सांसारिक जीवन / आदर्श जीवन / डेविड ई शी / रामचंद्र शुक्ल

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जब कोई युवा पुरुष अपने घर के बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता है, तब पहली कठिनता उसे मित्र चुनने में पड़ती है। यदि उसकी स्थिति बिलकुल एकान्त और निराली नहीं रहती तो उसकी जान-पहचान के लोग धड़ाधड़ बढ़ते जाते हैं और थोड़े ही दिनों में कुछ लोगों से उसका हेलमेल हो जाता है। यही हेलमेल बढ़ते बढ़ते मित्रता के रूप में परिणत हो जाता है। मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर उसके जीवन की सफलता निर्भर हो जाती है; क्योंकि संगत का गुप्त प्रभाव हमारे आचरण पर बड़ा भारी पड़ता है। हम लोग ऐसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ करते हैं जब कि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है, हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। अपने मनोवेगों की शक्ति और अपनी प्रकृति की कोमलता का पता हमीं को नहीं रहता। हमलोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं जिसे जिस रूप का चाहे, उस रूप का करे-चाहे राक्षस बनावे चाहे देवता। ऐसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं; क्योंकि हमें उनकी हर एक बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है। पर ऐसे लोगों का साथ करना और भी बुरा है। जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं; क्योंकि ऐसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई दाब रहती है और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। दोनों अवस्थाओं में जिस बात का भय रहता है, उसका पता युवा पुरुषों को प्राय: बहुत कम रहता है। यदि विवेक से काम लिया जाय तो यह भय नहीं रहता; पर युवा पुरुष प्राय: विवेक से कम काम लेते हैं। कैसे आश्चर्य की बात है कि लोग एक घोड़ा लेते हैं तो उसके गुण दोष को कितना परखकर लेते हैं, पर किसी को मित्र बनाने में उसके पूर्व आचरण और प्रकृति आदि का कुछ भी विचार और अनुसंधान नहीं करते। वे उसमें सब बातें अच्छी ही अच्छी मानकर उस पर अपना पूरा विश्वास जमा देते हैं। हँसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई वा साहस-ये ही दो चार बातें किसी में देखकर लोग चटपट उसे अपना मित्र बना लेते हैं। हम लोग यह नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या है, तथा जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। यह बात हमें नहीं सूझती कि यह एक ऐसा साधन है जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन विद्वान् का वचन है-'विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है। जिसे ऐसा मित्र मिल जाय उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।' विश्वासपात्र मित्र जीवन का एक औषध है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों में हमें दृढ़ करेंगे, दोषों और त्रुटियों से हमें बचावेंगे, हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करेंगे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साह होंगे तब हमें उत्साहित करेंगे; सारांश यह है कि वे हमें उत्तमतापूर्वक जीवननिर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता में उत्तम से उत्तम वैद्य की सी निपुणता और परख होती है, अच्छी से अच्छी माता का सा धैर्य और कोमलता होती है। ऐसी ही मित्रता करने का प्रयत्न प्रत्येक युवा पुरुष को करना चाहिए।

छात्रावस्था में तो मित्रता की धुन सवार रहती है। मित्रता हृदय से उमड़ी पड़ती है। पीछे के जो स्नेहबन्धन होते हैं, उनमें न तो उतनी उमंग रहती है और न उतनी खिन्नता। बालमैत्री में जो मग्न करनेवाला आनन्द होता है, जो हृदय को बेधने वाली ईर्ष्याछ और खिन्नता होती है, वह और कहाँ? कैसी मधुरता और कैसी अनुरक्ति होती है; कैसा अपार विश्वास होता है! हृदय के कैसे कैसे उद्गार निकलते हैं! वर्तमान कैसा आनन्दमय दिखाई पड़ता है और भविष्य के सम्बन्ध में कैसी लुभानेवाली कल्पनाएँ मन में रहती हैं! कैसा बिगाड़ होता है और कैसी आर्द्रता के साथ मेल होता है! कैसी क्षोभ से भरी बातें होती हैं और आवेगपूर्ण लिखा-पढ़ी होती है! कितनी जल्दी बातें लगती हैं और कितनी जल्दी मानना मनाना होता है! 'सहपाठी की मित्रता' इस उक्ति में हृदय के कितने भारी उथल पुथल का भाव भरा हुआ है! किन्तु जिस प्रकार युवा पुरुष की मित्रता स्कूल के बालक की मित्रता से दृढ़, शान्त और गम्भीर होती है, उसी प्रकार हमारी युवावस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों में भिन्न होते हैं। मैं समझता हूँ कि मित्र चाहते हुए बहुत से लोग मित्र के आदर्श की कल्पना मन में करते होंगे, पर इस कल्पित आदर्श से तो हमारा काम जीवन की झंझटों में चलता नहीं। सुन्दर प्रतिभा, मनभावनी चाल और स्वच्छन्द प्रकृति ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है; पर जीवनसंग्राम में साथ देनवाले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बातें चाहिए। मित्र केवल उसे नहीं कहते जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करें, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें, जिससे अपने छोटे मोटे काम तो हम निकालते जायँ, पर भीतर ही भीतर घृणा करते रहें। मित्र सच्चे पथप्रदर्शक के समान होना चाहिए जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें; भाई के समान होना चाहिए जिसे हम अपना प्रीतिपात्र बना सकें। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए-ऐसी सहानुभूति जिससे दोनों मित्र एक दूसरे की बराबर खोज खबर लिया करें, ऐसी सहानुभूति जिससे एक के हानि लाभ को दूसरा अपना हानि लाभ समझे। मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक ही प्रकार का कार्य करते हों वा एक ही रुचि के हों। इसी प्रकार प्रकृति और आचरण की समानता भी आवश्यक वा वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में बराबर प्रीति और मित्रता रही है। राम धीर और शान्त प्रकृति के थे, लक्ष्मण उग्र और उध्दत स्वभाव के थे, पर दोनों भाइयों में अत्यन्त प्रगाढ़ स्नेह था। उदार तथा उच्चाशय कर्ण और लोभी दुर्योधन के स्वभावों में कुछ विशेष समानता न थी, पर उन दोनों की मित्रता खूब निभी। यह कोई बात नहीं है कि एक ही स्वभाव और रुचि के लोगों ही में मित्रता हो सकती है। समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। जो गुण हममें नहीं है, हम चाहते हैं कि कोई ऐसा मित्र मिले जिसमें वह गुण हो। चिन्ताशील मनुष्य प्रफुल्लचित मनुष्य का साथ ढूँढ़ता है, निर्बल बली का और धीर उत्साही का। उच्च आकांक्षावाला चन्द्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य का मुँह ताकता था। नीतिविशारद अकबर मन बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखता था।

मित्र का कर्तव्य इस प्रकार बतलाया गया है-'उच्च और महाकार्यों में इस तरह सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ।' यह कर्तव्यल उसी से पूरा होगा जो दृढ़चित्त और सत्यसंकल्प का हो। इससे हमें ऐसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुध्द हृदय के हों, मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिसमें हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें और यह विश्वास कर सकें कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा। मित्रता एक नई शक्ति की योजना है। बर्क ने कहा है कि आचरण दृष्टान्त ही मनुष्य जाति की पाठशाला है; जो कुछ वह उससे सीख सकता है, वह और किसी से नहीं।

संसार के अनेक महान् पुरुष मित्रों की बदौलत बड़े बड़े कार्य करने में समर्थ हुए हैं। मित्रों ने उनके हृदय के उच्च भावों को सहारा दिया है। मित्रों ही के दृष्टान्तों को देख देखकर उन्होंने अपने हृदय को दृढ़ किया है। अहा! मित्रों ने कितने मनुष्यों के जीवन को साधु और श्रेष्ठ बनाया है, उन्हें मूर्खता और कुमार्ग के गङ्ढों से निकालकर सात्विकता के पवित्र शिखर पर पहुँचाया है! मित्र उन्हें सुन्दर मन्त्रणा और सहारा देने के लिए सदा उद्यत रहते हैं, जिनके सुख और सौभाग्य की चिन्ता वे निरन्तर करते रहते हैं। ऐसे भी मित्र होते हैं जो विवेक को जाग्रत करना और कर्तव्यव बुध्दि को उत्तेरजित करना जानते हैं। ऐसे भी मित्र होते हैं जो टूटे जी को जोड़ना और लड़खड़ाते पाँवों को ठहराना जानते हैं। बहुतेरे मित्र हैं जो ऐसे दृढ़ आशय और उद्देश्य की स्थापना करते हैं जिनसे कर्मक्षेत्र में आप भी श्रेष्ठ बनते हैं और दूसरों को भी श्रेष्ठ बनाते हैं। मित्रता जीवन और मरण के मार्ग में सहारे के लिए है। यह सैरसपाटे और अच्छे दिनों के लिए भी है तथा संकट और विपत्ति के बुरे दिनों के लिए भी है। यह हँसी-दिल्लगी के गुलछर्रों में भी साथ देती है और धर्म के मार्ग में भी। मित्रों को एक दूसरे के जीवन के कत्ताव्यों को उन्नत करके उन्हें साहस, बुध्दि और एकता द्वारा चमकाना चाहिए। हमें अपने मित्र से कहना चाहिए-'मित्र! अपना हाथ बढ़ाओ। यह जीवन और मरण में हमारा सहारा होगा। तुम्हारे द्वारा मेरी भलाई होगी पर यह नहीं कि सारा ऋण मेरे ही ऊपर रहे, तुम्हारा भी उपकार होगा, जो कुछ तुम करोगे उससे तुम्हारा भी भला होगा। सत्यशील, न्यायी और पराक्रमी बने रहो, क्योंकि यदि तुम चूकोगे तो मैं भी चूकँगा। जहाँ जहाँ तुम जाओगे, मैं भी जाऊँगा। तुम्हारी बढ़ती होगी तो मेरी भी बढ़ती होगी। जीवन के संग्राम में वीरता के साथ लड़ो, क्योंकि तुम्हारी ढाल मैं लिए हूँ।'

