सांप्रदायिकता का संदर्भ और प्रेमचंद का साहित्य / अरुण होता

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आज का विश्व सांप्रदायिकता की विष ज्वाला से जर्जरित है। संपूर्ण दुनिया के लिए सांप्रदायिकता सबसे बड़ी चुनौती है। धर्म खतरे में है और धर्म निरपेक्षता प्रबल संकटों का सामना कर रही है। सत्ता के गलियारे में सांप्रदायिकता की लहर छाई हुई है। धार्मिक एवं फासीवादी शक्तियों के लिए सांप्रदायिकता सबसे बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल हो रही है। धार्मिक कट्टरता का विषैला वातावरण सर्वत्र प्रसरित है। अवसरवादिता फल-फूल रही है। धर्मांधता के मकड़-जाल में फँसकर आम जनता कराह रही है, छटपटा रही है। धार्मिक उन्माद से निरीह तथा निरपराध जीवंत दग्ध हो रहे हैं। वैमनस्य का भाव पनप रहा है। वैरी भाव दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ता जा रहा है। अनास्था बलवती हो रही है। भेद-भाव की लंबी दीवारें निर्मित हो रही हैं। एक दूसरे को अविश्वास की नजर से देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। मनुष्य के स्वभाव में संदेह कुंडली मारकर बैठने लगा है। कभी गोधरा तो कभी कोंधमाल और कभी मुंबई में सांप्रदायिकता की लहलहाती शिखा विनाश की लीला रचती है। कहीं मुस्लिमों का नर-संहार, कहीं ईसाइयों की हत्या तो कहीं हिंदुओं पर हमले जारी रहते हैं। ऐसे में सबसे बड़ी क्षति हो रही है मानवता की। सांप्रदायिकता न हिंदुओं की हत्या करती है और न मुसलमानों की या ईसाइयों की बल्कि मनुष्य का खून करती है। सांप्रदायिकता का कोई रंग नहीं होता। उसका कोई धर्म नहीं होता। बस, सांप्रदायिकता होती है।

धर्म, संप्रदाय, संस्कृति, जाति और भाषा की खाल ओढ़कर सांप्रदायिकता लोगों में जहर घोलने का काम करती है। उग्र हिंदुत्व की अवधारणा हो या कट्टर मुस्लिम - यह समाज के लिए कैंसर के समान होती है। यह बर्बरतापूर्ण काम करती है। बाबरी मस्जिद, ईसाइयों पर अत्याचार और उनकी हत्या, मुस्लिमों का नरसंहार जैसी निर्लज्ज, घटनाओं के पीछे उग्र धर्मत्व का हाथ रहा है। तालिबानों के द्वारा स्माइलिंग बुद्ध की मूर्ति तोड़ा जाना इसी धार्मिक उग्रता का ही दुष्परिणाम है। पूरे विश्व में सांप्रदायिकता का संकट है। सांप्रदायिक शक्तियाँ दूसरों के धार्मिक आचार-विचार में बाधा पहुँचाती हैं। धार्मिक स्थलों पर हमले करती हैं। इतिहास को अपने ढंग से परोसना शुरू कर देती है। उसे विकृत करने का प्रयास करती हैं।

सांप्रदायिकता के प्रति कौन सी दृष्टि अपनाई जाए? इसे विचारधारा के रूप में देखा जाए या दिमागी बीमारी के रूप में। पुनः सांप्रदायिकता की समस्या राजनीतिक है या मनोवैज्ञानिक। क्या यह पागलपन या उन्माद मात्र है अथवा इसका कोई सामाजिक आधार भी है। सांप्रदायिकता के विरुद्ध कैसा संघर्ष होना चाहिए? वैचारिक? राजनीतिक? जनआंदोलन? बिना निरीक्षण की आर्थिक सहायता? सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाले कौन हैं? पंडे-पुजारी एवं मुल्ला-मौलवी या दक्षिणपंथी राजनीतिक दल? इस तरह के तमाम प्रश्नों से पीड़ित हो चिंतक एवं साहित्यकार सृजन-कर्म में दत्तचित्त पाए जाते हैं।

सांप्रदायिक शक्तियाँ राष्ट्र ही नहीं मानवता के अस्तित्व के लिए भी महत्वपूर्ण चुनौती उत्पन्न कर रही हैं। सोचा गया था कि स्वतंत्रता के पश्चात सांप्रदायिक शक्तियाँ कमजोर पड़ेंगी। देश-विभाजन के बाद धार्मिक उन्माद घटेगा। धर्मनिरपेक्षता से भारत चैन की साँस लेगा। मध्यकालीन सोच का निराकरण होगा। आधुनिक दृष्टि विकसित होगी। परंतु हकीकत में ऐसा कुछ भी न हुआ। भारतीय स्वतंत्रता के जन्म-काल से ही सांप्रदायिकता ने तमाम उम्मीदों पर पानी फेर दिया। धारणाओं को तहस-नहस कर दिया। सांप्रदायिक शक्तियाँ बलवती हो गईं। पहले ये शक्तियाँ उग्र थीं तो उग्रतर होते-होते अब उग्रतम रूप धारण करने लगी हैं। पहले यह धर्म की आड़ में आया करती थीं। वर्तमान में जाने इतने कितने भेष बना लिये हैं। कितने छद्म-रूप धारण कर लिये हैं। राष्ट्र का जो भाग शांतिपूर्ण सहावस्थान को मूलमंत्र मान रहा था, धर्मनिरपेक्षता को अपने व्यवहार में उतारना था आज उसका पोर-पोर विद्वेष की आग में झुलस रहा है। मेरठ, मुरादाबाद, भागलपुर, मुंबई, फूलवणी आदि के बाद बड़ा सवाल यह है कि धर्मनिरपेक्षता का अस्तित्व बना रहेगा या नहीं? कहीं यह संविधान के प्रावधानों में सीमित तो नहीं रह जाएगी? कहीं यह मिथकीय तत्व ही बनकर रह तो नहीं जाएगी? प्रसिद्ध चिंतक रामशरण जोशी के शब्दों में - सवाल खड़े कर दिये हैं कि क्या भारत एक राष्ट्र है? आधुनिक राष्ट्र के रूप में इसकी बुनियाद कितनी मजबूत है? क्या भविष्य में इसकी वर्तमान तस्वीर साबुत रह सकेगी? क्या धर्मनिरपेक्षता एक मिथ और फ्रॉड है, देश के दो प्रमुख समुदाय - हिंदू और मुसलमान चैन व समानता के साथ जी और मर सकेंगे? ऐसे ही अनेक सवाल हैं जिनका सामना हर जमात के समझदार व जवाबदार नागरिक को करना पड़ रहा है।'1

