिया गया हूं और डूबा जा रहा हूं, नीचे, और नीचे। इस पंतनशीलता का, इस डूब जाने का कोई अंत नहीं है। मन की निर्जनता के कुएं से बाहर आकर जगति पर, किसी भी जगति पर पैर रखने की सुविधा मुझे नहीं है। लेकिन फिर भी यह गाछ, पाकड़ का यह सहस्रशाख गाछ, जो एक ही साथ इस गांव की सीमा पर, और मेरे हृदय में व्याप्त है, फैला है; मुझे जीने हेतु, जीते रहने हेतु, शांति और सांत्वना देता है। सांत्वना देती है माघ की यह सांझ, रक्तिम अंधकार, अर्थात् मिथिला के इस निस्तब्ध ग्रामांचल का हरा-पीला दिवसावसान मेरी ही तरह अस्वस्थ और जर्जर है।
इस अगहन में मैं उम्र की पैंतीसवीं सीमा पार कर ‘3‘ और ‘6‘ इस दो अंकों के विपरीत-मुख संधि-स्थल पर खड़ा हूं। इस अगहन में पहली बार मुझे याद आया है कि आज से पंद्रह-बीस वर्ष पूर्व मेरा भी एक गांव था। एक रसोईघर, जिसमें मलीन साड़ी और मलीन चेहरे में एक संतप्त एक स्त्री चूल्हे के पास चुपचाप बैठी हुई...चूल्हे में आग नहीं है, मात्र उपले की बुझी हुई राख है...बिना लीपा हुआ एक आंगन है...आंगन में बरबस उगा हुआ भांग और धतूरे का गाछ है...बिना लीपा हुआ एक आंगन है...आंगन में बरवस उगा हुआ भांग और धतूरे का गाछ है। एक नींबू, एक हरशृंगार, और एक सहजन-ये तीनों गाछ फलहीन, फूलविहीन-भांग-धतूरे का इस आंगन में कोई उपयोग नहीं...इस आंगन के महादेव तीन सौ योजन दूर बसते हैं। आज से पंद्रह-बीस वर्ष पहले मेरा भी एब गांव था...एक घर-आंगन, एक स्त्री।
स्त्री मलीन साड़ी में मिट्टी तेल ढालकर चूल्हे पर बैठ गई। रसोई घर सुड्डाह हो गया। सुड्डाह हो गया मेरा गांव। सुनते हैं हरशृंगार का गाछ अभी भी आंगन के पूरब के कोने पर उसी तरह खड़ा है-बांझ, फूल-विहीन। मैं ट्रेन में मिले गांव के लोगों से और कभी किसी विशेष अवसर पर अपने चाचा और भतीजों की चिट्ठियों से गांव का समाचार जानता हूं।...फलाना बाबू के बेटे ने बंटवारे का मुकदमा दायर किया है...फलाने की स्त्री पागल हो गई है...मेरे उजड़े हुए डीह पर फलाने चौधरी ने अपना मवेशी बांधना शुरू कर दिया है,...इन कुशल समाचारों में मैं अपना गांव ढूंढने की चेष्टा करता हूं-वह गांव जो कभी था, लेकिन, अब रहते हुए भी नहीं है मेरे लिए।
2.