जो बात ऊपर मित्रों के सम्बन्ध में कही गई है, वही जान-पहचान वालों के सम्बन्ध में भी ठीक है। जो मनुष्य स्वसंस्कार में लगा हो, उसे अपने मिलने जुलने वालों के आचरण पर भी दृष्टि रखनी चाहिए, उसे यह ध्याअन रखना चाहिए, कि उनकी बुध्दि और उनका आचरण ठिकाने का है। साधारणत: हमें अपने ऊपर ऐसे प्रभावों को न पड़ने देना चाहिए जिनसे हमारी विवेचना की गति मन्द हो वा भले बुरे का विवेक क्षीण हो। जीवन का उद्देश्य क्या है? क्या वह भविष्य के लिए आयोजन का स्थान नहीं है? क्या वह तुम्हारे हाथ में सौंपा हुआ ऐसा पदार्थ नहीं है जिसका लेखा तुम्हें परमात्मा को और अपनी आत्मा को देना होगा? सोचो तो कि दो, चार, दस जितने गुण तुम्हें दिए गए हैं, उन्हें तुम्हें देने वाले को पचासगुने सौगुने करके लौटाना चाहिए, अथवा ज्यों के त्यों बिना ब्याज वा वृध्दि के। यदि जीवन एक प्रहसन ही है जिसमें तुम गा बजाकर और हँसी ठट्ठा करके समय काटो, तब जो कुछ उसके महत्तव के विषय में मैंने कहा है, सब व्यर्थ ही है; पर जीवन में गम्भीर बातें और विपत्ति के दृश्य भी हैं। मेरी समझ में तो महाराणा प्रताप की भाँति संकट में दिन काटना वाजिदअली शाह की भाँति भोगविलास करने से अच्छा है। मेरी समझ में शिवाजी के सवारों की तरह चने बाँधकर चलना औरंगजेब के सवारों की तरह हुक्के और पानदान के साथ चलने से अच्छा है। मैं जीवन को न तो दु:खमय और न सुखमय बतलाना चाहता हूँ, बल्कि उसे एक ऐसा अवसर समझता हूँ जो हमें कुछर् कत्ताव्यों के पालन के लिए दिया गया है, जो हमें परलोक के लिए कुछ कमाई करने के लिए दिया गया है। हमारे सामने ऐसे बहुत से लोगों के दृष्टान्त हैं जिनके विचार भी महान् थे, कर्म भी महान् थे। जैसा कि महात्मा डिमास्थिनीज ने एथेंसवासियों से कहा था, उसी प्रकार हमें भी अपने मन में समझना चाहिए कि 'यदि हमें अपने महान् पूर्व-पुरुषों की भाँति कर्म करने का अवसर न मिले, तो हमें कम से कम अपने विचार उनकी भाँति रखने चाहिए और उनकी आत्मा के महत्तव का अनुकरण करना चाहिए।' अत: हमें सदा इस बात का ध्याहन रखना चाहिए कि हम कैसा साथ करते हैं। दुनिया तो जैसी हमारी संगत होगी, वैसा हमें समझेगी ही; पर हमें अपने कामों में भी संगत ही के अनुसार सहायता वा बाधा पहुँचेगी। उसका चित्त अत्यन्त दृढ़ समझना चाहिए जिसकी चित्तवृत्ति पर उन लोगों का कुछ भी प्रभाव न पड़े, जिनका बराबर साथ रहता है। पर अच्छी तरह समझ रखो कि यह कभी हो नहीं सकता। चाहे तुम्हें जान न पड़े, पर उनका प्रभाव तुम पर बराबर हर घड़ी पड़ता रहेगा और उसी के अनुसार तुम उन्नत वा अवनत होगे, उत्साहित वा हतोत्साह होगे। एक विद्वान् से पूछा गया-'जीवन में किस शिक्षा की सबसे अधिक आवश्यकता है?' उसने उत्तर दिया-'व्यर्थ की बातों को जानकर भी अनजान होना।' यदि हम जान पहचान करने में बुध्दिमानी से काम न लेंगे तो हमें बराबर अनजान बनना पड़ेगा।

महामति बेकन कहता है-'समूह का नाम संगत नहीं है। जहाँ प्रेम नहीं है, वहाँ लोगों की आकृतियाँ चित्रवत् हैं और उनकी बातचीत झाँझ की झनकार है।' पहचान करने में हमें कुछ स्वार्थ से काम लेना चाहिए। जान पहचान के लोग ऐसे हों जिनसे हम कुछ लाभ उठा सकते हों, जो हमारे जीवन को उत्तम और आनन्दमय करने में कुछ सहायता दे सकते हों, यद्यपि उतनी नहीं जितनी गहरे मित्र दे सकते हैं। मनुष्य का जीवन थोड़ा है; उसमें खोने के लिए समय नहीं। यदि क, ख और ग हमारे लिए कुछ नहीं कर सकते, न कोई बुध्दिमानी वा विनोद की बातचीत कर सकते हैं, न कोई अच्छी बात बतला सकते हैं, न अपनी सहानुभूति द्वारा हमें ढाढस बँधा सकते हैं, न हमारे आनन्द में सम्मिलित हो सकते हैं, न हमें कर्तव्यह का ध्याान दिला सकते हैं, तो ईश्वर हमें उनसे दूर ही रखे। हमें अपने चारों ओर जड़ मूर्तियाँ सजाना नहीं है। आजकल जानपहचान बढ़ाना कोई बड़ी बात नहीं है। कोई भी युवा पुरुष ऐसे अनेक युवा पुरुषों को पा सकता है जो उसके साथ थिएटर देखने जायँगे, नाचरंग में जायँगे, सैरसपाटे में जायँगे, भोजन का निमन्त्रण स्वीकार करेंगे। यदि ऐसे जान पहचान के लोगों से कुछ हानि भी न होगी तो लाभ भी न होगा। पर यदि हानि होगी तो बड़ी भारी होगी। सोचो तो, तुम्हारा जीवन कितना नष्ट होगा, यदि ये जान पहचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकलें जिनकी संख्या दुर्भाग्यवश आजकल बहुत बढ़ रही है, यदि उन शोहदों में से निकलें जो अमीरों की बुराइयों और मूर्खताओं की नकल किया करते हैं, दिन रात बनावसिंगार में रहा करते हैं, कुलटा स्त्रियों के फोटो मोल लिया करते हैं, महफिलों में 'ओ हो हो' 'वाह' 'वाह' किया करते हैं, गलियों में ठट्ठा मारते हैं और सिगरेट का धुऑं उड़ाते चलते हैं। ऐसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य, नि:सार और शोचनीय जीवन और किसका है? वे अच्छी बातों के सच्चे आनन्द से कोसों दूर हैं। उनके लिए न तो संसार में सुन्दर और मनोहर उक्तिवाले कवि हुए हैं और न सुन्दर आचरणवाले महात्मा हुए हैं। उनके लिए न तो बड़े-बडे वीर अद्भुत कर्म कर गए हैं और न बड़े-बड़े ग्रन्थकार ऐसे विचार छोड़ गए हैं जिनसे मनुष्य जाति के हृदय में सात्विकता की उमंगें उठती हैं। उनके लिए फूल पत्तियों में कोई सौन्दर्य नहीं, झरनों के कलकल में मधुर संगीत नहीं, अनन्त सागर के तरंगों में गम्भीर रहस्यों का आभास नहीं, उनके भाग्य में सच्चे प्रयत्न और पुरुषार्थ का आनन्द नहीं, उनके भाग्य में सच्ची प्रीति का सुख और कोमल हृदय की शान्ति नहीं। जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय विषयों में ही लिप्त है, जिनका हृदय नीच आशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित है, ऐसे नाशोन्मुख प्राणियों को दिन दिन अन्धकार में पतित होते देख कौन ऐसा होगा जो तरस न खायगा? जिसने स्वसंस्कार का विचार अपने मन में ठान लिया हो, उसे ऐसे प्राणियों का साथ न करना चाहिए। मकदूनिया का बादशाह डेमेट्रियस कभी कभी राज्य का सब काम छोड़ अपने ही मेल के दस पाँच साथियों को लेकर विषयवासना में लिप्त रहा करता था। एक बार बीमारी का बहाना करके इसी प्रकार वह अपने दिन काट रहा था। इसी बीच उसका पिता उससे मिलने के लिए गया और उसने एक हँसमुख जवान को कोठरी से बाहर निकलते देखा। जब पिता कोठरी के भीतर पहुँचा, तब डेमेट्रियस ने कहा-'ज्वर ने मुझे अभी छोड़ा है।' पिता ने कहा-'हाँ! ठीक है, वह दरवाजे पर मुझे मिला था।'

कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुध्दि का भी क्षय करता है। किसी युवा पुरुष की संगत यदि बुरी होगी, तो वह उसके पैर में बँधी चक्की के समान होगी जो उसे दिन-दिन अवनति के गढ़े में गिराती जायगी; और यदि अच्छी होगी तो सहारा देनेवाली बाहु के समान होगी जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जायगी।