राजनीति सांप्रदायिकता का मूल उत्स है। राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनाचार, लंपटता ने सांप्रदायिक ताकतों को मजबूत किया है। चुनावी दंगल में जातिवादी समीकरण ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। सांप्रदायिकता को बढ़ावा देकर मताधिकार पाना एवं चुनाव में विजयी होना न्यस्तस्वार्थ नेताओं का धर्म बन जाता है। चुनाव में प्रत्याशी बनाये जाने के पहले जातिवादी समीकरण पर बड़ा ध्यान दिया जाता है। इस मामले में बिहार और उत्तरप्रदेश यूँ ही बदनाम हैं। लेकिन पूरे भारत में जातिवादी समीकरण का प्रभुत्व कायम है। ब्राह्मण बहुल इलाके में ब्राह्मण प्रत्याशी को वरीयता मिलती है तो दलित बहुल इलाके में दलित प्रार्थी को अग्राधिकार दिया जा रहा है। भले ही तर्कों का अंबार खड़े करते हुए राजनीतिक दल अपनी प्रगतिशीलता का ढोल बजावें लेकिन वस्तुस्थिति से मुकरना संभव नहीं है। फलस्वरूप, सांप्रदायिकता को फलने-फूलने का अच्छा अवसर मिल जाता है।

चुनावी राजनीति की तरह पूँजीवाद भी सांप्रदायिकता का कारक तत्व है। पूँजीवादी के सामने कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है सिवाय पूँजी के। पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफा ही सर्वोपरि है। पूँजीवाद पूरे संसार को प्रॉडक्ट मानता है। मानवीयता, मानवीय गुण, संबंध आदि की उसके सामने कोई अहमियत नहीं होती। येन-केन-प्रकारेण लाभार्ज न ही कर्म, धर्म तथा उद्देश्य बन जाता है। शोषण, दमन, अत्याचार आदि अनेक हथकंडों का इस्तेमाल करके पूँजी की वृद्धि करता है। यदि इस प्रयास में सांप्रदायिकता को शामिल करना पड़े तो क्या बुराई है? यूँ तो शक, हूण, मंगोल के शासन-काल से सांप्रदायिक, छोटे पैमाने पर सही, मौजूद थी। परंतु औपनिवेशिक काल में सांप्रदायिकता ने भयावह रूप धारण कर लिया। पूँजी सर्वशक्तिमान हो गई और मनुष्य उसका क्रीतदास। पूँजी ने उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया। मनुष्य की लालसाएँ बढ़ती गईं। फलस्वरूप, मनुष्य में स्वार्थपरता, विद्वेष, हिंसा, वैमनस्य जैसी पाशव प्रवृत्तियाँ विकसित होने लगीं। यहाँ भी पूँजी ने अपनी तानाशाही प्रवृत्ति को बनाये रखा।

भाषा को हथियार बनाकर सांप्रदायिकता ने अपना उल्लू सीधा किया है। हिंदी-उर्दू का विवाद हो या मराठी-हिंदी या तमिल-हिंदी का, सर्वदा विजय हुई है सांप्रदायिक ताकतों की। भाषा को जाति, धर्म, नस्ल से जोड़कर उनमें तोड़-फोड़ करना, प्रांतीयतावाद को बढ़ावा देना, अपसंस्कृति का प्रचार-प्रसार करना, अफवाहों के भूल भुलैया में लोगों को गुमराह करना और इन अपकर्मों के माध्यम से चुपके से अपने स्वार्थों का साधन करना सांप्रदायिकता का मूल उद्देश्य रहता है।

राष्ट्रवाद ने भी सांप्रदायिकता को जन्म दिया है। भारत के संदर्भ में राष्ट्रवाद ने प्रांतीयता की भावना बढ़ाई। भाषावार राज्यों का गठन हुआ। यह औपनिवेशिक शक्ति की कूट चाल थी। राष्ट्रवाद के कारकों की लंबी सूची है - भाषा, क्षेत्र, संस्कृति, भूगोल, धर्म आदि। राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता का गहरा अंतर्संबंध होता है। राष्ट्रवाद ने ग्रामीण क्षेत्रों तथा आदिवासी-जनजाति, अंचलों में, शहरों तथा महानगरों में सांप्रदायिकता उन्माद और क्रूरता का खेल शुरू कर दिया। फलतः भयावह परिस्थितियाँ सामने आईं। इस संदर्भ में सुधीर चंद्र ने अपने 'सांप्रदायिक राष्ट्रवाद और उपन्यास' शीर्षक लेख में कहा है - सांप्रदायिक हिंसा के ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में हुए विस्तार ने, जिन्हें हम सांप्रदायिक क्रूरता और उन्माद को मुक्त समझते थे, हमें नए प्रश्न उठाने पर विवश कर दिया है। यह ऐसी परिस्थिति है जिसे हमें न केवल एक नैतिक आक्रोश और पीड़ा बल्कि शर्म के साथ भी लेना चाहिए क्योंकि सांप्रदायिक झगड़ों की त्रासद गहराई हमारी समझ की सीमा से परे जाती लगती है। रामबाण प्राप्त होने का भ्रम देने वाली निश्चितता ही तलाश के बजाय हमें तत्परता पूर्वक बिना अपनी नियामक अवस्थिति को बदले यह स्वीकार करना चाहिए कि असमंजस और मनोमग्नता अपरिहार्यतः हमारे सामूहिक जीवन का अंग बन गए हैं।' 2