जीवन के छत्तीसवें वर्ष में ही मेरी उम्र और देह-दशा और दृष्टिकोण पचास-पचपन वर्ष का प्रौढ़ हो गया है। इस वार्द्धक्य के कारण समाज में कोई विशेष आदर मिला हो, ऐसा नहीं है। आदर नहीं मिला। अपने मालिक के साथ गांव-गांव भटकता ‘नकली‘ बसहा-बैल की तरह मैं मात्र भिक्षा, मात्र प्रतारणा, मात्र अपमान-अनादर पाता रहा। मेरा मालिक है मेरा पागल मन! मेरी आंतरिक विक्षिप्तता को आदर और स्नेह का शांति-वृत्त किसी भी पथ पर नहीं मिला। आज इस गांव, कल उस नगर, परसों उस थाना-कचहरी, चौथे दिन अस्पताल, उस धर्मशाला, उस जंगल, पहाड़-नदी-मरुभूमि, उस कुएं की जगति...चरैवेति, चरैवेति...चलते रहें है राजा, दिन-रात, अंधेरा-उजाला, आंधी हवा, चलते रहें। मेरा गांव खो गया, और मैं गांव-गांव चलता रहा, किसी नौटंकी-नाटक कंपनी के साथ, किसी सरकस जादू खेल के साथ, तबला बजाता, भनिता करता, विषहारा खेलता, भगता बनता, बिपटा का स्वांग रचता...।
स्वांग रचना मेरा जीवन और मेरी जीविका हो गया। बीस वर्ष पूर्व यह सत्य मेरी समझ में आ गया था कि जीना है, पालतू कुत्ते की तरह अथवा अरना भैंस की तरह, किसी तरह जीना है, तो स्वांग रचना पड़ेगा, कोई-न-कोई स्वांग-अच्छे आदमी का या बुरे आदमी का। समझ में आ गया था कि सारे लोग कोई-न-कोई स्वांग रचते हैं। जो मैं हूं, जो मेरा असली व्यक्तित्व है, मेरा असली चेहरा, वह व्यक्त करने, व्यक्त करते रहने से न तो मुझे अन्न पानी मिल सकता है और न ही खड़े होने के लिए कोई बरामदा, कोई आंगन, अतएव, अपना गांव त्याग कर मैं नकली जीवन का व्यवसाय कर रहा हूं।
अपने गांव में, अपने लोगों के बीच, स्वांग मुझसे नहीं हो सका। भौजी ने कहा, “बबुए! खेत नहीं रोपेंगे, माल-मवेशी नहीं चराएंगे तो खाएंगे क्या?” झूठ बोलना तब तक मैंने सीखा नहीं था। उत्तर दिया, “ये सब काम मुझसे नहीं होंगे। पान खाऊंगा, सुपारी-जर्दा खाऊंगा, ताश खेलूंगा और किसी की दालान पर बैठकर गप्पें लड़ाऊंगा, शतरंज की गोटियां लड़ाना, झगड़ना करना, हंसी-मजाक करना...माल-मवेशी नहीं, खेत का जंजाल नहीं।” भौजी चुप हो गई थीं। अन्य लोग भी कोई कुछ नहीं बोले थे। मैं अपने आंगन का स्वामी हूं। अब लोग क्यों कुछ बोलें?
लेकिन ओहार लगी बैलगाड़ी पर बैठकर अपनी तीनों संतानों को रजाई में ढंककर, एक बड़ी पेटी और आठ-दस छोटी बड़ी गठरी में अपने सरो-सामान बांधकर मेरी विधवा भौजी रोती-रोती अपनी नैहर चली गईं। भौजी की वह विदा-यात्रा मैं आज तक नहीं भूल सका। भौजी अमीर की बेटी थी। मेरे परिवार में आने पर कभी सुख-शांति नहीं मिली। भाईजी हर समय बीमार ही रहते थे। बीमार और गांव की राजनीति में सक्रिय-संलग्न। मेरी ही तरह अपने घर-आंगन की समस्याओं से कोई मतलब नहीं रहता था। राजरोग सक्ष्मा पीड़ित होकर भाईजी अस्पताल गए। साथ गई थीं भौजी। साल भर पूर्णियां, सहरसा और पटना किया गया। लेकिन मरने वालों को कौन रोकेगा?
घर-परिवार के भीत, धरनि, छप्पर, खिड़की-दरवाजा...सारे गिर-पड़ गए। भौजी ने कहा, “बबुए! खेत नहीं रोपेंगे? तीन भतीजे हैं...अपनी भी संतानें होंगी...घर कैसे चलेगा?” घर नहीं चला। भौजी नैहर चली गईं। सांझ हो गई। अंधेरा, चारों तरफ भादो का अंधेरा। अंधेरे में मैं भाईजी का खेत देखता हूं। अंधेरे में मैं भगवती-स्थान के चारों ओर भटकता रहता हूं। अंधेरे में मैं खोजता हूं रोशनी का कोई पिंड, कहीं जाने हेतु कोई एक रास्ता, कोई अर्थ, कोई संगति...किंतु न प्रेत, और न ही भगवती, कोई मुझे रोशनी का रास्ता नहीं दिखाता है इस अंधेरे में!