इंगलैण्ड के एक विद्वान् को युवावस्था में राजा के दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस पर जिन्दगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा। बहुत से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगत में पड़ता जो उसकी आध्याअत्मिक उन्नति में बाधक होते। बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनके घड़ीभर के साथ से भी बुध्दि भ्रष्ट होती है; क्योंकि उतने ही बीच में ऐसी ऐसी बातें कही जाती हैं जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऐसे ऐसे प्रभाव पड़ते हैं जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्राय: सब लोग जानते हैं कि भद्दी दिल्लगी वा फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्याान पर चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गम्भीर व अच्छी बात नहीं। एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसके लड़कपन में कहीं से एक बुरी कहावत सुन पाई थी जिसका ध्यारन वह लाख चेष्टा करता है कि न आवे, पर बार बार आता है। जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद नहीं करना चाहते, वे बार बार हृदय में उठती हैं और बेधाती हैं। अत: तुम पूरी चौकसी रखो, ऐसे लोगों को कभी साथी न बनाओ जो अश्लील, अपवित्र और फूहड़ बातों से तुम्हें हँसाना चाहें। सावधन रहो। ऐसा न हो कि पहलेपहल तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऐसा हुआ, फिर ऐसा न होगा; अथवा तुम्हारे चरित्रबल का ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि ऐसी बातें बकनेवाले आगे चलकर आप सुधार जायँगे। नहीं ऐसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे धीरे उन बुरी बातों से अभ्यस्त होते होते तुम्हारी घृणा कम हो जायगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी, क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है। तुम्हारा विवेक कुण्ठित हो जायेगा और तुम्हें भले बुरे की पहचान न रह जायगी। अन्त में होते होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे। अत: हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगत की छूत से बचो। यह एक पुरानी कहावत है कि-

काजल की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय,

एक लीक काजर की लागिहै पै लागिहै।

जो कुछ ऊपर कहा गया है, उससे यह न समझना चाहिए कि मैं युवा पुरुषों को समाज में प्रवेश करने से रोकता हूँ, नहीं, कदापि नहीं। अच्छा समाज यदि मिले तो उसका बहुत प्रभाव पड़ता है और उससे आत्मसंस्कार के कार्य में बड़ी सहायता मिलती है। प्राय: देखने में आता है कि गाँवों से जो लोग नगरों में जीविका आदि के लिए आते हैं, उनका जी बहुत दिनों तक, संगीसाथी न रहने से, बहुत घबराता है और कभी कभी उन्हें ऐसे लोगों का साथ कर लेना पड़ता है जो उनकी रुचि के अनुकूल नहीं होते। ऐसे लोगों के लिए अच्छा तो यह होता है कि वे किसी साहित्यसमाज में प्रवेश करें। पर वहाँ भी उन्हें उन सब बातों की जानकारी नहीं प्राप्त हो सकती जो स्वशिक्षा के लिए आवश्यक हैं। समाज में प्रवेश करने से हमें अपना यथार्थ मूल्य विदित होता है। हम देखते हैं कि हम उतने चतुर नहीं हैं जितने एक कोने में बैठकर कोई पुस्तक आदि हाथ में लेकर अपने को समझा करते थे। भिन्न भिन्न लोगों में भिन्न भिन्न प्रकार के गुण होते हैं। यदि कोई एक बात में निपुण है तो दूसरा दूसरी में। समाज में प्रवेश करके हम देखते हैं कि इस बात की कितनी आवश्यकता है कि लोग हमारी भूलों को क्षमा करें; अत: हम दूसरों की भूलचूक को क्षमा करना सीखते हैं। हम कई ठोकरें खाकर नम्रता और अधीनता का पाठ सीखते हैं। इनके अतिरिक्त और भी बड़ बड़े लाभ होते हैं। समाज में सम्मिलित होने से हमारी समझ बढ़ती है, हमारी विवेक बुध्दि तीव्र होती है, वस्तुओं और व्यक्तियों के सम्बन्ध में हमारी धारणा विस्तृत होती है, हमारी सहानुभूति गहरी होती है, हमें अपनी शक्तियों के उपयोग का अभ्यास होता है। समाज एक परेड है जहाँ हम चढ़ाई करना सीखते हैं, अपने साथियों के साथ साथ मिलकर बढ़ना और आज्ञापालन करना सीखते हैं, इनसे भी बढ़कर और और बातें हम सीखते हैं। हम दूसरों का ध्यातन रखना, उनके लिए कुछ स्वार्थत्याग करना सीखते हैं, सद्गुणों का आदर करना और सुन्दर चालढाल की प्रशंसा करना सीखते हैं। स्वसंस्काराभिलाषी युवक को उस चाल व्यवहार की अवहेलना न करनी चाहिए जो भले आदमियों के समाज में आवश्यक समझी जाती है। बड़ों के प्रति सम्मान और सरलता का व्यवहार, बराबरवालों से प्रसन्नता का व्यवहार और छोटों के प्रति कोमलता का व्यवहार भलेमानुसों के लक्षण हैं। सुडौल और सुन्दर वस्तु को देखकर हम सब लोग प्रसन्न होते हैं। सुन्दर चालढाल को देख हम सब लोग आनन्दित होते हैं। मीठे वचनों को सुनकर हम सब लोग सन्तुष्ट होते हैं। ये सब बातें हमें मनोनीत होती हैं, शिक्षा द्वारा प्रतिष्ठित आदर्श के अनुकूल होती हैं। किसी भले आदमी को यह कहते सुनकर कि फटी पुरानी और मैली पुस्तक हाथ में लेकर पढ़ते नहीं बनता, हमें हँसना न चाहिए। सोचो तो कि तुम्हारी मण्डली में कोई गँवार आकर फूहड़ बातें बकने लगे तो तुम्हें कितना बुरा लगेगा।

'भलामानुस किसे कहते हैं?' यह बात पूछी भी बहुत जाती है और बतलाई भी बहुत जाती है। मैं इसके विषय में पुस्तक के आरम्भ ही में थोड़ा बहुत कह चुका हूँ। यहाँ पर मुझे केवल यही कहना है कि यदि शिक्षा से तीन चौथाई भलमनसाहत आती है तो सत्संग से कम से कम चौथाई अवश्य आती है। चतुराई, बुध्दिमानी, हृदय की कोमलता आदि सब कुछ होने पर भी बिना समाजसंसर्ग के व्यवहारकुशलता नहीं आती। हीरा जब तक खराद पर नहीं चढ़ता, उसकी चमक सबको नहीं दिखाई देती। प्रसिध्द निबन्धालेखक एमर्सन कहता है-'भलमनसाहत शब्द का प्रयोग व्यक्तिगत गुणों के लिए होता है। यद्यपि इस शब्द के अभिप्राय के अन्तर्गत बहुत सी अनोखी और कल्पित बातें जोड़ी जाती हैं, पर इस विषय में मनुष्य जाति का एक सामान्य लक्ष्य है। वह वस्तु जिससे प्रत्येक देश के शक्तिमान् पुरुष परस्पर मिलते हैं, जिससे एक दूसरे का साथ पसन्द करते हैं और जो ऐसी निर्दिष्ट है कि उसका अभाव तुरन्त खटक जाता है, कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो किसी किसी समय कहीं-कहीं उत्पन्न हो जाया करती हो, बल्कि वह सारे मनुष्यों के गुणों और शक्तियों को एक औसत परिणाम है। यह उस वर्ग के लोगों की भावनाओं और गुणों से उत्पन्न एक व्यापक आदर्श है जिनमें सबसे अधिक शक्ति है, जो वर्तमान संसार के अगुआ हैं। यद्यपि इस आदर्श में भावनाओं की पूर्ण उच्चता का समावेश नहीं होता, पर इसमें उतनी उत्तमता रहती है जितनी का निर्वाह सारे समाज में हो सकता है। भलमनसाहत एक ऐसा मिश्रित द्रव्य है जिसमें सदाचार, चतुराई, सुन्दरता, धन और अधिकार का योग रहता है।' एमर्सन की इस परिभाषा में मुझे बहुत अत्युक्ति दिखाई पड़ती है। भलमनसाहत का मूलधन, अधिकार, चतुराई, सुन्दरता इत्यादि नहीं है, बल्कि सहानुभूति है। भलमनसाहत वह शक्ति है जिससे मनुष्य अपने को उन लोगों के इस प्रकार अनुकूल करता है जिनसे वह मिलता है कि उन्हें अपनी छोटाई का ध्या न नहीं होने पाता, उन्हें कोई बात खटकने नहीं पाती और उनमें आत्ममर्यादा का भाव पुष्ट होता है। दिल्ली के बादशाह नासिरुद्दीन महमूद में इस प्रकार की भलमनसाहत थी। एक दिन वह अपनी बनाई एक पुस्तक अपने एक सरदार को दिखा रहा था। सरदार ने उस पुस्तक में कई अशुध्दियाँ बतलायीं। सरदार ने जैसा कहा, नासिरुद्दीन ने वैसा ही बना दिया। पर जब वह सरदार चला गया, तब फिर नासिरुद्दीन ने काटकर वही बना दिया जो उसने पहले लिखा था। जब लोगों ने इसका कारण पूछा तब बादशाह ने कहा-'भाई! मैं जानता था कि जो मैंने लिखा है, वह ठीक है; पर यदि मैं न काटता तो सरदार का जी टूट जाता। इसलिए मैंने उसके सामने काट दिया था, अब उसे फिर ठीक कर लिया।' पोप क्लिमेंट जब गद्दी पर बैठा, तब भिन्न भिन्न देशों के राजदूत बधाई देने के लिए आए। जब राजदूतों ने झुक-झुककर सलाम किया, तब पोप ने भी उन्हें बड़े आदर के साथ सलाम किया। धर्माचार्य ने कहा-'महाराज! सलाम का जवाब देना मर्यादा के विरुध्द है।' पोप ने कहा-'मैं अभी इतने दिनों तक पोप नहीं रहा हूँ कि भलमनसाहत भूल जाऊँ।' एक दीन और अनाथ स्त्रीं रोग से पीड़ित थी। मैंने उसके लिए एक डॉक्टर का प्रबन्ध कर दिया। जब वह डॉक्टर के यहाँ से लौटी, तब उसकी निपुणता आदि के विषय में कुछ न कहकर उसकी शिष्टता और भलमनसाहत का बखान करने लगी। वह बार बार यही कहती-'आह! वह कैसा भला आदमी है! उसने मुझ पर बड़ी दया दिखलाई और वह मेरे दु:ख से सचमुच दु:खी हुआ।'