सोच-विचार के बाद विश्वास करना आत्मा के उत्थान का परिचायक है। बिना सोचे-विचारे विश्वास करने से आत्मा का पतन होता है। फासीवादी प्रवृत्तियाँ सोचने-विचारने की शक्ति अपहृत कर लेती हैं और प्रत्यक्षतः पूँजी के बर्बर शासन के हित के लिए तत्पर रहती हैं। कभी शहादत के नाम पर लोगों को भड़काती हैं तो कभी विकृत रूप को प्रोत्साहित करती हैं। ये नैतिकता का हवन करती हैं। मानव-मूल्यों को दफनाना चाहती हैं। समता को समाप्त करती हैं तथा सांप्रदायिकता की जीवनावधि को दीर्घ बनाने के लिए प्रयासरत दिखाई पड़ती हैं। इसलिए कभी विवेकानंद ने कहा था - 'सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मांधता इस सुंदर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। हिंसा से भरती रही है। उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं। सभ्यताओं को विश्वास करती हैं और पूरे-पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। अगर ये वीभत्स दानवी न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता पर अब उनका समय आ गया है और मैं हार्दिक कामना करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटा-ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मांधता की तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाली मानवों की पारंपरिक कटुताओं का मृत्यु-निनाद सिद्ध हो।' 3

स्पष्ट है कि सांप्रदायिकता आज के समय की एक चुनौती है, गंभीर चुनौती है। इसने अपने हिंस्र पंजे से मानवता की हत्या की साजिश रची है। इसकी जड़ें मजबूत हैं। यह एक विषवृक्ष है। इसके प्रयोक्ता कभी पंडे-पुजारी रहे तो कभी मुल्ले-मौलवी। इसे साम्राज्यवादी ताकतों ने गले लगाया तो कभी पूँजीवाद ने जी भरकर इस्तेमाल किया। हर अवस्था में मानवता लुंज-पुंज हुई, कराहती रही। इनसानियत का विकल-क्रंदन निनादित हुआ। ऐसे में संवेदनशील रचनाकार आहत होता है। सांप्रदायिकता से निजात पाने का उपाय सोचता है। विचार-मंथन की प्रक्रिया से गुजरता है। स्वयं सचेत होता है और पाठकों को जागरूक बनाने का प्रयास करता है। उन्हें सावधान करता है। मानव-मूल्यों को बनाए रखने का आग्रह करता है। इस संदर्भ में हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार प्रेमचंद की रचनाओं की मूल्यवत्ता की चर्चा अपेक्षित है।

प्रेमचंद के रचनाकाल में सांप्रदायिक शक्तियाँ सामर्थ्यवान हो चुकी थीं। उपनिवेशवाद इसे खाद-पानी दे रहा था। प्रेमचंद ने अपने जीवन में हिंदुओं की हिंदुआई और तुरकों की तुरकाई देखी। पंडितों को देखा तो मौलवियों को भी पहचाना। सांप्रदायिकता के हित-अहित से स्वयं परिचित हुए थे। सांप्रदायिकता से हित उसके पृष्ठपोषकों को मिलता था तो अहित पूरी मानव जाति को। प्रेमचंद ने सांप्रदायिकता की जड़ को ढूँढ़ने का प्रयास किया है। उससे बचने के उपाय के बारे में विचार किया है। उनके विचार कथा-साहित्य में ही नहीं निबंधों में भी यत्र-तत्र पाए जाते हैं। सांप्रदायिकता के बारे में प्रेमचंद की क्या अवधारणा थी? सांप्रदायिक ताकतें किस रूप में पेश आती हैं? किन हथकंडों को अपनाती हैं? अमानवीय वातावरण की निर्मिति में किसका हाथ रहता है? धार्मिक उन्माद से कैसा भयानक रूप सामने आता है? किस रूप में विभीषिकामय वातावरण दमघोंटू रूप धारण कर लेता है? धर्म की क्या भूमिका रहती है? ऐसे अनगिनत सवालों से जूझता है प्रेमचंद का रचना-संसार और प्रस्तुत करता है संभावित उपाय।

प्रेमचंद के पाठकों ने प्रेमचंद को महान कथाकार साबित किया है। इससे प्रेमचंद के चिंतक रूप पर उचित न्याय नहीं हो सका है। प्रेमचंद के निबंधों, संपादकीयों, आलेखों में उनका महान चिंतक रूप झाँकता रहता है। उनका चिंतन न केवल आधुनिक है, वैज्ञानिक भी है। सांप्रदायिकता के बारे में उनकी मान्यता है - 'क्या सांप्रदायिकता उसी को कहते हैं जो धर्म और आचार पर आधारित हो। वह भी तो सांप्रदायिकता है, जो राजनीतिक सिद्धांतों पर आधारित होती है। अगर हिंदू-मुसलमान एक दूसरे से लड़ते हैं तो क्या सोशलिस्ट और डेमोक्रेट एक-दूसरे की पूजा करते हैं? उनकी आपसी लड़ाइयाँ भी उतनी ही भयंकर, उतनी ही रक्तमय होती हैं, बल्कि उससे कुछ ज्यादा यह विभिन्नता तो किसी न किसी रूप में उस समय तक रहेंगी, जब तक एक नए युग का उदय न होगा। जब सब एक-दूसरे को भाई समझेंगे, स्वार्थ और भेद का अंत हो जाएगा। वह समय निकट भविष्य में आता नजर नहीं आता।' 4

यहाँ प्रेमचंद ने सांप्रदायिकता की व्यापकता की ओर इशारा किया है। धर्म के घेरे के बाहर राजनीति, जाति-भेद आदि में उसकी मौजूदगी पर गहरी चिंता प्रकट की है। सांप्रदायिकता से निजात पाने का संभावित उपाय भी सुझाया है। परंतु दूरद्रष्टा की भाँति नए युग के उदय की तत्काल संभावना को खारिज करते हैं। स्वार्थ और भेद-भावों से भरे युग में ऐसा सपना पालना सपना बनकर ही रह जाता है। उन्होंने राजनीतिक सांप्रदायिकता के अंधकार को अपने युग में ही देख लिया था। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज का युग राजनीतिक सांप्रदायिकता के घटाटोप से पीड़ित है।