त्मसो मा ज्योतिगमय...तमसो मा ज्योतिर्गमय...अंधेरे से रोशनी की ओर चलें-कितने ही जोर से यह श्लोक-खंड चिल्लाऊं, पर मुझे कोई लाभ नहीं। बैलगाड़ी पर बैठी अपनी विधवा भौजी की वह अंतिम दृष्टि मैंने देखी थी, मरी हुई मछली की तरह दोनों आंखें स्थिर! इस दृष्टि में कोई शिकायत नहीं, वेदना-संताप नहीं, केवल मृत्यु! ...भाई जी की चिकित्सा में भौजी के श्रीसंपन्न पिता-भ्राता ने कोई मदद नहीं की थी। भौजी ने प्रण किया था-मर जाऊंगी, परंतु अब किसी दिन लौटकर नैहर नहीं जाऊंगी। वह प्रण आज समाप्त हो गया है। पत्थर की मूर्ति-से सुंदर तीन बालक।
3.
जीबह, जागह, चूल्हिमे लागह (जीओ, जागो और चूल्हे में लग जाओ)-यह कहावत संपूर्ण रूप से मेरे चरित्र में चरितार्थ हुआ है। जिंदा हूं, जगा रहता हूं, लेकिन, जिंदगी एक विराट चूल्हे में है, जिसमें मैं सदा हरे-कच्चे जलावन की तरह जलता-सुलगता रहता हूं। आग सुलगाने में सबसे अधिक सहायक होता है अतीत। बीते दिन की स्मृति।...सुख मुझे कभी नहीं मिला-यह कहना अनर्गल होगा। सुख मुझे उस व्यक्ति से सबसे अधिक मिला, जिसे व्यक्ति समझने की इच्छा मुझे कभी नहीं हुई। भौजी थीं, तो भी वह व्यक्ति अदृश्य थीं और भौजी चली गईं तो भी वह व्यक्ति अदृश्य रहीं-अपने अदृष्ट और मेरे कर्म पर निर्भर! वह व्यक्ति थीं मेरी स्त्री और रसोई घर था उनका एक मात्र कर्मस्थल और वासस्थल।
गांव के अन्य किस व्यक्ति ने उनका बोलना नहीं सुना। मैं स्वयं उनकी रुलाई, अथवा उनकी हंसी से अपरिचित ही रह गया। लेकिन, समय पर मुझे, चाय, पान और पीसे हुए भांग की नगिनियां गोली, गोल मिर्च में डूबी, मिलती रही। कैसे मिले इसका ज्ञान मुझे कभी नहीं हुआ। मुझ-से तुच्छ और दुर्बल मनुष्य को इस ज्ञान की जिज्ञासा नहीं होती है।
जिज्ञासा नहीं, लेकिन समय पर भूख-प्यास, समय पर सोने की चेष्टा, समय पर नए वस्त्र खंड, अपने दालान पर बैठकर मित्रमंडली की अभ्यर्थना करने की इच्छा सबको होती है। और ये तीनों चीजें मुझे मिलती रहीं, गांव की अपनी निरीह अकर्मण्यता में प्राप्त होती रहीं-उसी अदृश्य व्यक्ति के कारण। कालांतर में वह अवसर पाकर मिट्टी तेल की मटिआई दुर्गंध में डूबकर, आग की लह-लह ज्वाला में जलकर स्वाहा हो गई, बिना रोए, बिना बोले! मैं गांव में नहीं था। गुलाब-बाग मेला, अथवा भागलपुर बाजार अथवा राजनगर के जंगल में था। कितने दिन के बाद मुझे पितृव्य, श्री दुःखनारायण चौधरी का एक पोस्टकार्ड मिला। पोस्टकार्ड पर कितनी जगहों की मुहर, कितने पते काट-काट कर लिखे थे।
पत्र में इतनी ही कथा थी: चिरंजीवी श्रीयुत...को परम दुःखपूर्वक ज्ञातव्य हो कि जगन्नाथपुर वाली बहू आग में झुलसकर मर गईं। आपके ज्येष्ठ भतीजे जयनारायण ने मुखाग्नि दी। पत्र पाते ही आप गांव चले आइए, जिससे श्राद्धादि की व्यवस्था हो। हमलोगों की परिस्थिति तो आप जानते ही हैं।...