यदि सहानुभूति ही भलेमानुस का सच्चा लक्षण है तो थैकरे का यह कहना बहुत ठीक है-'भलेमानुस बिरले ही मिलते हैं।' आगे चलकर यह धुरन्धर उपन्यासकार, जो स्वयं भलमनसाहत का मूर्तिमान् उदाहरण था, इस विषय में इस प्रकार कहता है-'ऐसे कितने आदमियों को हम बता सकते हैं जिनके आशय उदार हों, जिनका सत्य अटल हो-अटल ही नहीं बढ़ा चढ़ा हो , जो क्षुद्रता के अभाव के कारण सीधो सादे हों, जो संसार में छोटे बड़े सबके साथ समान सहानुभूति रख सकते हों? हमें ऐसे सैकड़ों मिलेंगे जिनके कपड़े लत्तो अच्छे हों, ऐसे बीसों मिलेंगे जो अदब कायदा जानते हों; ऐसे भी अनेक मिलेंगे जिन्होंने फैशन में खूब बढ़कर बाजी मारी हो, पर भलेमानुस कितने मिलेंगे?' कपड़े लत्तो पहनने में एकता होनी ही काफी नहीं, अदब कायदों को घोख रहना ही बस नहीं, लटक के साथ धड़ाधड़ बातचीत करना ही सब कुछ नहीं। तुम्हें इस धर्मवाक्य को सदा स्मरण रखना चाहिए और उस पर चलना चाहिए कि 'तुम लोगों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा कि तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें।' इसी वाक्य में सच्ची भलमनसाहत का सार भरा हुआ है। उदार, बुध्दिमान्, पुरुषार्थी और सत्यपरायण होना, वृध्द लोगों के प्रति सम्मान और युवा पुरुषों के प्रति समानता का व्यवहार करना तथा सब किसी के साथ ऐसा बर्ताव करना जिसमें आत्मोत्सर्ग का भाव पाया जाय, ये ही भलेमानुसों के लक्षण हैं।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि संग साथ का अभाव और संगीसाथी चुनने में चौकसी न रखना ये दोनों बातें बुरी हैं। बराबर देखने में आता है कि सैकड़ों युवक अपने घरों के शान्तिमय और शुध्द जीवन को छोड़, जहाँ वे अपने माता पिता को देखकर आनन्द से दिन बिताते थे, गाँवों से बड़े बड़े नगरों में बड़े-बड़े प्रलोभनों और बुराइयों के बीच जाते हैं, जहाँ कोई हाथ पकड़कर सन्मार्ग पर ले जानेवाला वा कुमार्ग से बचानेवाला नहीं मिलता। मैं समझता हूँ कि इस स्थानपरिवर्तन में जिन जिन बातों की आशंका होती है, उनका विचार नहीं किया जाता। युवकों के हृदय में स्वभावत: साहस तथा नई नई वस्तुओं के लिए उत्कण्ठा होती है। उन्हें अपने ऊपर इतना विश्वास होता है कि वे कभी कभी प्रलोभनों के बीच केवल यह दिखलाने के लिए जा पड़ते हैं कि वे उनके चक्कर में नहीं फँस सकते। नगरों के हुल्लड़ और कल-कल में यदि कहीं से कोई सचेत करनेवाली ध्वतनि आती भी है तो वह 'नक्कारखाने में तूती की आवाज' की तरह होती है। युवा पुरुष अपने मार्ग के किनारे के लुभानेवाले फलों और फूलों ही को देखते हैं, उनके बीच जो विषधर सर्प छिपे रहते हैं, उन्हें नहीं देखते। यहाँ उन सब बातों के अलग अलग गिनाने की आवश्यकता नहीं जिनके बुरे अनुभव इतने अधिक होते हैं कि उन पर ध्यािन नहीं जाता। पर इस अवसर पर मैं इस सिध्दान्त का विरोध अवश्य करूँगा कि युवा पुरुषों को अपनी राह आप निकालनी चाहिए। यह सिध्दान्त बहुधा लोगों के मुँह पर रहता है। पर यदि इसके अनुसार युवा पुरुष अपनी राह आप निकालेंगे तो वे उसके काँटों से कदापि नहीं बच सकते। मेरी समझ में तो युवा पुरुषों को अपनी राह निकालने का भार अपने ही ऊपर न रखना चाहिए। मैं उन लोगों की शिक्षा का बड़ा भारी विरोधी हूँ जो कहते हैं कि युवा पुरुषों को संसार में सब प्रकार का अनुभव प्राप्त करना चाहिए, जिनका उपदेश है कि मनुष्य यह देखने के लिए कि भाड़ गरम है या नहीं, भाड़ में कूद पड़ना चाहिए। ऐसी शिक्षाओं से बहुत से होनहार युवकों का सत्यानाश हुआ है। मैं नहीं समझता कि धार्मिक पिता कैसे अपने पुत्रों को इस प्रकार का अनुभव प्राप्त करने देते हैं। इस प्रकार का अनुभव प्राप्त करने का अर्थ क्या है? यही न कि धार्मिक होने का प्रयत्न करने के स्थान पर निषिध्द वस्तुओं को ग्रहण करें, अपने कोमल हृदय को विषयवासनाओं से कलुषित करें? यदि वे संसार की बुरी बातों का अनुभव प्राप्त करेंगे तो वे धीरे धीरे अभ्यस्त हो जायँगे और फिर उन्हें उन बुरी बातों से घृणा न रह जायगी। यदि वे संसार का अनुभव प्राप्त करेंगे तो उस शान्तिमय सुमार्ग पर चलना भूल जायँगे जिस पर वे पहले चलते थे। यदि वे संसार की बुरी बातों का अनुभव प्राप्त कर लेंगे तो उनकी दृष्टि स्तम्भित और चकित हो जायगी और वे भले बुरे की पहचान न कर सकेंगे। जब किसी युवा पुरुष के सम्बन्ध में यह कहा जाय कि उसने संसार में सब तरह का अनुभव प्राप्त किया, तो यह समझना चाहिए कि वह बुराइयों से अभ्यस्त हो गया और उसने अपनी समस्त आशाओं पर पानी फेर दिया।

जो शिक्षा इसलिए कुप्रवृत्ति का विषपान करने का अनुरोध करती है जिसमें उसका प्रभाव अभ्यास द्वारा नष्ट हो जाय, क्या वह उत्तम शिक्षा है और क्या उससे पुरुषार्थ और साहस आ सकता है? इतिहास ऐसा नहीं कहता। सब लोग जानते हैं कि अकबर कैसा पुरुषार्थी और धीर था। पर इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि उस धीरता और पुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिए उसे संसार की उन बुरी बातों का अनुभव प्राप्त करना पड़ा था जिनका ऊपर उल्लेख हुआ है। काबुल में अपने चचा के यहाँ अपनी बाल्यावस्था का बहुत सा समय बिताकर वह भारतवर्ष में आया और युवावस्था के आरम्भ होने के पहले ही उसने अपना राजकाज सँभाला। महाकवि तुलसीदासजी बहुत दिनों तक गृहस्थधर्मानुसार अपने परिवार में अनुरक्त रहे। इसके उपरान्त उसी शुध्द अनुराग को उन्होंने परमात्मा की ओर लगाया और अपनी कविता द्वारा भक्ति रस का वह स्रोत बहाया कि उसमें सारा उत्तरीय भारत मग्न हो गया। उसी प्रकार महाराणा प्रताप, नाना फड़नवीस, सर टी माधावराव, भट्टोजी दीक्षित, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आदि बड़े बड़े वीर, राजनीतिज्ञ और पण्डित हो गए हैं जिन्हें संसार की बुरी बातों के अनुभव की कोई आवश्यकता नहीं पड़ी। जो सोता दल दल और खर पतवार में फूटता है, वह तलैया के रूप में स्थिर रह जाता है। अत: यह न समझना चाहिए कि जो युवक सब प्रकार के रंग में रहकर संसार का अनुभव प्राप्त करता है, वह आगे चलकर पुरुषार्थ और साहस के कार्य कर सकता है।

जब हम डॉक्टर राजेन्द्रलाल मित्र के जीवन की ओर ध्यावन देते हैं, तब देखते हैं कि उनका युवा काल 'संसार का अनुभव' प्राप्त करने में नहीं बल्कि धैर्यपूर्वक अध्यतयन में बीता। उन्होंने अपना समय एशियाटिक सोसायटी के पुस्तकालय के उत्तम उत्तम ग्रन्थों के देखने में और विद्वानों के व्याख्यान सुनने में लगाया। लोग कहेंगे कि वे एक गरीब आदमी थे, इससे संसार के प्रलोभनों के बचे रहे; उनकी परीक्षा नहीं हुई, इससे वे पतित नहीं हुए। पर सर टी. माधावराव, रमेशचन्द्र दत्ता आदि, जिन्होंने राज्यप्रबन्ध और विद्वत्ता में इतना नाम कमाया, समृध्द कुलों में उत्पन्न हुए थे; पर उन्हें वारांगनाद्वारप्रवेश की प्रणाली का अनुसरण नहीं करना पड़ा था। मनुष्य का जीवन क्रम क्रम से उच्च होता है। जिसकी युवावस्था शुध्दतापूर्वक व्यतीत होती है, उसी का जीवन आगे चलकर उच्च होता है। जिसकी युवावस्था विषयसेवन में नष्ट हुई है, उसका आगम ऍंधोरा रहता है, उसका जीवन मेघाच्छन्न रहता है-विपत्ति और निराशा में पड़कर पछताने के सिवा उसे कुछ हाथ नहीं आता।

