साँझ भई / विद्यानिवास मिश्र

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहना हम चाहते थे, 'गतोऽस्‍तमर्क:' पर देखा, इसके साथ व्‍यंजन और अभिधा का बड़ा भारी झमेला लगा हुआ है, कौन उस पचड़े में पड़े, अर्थ हमारा 'साँझ भाई' से ही निकल जाता है। इसलिए यही मुँह से निकला कि 'साँझ भई' साँझ भी चैत की, मंजरित वसंत के यौवन की, जब मंजरियाँ अपने को आम कैरियों के लिए समय की बेदी पर चढ़ा रही हैं और जब दखिनैया बयार रह-रह के नए ताप से स्वयं विकल हो उठती हो। ऐसी यह संझा है और जीवन-गंगा का तट है। गोधूलिका का रंग निखरता हुआ चला जा रहा है और इस लाली की अभिव्‍याप्ति को व्‍यर्थ जाता देख कवि पुकार उठता है।

अनुरागवती दिवसस्‍तत्‍पुरस्‍सर:।

अहो दैवगतिश्चित्रा तथापि न समागम:॥

(संध्‍या अनुरागभरी और दिवस सामने खड़ा, पर हाय रे दैव की अलक्ष्‍य गति, समागम नहीं हो पा रहा है)

कभी दिवस इसी अनुराग को पाने के लिए विकल था, पर अब जब अनुराग चारों ओर से उसे अंक में भर लेने के लिए स्‍वयं उमंगित है, तब वह संध्या सुंदरी से उदासीन हो जाए, कैसी विडंबना है? पर साथ ही जीवन का कितना महान सत्‍य है। तृप्ति की उत्‍कर्ष-भूमि पर हम पहुँच कि वितृप्ति का ढाल शुरू हो गया। हृदय के अरमान मोती बन पाए नहीं कि ओस बन के ढुलक पड़े। और दिवस का भी क्‍या दोष? जब यह ढलने लगा, तब संध्‍या को अपना अनुराग ढालने की सूझी, जब वह रास्‍ते पर अपने पैर रखा चुका, तभी उसे मनुहार करने की सुधि आई। यही तो युगों-युगों का क्रम है। जिसे तुम पैरों से ठुकराते हो, वह तुम्‍हारे पैर छान कर बैठ रहता है, और जिसे तुम पैरों पड़ के मानते हो, वह तुम्‍हारी ओर दृष्टिपात भी नहीं करता।

भाई, यह यौवन की संध्या है, बड़े-बड़े सपने पंख समेट के सिर झुका के सोने चले गए, अब उछाह ठंडा पड़ने लगा, जीवन की गति धीमी पड़ गई, गंगा की धारा का वेग मंद पड़ गया और दिन की रंगरलियों से, फूलों की सतरंगी मुसकान से, 'पराग की चहल-पहल' से, भौंरों की वंशी से और कोयल की विपंची से लगाव छूटने जा रहा है; अभी वन उपवन के शत-शत सौंधों से चह-चह सुनाई पड़ रही है, वह बिछोह की स्‍मृतियों की अंतिम चीत्‍कार है। - अब साँझ हो गई। गंगा कुछ देर तक स्‍तब्‍ध होकर पीछे निहारने लगी है कि कौन किनारा पीछे छुटा - यौवन की उठान का ऊँचा कगार, सीधे खड़ा, ऊपर से नीचे ताकने पर हृदय काँप उठे, पग-पग सँभल कर न उतरे तो हिरश्‍शरणम हो जाए - पीछे छूटने जा रहा है;जिसे बड़ी-सी-बड़ी बाढ़ भी न छू सकी, जिसकी काटते-काट‍ते नदी स्‍वयं कट गई, एक पतली धारमात्र रह गई और जो कटा नहीं, वैसे ही खड़ा - वह छूट राह है। जीवन का प्रवाह इसीलिए क्षण भर विदाई लेने के लिए रुक रहा है, प्रकाश की अंतिम किरणें उसे छूते-छूते उड़ान भर रही है, तो क्‍या जवानी आगे मिलेगी ही नहीं? नहीं, अभी ऐसा तो नहीं कि मिलेगी ही नहीं, पर मिलेगी उतरती जवानी, केवल चढ़ती जवानी न मिलेगी और न मिलेगी चढ़ती जवानी की उन्‍मद हिलोर। जवानी अभी कोसों दूर तक लरजी रहेगी, पर ऐसी कि नदी के माँझी नदी में रहकर दोनों किनारों की खेतीं की रखवारी कर सकें और ऐसी रेतीली कि वर्षा का प्रथम डौंगर भी उसे उडू-बडू' कर दे। नदी के वे औघट घाट नहीं रहे और न रही खौलती हुई भँवर। अंग-प्रत्‍यंग में पानी के कसाव की और कड़ी कैद की बेकली नहीं रही, अब तो पानी फैलकर छिछला हो गया और 'अनबूड़े' की निरापद और इसीलिए निरानंद नीरसता का अखंड साम्राज्‍य है। अब इसे जीवन-प्रवाह कहें तो किस भाँति कहें... यह तो प्रवाह की मृत्‍यु-शय्या है। गई अब दुपहरी की भभक और गई वह हहरती नदी की तेज धार...।