यह पत्र पढ़कर मुझे न दुःख हुआ, न विषाद। मैं अपना स्वांग रचने में मस्त हो गया। गांव जाने की कोई लालसा नहीं हुई। केवल इतनी ही कथा याद आई कि किसी दिन किसी व्यक्ति को जगन्नाथपुर गांव से महफा में बैठाकर कोशी नदी में महफा सहित नाव में चढ़ाकर अपने गांव लाया था...वह व्यक्ति अब नहीं हैं, कहीं नहीं हैं। वह व्यक्ति खो गईं, जैसे लालटेन बुझ जाने पर रोशनी खो जाती है। एक रात की कथा याद आती है...।
घनघोर अंधकार। पानी बरस रहा है। गांव की नदी ने बाढ़ में उमड़कर समूचे गांव को तालाब बना दिया है। मैं भांग पीकर उन्मत्त हूं, और महादेव की नाई प्रसन्न। मन होता है, यह समूची पृथ्वी, और अपना संपूर्ण-जीवन किसी को दान दे दूं। मन होता है हंसते-हंसते पागल हो जाऊं। मैं बिछावन पर चित लेटे हुए वर्षा का संगीत सुन रहा हूं। वे घर की एक मात्र खिड़की के समीप खड़ी बाहर की आंधी और बाढ़ का हाहाकार देख रही हैं।...मैंने पूछा, “गुलाब दाई, आज जो मांगना हो मांग लिजिएगा। आज मैं महादेव की तरह ढरा हुआ हूं, बन गया हूं औघड़दानी! कुछ मांग लीजिए। जो मांगने की इच्छा हो।” किंतु वे चुप ही रहीं। बोलना, मुंह से बोलकर कुछ मांग लेना उनका स्वभाव नहीं।...बहुत तंग करने पर, बहुत देर बाद बोलीं, “मुझे क्या नहीं दे रखा है आपने, कि मैं मांगूं। क्या मांगू मैं! इतना ही मांगती हूं, दिन-रात भगवती से इतना ही मांगती हूं कि आप भले-चंगे रहें, आप निरोग रहें...।”
मेरे भले, मेरे नैरोग्य की मंगलकामना करने वाली व्यक्ति कोई एक है, यह जानकर उस दिन मुझे क्रोध और परिताप ही हुआ था, किसी प्रकार का सुख नहीं। इसीलिए मैं दूसरे या चौथे दिन गांव से भाग आया था। जैसे तनी हुई बंदूक देखकर कोई हिरण, कोई जंगली सूअर भागता है...उस दिन से मैं नया-नया वेष लगाता हुआ, नया-नया मुखड़ा पहनता हुआ भागता ही जाता हूं, इस जंगल से उस जंगल, इस गांव से उस गांव। रास्ते में चलते-चलते किसी जगह सांझ हो जाती है, और मैं किसी गाछ तले खड़ा होकर एक बार पीछे घूमकर देखता हूं-कोई आ तो नहीं रहा है, कोई प्रेत, कोई स्त्री, अथवा कोई पथराई दृष्टि।
सांझ के गाछ तले खड़े हुए, दो गांव की सीमा पर, मैं अंधकार और रोशनी की तुलना करता हूं। अंधकार क्या है? और रोशनी क्या है? जीवन का यह लंबा-सा छत्तीस वर्ष मैंने किस वस्तु के लोभ में काट दिया? किस लिए?
4.