बीजेपी सरकार के शासन काल में गो-बध प्रतिबंध बिल का प्रणयन होने वाला था। विरोधी-दल की बुद्धि के चलते बिल पारित न हो पाई। गाय को हिंदू-धर्म के साथ जोड़कर देखा जाना सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना ही है। प्रेमचंद के एतद्संबंधी विचार द्रष्टव्य हैं - 'हिंदुस्तान जैसे कृषिप्रधान देश के लिए गाय का होना एक वरदान है मगर आर्थिक दृष्टि के अलावा इसका कोई महत्व नहीं है।' 5

सांप्रदायिकता मनुष्य विरोधी है। इसका जन्म संकीर्णता से होता है। यह लोगों को भरमाती है, भटकाती है। समुदायों में वैमनस्य फैलाती है। यह संस्कृति का मुखौटा पहनकर आती है ताकि उसके असली रूप से लोग परिचित न हो सकें। 1934 में प्रेमचंद ने 'सांप्रदायिकता और संस्कृति' शीर्षक एक लेख में अपनी चिंता प्रकट की थी - 'सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है।' 6

प्रेमचंद की दृष्टि में संस्कृति का विभाजन धर्मों के आधार पर अनुचित है हिंदुत्ववादी हिंदू संस्कृति और कट्टरतावादी मुस्लिम संस्कृति की रक्षा की बात करते हैं। परंतु प्रेमचंद ने हिंदू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति जैसी चीजों को सिरे से अग्राह्य कर दिया है। संस्कृति का धर्म से कोई सरोकार नहीं होता है। उनके शब्दों में - 'मगर हम आज भी हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं, हालाँकि संस्कृति का धर्म, से कोई संबंध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है लेकिन ईसाई संस्कृति और मुस्लिम या हिंदू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है।' 7

प्रेमचंद जानते थे कि मुल्ला और पंडित अपने निहित स्वार्थों के वशीभूत होकर सांप्रदायिक उन्माद भड़का रहे हैं। इसलिए उन्होंने सांप्रदायिक सौहार्द्र के लिए विश्वास, धैर्य, सहिष्णुता, सेवा आदि पर सर्वाधिक महत्व दिया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विजयी होने के लिए सांप्रदायिक संग्राम पर विजय हासिल करना सबसे पहले जरूरी था। इसलिए प्रेमचंद ने भाईचारा, शांति, मैत्री एवं प्रीति को प्रोत्साहित करना चाहा। सांप्रदायिक ताकतों को स्वयं पहचाना और अपने देशवासियों को चेतनशील बनाया। सांप्रदायिकता को ब्रह्म राक्षस मानकर उससे वे लड़े और जुझे। इस सांप्रदायिक महादैत्य के समूल विनाश हेतु उन्होंने साझी संस्कृति का रामबाण प्रदान किया।

इस संदर्भ में सवाल उठता है कि आखिर किन घटनाओं ने प्रेमचंद को सांप्रदायिकता के दुष्परिणामों पर सोचने के लिए बाध्य किया? कौन-सी परिस्थितियों ने उनके रचना-संसार के बहुलांश को प्रभावित किया। क्या एक संवेदनशील रचनाकार के रूप में ही प्रेमचंद ने सांप्रदायिक शक्तियों से लड़ने का आग्रह किया है या एक भविष्यद्रष्टा साहित्यकार होने के नाते वे भारत विभाजन की त्रासदी को प्रत्यक्ष कर पा रहे थे? आधुनिक भारतीय इतिहास पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति के आधार पर सन 1905 में बंग भंग किया। 1909 में मोर्ले मिंटा संस्कार के तहत विशेष मताधिकार मुसलमानों को प्रदान किया। 1906 में तो मुस्लिम लीग की स्थापना हो चुकी थी। 1920 में असहयोग आंदोलन में मुस्लिमों की भागीदारी नहीं के बराबर रही। 1930 के कानून अमान्य आंदोलन में भी मुसलमानों ने बढ़-चढ़कर शिरकत नहीं की थी। इन ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर सजग रचनाकार प्रेमचंद, पीड़ित के सामने दो भाइयों का मनमुटाव साफ झलकता है। वे स्पष्ट देख पा रहे थे अंग्रेज की कूटनीति फल-फूल रही है। स्वतंत्रता आंदोलन बाधित हो रहा है। इससे वे पीड़ित हुए। आंदोलित हुए। इसलिए उनके कथा-साहित्य तथा नाटकों में, निबंधों एवं टिप्पणियों में सांप्रदायिक शक्तियों के असली स्वरूप को उघाड़ने का प्रयास है। सांप्रदायिक सौहार्द्र का महत्व रेखांकित है। हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रबल समर्थन चित्रित है। मंदिर और मस्जिद को एक तार से बांधने का प्रयत्न है। धार्मिक उन्माद के स्थान पर सद्भाव को प्रतिष्ठित करने की कोशिश है - 'ईश्वर से यही कामना है कि हिंदू-मुस्लिम समझौता सफल हो और भारत एक राष्ट्र और एकात्मा होकर अपने अभ्युदय के पथ पर अग्रसर हो।' 8

प्रेमचंद की दृष्टि में धर्म का काम संसार में ऐक्य स्थापित करना है, मेल-मिलाप करना है। परंतु उन्होंने देखा कि तत्कालीन समाज में (आज भी) धर्म ने विभिन्नता और द्वेष उत्पन्न किया है। खान-पान, रस्म-रिवाज आदि में धर्म अपनी टाँगें अड़ाता रहता है। चोरी, खून, धोखाघड़ी करने पर धर्म मौनव्रत साध लेता है पर किसी विजातीय को हाथ से पानी पी ले तो धर्म कलुषित हो जाता है। प्रेमचंद ने इसे धर्म नहीं, धर्म का कलंक माना है। धर्म ने पाखंड का रूप धारण कर लिया है। अनाचार और अपव्यय बढ़ते जा रहा है।