युवा पुरुषों को इस प्रकार के बुरे अनुभवों से बचाने के लिए सबसे सीधा और सुगम उपाय सत्संग है। अच्छे आदमियों के समाज में बैठने से, जहाँ परस्पर प्रेम और शान्ति का आनन्द रहता है, बड़ी भारी रक्षा रहती है। यह निश्चय समझना चाहिए कि ऐसे बहुत कम मनुष्य मिलेंगे जो पहलेपहल प्रसन्नता के साथ बुराइयों में फँसते हों तथा संसार की बुराइयों का अनुभव प्राप्त करते हुए जो कुछ हिचकते न हों और जिनके जी में कुछ खटका न होता हो। मुझे पूरा विश्वास है कि अधिकांश युवा पुरुष जब पहले पहल कुमार्ग पर पैर रखते हैं, तब यदि संसार में कोई उनका हाथ पकड़नेवाला हो तो वे उससे हट सकते हैं। संसार में सब प्रकार के रंग में रहने का उपदेश तो बहुत लोग किया करते हैं और बहुत से लोग विषयमद में मत्ता भी होते हैं, पर अपनी इस मौज से आगे चलकर वे ऊब जाते हैं और सौ में निन्नानबे मनुष्य इस मौज की लीक ग्लानि और घृणा के साथ पीटते चले जाते हैं, उन्हें उसमें कोई आनन्द नहीं रह जाता; और अन्त में उनकी आत्मा इतनी जड़ हो जाती है कि उसमें सत्य और सौन्दर्य का कुछ भी अनुभव नहीं रह जाता। पर इस पतित दशा में पड़ने के पहले मनुष्य अच्छी बातों के लिए छटपटाता अवश्य हे, और उसका यह छटपटाना सफल हो सकता है, यदि वह इस संसार के कलुषित ऍंधेरे मार्गों से निकलकर किसी अच्छे परिवार वा अच्छे समाज में पड़ जाय।

हमारे बड़े नगरों के युवक साधारणत: दो भागों में बाँटे जा सकते हैं-एक वे जिन्होंने लड़कपन में कुछ धर्म सम्बन्धी शिक्षा पाई, दूसरे वे जिन्होंने संसार के व्यवहारों में प्रवेश करने के पहले इस प्रकार की तैयारी नहीं की। पहले प्रकार के लोगों के लिए तो कथा वार्ता, धर्मोपदेश आदि बहुत से साधन मिल जाते हैं जिनसे उनके चित्त पर घर ही का सा संस्कार बना रहता है। उनके लिए किसी नए यन्त्र की आवश्यकता नहीं होती। जो यन्त्र उनके पास रहता है, उसी के स्वच्छंद उपयोग की आवश्यकता होती है। धर्मोपदेशकों को युवा पुरुषों की बहुत खोज खबर रखनी चाहिए, उन्हें कुमार्ग से बचाने का उद्योग करना चाहिए, उनकी सहायता के लिए प्रत्येक समय उद्यत रहना चाहिए। माता पिता को भी चाहिए कि युवकों को घर से बाहर किसी अन्य स्थान पर भेजते समय ऐसा प्रबन्ध करें कि उनके चित्त का संस्कार शुध्द रहे। हमारे युवा पुरुष चाहे जिस नगर में जायँ, उन्हें धर्मचर्चा सुनने का अवसर मिल सकता है, धार्मिक सज्जनों की मण्डली मिल सकती है; क्योंकि भारतवर्ष के ऐसा धार्मिक देश दूसरा नहीं।

अब रह गए दूसरे वर्ग के लोग जिन्होंने परिवार में सच्चा सुख नहीं प्राप्त किया है, जो किसी कारणवश धार्मिक संस्कार से वंचित रहे हैं। ऐसों के लिए तो कोई उपाय बताना कठिन है। स्वसंस्कार का प्रयत्न यदि हृदय से करें तो ऐसे युवा पुरुष भी दुष्ट प्रलोभनों से बच सकते हैं; पर उनके लिए सबसे अच्छा उपाय यही है कि वे सत्संग करें। सत्संग का बड़ा भारी प्रभाव पड़ता है। इसमें से बहुत से लोग तो समाजों और साहित्य संस्थाओं में सम्मिलित होकर अपने समय का सदुपयोग कर सकते हैं और बुराइयों में पड़ने से बचे रह सकते हैं। पर बहुत से ऐसे निकलेंगे जिनकी सभासमाजों की ओर प्रवृत्ति नहीं होगी, जिन्हें धर्मोपदेश अच्छे नहीं लगते, जो अधिक चहलपहल और मजेदारी की बातें चाहते हैं। बहुत से युवा पुरुष जो गलियों में टेढ़ी टोपी देकर निकलते हैं, जो अश्लील ठुमरी टप्पा गाते चलते हैं, जो दिन रात शतरंज, गंजीफा खेलते रहते हैं, जो दुनिया में सब तरह के मजे उठाने का दम भरते हैं, जो मेलों तमाशों में खूब बनठनकर निकलते हैं, जो महफिलों में बिना बुलाए पहुँचते हैं, उनके लिए क्या किया जा सकता है? वे समाज के कोढ़ हैं। वे उसी प्रकार भयंकर हैं जिस प्रकार चोर और डाकू, जिनके पीछे पुलिस तैनात रहती है। वे समाज में बड़े बड़े अनर्थों का सूत्रापात करते हैं।

अब मैं आत्मसंस्कार में रत युवा पुरुषों के कामकाज की ओर आता हूँ। उन्हें जीविका के लिए कुछ न कुछ काम करना पड़ता है और वे उसे अच्छी तरह करते हैं। किसी कार्य में, चाहे वह हाथ का हो चाहे मस्तिष्क का, सफलता प्राप्त करने के लिए सबसे पहली बात यह है कि वह अच्छी तरह किया जाय। यह तो सकता है कि वह कार्य हमारी रुचि के अनुकूल न हो, पर उस दशा में उसे करके हम अपने ऊपर दूना प्रभुत्व प्राप्त करेंगे; और जिस हिसाब से उसे करने में हमें कठिनाई होगी, उतना ही अच्छा उसका हमें फल मिलेगा। तब-तक प्रयत्न पर प्रयत्न करते रहने से जब तक कि कार्य सिध्द न हो, हममें दृढ़ता आवेगी और हमारे उद्देश्य पुष्ट होंगे। नीति की दृष्टि से यदि देखा जाय तो बात बहुत सीधी है। जिसका हम काम करते हैं, उससे एक प्रकार की प्रतिज्ञा करते हैं और हमारी मर्यादा इसी में है कि हम उसे अच्छी तरह पूर्ण करें। मुझे यह देखकर बड़ा दु:ख और आश्चर्य होता है कि बहुतेरे युवा पुरुष इस विषय में बड़ी अवहेलना करते हैं और अपने काम को मन लगाकर नहीं करते, बल्कि उसे बड़ी ढिलाई के साथ करते हैं। इससे काम करनेवाले को जो नुकसान होता है, वह तो होता ही है, उनकी भी बड़ी भारी हानि होती है; क्योंकि र् कर्तव्यत की प्रत्येक त्रुटि से भले-बुरे का विवेक क्षीण होता है और न्यायबुध्दि कुण्ठित होती है। यह आत्मसंस्कार का एक अंग है कि जिस कार्य को करना, उसे अच्छी तरह करना।

राजा हरिश्चन्द्र की ही कथा की ओर ध्या न दो। जिस समय वे अयोधया से चलकर काशी आए, उन्होंने एक डोम की सेवा स्वीकार की। डोम ने उन्हें मरघट की रखवाली करने का काम सुपुर्द किया। सोचने की बात है कि क्या यह काम उनकी रुचि के अनुकूल रहा होगा? पर उन्होंने इस काम को अपने ऊपर लेकर उसे अच्छी तरह पूरा किया, उसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं की। जैसा कि सत्य हरिश्चन्द्र नाटक में दिखलाया गया है, वह ऍंधोरी रात में भीगते हुए बड़ी तत्परता के साथ श्मशान में फेरा लगाते थे और जो कोई मुर्दा लेकर आता था, उससे डोम का कर वसूल करते थे। वे अपनेकर्तव्य पर बराबर दृढ़ रहे, यहाँ तक कि जब स्वयं अपनी स्त्रीा उन्हीं के पुत्र का शव लेकर आई, तब भी, यह जानते हुए भी कि उसके पास फूटी कौड़ी नहीं है, उन्होंनेर् कत्ताव्यानुसार श्मशान का कर माँगा और वे आधा कफन फड़वाने पर उद्यत हुए। जब पाण्डवों ने अज्ञातवास के समय राजा विराट के यहाँ नौकरी की थी, तब सब भाइयों ने किस प्रकार अपने अपने कार्य में लगकर अपने स्वामी का हित साधन किया। दक्षिण में बहमनी राजवंश का संस्थापक हसन गाँगू एक ब्राह्मण का सेवक था। उसके परिश्रम और उसकी तत्परता को देख ब्राह्मण ने भविष्यवाणी की कि तू एक दिन बादशाह होगा। विलायत में जार्ज मूर नामक एक प्रसिध्द पुरुष हुआ है। वह पहले पहल दिहात से चलकर लन्दन के एक बजाज के यहाँ नौकर हुआ। यद्यपि वह काम उसकी तीक्ष्ण बुध्दि के अनुकूल नहीं था, पर वह अपने काम में बराबर मुस्तैद रहता था और अपने स्वामी को सन्तुष्ट रखता था। उसने जब अपने को अपने साथियों से मिलाया, तब उसे जान पड़ा कि दिहात से आने के कारण वह शिक्षा में बहुत पीछे है। अत: उसने यह नियम किया कि दिनभर तो परिश्रम के साथ दुकान का काम करूँ और रात को स्कूल में जाकर शिक्षा प्राप्त करूँ। धीरे-धीरे डेढ़ वर्ष में उसने बहुत सी जानकारी प्राप्त कर ली और वह अपने साथियों की बराबरी करने योग्य हो गया। इस बात की ओर लक्ष्य करके वह कहता है-'किसी को भाग्य पर भरोसा न करना चाहिए; यह निश्चय समझना चाहिए कि गुण ही भाग्य है। वही युवा पुरुष संसार में बढ़ सकता है जो जानकारी रखता है और जो अपने उद्देश्य की सिध्दि के लिए पूरा प्रयत्न करता है।' बजाज की नौकरी छोड़कर वह एक गोटेपट्टेवाले का एजेण्ट हुआ और नगरों में घूम-घूमकर माल की बिक्री का उद्योग करने लगा। उसने इतने लगन और परिश्रम से काम किया कि थोड़े ही दिनों में उस कारखाने का काम दूना हो गया जिसमें वह नौकर था। उसकी यह कार्यदक्षता और तत्परता देखकर एक दूसरी गोटे की दुकान ने उसे हिस्सेदार बनाया और वह स्वतन्त्र रूप से व्यवसाय करने लगा। वह दिन-रात में 16 घण्टे काम करता था। धीरे धीरे उसने कई नगरों में दुकानें खोलीं और उसका काम इतना चमका कि वह देखते ही देखते बड़ा आदमी हो गया।

