साँप और आदमी / राजेन्द्र वर्मा
साँप और आदमी में गहरा नाता है। साँप खेतों में रहकर फसल को चूहों से बचाता है। बदले में आदमी उसकी पूजा करता है और 'नागपंचमी' वाले दिन उसे दूध पिलाता है। पर मूल बात यह है कि आदमी साँप से डरता है, विशेषतः जब वह प्राणघातक विषधर हो, जैसे-नाग, इसलिए वह उसकी पूजा करता है। अपने यहाँ डराने वाले से लड़ने के बजाय उसकी पूजा करने का ही विधान है।
साँप की पूजा भगवान शंकर भगवान् की पूजा के साथ यों तो आटोमेटिकली हो जाती है, फिर भी आदमी साँप को अलग से पूजता है। उसे दूध पिलाता है ताकि वह उसको और उसके बच्चों को डसे नहीं! हालाँकि साँप भी आदमी से डरता है, मगर वह हठी है। वह आदमी के घर में घुसकर रहता है। घर अगर कच्चा हो, तो क्या कहना! आजकल कच्चे घरों का चलन नहीं रहा, फिर भी अभी तमाम ऐसे मकान मिल जाते हैं जो दीवारों से तो पक्के होते हैं, पर उनकी फर्श कच्ची होती है। ऐसे मकान साँप को एक नज़र में भा जाते हैं, क्योंकि इनमें चूहे भी बिल बनाकर रहते है। साँप जानता है कि चूहा बिल वहीं बनाता है जहाँ आमदरफ़्त कम हो। इससे साँप की भोजन और मकान की दोनों मूलभूत समस्याएँ एक साथ हल हो जाती हैं। कोठीनुमा मकान, जहाँ बड़ा-सा लान हो, भी साँप को पसंद आते हैं। वह लान में आराम से सपरिवार रह लेता है।
साँप काले और गोरे, दो रंगों के होते हैं। काला वाला तो बस काला होता है, लेकिन गोरा वाला अंग्रेजों के रंग वाला गोरा नहीं, आर्यों के गेहुँवन रंग का होता है। इसलिए ऐसे साँप को 'गेहुँवन' भी कहा जाता है। यह देखने में उतना डरावना नहीं होता जितना काला वाला होता है, पर इसके विष में कोई कमी नहीं पायी जाती! साँप की एक प्रजाति है-नाग, जो ख़तरनाक क़िस्म का होता है। लेकिन आदमी तो आदमी है, वह नाग के साथ भी खेल सकता है। वह नाग के बच्चे को पकड़कर उसके विषदन्त तोड़ देता है। फिर उसे टोकरी में डाल दिन-भर उसके 'फन' का प्रदर्शन कर रोटी-दूध कमाता है। साँप को दूध पसन्द नहीं, फिर भी उसे लोगों की आस्था की रक्षा के लिए पीना पड़ता है। फ़िल्मी साँप इस बात का पालन बहुत शिद्दत से करते हैं। जिस प्रकार शाकाहारी को मांसाहर से घिन आती है, उसी प्रकार मांसाहारी को दूध से। ज़िन्दा रहने के लिए जो मिले, उसी से काम चलाना पड़ता है: चूहा नहीं, तो दूध ही सही!