तथाकथित धर्म ने आत्मा को बाँट दिया है, प्रेम को जकड़े रखा है। इसलिए कर्मभूमि (1932) में कथा-नायक अमरकांत के माध्यम से प्रेमचंद ने कहा है - 'मैं प्रेम के सामने मजहब की हकीकत नहीं समझता, कुछ भी नहीं।'

हिंदू-मुस्लिम समस्या का चित्रण भी आलोच्य उपन्यास में मिलता है। सन 1923 में स्वराज्य दल का संगठन हुआ। स्वराज की माँग हुई। मुसलमानों को इससे भय हो रहा था। कर्मभूमि में गजनवी कहता है - 'स्वराज्य हम भी चाहते हैं, मगर इंकलाब की सूरत में नहीं। हालाँकि कभी-कभी मुझे भी ऐसा मालूम होता है कि इंकलाब के सिवा हमारे लिए दूसरा रास्ता नहीं है।' गजनवी जैसे मुसलमानों को आशंका थी कि कहीं स्वराज्य की प्राप्ति से उनकी स्थिति और बदतर न हो पाए। इस आशंका का निराकरण प्रेमचंद ने गजनवी के मुँह से ही कराया है - 'लेकिन इस ख्याल से तसल्ली होती है कि इस बींसवी सदी में हिंदुओं जैसी पढ़ी-लिखी जमाअत मजहबी गिरोहबंदी की पनाह ही नहीं हो सकती। मजहब का दौर तो खत्म हो रहा है, बल्कि यों कहो कि खत्म हो गया।'

'कर्मभूमि' में चित्रित अमरकांत और सलीम की मित्रता अनूठी है। यह अनोखी मैत्री प्रेमचंद के सांप्रदायिक सौहार्द्र का प्रतीक है। कभी कबीर ने कहा था 'ना हिंदू न मुसलमान।' प्रेमचंद भी चाहते थे कि लोग गर्वपूर्पक कहें - 'न मैं हिंदू हूँ और न मुसलमान, मैं एक इनसान हूँ।' इनसानियत के सामने धार्मिक तथा सांप्रदायिक कटुता टिक न पाए। मानवता सर्वोपरि साबित हो। इसलिए अमरकांत अपने दुख-सुख सब सलीम को सुनाता है। उससे सलाह-मशविरा करता है। सलीम उसे बंदी बनाने के लिए मजबूर होता है तो भी मैत्री में कोई दरार नहीं पड़ने देता। अमरकांत कहता है - 'मैं तुम्हें अपना वही पुराना दोस्त समझ रहा हूँ। उसूलों की लड़ाई हमेशा होती रही है और होती रहेगी। दोस्ती में फर्क नहीं आता।' उधर सलीम के हृदय में झाँककर प्रेमचंद ने देखा और कहा - 'मेरे दिल पर इस वक्त जो गुजर रही है, वह मैं तुमसे बयान नहीं कर सकता। अपने जिगर पर खंजर चलाते हुए भी मुझे इससे ज्यादा दर्द न होता। मैं खून के आँसू रो रहा हूँ।' प्रेमचंद ने हिंदू-मुस्लिम तकरार को, भेदभाव को समाप्त करने के लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया है। हृदय को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। समता पर ध्यान केंद्रित किया है। गजनवी कहता भी है : 'सबका कानून एक होगा, एक निजाम होगा, कौम के खादिम कौम पर हुकूमत करेंगे, मजहब शख्सी चीज होगी।' कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रेमचंद की दृष्टि में हिंदू-मुस्लिम भेद व्यर्थ है, निरर्थक भी। मजहब का नगाड़ा पीटने वाले भला देश का विकास कैसे कर सकते हैं, हाँ, पतनोन्मुखता की ओर देश को धकेलने में मददगार साबित हो सकते हैं।

प्रेमचंद ने हिंदू-मुस्लिम के भेदभाव में ही सांप्रदायिकता को सिमटता उचित नहीं समझा। उन्होंने हिंदू समाज में व्याप्त जाति-भेद, अछूतों पर हो रही निर्यातना, सवर्णों की कूपमंडूकता और स्वार्थपरता आदि में निहित सांप्रदायिक दृष्टि का भी अनावरण किया है। 'ठाकुर का कुआँ' कहानी हो या 'कर्मभूमि' में अछूतों का मंदिर-प्रवेश वाला प्रसंग - प्रेमचंद ने सांप्रदायिकता की जड़ तक पहुँचने का प्रयास किया है। पंडित, ब्रह्मचारी अछूतों को जूतों से पीटते हैं। उन पर पाशविक अत्याचार करते हैं। प्रो. शांतिकुमार के शब्दों में प्रेमचंद ने कहा है - 'मंदिर किसी एक आदमी या समुदाय की चीज नहीं है।' देवता केवल ब्राह्मणों के नहीं होते हैं चांडाल के भी होते हैं। पुरोहितवाद के वर्चस्व को चुनौती देने का काम प्रेमचंद ने अपने कथा-संसार में किया है। प्रेमचंद ने अन्यत्र कहा भी है - 'अगर आपके देवता इतने निर्बल हैं कि दूसरों के स्पर्श से ही अपवित्र हो जाते हैं तो उन्हें देवता कहना ही मिथ्या है। देवता वह है, जिसके सम्मुख जाते ही चांडाल भी पवित्र हो जाए।' 9 धर्म के नाम पर समाज में प्रचलित दमन तथा शोषण के चक्र से प्रेमचंद भलीभाँति परिचित थे। इसलिए वे चाहते थे कि अछूतों को भी मनुष्य का दर्जा मिले। अछूतों को पूरा अधिकार प्राप्त हो। वे अपमानित, लांछित एवं शोषित न हों। ब्राह्मण हो या चमार, पंडित हो या मौलवी, इनकी पहचान जाति से न हो बल्कि कर्म से हो। मनुष्यता सर्वत्र जीवित रहे। सामाजिक, आर्थिक विडंबनाओं का पराभव हो।