मेरे इस लंबे और वैविध्यपूर्ण जीवन में मुझे मात्र दो ही तरह की स्त्रियों से भेंट हुई है-पहली तरह की मेरी स्त्री और मेरी भौजी तथा दूसरी तरह की वे सारी स्त्रियां जो शहर-बाजार में घूमती हैं, एक दुकान में कोई वस्तु खरीदकर दूसरी दुकान में कोई दूसरी वस्तु बेचती हैं। जो थिएटर-नौटंकी में काम करती हैं, जो काम करती हैं जो इस विशाल संसार में किए जाते हैं। पहली तरह की स्त्रियों से मैं पचहत्तर योजन दूर भागकर जीवन भर भटकता रहा हूं, पहली तरह की स्त्री का संपर्क पाने हेतु ही, अपने गांव से भागकर भी, मैं हर जगह अपना ही गांव तलाश रहा हूं...।
यही है मेरे जीवन का विरोधाभास-ऐसा विरोधाभास जो अपने स्वामी को शरीर से रुग्ण-रोगग्रस्त, मन से जर्जर और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में असफल बना देता है।...रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक उक्ति प्रसिद्ध है-जाहा चाई ताहा भूल कोरे चाई, जाहा पाई ताहा चाई ना-अर्थात् जिसे प्राप्त करने की इच्छा की, वह एक भ्रांत इच्छा थी, और जिसे प्राप्त किया उसे पाने की कोई इच्छा मन में नहीं थी। यही है मेरी विडंबना-मेरे जीवन की ग्रह-दशा। शनि और चंद्रमा की कुदृष्टि मुझे कहां नहीं ले गई, किस अंधेरे घर में, और किस काजल के घर में नहीं ले गई। लेकिन सारे घरों में, समस्त अंधेरे में, मिट्टी तेल में डूबी कोई स्त्री जलती रही...कोई दूसरी स्त्री कातर, स्थिर अमंगल दृष्टि से मेरी ओर देखती, बैलगाड़ी पर बैठी गांव की सीमा से दूर चली जाती रही-मेरे ही हृदय में, मेरी ही नींद में, दो स्त्रियां, एक ही तरह की दो स्त्रियां...अन्य कोई व्यक्ति नहीं, अन्य कोई जीवधारी मुझे कभी कोई दुःख परिताप नहीं दे सका।
जीवन-यापन हेतु मैंने हर तरह का काम किया, अच्छा, बुरा, बौद्धिक, खराब! जीवन बीतता रहा। जैसे कभी समाप्त नहीं होने वाली किसी तीर्थ-यात्रा की रेलगाड़ी पर निरुद्देश्य नास्तिक की तरह मैं बैठा हूं। क्यों जा रहा हूं...कहां जा रहा हूं, क्या कारण, क्या उद्देश्य-मुझे कुछ ज्ञात नहीं हुआ। जैसे कोई बैल गरदन पर बैलगाड़ी का जुआ रखे लीक पकड़े चला जाता हो।
5.
कुछ ही दिनों पहले पूर्णिया के दिन रामगंज बाजारा में मेला लगा था। एक नाटक कंपनी के साथ मैं उस मेले में गया था। ‘सत्य हरिश्चंद्र‘ नाटक में हरिश्चंद्र की भूमिका निभाता हूं-‘चंद्र टरै, सूरज टरै जगत-व्यौहार, पै राजा हरिश्चंद्र को टरै न सत्य विचार।‘ ...रोहिताश्व के शव के पास बैठी श्मशान में महारानी शैव्या, अर्थात् कानपुर-शहर की रामप्यारी देवी रो रही है, और मैं उनसे श्मशान का ‘टैक्स‘ मांग रहा हूं। सत्य पर आधारित इस नाटक का यह चरम दृश्य है। शामियाना में बैठी स्त्रियां आंसू बहा रही हैं। हारमोनियम और वायलिन पर बज रही है कोई कर्णरागिनी। सबको मालूम है कि अंत में सत्य की विजय होगी, रोहिताश्व पुनः जीवित हो जाएंगे, राजा हरिश्चंद्र को पुनः अयोध्या का राज-सिंहासन मिल जाएगा-परंच, फिर भी श्वास रोके सब नाटक देख रहे हैं। सब निस्तब्ध हैं। सब व्याकुल हैं।
और, उसी वक्त में देखता हूं, सबसे अगली पंक्ति में बैठी हैं मेरी भौजी, मेरी अपनी भौजी...आंख में काजल, देह में तीन-चार जोड़े गहने, रेशमी ब्लाउज और रेशमी साड़ी-भौजी जैसे पहले से भी अल्प वयस, पहले से भी अधिक ‘सधवा‘ हो गई हों।...रामगंज बाजार से भौजी की नैहर तीन-चार कोस है, फिर भी इस अवस्था में उनको देखकर मैं नाटक का अपना संवाद भूल गया। भूल गया राजा हरिश्चंद्र का अपना यह स्वांग।
नाटक समाप्त होने के बाद, जल्दी-जल्दी ‘ड्रेस‘ उतारकर मैं स्त्रियों की भीड़ में भौजी को तलाशने लगा। वे अकेली नहीं थीं। साथ में थे रामगंज के सबसे धनी व्यक्ति श्री रघुनाथ पाठक। पाठक जी के नाम-यश समूचे जिला-जबार में प्रसिद्ध है। भौजी बोलीं, “अब मैं रामगंज में ही रहती हूं। बच्चे लोग यहीं स्कूल में पढ़ते हैं। आप क्या जीवन भर नाटक ही करते रहेंगे?”