इस बात को अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि संसार में जितने प्रतापी और महान् पुरुष हो गए हैं, वे सब खूब काम करने वाले थे। नेपोलियन की लड़ाइयों में यह विशेषता थी कि उसके सामने शत्रु की सारी सेना तितर-बितर हो जाती थी। वह इस कौशल के साथ आक्रमण करता था और इतनी सावधनी रखता था कि उसका परिणाम अनिवार्य होता था, उसकी गति का अवरोध असम्भव होता था, उसके सामने बड़ी बड़ी सेनाएँ तिनके के समान उधारा जाती थीं। एक पुरानी कहावत है कि 'मुझे खड़े होने भर को जगह दो; मैं सारे संसार को हिला डालूँगा।' इसे थोड़ा बदलकर यदि हम इस प्रकार कहें-'मुझे अपनी स्थिति को अच्छी तरह जमा लेने दो; तो मैं सारे संसार को हिला डालूँगा।' तो यह नेपोलियन के विषय में ठीक घट जाय; क्योंकि उसने अपने सारे जीवन में इसी बात का दृष्टान्त दिखलाया है। इसी मन्त्र का अवलम्बन करके गौतम बुध्द ने सारे संसार को हिला दिया। उन्होंने कभी अनुकूल अवसर आसरा नहीं देखा, बल्कि वे सत्य का अनुसरण करते हुए निरन्तर अग्रसर होते गए। हमें अवसर की ताक में हाथ पर हाथ रखे बैठे न रहना चाहिए, बल्कि जो क्षण हमारे सामने आवे, उसी में अपने लक्ष्य को आगे बढ़ाना चाहिए। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिस समय हिन्दी के लिए प्रयत्न आरम्भ किया, वह समय कुछ बहुत अनुकूल नहीं था। पर उन्होंने हिन्दी के लिए अच्छी लम्बी चौड़ी राह निकाल दी। जिस कार्य में उन्होंने हाथ लगाया, उसे पूर्ण धैर्य और परिश्रम के साथ निबाहा। इसी से उनकी समस्त रचनाओं में एक विलक्षण पूर्णता दृष्टिगोचर होती है और उनकी निपुणता टपकी पड़ती है। संसार में जितनी बड़ी बड़ी जातियाँ हुई हैं; सब पूर्ण रूप से कार्य निर्वाह करनेवाली थीं। यूनानियों ही को लीजिए जिनकी विद्या, बुध्दि और वीरता की कहानियाँ सारे संसार में फैली हुई हैं। प्राचीन हिन्दुओं को लीजिए जो कलाकौशल के ऐसे चिद्द छोड़ गए हैं जिनका इस गिरी दशा में भी हिन्दुओं को अभिमान है। उनके हाथ की गढ़ी हुई जो मूर्तियाँ आज हमें पुराने खण्डहरों में मिलती हैं, उनकी गठन और उनके सौन्दर्य के सामने आजकल के मन्दिरों की मूर्तियाँ हमें नहीं जँचतीं। वे जैसे-जैसे बृहत् और मनोहर काव्य छोड़ गए हैं, वैसे फिर इधर पिछले खेवे के हिन्दुओं से न बने। उनमें जो पूर्णता दिखलाई पड़ती है, वह पीछे के बने काव्यों में नहीं है।

आजकल के समय में भी राजा रविवर्मा ने चित्रकला में जो चमत्कार दिखाया है, वह परिश्रमपूर्वक पूर्णता प्राप्त करके ही। वे अपनी कला के अभ्यास और अध्यायन में रात रात भर जागते रह जाते थे। ऍंगरेजों का जो आज इतना प्रचण्ड प्रताप देखने में आता है, उसका कारण उनका अध्यरवसाय और प्रत्येक कार्य को पूर्ण रूप से करने का उनका जातीय गुण है। उनकी कार्यप्रणाली प्रशंसनीय है। पार्लामेण्ट महासभा का कार्य थोड़े ही से लोगों के द्वारा संपादित होता है। पर ये थोड़े से लोग कठिन परिश्रम करनेवाले होते हैं। राज-काज के बड़े-बड़े पद आराम से पैर फैलाकर सोने के लिए नहीं हैं, बल्कि घोर मानसिक परिश्रम के लिए हैं। इन पदों को स्वीकार करनेवाले बहुत से लोग तो कठिन परिश्रम करते करते अकाल ही काल के गाल में जा पड़तेहैं।

यदि पूर्णता उत्तम कार्य के लिए एक आवश्यक अंग है, तो क्रम व्यवस्था भी उससे कुछ कम आवश्यक नहीं है। सच तो यह है कि उसके बिना पूर्णता आ ही नहीं सकती। युवा पुरुषों को सबसे बढ़कर तो यह बात समझ रखनी चाहिए कि यदि उन्हें काम अच्छी तरह से करना है तो वे एक समय में एक ही काम करें और सबसे पहले उस काम को करें जो सबसे अधिक आवश्यक हो। सारांश यह कि उन्हें जो काम करना हो उसका एक अन्दाज बाँध लें और यह देख लें कि उसके कौन से अंश ऐसे हैं जो जरूरी हैं और कौन से ऐसे हैं जिन्हें वे थोड़ी देर के लिए टाल सकते हैं। इसके अनन्तर जो अंश सबसे कठिन हो, उसके लिए अधिक समय और परिश्रम रक्खें। शैली ही कार्य की उत्तमता का मूल मन्त्र है। इससे मेरा अनुरोध है कि वे नित्य अपने काम का एक नियम बाँध लें और विश्राम के लिए भी उपयुक्त समय रख लें। मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं कि वे इन नियमों को ब्रह्मा की अटल लीक बना लें; क्योंकि इस प्रकार की बेड़ी डाल लेना बुध्दिमानी नहीं है। मेरा अभिप्राय यह है कि वे अपनी सुविधा के अनुसार ऐसा नियम कर लें कि काम नियमित गति से बराबर चला चले और नष्ट न हो। जब वे देखेंगे कि उन्नति के लिए कितना कम समय उनके हाथ में है, तब वे आप उसे व्यर्थ के आमोद प्रमोद में नष्ट करना न चाहेंगे। बहुतेरे युवा पुरुषों को नित्य नौ नौ घण्टे काम करना पड़ता है और यदि उनका काम ऐसा हुआ जिससे ऊबे, तो उन्हें कम से कम एक घण्टा नित्य व्यायाम के लिए रखना ही होगा। इस प्रकार दस घण्टे तो निकल गए। नित्य-क्रिया करने, सोने, घर की देखभाल आदि करने के लिए भी नौ घण्टे रख लेने चाहिए। एक घण्टा भोजन के लिए चाहिए। इस हिसाब से चार घण्टे पढ़ने लिखने और मन बहलाने के लिए बचे। अब यदि इन चार घण्टों का उचित उपयोग किया जाय, तो एक तत्पर पुरुष बहुत कुछ उन्नति कर सकता है। पर यह ध्याखन रखना चाहिए कि इसमें उसे सोचविचार में नष्ट करने के लिए समय न मिलेगा कि अब इसके उपरान्त क्या क्या करना चाहिए। अत: उसे पहले ही से सब निश्चित कर रखना चाहिए कि किसके बाद कौन काम करना होगा; जिसमें वह चट एक काम छोड़कर दूसरे में लग जाय। क्रम-व्यवस्था के इस सिध्दान्त का उपयोग वह अध्यकयन ही में नहीं, कामकाज में भी करे। इससे होगा क्या कि उसे अपने भिन्न भिन्न कार्यों में कोई कठिनाई नहीं होगी और उसका चित्त ठिकाने रहेगा, वह उस हैरानी से बचा रहेगा जो अव्यवस्थितों को हुआ करती है। उसके सब काम एक ढर्रे पर चले चलेंगे, उनमें व्यतिक्रम न होगा। यदि कोई अजानकार किसी बड़े स्टेशन पर जाय, तो उसे पहले वहाँ का गोरखधन्धा कुछ समझ में न आवेगा, सब बातें व्यवस्थाहीन दिखाई देंगी। वह इधर उधर बहुत सी गाड़ियों को, जिनमें से किसी में मुसाफिर भरे होंगे, किसी में माल लदा होगा, कोई खाली होगी, आते जाते देखेगा और सोचेगा कि न जाने क्यों ये लड़कर चूर चूर नहीं हो जातीं। पर जब वह वहाँ कुछ देर ठहरकर एक एक बात को ध्या न से देखेगा, तब उसे क्रम और व्यवस्था का पता लगेगा और वह जानेगा कि प्रत्येक ट्रेन के लिए अलग अलग लाइन है, प्रत्येक के आने-जाने का समय नियत है और प्रत्येक की चाल बँधी हुई है। अर्थात् उसे विदित होगा कि सारा व्यापार पूर्वनिश्चित नियम और व्यवस्था के अनुसार होता है और कोई बात 'संयोग' के ऊपर नहीं छोड़ दी गई है। जब वह इतना जान लेगा, तब उसे समझ पड़ेगा कि प्रत्येक मनुष्य जो वहाँ काम में लगा दिखाई पड़ता है, क्योंकर अपने काम को बिना किसी घबराहट के बेधड़क करता चला जाता है; तब वह सोचेगा कि यह सब सुन्दर व्यवस्था का फल है कि लोग इतने बेखटके रहकर शान्ति के साथ अपना अपना काम करते जाते हैं। बहुत से कामों को एक साथ जरूरी समझने से-रह रहकर कभी इस काम को अधिक जरूरी समझने से और कभी उस काम को-जो गड़बड़ी होती है, उसका बचाव क्रम और व्यवस्था पर ध्याकन देते रहने से हो सकता है। क्रमव्यवस्था के लिए धैर्य अत्यन्त आवश्यक है। यदि धैर्य से काम लिया जायेगा तो क्रम व्यवस्था सुगमता से आ जायगी; और यदि क्रमव्यवस्था आ गई तो वह अधीरता के पास न फटकने देगी, शान्ति बनाए रहेगी।