साँप और आदमी में हमेशा छिड़ी रहती है। दोनों एक-दूसरे की जान के दुश्मन! पता नहीं, कौन-सी पुरानी बात है कि जिसे दोनों-के-दोनों दिल में रखे हुए हैं और मौक़ा पाते ही हिंसक हो जाते हैं। आदमी के हाथ में अगर डंडा हो तो साँप बिल तलाशने लगता है। बिल न मिलने पर वह तेज़ी से नृत्यमुद्रा में भागता है! भागते-भागते जब वह थक जाता है या आगे रास्ता बन्द मिलता है, तो पलटकर फुफकारता है! फन वाला फन भी काढ़ता है! तब आदमी डर जाता है और डंडा तो डंडा, मैदान तक छोड़ देता है। तब वह कुंडली मारकर चैन की साँस लेता है। लेकिन, कभी-कभी सीन बदल जाता है: आदमी ने हिम्मत से काम लिया; झपटकर डंडा चलाया और साँप ढेर हो गया! ... 'कालबेलिया' साँपों को पकड़ने और उनका तमाशा दिखाने जैसे काम निडरतापूर्वक करते हैं। जिस प्रकार साँप को देख आदमी की सिट्टी-पिट्टी गम हो जाती है, उसी प्रकार कालबेलिया को देख साँप, साँस लेना भूल जाता है। दोनों के मध्य करुणा, सह-अस्तित्व जैसे व्यर्थ के पदार्थ आड़े नहीं आते!
फ़िल्म और साँप का नाता जग-ज़ाहिर है। जिस फ़िल्म में साँप एक्टिंग करता है, वह खूब चलती है। फ़िल्मकारों के पास दिव्य दृष्टि होती है। किसी साँप के ढेर होने में वे वह कुछ देख लेते हैं, जिसे अन्य लोग नहीं देख पाते। इसलिए वे उसे समाज को दिखाना ज़रूरी समझते हैं ताकि अन्धविश्वास का महिमामंडन हो सके! फ़िल्म वाले ने मरने वाले साँप में इच्छाधारी नाग देखा। वह अपना भेष बदल पाता कि 'विलेन' का शिकार हो गया। फ़िल्मकार ने बिना देर लगाये मरे हुए नाग की आँख में विलेन की छवि देखी जिसे उसने नागिन को दिखलाया। नागिन भी कोई मामूली नागिन नहीं, इच्छाधारिन नागिन! फिर क्या, चल पड़ी कहानी! नागिन मुल्जिम के पीछे-पीछे-गाँव-गाँव, शहर-शहर! जहाँ-जहाँ मुल्जिम, वहाँ-वहाँ नागिन! मुल्जिम के दोस्त-नागिन के दुश्मन! ... सम्मान्य पाठको! ध्यान रहे, नागिन इच्छाधारिणी है। विलेन अय्याश होता ही है। वह अप्सरा बनकर विलेन को काम-पाश में बाँधती है; थोडा गाना-वाना गाती है फिर आराम से मज़े लेते हुए बदला लेती है! कहानी को लम्बा खींचने और दर्शकों को भयाक्रान्त करने के लिए नागिन पहले विलेन के दोस्त और उसकी बीवी का शिकार करती है! ... नाच-गाना, सस्पेंस, थ्रिल, सेक्स, भेदना, वेदना, संवेदना—सब कुछ एक साथ! फि़ल्म तो श्रीमानजी, आपको देखनी ही पड़ेगी; अपने लिए न सही, श्रीमती जी के लिए!