शाश्‍वत यौवन और अमर सौंदर्य के पुजारी मुझे क्षमा करें, उनका यह स्‍वप्‍न-सुख भगवान करे जुगों-जुगों तक बना रहे, हमारे लिए तो 'यौवन-मनिवर्ति यातुं तु' ही रहा, हमें तो 'जो जाके आय वह जवानी' सपना ही बनी रही। सो भी आज की जवानी जो पतझार से गठबंधन किए आती है और पात-पात झहरा के चली जाती है, ठूँठ कंकालों को और झुलसाने के लिए, थहराने के लिए, जड़ाने के लिए। कब चोरी-चोरी वह आती है, यह कोई नहीं जान पाता, पर ढोल बजा-बजा के उसे उतरने न देखने की इच्‍छा होते हुए भी किसे नहीं बरबस देखना पड़ता है, धड़धड़ाती हुई रेलगाड़ियों के भीड़ भरे डब्‍बों में सिगरेट की लंबी केश के साफ धुँआ बनते और यूनिवर्सिटी की ऊँची चहारदिवारियों में वसंत के वैभव के बीच फूल से काँटा बनते, इस यौवन को कभी भी कोई देख सकता है। अनंत प्रेम और विरह की अनंत कथा-कविताएँ बिचारे इस शिरिष-सुकुमार यौवन का प्राय: अंत ही कर डालती है और मानें न मानें परोक्ष प्रेमी की स्‍वप्निल अनुभूतियों के इस प्रत्‍यक्ष प्रेम का उत्‍साह ही खो बैठा हैं। प्राण को अकेला बनाए रखने का अहंकार हमें निष्‍प्राण बना के छोड़ता है और युग-मन को साधे रहने को साधना हमें उन्‍मन बना के रहती है।

आज 'गतोऽस्‍तमर्क:' की व्‍यंजना केवल निवृति तक सीमित हो गई है, अब,

सायं स्नानमुपासितं मलयनजेनांग: समालोपितो

यातोऽस्‍ताचलमौलिमंबरमणि र्विश्रब्‍धमत्रागति:।

आश्‍चर्यन्‍तव सौकुमार्यमभित: क्‍लांतासि येनाधुना

नेत्रद्वन्‍द्वममीलनव्‍यतिकरं शक्‍नोति ते नासितुम॥

(साँझ को नहाकर आई, मलय-चंदन का लेप किया, दिनमणि अस्‍ताचल को ओर चल पड़ा;कोई भीड़ भी नहीं, पर धन्‍य है तुम्‍हारा सौकुमार्य कि अब भी तुम थकी-थकी-सी लगती हो और तुम्‍हारी आँखें क्षण भर भी अनझिप नहीं रह पाती है) की क्‍लांति भर गई है।