प्रेमचंद ने अपने पात्रों के माध्यम से शोषण के विरुद्ध स्वर बुलंद किया है। वे शोषित पात्र हिंदू हैं तो मुसलमान भी। ये पात्र निर्मला है तो सकीना भी है। मनोहर है तो कादिर मियाँ भी। शोषक का एक ही चेहरा होता है। प्रेमचंद इसे जानते थे कि उसका कोई धर्म नहीं होता। यदि कुछ होता है तो स्वार्थ की पूर्ति। 'कर्मभूमि' में पठानिन कहती है - 'धनी लोग हम गरीबों की बात क्या पूछेंगे। हालाँकि हमारे नबी का हुक्म है कि शादी-ब्याह में अमीर-गरीब का स्थान न होना चाहिए, पर उनके हुक्म को कौन मानता है। नाम के मुसलमान, नाम के हिंदू रह गए हैं। न कहीं सच्चा मुसलमान नजर आता है, न सच्चा हिंदू।' इस कथन से स्पष्ट है कि प्रेमचंद हिंदूपन या मुसलमानपन से ज्यादा महत्व मनुष्यता को देने में विश्वास करते हैं। प्रेमचंद के पात्र ऐक्यबद्ध हैं, संघबद्ध हैं। वे बेहतर जीवन-मूल्य स्थापित करने के लिए संघर्षरत हैं। राष्ट्रीय समस्याएँ केवल हिंदुओं और मुसलमानों की नहीं थी। सिक्खों, ईसाइयों की भी थी। बेरोजगारी, दरिद्रता, अशिक्षा से सारा देश पीड़ित हो तो उसका समाधान किसी एक तबके की समस्या के निराकरण से संभव न था। इसलिए प्रेमचंद की रचनाशीलता में शोषक की भर्त्सना है तो शोषित के प्रति संवेदना भी मुखर हुई है।

प्रेमचंद का एक नाटक है 'कर्बला'। हिंदू-मुस्लिम एकता की स्थापना के उद्देश्य हेतु लिखा गया एक बेजोड़ नाटक है। 'कर्बला' में हिंदू-मुस्लिम दोनों को मिलकर कुरबानी करते दिखाया गया है। 'हिंसा परमो धर्मः' शीर्षक कहानी में उन्होंने सांप्रदायिकता पर तीव्र प्रहार किया है। इसकी एक पंक्ति अति महत्वपूर्ण है - धर्म और धार्मिक लोगों से उसे घृणा हो गई थी। जामिद के बारे में प्रेमचंद की यह टिप्पणी सांप्रदायिकता पर उनकी दृष्टि का परिचायक है। प्रेमचंद ने मनुष्य को धर्म या मजहब के आधार पर बाँटना कभी न चाहा था। इसलिए जामिद का सूत्रवाक्य स्मरणीय है - ठाकुर जी तो सबके ठाकुर जी हैं - क्या हिंदू, क्या मुसलमान। कहानी आगे बढ़ती है और चिंतक प्रेमचंद सांप्रदायिक ताकतों से अनुनय-विनय करते हुए कहते हैं - 'इसका बदला यही है कि इस शरारत का बदला किसी गरीब मुसलमान से न लीजिएगा, मेरी आपसे यही दरख्वास्त है।'हिंदू अधिसंख्यक मुसलमानों की एवं मुसलमान बहुल इलाके में हिंदुओं की हिफाजत करें तो सांप्रदायिक सौहार्द्र बलवती हो सकता है। अधिसंख्यकों का कर्तव्य बनता है कि वे अल्पसंख्यकों का ध्यान रखें। भारतीयता को बचाए रखने के लिए ऐसी भावना का पोषण करना कितना आवश्यक था, प्रेमचंद ने इसे भलीभाँति समझा था।

प्रेमचंद की एक महत्वपूर्ण कहानी है 'जिहाद'। इस ओर आलोचकों की कम ही नजर गई है। प्रेमचंद ने बिना किसी झिझक के हिंदू-मुसलमान जीवन में प्रवेश किया है। दोनों संप्रदायों में गहरा गोता लगाकर मोती चुन लिया है। कहानी ऐसे कह दी है मानो भोगे हुए यथार्थ की सार्थक अभिव्यक्ति कर रहे हों। सांप्रदायिक सद्भाव को प्रस्तुत करते हुए प्रेमचंद कहानी की शुरुआत में लिखते हैं - 'मुद्दतों से उस प्रांत में हिंदू और मुसलमान साथ-साथ रहते चले आए थे। धार्मिक द्वेष का नाम न था।' भारतीयता के आधारभूत तत्व को रेखांकित करने के साथ-साथ उनका आग्रह है कि हम अपने अतीत के सुनहरे क्षणों से शिक्षा ग्रहण करें। धर्म के नाम पर फैलाई जा रही आग का शमन करें। मनुष्य को मनुष्य से अलग न करें। जोड़ें और मिलाएँ। धार्मिक उत्तेजना ने जिस कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है उसकी दीवार को ढहाएँ। खजानचंद के बलिदान से यह सीख लें कि धर्म की संकीर्णताओं को पराजित किया जा सकता है। अल्पसंख्यकों की पीड़ा को महसूस करने का प्रयास करें। श्यामा धर्मदास से कहती है - 'वह (खजानचंद) धर्म पर मरने वाला वीर था, धर्म को बेचनेवाला कायर नहीं।' आज की विडंबना है कि धर्म के नाम पर दलालों और धर्म के ठेकेदारों की बेइंतहा वृद्धि हो रही है। धर्म भी व्यापार बन गया है।'

