सांप / सुशील कुमार फुल्ल

Gadya Kosh से
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उसकी रीढ़ की हड्डी पर सांप फुंफकार रहा था। वह हड़बड़ा कर बैठा तथा अंधकार को टटोलने लगा। वह चौथी मंजिल के कमरे में बन्द था। आकाश में लटका हुआ-सा।

सांप के रेशमी स्पर्श से उसकी रीढ़ की हड्डी एकाएक निर्जीव होने लगी। फिर सैंकड़ो सांप उसके मस्तिष्क में घुस गये तथा जीभ लपलपाते हुए उसकी धमनियों में उतरने लगे।

विद्यापीठ की चौथी मंजिल अपने आकार से विश्रृंखलित होकर और ऊंची उठने लगी... फिर सारा भवन मुंह कटे धड़-सा थरथराने लगा। शायद भटकी हुई आत्मा फिर मंडराने लगी थी।

धुंधलेपन में भी अजित को उसका आकार स्पष्ट दिखाई देने लगा। भोला-भाला सीधा-सादा सीता राम। अकेली जान। काफी जमीन का सौदा तय हो रहा था। मुख्य अधिकारी ने कहा था- पेड़-पौधा लगाना पुण्य का प्रतीक है। विद्या का प्रचार भी जनहित है।

उसने बिना पढ़े कागज पर हस्ताक्षर कर दिये थे। कम पैसे लेकर भी वह बहुत खुश था। फिर एक दिन आयकर वालों ने उसे दबोच लिया था फिर जमीन का जितना भी पैसा मिला था, वह सारा आयकर में चला गया। वह आयकर अधिकारियों के आगे गिड़गिड़ाता रहा था उन्हें असली वस्तुस्थिति से परिचित करवाने के लिए चिल्लाता रहा परन्तु वह व्यर्थ। वह रसीदों को नकारने में असमर्थ था।

उसकी जमीन पर विद्यापीठ का भवन उग आया था। वह संतप्त-सा आस-पास ही मंडराता रहता। बार-बार अधिकारियों से मिलता परन्तु वह हंस कर टाल देते। फिर वह फूट पड़ता- वह एक-न-एक दिन तुम्हें ले डूबेगा और फिर मैं झूम-झूम कर गाऊंगा, मुस्कराऊंगा।

एक दिन वह बहुत ही दुखी था। पता नहीं वह कहां से एक मरा सांप उठा लाया तथा धप्प-धप्प करता हुआ चौथी मंजिल पर जा पहुंचा था। उसने वह मरा हुआ सांप अध्यक्ष के मुंह पर दे मारा।

वह अट्टहास कर रहा था। अधिकारी दशहत से बेहोश हो गया था।

‘‘इतनी सारी जमीन के लिए तुमने मुझे मरा हुआ सांप ही तो दिया है...... पैसा तो तुम पी गये.... लो सांप पी लेना। मैं जानता हूं तुम्हें फिर भी क