णोल्‍लेइ अणोल्‍लमणा अत्‍ता मं घरभरम्मि सअल्‍म्मि।

खणमेत्‍तं जइ संझाइ होइणवा होइ वीसामो॥

(कठकरेजी सास दिन भर तो एक न एक घर के काम में जोतती रहती है, कौन जाने एक क्षण संझा में साँस मिल जाए)

की साँझ की निवृर्ति की क्षीण आशा भी नहीं रह गई है। अब तो 'गतोऽस्‍तमर्क:' कहने से उन विगत दिनों में 'विक्रेयवस्‍तूनि संहिृयंताम' दूकान समेटो का बोध जो बनिए को होता था, वह अब युवक-युवतियों को होने लगा; और 'अभिसरणमुपक्रम्‍यताम' अभिसार का उपक्रम करो का बोध जो है, उस अँधियारे जमाने में बिजली के लट्टू नहीं थे, वहाँ रूप रूपहली रजनी की बाट जोहता था और कमला कमलों के मुकुलित होते ही सोने चली जाती थी; अ‍ब दिन-रात बराबर है, रात में कभी-कभी क्‍यों, नित्‍य ही दिवाली हुआ करती है। दिन ही दुर्दिन आने पर धुँधले हो जाते हैं, इसलिए अधर-राग की अग्निशिखा से दहकता और 'स्‍नो' के अविरल लेप से दमकता रूप रात नहीं जोहता। क्‍योंकि फ्रायड की कृपा से अवचेतन मन पर्दा चीर की ऊपर आ गया है, अब रसराज श्रृंगार केवल पूर्ण जनतांत्रिक ही नहीं बन गया है बल्कि अपने सिर का ताज उतार कर, राजदंड फेंक कर पूरा सर्वहारा बनकर खुली बगावत का नारा लगाने लगा है। अब वह राजमहलों का कैदी नहीं रहा, खुली डगरों का चिर डगरोही बन गया है। रात उसके लिए जागरण न रह कर स्‍वप्‍न हो गई है। अब 'आजु सोहाग के राति चंदा तुम उइहो, चंदा तुम उइहो सुरज जनि उइहो' की पागल-पन से भरी हुई विह्वल प्रार्थनाओं के लिए बुद्धिवादी युग में धारा 144 लगा दी गई है। अब संध्या अर्धविराम न रहकर उसके लिए पूर्ण विराम बन गई है। हाँ, अब रात को जो कृष्‍णाभिसार किसी का होता है तो वह केवल वणिग्‍लक्ष्‍मी का। दिन में उनका प्रेमावेग होता है, सास-ननद का डर कुछ न कुछ रहता ही है; सैयाँ का डर नहीं, क्‍योंकि उन्‍हें रतौंधी आती है, इसलिए दिन में तो केवल सहेट के संकेतों का बाजार गर्म रहता है और इसलिए एक अजीब-सी अकुलाहट दिन भर बनी रहती है, कुछ ज्‍वर की तीव्रता और ताप लिए। साँझ होते ही निभृत स्‍थानों में इस कृष्‍णाभिसारिणी लक्ष्‍मी की प्रेमलता उकसने लगती है और पकरीया की आतुरता का चरम उत्‍कर्ष होने पर भी अपूर्व रस आता है इस निभृत प्रेम-व्‍यापार में... भुक्‍तभोगियों से सुना है कि है तो भाई बड़े जोखिम का काम, लेकिन 'जोग हूँ ते कठिन संजोग' वाली उक्ति इस विषय में पूर्णतया चरितार्थ होती है, क्‍योंकि योग की साधना से भला इतनी विपुल ऋद्धि-सिद्ध कहाँ आ सकेगी, जितनी इस चोरी-चोरी लक्ष्‍मी की प्रणय-लीला का एक कण पाकर के चरणों में दौड़ी हुई आती है।