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सत्ता के प्रतिष्ठानों में भी साँप पाये जाते हैं-कुछ बिल्डिंग के भीतर, कुछ उसके बाहर! एक बार की बात है-मैंने भूतल से जोड़-तोड़ की सीढ़ी लगायी और आठ-मंज़िले विधान-भवन के सातवें तल पर पहुँचा। सोचता था, वहाँ से आठवें तल के लिए जब हाँफते-हाँफते एक-एक सीढ़ी चढूँगा, तो लोग समझेंगे कि मैं भूतल से एक-एक सीढ़ी चढ़कर यहाँ तक पहुँचा हूँ, तो राजनीतिक हल्क़े के लोग मेरे श्रम, परिश्रम और कर्मठता का लोहा मानेंगे और मैं असानी से कोई सम्मानित पद पा जाऊँगा। लेकिन मेरा सोच एकांगी सिद्ध हुआ। शायद मैं प्रदेश की जनता को बदा ही न था, उल्टे मुझे ही दिन में तारे देखने पड़े। ... हुआ यह कि जैसे ही मैंने सातवें तल पर पैर रखा, एक पालतू साँप ने मुझे डसा। मैं भूतल पर औंधे मुँह गिरा।
भूतल पर मैं जहाँ गिरा था, वहाँ मुलायम घास वाली कल्याणकारी भूमि थी। भूमि में पुराना गड्ढा था। उसमें पुराना साँप रहता था। मैं साँप के आवास के पास ही गिरा था। मेरे गिरने की आवाज़ सुन वह 'फू-फू' करते हुए अपने आवास से बाहर निकला। उसे देख मैं डरा; मैंने भागना चाहा, पर भागने की ताव ही कहाँ थी? मैं पड़ा-पड़ा उसके डसने की प्रतीक्षा करने लगा। पर आश्चर्य! उसने डसने के बजाए मुझसे मानवीय संवेदना प्रकट की। ... प्रारम्भिक परिचय के बाद बातचीत प्रारम्भ हुई. मैंने उसके अच्छे संस्कारों की प्रशंसा करते हुए कहा, "वह भूतल पर क्यों पड़ा है, आठवीं मंज़िल पर क्यों नहीं जम जाता?" उसने बताया कि अब वहाँ जाने में उसकी कोई रुचि नहीं रह गयी। पहले कभी थी, पर उसके साथियों ने उसका पत्ता साफ कर दिया। फि़लहाल वह समय काट रहा है। अब उसकी एक ही इच्छा बची है कि यदि उसे कोई कैलाश पर्वत का रास्ता बता दे, तो वह वहाँ जाना चाहता है और अपने इष्टदेव-शंकरजी की गर्दन और बाँहों में लिपटकर अपना जीवन धन्य करना चाहता है। यहाँ आदमियों की संगत में रहते-रहते उसमें आदमी का ज़हर भर गया है। वह जाति से भी निकाल दिया गया है। जाति वालों को डर है कि कहीं उसने उन्हें ग़लती से काट लिया, तो वे मर ही जायेंगे। ...
मुझे उस पर बड़ा तरस आया। मैंने उसे कैलाश जाने वाले एक जत्थे के साथ कर दिया। ... संयोग से मुझे भी साल भर बाद कैलाश पर्वत पर जाने का अवसर हाथ लग गया। यों तो मेरी हैसियत नहीं थी कि चार-पाँच लाख रुपये खर्च कर मैं वहाँ जा पाता, लेकिन कुछ ऐसा जुगाड़ हो गया कि एक सरकारी डेलीगेशन में मुझे सम्मिलित कर लिया गया। डेलीगेशन का काम था-कैलाश मानसरोवर को भारत की भौगोलिक सीमा में लाने के लिए चीन सरकार से बात-चीत करना। बातचीत तो बहाना थी, उद्देश्य था-कैलाश मानसरोवर की मुफ़्त यात्रा!
कैलाश पर्वत पर पैर रखते ही वही विधानसभा वाला साँप मिला। मैंने जब उसका हाल पूछा, तो वह रुआँसा हो गया-"यहाँ से तो वहीं अच्छा था! यहाँ भोले बाबा की कृपा उन्हीं पर है जिन्होंने अपने दाँत तुड़वा रखे हैं। उनके ख़ास ठिकाने की चहारदीवारी में प्रवेश की यह प्राथमिक शर्त है। मैं विकलांग होने की शर्त पर प्रवेश नहीं चाहता।"
"अगर काम बन रहा हो तो विकलांग होने में क्या हर्ज है? यहाँ तो महत्त्वपूर्ण पदों पर विकलांग ही बैठे हैं।" मैंने उसे समय के साथ चलने का सुझाव दिया।
"क्षमा करें, यह आदमियों का चरित्र है! मुझे आदमी नहीं बनना, मुझे साँप होने पर गर्व है।" इतना कहकर वह अपने बिल में घुस गया।