मैं भौजी को नहीं कह सका कि एक नाटक मैं कर रहा हूं और दूसरा नाटक भौजी स्वयं कर रही हैं। अर्थात् पहले वर्ग की स्त्री-समाज से नाम कटाकर मेरी भौजी दूसरे वर्ग की स्त्री-समाज में आ गई हैं-कुछ खरीदने के लिए, और उसके बदले में बहुत कुछ बेच लेने के लिए।...दुख नहीं हुआ। भौजी के इस काया-कल्प से मुझे कोई दुःख नहीं हुआ। जीवन भर तो मैं ऐसी ही स्त्रियों के साथ जीवन बिताता आया हूं।
6.
अपवर्ग के समाज में रहकर भी, सारा स्वांग रचकर भी, एक स्वप्न था मेरे मन में, और मेरी आंखों में। इच्छा थी, किसी दिन मैं अपने गांव लौट जाऊंगा। भौजी को और तीनों बच्चों को बुला लूंगा। साग-पात खाते, किसी तरह जीवन बिताते, बच्चों को पढ़ाऊंगा और खुद भी गांव में कोई अच्छा काम करूंगा...अच्छा काम ही करता रहूंगा। लेकिन, उस रामगंज में वह स्वप्न सुड्डाह हो गया।
भौजी ने लाख कहा, मैं उनके साथ रघुनाथ पाठक के डेरे पर नहीं जा सका। जाने का साहस नहीं हुआ। तीनों भतीजों का उदास, ग्लानि और अपमान-लांछना में डूबा चेहरा देखने का साहस नहीं हुआ। दूसरे ही दिन मैं नाटक कंपनी से छुट्टी लेकर पूर्णियां चला गया। पूर्णियां से भागलपुर और भागलपुर से मुंगेर। कितने दिनों तक इसी तरह एक शहर से दूसरे शहर भटकता रहा-भौजी को भूलने हेतु, अपने गांव, अपने स्वप्न, अपने अतीत की सुख-शांति को भूल जाने हेतु। लेकिन, वैसा नहीं हुआ...।
“भूलना असंभव है” -मेरे बाल-सखा त्रिलोचन झा ने कहा, “लोग पागल न हो जाए, तो जीवन का कोई मार्मिक प्रसंग वह भूल नहीं सकता है। बेहतर यही होगा कि आप शादी कर लीजिए-एक बार फिर अपने गांव में रहने की चेष्टा कीजिए। जो हुआ, सो हो गया, लेकिन अब नहीं। अब महायात्रा तक कोई बेहतर अंत होना चाहिए।”
त्रिलोचन झा वैद्यनाथ धाम में संस्कृत-पाठशाला चलाते हैं। भले, निविष्ट लोग। धर्मभीरु। मुझे उनकी कथा-वार्ता पर आस्था है। लेकिन आरंभ किया जाए तो इसका कौन भरोसा कि पुनः कोई स्त्री मिट्टी तेल ढालकर भस्म नहीं हो जाएगी, अथवा रघुनाथ पाठक के डेरे पर रहने न लगेगी?
मैं सांझ का गाछ हूं-कब अंधेरे में डूब जाऊंगा, कोई ठीक नहीं। किसी बात का कोई ठीक नहीं-इस गांव की सीमा पर अकेला खड़ा मैं निर्णय करता हूं-अन्य किसी बात का ठीक नहीं। ठीक इतना ही कि आज माघ की पड़िवा है, और पहले पहर के रक्तिम अंधकार में फैला हुआ पाकड़ के एक सहस्रशाख गाछ की छाया में मैं खड़ा हूं। मैं इसी तरह खड़ा ही रह जाऊंगा।
मूल मैथिली से अनूदित
मिथिला मिहिर, 13.03.1966