इसीलिए तो कहना पड़ा, 'साझँ भई'। साँझ होने में कसर ही क्‍या रही? प्रेम गलियों का भिखारी बन कर दर दर ठोकरा खा रहा है और स्‍वार्थ राजा बनकर इतराता फिर रहा है। जिसे सिर झुका के मुँह छिपा के चलना चाहिए, वह तो छाती फुलाए ऐंठता चले और जिसकी सार्वभौम सत्‍ता के आगे ब्रह्मा,विष्‍णु और महेश भी झुकने को तैयार रहे हों, वह दीन-हीन पद-दलित होकर सिर उठाकर एक आह तक न भर सके। अब सूर्यास्‍त होने में बाकी क्‍या है? आज की साँझ सूनी ही गई। आज विश्‍व के प्रेयान के लौटने की उत्‍कंठा के साथ प्रतीक्षा की जा रही थी, पर आज भी वह दगा दे गया। इसलिए विश्‍व-लक्ष्‍मी की अतृप्‍त उत्कंठा आप्‍यायित हो उठी है :

आदृष्टिप्रसरात्प्रियस्‍य पदवीमुद्वीक्ष्‍य निर्विण्णया

विश्रांतेषु पथिष्‍वह: परिणती ध्‍वांते समुत्‍सर्पति

दत्त्‍वैकं सशुचा गृहं प्रतिपदं पांथस्त्रियास्मिन क्षणे

माभूदागत इत्‍यमंदवलितग्रीवं पुनर्वीक्षित:॥

जहाँ तक दृष्टि जा सकती थी, वहाँ तक प्रिय के पग देखते-देखते थक गई, अब तो दिन ढल गया,पथिक विश्राम लेने लगे, क्‍योंकि गगन-पथ का चिर पथिक सूर्य की प्रतीची की सराय में दाखिल हो गया और धुंध चारों ओर फैलने लगी। अब हार मान कर इस विरहिणी ने ज्‍यों ही अपने घर की ओर दु:ख-दर्द से भारी एक डग रखा, त्‍यों ही जीवन को बाँध कर रखने वाली अकरुण आशा जाग उठी और पैर तो मुड़े पीछे की ओर, पर ग्रीवा झटके के साथ मुड़ी आगे की ओर कि कहाँ भूला-भटका थका-माँदा प्रियतम आ ही न गया हो।

हाँ, ग्रीवा को अमंद वलित करने वाली चिर प्‍यासी उत्‍कंठा ही में सब कुछ है। यही उत्‍कंठा नीरव निशीथ तक हरसिंगार के फूलों के ढुहर-ढुहर तक जिलाए रखेगी और 'सांध्यबीन' में से मुमुर्ष संजीविनी मूर्छना बिखराती रहेगी। यही नलिनमुकुलित मधुकारा में वंदी मधुपों के कानों में प्रभात की प्रभात गाती रहेगी। और वे मधुव्रती भी इस मधुर आशा में निशा जागरण करते रहेंगे कि साँझ भई तो क्‍या प्रभात का आना रुक गया?

यही मैं भी कहना चाहता था। यह संध्या अर्धविराम है, अखंड वाक्‍यार्थ की समन्विति के लिए और यह संध्या का कषाय विराग है, अनुराग की परिणति के लिए। 'गतोऽस्‍तमर्क:' का वाच्‍यार्थ जो कुछ भी हो, किंतु उसमें व्‍यंजित अस्‍त न होकर अरुणोदय ही होता है, अरुणोदय भी नवीन ही नहीं नित नवीनतर।

आओ चलें हम भी पंख समेटें और अपनी कल रागिनी को अंतर्मुखीन बनाकर भैरवी के लिए बल और प्राण संचित कर और

सर्वे बभूवुस्‍ते तृष्‍णीं वयांसीव दिनात्‍यये

(दिन डूबने पर जैसे पंछी शांत हो जाते हैं, वैसे ही सब लोगों ने मौन गह लिया)

का मौन गुँजाते हुए स्‍वर खींच लें।

- चैत्र 2007, प्रयाग