यदि क्रमव्यवस्था का पूरा ध्याान रखा जायेगा तो यह अवश्य है कि हर एक काम ठीक समय पर होगा। किसी काम में जल्दी करना भी उतनी ही मूर्खता की बात है जितना किसी काम में देर करना। दोनों अवस्थाओं में समय नष्ट होता है, प्रबन्ध में गड़बड़ी होती है तथा अव्यवस्था और अनिश्चितात्मकता उत्पन्न होती है। कोई युवक एक राजमन्त्री के पास नौकरी के लिए गया। उसने उससे दूसरे दिन दस बजे सबेरे आने के लिए कहा। वह हड़बड़ी के मारे साढ़े नौ ही बजे मन्त्री के डेरे पर पहुँचा। पर जब वह मन्त्री के सामने गया, तब उसने मन्त्री का रुख बिलकुल बदला हुआ पाया। मन्त्री ने उसे बहुत ऊँचा-नीचा सुनाया और कहा-'मूर्ख ही उतावली करते हैं, तुम यहाँ से चले जाओ।' केवल राजपुरुष ही नहीं, सब लोग जो बड़े बड़े काम करते हैं और बड़ी बड़ी बातें सोचते हैं, घण्टों और मिनटों का ठीक ठीक हिसाब रखते हैं। मान लीजिए कि उन्होंने 'अ' को दस बजे बुलाया और 'ब' को ग्यारह बजे। 'ब' को चाहिए कि वह ठीक समय पर उनके पास जाय। यदि वह ऐसा न करके उस समय उनके पास जायेगा जो समय उन्होंने 'अ' से मिलने के लिए रखा है, तो न उन्हीं का कोई लाभ होगा और न उसी का कोई काम निकलेगा। मैंने ऐसे बहुत से असंयमी और अव्यवस्थित लोगों को देखा है जो बहुधा यात्रा किया करते हैं और समय से घण्टा आधा घण्टा पहले ही तैयार होकर स्टेशनों पर जाकर इधर से उधर टहला करते हैं। मनुष्य के कार्य जितने उतावली से नष्ट होते हैं, उतने और किसी वस्तु से नहीं। यदि कोई मनुष्य किसी कार्य के एक अंश में ही बहुत सा समय नष्ट कर देगा, तो उसे और अंशों को पूरा करने के लिए उतना समय न रह जायेगा जितना चाहिए। महाराणा प्रतापसिंह मृत्युशय्या पर पड़े थे। उस समय उन्हें किसी बात पर इतना दु:ख नहीं हुआ जितना अपने पुत्र अमरसिंह की उतावली पर। वे कहते हैं-

एक दिवस एहि कुटी अमर मेरे ढिग बैठयो।

इतने ही में आनि एक मृग तहाँ जु पैठयो।।

हरबराइ संधानि सर अमर चल्यो ता ओर।

कुटिया के या बाँस में फँस्यो पाग को छोर।।

अमर तौहू न रुक्यो।।


बढ़न चहत आगे वह पगिया खैंचत पाछे।

पै नहिं जिय मैं धीर छुड़ावै ताको आछे।।

पागहु फटी सिकारहू लग्यो न याके हाथ।

पटकि पागि लखि झोपड़िहि अतिहि क्रोध के साथ।।

वैन मुख ते कढ़े।।

रहु रहु रे निर्बोधा अमर गति रोकनहारे।

हम न लेहिंगे साँस बिना तोहि आज उजारे।।

राजभवन निर्मान करि तेरो चिद्द मिटाइ।

जो दुख पाए तोहि मैं सो दैहौं सबै भुलाइ।।

सुखद आवास रचि।।

तबहीं ते ये बैन सूल सम खटकत मम हिय।

यह परि सुखवासना अवसि दुखदिवस बिसारिय।।

अति अमोल स्वाधीनता तुच्छ विषय के दाम।

बेचि, सिसोदिय कीर्ति यह करिहै अवसि निकाम।।

रुके हम सोच एहि।।

योरोप के एक प्रसिध्द राजनीतिज्ञ के विषय में भी एक घटना प्रसिध्द है जिससे यह पता लगता है कि वह उतावली से कितना चिढ़ता था। उसने कुछ धर्मसम्बन्धी कागज पत्र लिख छोड़े थे और कहा था कि मेरे मरने के दिन इन्हें धर्माचार्य पोप के पास भिजवा देना। उसे मृत्युशय्या पर देख उसके मरने के दिन के पहले ही लोगों ने उससे पूछा-क्या ये कागज पोप के पास भेज दिए जायँ? उसने कहा-'नहीं, अभी कल तक और ठहरो। मैंने अपने जीवनभर उतावली कभी न करने का नियम कर लिया था और मैं सब काम ठीक समय पर करता था।' नीतिज्ञों का यह कथन है कि 'बहुत सोच विचार समय का अपहरण करनेवाला है।' पर उतावली भी ऐसी ही है। बुध्दिमान् मनुष्य समय का ठीक ठीक हिसाब के साथ विभाग करके इन दोनों से अपने को बचाता है। क्रम और व्यवस्था सफलता के मूल मन्त्र हैं। सब कार्य सुचारु रूप से और सुव्यवस्था के साथ होने चाहिए।

उस युवा पुरुष को जिसे अपनी जीविका के लिए काम करना पड़ता हो, केवल पूर्णता और सुव्यवस्था ही का ध्याीन न रखना चाहिए, बल्कि उसे सन्तोषी भी होना चाहिए। मेरे कहने का यह तात्पर्य नहीं कि उसे अपनी उन्नति के लिए यत्न न करना चाहिए, उसे अपनी शक्ति और योग्यता का अपनी समृध्दि के लिए उपयोग न करना चाहिए। मेरा मतलब यह है कि जो काम वह करता हो, उसे अपनी शान के खिलाफ न समझे। आजकल के नवयुवकों में यह बड़ा भारी दोष देखा जाता है कि वे अपने को बहुत बड़ा समझने लगते हैं। अपनी बड़ाई के आगे जिस पेशे को वे करते हैं, उसे तुच्छ समझते हुए वे उससे उदासीन रहते हैं और ऐसी चेष्टा प्रकट करते हैं कि मानो यह बड़ा भारी अन्धेुर हो रहा है जो उन्हें वह काम करना पड़ रहा है। यह दशा देखकर बड़ा खेद होता है, क्योंकि इससे नैतिक त्रुटि का आभास मिलता है। इससे यह प्रकट होता है कि उनका मन काम में नहीं लगता, उनमें अपने कर्तव्यै का पूरा भाव नहीं है और वे सत्य और मर्यादा के सिध्दान्तों को नहीं समझते। जिस काम को हम अपने ऊपर लें, चाहे वह जैसा हो, हमारा यह धर्म है कि हम उसे अपनी योग्यता के अनुसार भरसक करें। किसी काम को हम क्यों करें, इसका यही उत्तर यथेष्ट है कि हमें उसे करना है। कृष्ण भगवान् ने गीता में प्रसन्नतापूर्वक कर्म में प्रवृत्त होने का उपदेश दिया है। जिस समय अर्जुन मोहवश कर्म से विमुख होना चाहते थे, श्रीकृष्ण ने उन्हें सँभाला था, उनकी क्लीवता पर उन्हें धिक्कारा था। इंग्लैण्ड में कार्लाइल नामक प्रसिध्द ग्रन्थकार हो गया है जो अपने जीवन भर कर्म का महत्तव ही समझाता रहा, सच्चे परिश्रम की पवित्रता ही का उपदेश देता रहा कि मनुष्य को यह विचार नहीं करना चाहिए कि वह किस प्रकार का व्यवसाय वा काम करता है; उसे यही देखना चाहिए कि वह अपने काम को किस प्रकार करता है। उसका उपदेश अरण्यरोदन के समान हुआ। उसने कहा-'मैं दो ही आदमियों का सम्मान करता हूँ, तीसरे का नहीं। एक तो परिश्रम में चूर कर्मकार का जो पृथ्वी ही की सामग्रियों से अपने परिश्रम द्वारा पृथ्वी पर मनुष्य का अधिकार स्थापित करता है। मैं उन काम में लगे हुए कड़े खुरखुरे हाथों का आदर करता हूँ जिनमें निपुणता मिली हुई सात्विकता का भुवनव्यापी राजमुकुट रखा हुआ है। मुझे उस धूप और शीत खाए हुए धूलधूसरित मुखड़े पर भक्ति है जिससे सीधीसादी बुध्दि टपकती है; क्योंकि वह पुरुषार्थी पुरुष का मुखड़ा है। परिश्रम किए चलो, परिश्रम किए चलो! तुम अपनेकर्तव्यष में लगे रहो। जिसका जी चाहे उससे विमुख हो; तुम उसमें लगे रहो। तुम संसार में सबसे अधिक आवश्यक वस्तु, अपनी रोटी, कमाने के लिए परिश्रम कर रहे हो। दूसरा मनुष्य, जिसकी मैं प्रतिष्ठा करता हूँ, और बहुत बढ़कर प्रतिष्ठा करता हूँ, वह है जो अपने शरीरपोषण के लिए नहीं, बल्कि आत्मा की पुष्टि के लिए परिश्रम करता है। यदि कहीं मैं इन दोनों सम्मानित व्यक्तियों के लक्षण और गुण एक ही पुरुष में पाता हूँ जो बाहर से तो मनुष्य की सबसे पहली आवश्यकतापूर्ति के लिए और अन्त:करण में मनुष्य की सबसे उच्च आवश्यकता पूरी करने के लिए, श्रम करता है, तो मेरा हृदय उमगने लगता है।'