प्रेमचंद को किसी ने सांप्रदायिक कहा तो किसी ने ढोंगी। उनके जीवन में ही उन्हें घृणा का प्रचारक कहा गया। प्रेमचंद ने इन अपप्रचारों का समुचित जवाब अपनी रचनाओं के पात्रों से दिलवाया है। ये पात्र प्रेमचंद की दृष्टि के प्रतिनिधित्व करते हैं। हिंदू और मुसलमान पात्रों को चुनते हुए प्रेमचंद ने सदा उनकी इनसानियत को महत्व दिया। उनके संपूर्ण रचना-संसार में इनसानी रूप की प्रधानता है। 'मुक्तिधन' कहानी में लाला दाऊदयाल के प्रति रहमान के मन में जो भाव है, उसे रचनाकार ने प्रस्तुत किया है - 'रहमान को ऐसा मालूम हुआ कि उसके सामने कोई फरिश्ता बैठा हुआ है। मनुष्य उदार हो तो फरिश्ता है और नीच हो, तो शैतान। ये दोनों मानवी वृत्तियों ही के नाम हैं।' ऐसा नहीं है कि प्रेमचंद ने केवल देवदूतों का चित्रण किया है। उन्होंने समाज में व्याप्त बहुरूपियों और मठाधीशों की हकीकत को भी उघाड़कर रख दिया। समाज का प्रतिबिंब, असली रूप उनके साहित्य में मौजूद है। साहित्य का कोई मजहब नहीं होता है। साहित्य में कोई धर्म नहीं होता है आर्यसमाज के अंतर्गत आर्यभाषा सम्मेलन के वार्षिक अवसर पर लाहौर में दिये गए भाषण में प्रेमचंद ने कहा था - 'अगर आज हम हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे से साहित्य से ज्यादा परिचित हों, मुमकिन है, हम अपने को एक-दूसरे से कहीं ज्यादा निकट पाएँ। साहित्य में हम हिंदू नहीं हैं, ईसाई नहीं हैं, मुसलमान नहीं हैं बल्कि मनुष्य हैं, और वह मनुष्यता हमें और आपको आकर्षित करती है।'10 स्पष्ट है कि प्रेमचंद की दृष्टि में साहित्य सांप्रदायिक शक्तियों को पराजित करने का एक सशक्त माध्यम बन सकता है। इससे मानसिक दूरी घट सकती है। मेल-मिलाप बढ़ सकता है। एक-दूसरे से नैकट्य का अनुभव कर सकते हैं। एक-दूसरे की अनभिज्ञता दूर हो सकती है। सांप्रदायिक सौहार्द्र की स्थापना में साहित्य की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए प्रेमचंद ने कहा है - 'साहित्य में जो सबसे बड़ी खूबी है, वह यह कि वह हमारी मानवता को दृढ़ बनाता है, हममें सहानुभूति और उदारता के भाव पैदा करता है। जिस हिंदू ने कर्बला की मारके तारीख पढ़ी है, यह असंभव है कि उसे मुसलमानों से सहानुभूति न हो। उसी तरह जिस मुसलमान ने रामायण पढ़ी है, उसके दिल में हिंदू मात्र से हमदर्दी पैदा हो जाना यकीनी है। कम से कम उत्तरी हिंदुस्तान में हरेक शिक्षित हिंदू-मुसलिम को अपनी तालीम अधूरी समझने चाहिए, अगर वह मुसलमान है तो हिंदुओं के और हिंदू है तो मुसलमानों के साहित्य से अपरिचित है।'11 प्रेमचंद का उपर्युक्त कथन भारतीय समाज की संरचना से परिचित होने का निदर्शन है। एक विशिष्ट समाजशास्त्री की तरह उन्होंने भारतीय समाज के विविध परिप्रेक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए शांतिपूर्ण सहावस्थान के आधार बिंदुओं को ढूँढ़ने का प्रयास किया है। उन्होंने सांप्रदायिकता का बिगुल बजाने वालों को आड़े हाथ लिया है। भाषा को धर्म के साथ जोड़कर देखने वालों को दो टूक जवाब दिये। जो मनुष्य मानवप्रेमी है - वही सच्चा धार्मिक है। धर्म के नाम पर नरहत्या करने वालों पर प्रेमचंद ने तीव्र व्यंग्य किया है। 'जिहाद' जैसी कहानियाँ उपर्युक्त कथन का उत्कृष्ट उदाहरण है।

प्रेमचंद के उपन्यास 'कायाकल्प' में जगदीशपुर की रानी देवप्रिया की विलासिता है। यहाँ भी किसानों की कथा है। जागीरदार और रानियों की किसानों पर चल रही दमनलीला का चित्रण है। प्रेमचंद ने देवप्रिया के राज्य का वर्णन करते हुए लिखा है - 'चारों ओर लूट-खसोट हो रही थी। गालियाँ और ठोंक-पीट तो साधारण बात थी, किसी के बैल खोल दिए जाते थे, किसी की गाय छीन ली जाती थी, कितनों ही के खेत कटवा लिये गए, बेगार में दिन-रात काम किया जाता था। भोजन के बदले हंटर मिलते थे।'12 अर्थ-तंत्र का शोषण मनुष्य को किस कदर पीड़ा पहुँचा सकता है तथा यह दमन सांप्रदायिक चेतना के प्रसार हेतु मानसिक जड़ता की ओर धकेलता है, इस पर कथाकार की चिंता उभरती हुई दिखाई पड़ती है। निम्नवर्ग के अशिक्षित या अल्पशिक्षित लोगों में यह सांप्रदायिकता फैलाई जाती है और धीरे-धीरे उसका प्रभाव समाज के विभिन्न हिस्सों में फैलता हुआ अंततोगत्वा अमानवीय हो उठता है। संपन्न एवं विपन्न स्थितियों के बीच गहरी खाईं हो तो सांप्रदायिकता के शोले आसानी से भड़क सकते हैं। 'कायाकल्प' में यशोदानंदन की हत्या होती है। ख्वाजा महमूद आँसू बहा ही रहे थे कि उन्हें अहल्या के अपहृत होने की खबर मिलती है। अपहृत अहल्या ख्वाजा के पुत्रों का शिकार बनती है। ख्वाजा के घर में अहल्या को छिपाया जाता है। ख्वाजा के पुत्र की बदसलूकी के प्रयास से अहल्या क्षुब्ध हो उसे मार डालती है। पूरी घटना से रू-ब-रू होने के बाद ख्वाजा का कथन है - 'एक घंटा पहले तक मैं उस पर निसार होता था, अब उसके नाम से नफरत हो रही है।' ख्वाजा से अहल्या की प्रशंसा करवाना अति आदर्शवाद हो सकता है परंतु सांप्रदायिक सौहार्द्र के लिए अति आवश्यक भी है। आलोचकों की नजर में 'कायाकल्प' भले ही कोरे आदर्श का सैंपल साबित हो परंतु सांप्रदायिक सद्भाव की स्थापना के लिए इस उपन्यास को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। प्रेमचंद की दृष्टि में औपन्यासिक शिल्प से भी महत्वपूर्ण थी इनसानियत। अतः मानवता की प्रतिष्ठा ही प्रेमचंद का मूल उद्देश्य था।

प्रेमचंद ने अपने प्रारंभिक उपन्यास 'सेवासदन' से ही सांप्रदायिकता के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। वेश्याओं को शहर के मुख्य स्थान से हटाकर बस्ती से दूर रखे जाने के मसले पर बखेड़ा खड़ा हुआ। हिंदु एवं मुसलमान वेश्याओं को अलग-अलग स्थानों पर रखने की बात पर भी समस्या खड़ी हुई। सैयद शफकत अली, जैसे पात्रों के साथ पद्मसिंह, प्रोफेसर रमेशदत्त, सेठ बलभद्र दास, अनिरुद्ध सिंह, सदन सिंह आदि के हृदय की रग-रग से प्रेमचंद स्वयं परिचित थे। रामविलास शर्मा ने कहा है - 'प्रेमचंद यह दिखलाते हैं कि नारी की पराधीनता और वेश्यावृत्ति हिंदुओं और मुसलमान दोनों में है। वह इस्लामी संस्कृति और हिंदू संस्कृति का डंका बजानेवालों से कहते हैं - देखो, यह है तुम्हारी संस्कृति जो हिंदू और मुसलमान दोनों ही धर्मों की स्त्रियों से वेश्यावृत्ति कराते है।'13 प्रेमचंद को पता था कि सांप्रदायिकता की मौजूदगी में राष्ट्रवाद भी संकीर्णताओं से घिरा रहेगा। सांप्रदायिकता राष्ट्रवाद की व्यापकता को ग्रसित कर लेता है। उन्होंने देखा भी कि दिनों दिन सांप्रदायिकता विषवृक्ष की भाँति फलती-फूलती जा रही है। परंतु प्रेमचंद ने उम्मीद बनाए रखी। लोगों को सचेत करते रहने में उन्होंने कोई कोताही नहीं बरती। इसलिए उन्होंने केवल हिंदुओं के रूढ़िवाद का ही विरोध नहीं किया। मुसलमानों के अंधविश्वासों की भी कटु आलोचना की।

सांप्रदायिकता संबंधी प्रेमचंद की दृष्टि को अज्ञेय, विष्णु प्रभाकर, चंद्रगुप्त विद्यालंकार, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, चतुरसेन शास्त्री, उपेंद्रनाथ अश्क, कमलेश्वर, मोहन राकेश, कृष्णा सोबती, महीप सिंह, भीष्म साहनी, आदि कहानीकारों ने अपने-अपने ढंग से आगे बढ़ाया। उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद की परंपरा को गुरुदत्त, यशपाल, भीष्म साहनी, कमलेश्वर, जगदीशचंद्र, रेणु, राही मासूम रज़ा, बदीउज्जमा, रामानंद सागर, देवेंद्र इस्सर, कृष्णा सोबती, देवेंद्र सत्यार्थी आदि कितने ही उपन्यासकारों ने विकसित करने का प्रयास किया है। प्रेमचंद की रचनाओं में सांप्रदायिक शक्तियों की जमकर खबर ली गई है। सांप्रदायिकता के दुष्परिणामों से संपूर्ण विश्व आतंकित है। रचनाकार एवं चिंतक संत्रस्त हैं। स्वातंत्र्योत्तर काल एवं समकालीन युग में प्रेमचंद के सांप्रदायिक सौहार्द्र का पुरजोर समर्थन होना आवश्यक है। दिग्भ्रमित कट्टरपंथी सांप्रदायिकता को सिरे से अग्राह्य करने की प्रयोजनीयता है। इसे हम सभी समझें, समझाएँ तथा नवीन सामाजिक संचेतना को विकसित होने में सहायक बनें। निरर्थक हो रहे मानव-मूल्यों, टूटते विश्वासों एवं पराजित आस्थाओं को पुनरुज्जीवित करने के लिए प्रेमचंद की दृष्टि अत्यंत उपयोगी एवं वैज्ञानिक सिद्ध हो सकती है।

संदर्भ

1. जोशी रामशरण, हंस, जुलाई 1993, पृ. 65

2. चंद्र सुधीर, आलोचना, सहस्त्राब्दी अंक, सात-आठ, 2001-02, पृ.11

3. स्वामी विवेकानंद, धर्म के दावे - विवेकानंद साहित्य, खंड-2, पृष्ठ- 176

4. प्रेमचंद, विविध प्रसंग, भाग-2, समझौता या हार, पृ. 403

5. प्रेमचंद, विविध प्रसंग, भाग-2, पृ. 354

6. प्रेमचंद, विविध प्रसंग, भाग-2, पृ. 312

7. प्रेमचंद, विविध प्रसंग, भाग-2, पृ. 312

8. प्रेमचंद, विविध प्रसंग, भाग-2, पृ. 227

9. प्रेमचंद, विविध प्रसंग, भाग-2, पृ. 443

10. प्रेमचंद, कुछ विचार, पृ.354

11. प्रेमचंद, कुछ विचार, पृ.75

12. प्रेमचंद, प्रेमचंद रचनावली, भाग-4, पृ. 170-171

13. शर्मा रामविलास, प्रेमचंद और उनका युग, पृ. 37,