भक्तों में रैदास चमार का नाम बहुत प्रसिध्द है। उसमें पुरुषत्व के दोनों लक्षण वर्तमान थे। वह आध्याचत्मिक उन्नति के लिए प्रयत्न करता हुआ अपने चमड़े के काम में भी दिन-रात लगा रहता था। जब जाड़े की रात में और चमार अपना-अपना काम बन्द करके पड़ रहते, तब भी रैदास भगवान् का भजन करता हुआ, उत्साह के साथ चमड़े की काटछाँट और सिलाई करता रहता था। अपने काम से जो थोड़ा बहुत अवकाश मिलता, उसे वह साधुओं के सत्संग में बिताता था। एक बार उसके यहाँ कुछ साधु आए। उन्होंने देखा कि उसकी दुकान पर इधर उधर चमड़े के कटे हुए टुकड़े पड़े हैं, एक किनारे पर ठाकुर जी का छोटा सा सिंहासन रखा हुआ है और वह सिर नीचा किए चमड़े में डोभ लगा रहा है। महाभारत में धर्मव्याधा की कथा भी इसी प्रकार की है। एक बार जब कौशिक नामक एक मुनि को मोह हुआ, तब वे ज्ञानोपदेश के लिए मिथिला में धर्मव्याधा के पास आए और उन्होंने देखा कि वह दुकान पर भाँति भाँति के पशु-पक्षियों के मांस रखकर बेच रहा है; और ग्राहकों की भीड़ लगी हुई है। मुनि ने यह देखकर पूछा-'तुम इतने ज्ञानवान् होकर इस काम में क्यों लगे हो?' धर्मव्याधा ने उत्तर दिया-'महाराज! यह मेरा कुलधर्म है, यह मेरा लौकिककर्तव्यग है; इसे मैं नहीं छोड़ सकता। मनुष्य को अपने लौकिक कर्मों को पूर्ण रीति से निर्वाह करते हुए सात्विकशीलता सम्पादन करनी चाहिए। मैं अपने व्यवसाय में लगा रहता हूँ और इस बात का प्रयत्न करता हूँ कि झूठ न बोलूँ, अन्याय न करूँ; सन्मार्ग पर चलूँ।” इंगलैण्ड में मिलर नाम का एक प्रसिध्द पुरुष हो गया है जो संगतराश का काम करता था। कभी कभी वह जाड़े के दिनों में ठण्डी हवा के झोंके खाता हुआ घुटने घुटने पानी में खड़े होकर अपनी टाँकी चलाता, पर उसके मुँह से आह न निकलती। धीरे धीरे वह अपने काम में इतना निपुण हो गया कि उसके साथी उसके गुण को देख दाँतों में उँगली दबाते। अपने काम से जो अवकाश का समय मिलता, उसे वह आत्मोन्नति में लगाता। उसने अपने बहुत से साथियों को सम्मिलित करके एक समाज खोला जिसकी ओर से हाथ से लिखे हुए पत्र सम्पादित होते, जिनमें अच्छे अच्छे निबन्धा रहते थे। उसमें दोनों पुरुषों के लक्षण थे जिनका ऊपर उल्लेख हुआ है। वह अपनी जीविका के लिए भी भरपूर मिहनत करता था और आत्मोन्नति के लिए भी। जितना सुखी वह था, उतने वे लोग कभी नहीं हो सकते जो किसी काम को अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। उसने अपने एक मित्र को एक बार लिखा था-'थोड़ी देर के लिए यहाँ आकर देख जाओ कि कैसे स्थान से मनुष्य सुखी रह सकता है। छाजन के छेदों में से, जो सुन्दर झिलमिलियों का काम देते हैं, धूप छन छनकर आती है। कोठरी में दो खिड़कियाँ हैं जिनमें से एक में तो सादा चौखट लगा हुआ है और एक में घास-फूस-पत्थर भरा हुआ है। एक कोने में एक गङ्ढे में आग रखी है जिसके ऊपर भोजन पकाने का बरतन लटक रहा है। धुऑं छत के छेदों से और खिड़कियों की राह से निकल रहा है। अनाज का बोरा खूँटी पर लटकाया हुआ है, जहाँ चूहे नहीं पहुँच सकते। हम लोगों के सामान का क्या कहना है! पत्थर की दो मोटी पटियाँ बैठने के लिए मजबूत से मजबूत कुरसियों का काम दे रही हैं। बिस्तर भी अपने ढंग से निराला ही है। यह पुराने किवाड़ों पर पयाल बिछाकर बनाया गया है। बरतन भी एक बटलोही और एक काठ की कठवत के सिवा और कुछ नहीं है। आटे, दाल, लकड़ी सबका खर्च मिलाकर आठ आने रोज से अधिक नहीं है। संसार का सुख चाहे लोग जहाँ समझें, पर मैं यहाँ पूरे सुख के दिन बिताता हूँ।'

अपने काम में सन्तुष्ट रहने ही के गुण के कारण और देशों के लोग, जो सच्ची मिहनत में कोई शर्म नहीं समझते, हिन्दुस्तानियों की अपेक्षा बहुत जल्दी बढ़ते हैं। जबकि एक मध्यईम श्रेणी का हिन्दुस्तानी नवयुवक इस आसरे में खड़ा ताकता रहता है कि कोई ऐसा काम मिले तो करूँ जिससे समाज में तथा अपने मेल के लोगों में मेरी हेठी न हो। दूसरे देश का आदमी जो काम उसके सामने आता है, उसे कर चलता है और अच्छी तरह से करता है; और इस प्रकार क्रमश: एक सीढ़ी से दूसरी सीढ़ी पर चढ़ता हुआ, संसार का अनुभव और जानकारी प्राप्त करता हुआ, अपने को बड़े बड़े कामों के योग्य बना लेता है। वह बराबर बढ़ता चलता जाता है और हिन्दुस्तानी खड़ा मुँह ताकता रहता है। दूसरे देश का आदमी यदि आवश्यकता पड़ती है तो छोटे से छोटे काम कर लेता है और इस बात की शर्म नहीं करता कि लोग उसे उस काम को करते देख क्या कहेंगे। वह कुछ करने की अपेक्षा कुछ न करना अधिक लज्जा की बात समझता है। जो कुछ वह करता है, उसे अच्छी तरह लिप्त होकर जी-जान से करता है और उसे अपनी शान के खिलाफ नहीं समझता। हिन्दुस्तानियों में अपनी शान बनाए रखने का रोग बड़ा भारी है। इनमें से बहुतेरे लोग चाहे भूखों मरेंगे, पर ऐसा काम न करेंगे जिसमें वे अपनी हेठी समझते हैं। वे कहेंगे-'भूखा सिंह कहीं घास खाता है?' बहुत से लोग ऐसे हैं जो यदि सौदागरी करें, जिल्दबन्दी करें, घड़ी साजी करें तो बहुत अच्छा काम कर सकते हैं और बहुत कुछ सन्तोष और सुख प्राप्त कर सकते हैं। पर वे 10) या 15) की मुहर्रिरी को बड़ी भारी इज्जत समझते हैं और झट उस गुलामी के लिए मुँह के बल गिरते हैं। इस प्रकार से तन और मन से पूरे दास हो जाते हैं; क्योंकि चिट्ठियों की नकल करते करते और अंकों को जोड़ते जोड़ते उनकी विचार शक्ति क्षीण हो जाती है और उनके अन्त:करण में जो प्रतिभा वा शुध्दता रहती है, सब निकल जाती है। मुझे इस बात पर आश्चर्य होता है कि इस देश के लोग अपनी ऑंखों से और देशों को व्यापार और कारीगरी द्वारा बढ़ते देखकर भी किस प्रकार उद्योग और धान्धाों को तुच्छ दृष्टि से देखते हैं! कोई कारण नहीं कि कचहरी का एक मुचड़ईँ मुहर्रिर वा क्लार्क अपने को एक चलतेपुरजे कारीगर से बढ़कर समझे। यदि सच पूछिए तो एक कारीगर का काम एक मुहर्रिर के काम से अधिक विचार और बुध्दि का है। हाथों में स्याही पोतना बारीकी के साथ टाँकी चलाने से क्यों बढ़कर प्रतिष्ठित समझा जाय? लोग कह सकते हैं कि एक मुहर्रिर का उठना बैठना जरा और तरह के लोगों के साथ होगा। पर ये और तरह के लोग अधिकांश कैसे होते हैं? छोटे छोटे नए मुहर्रिरों को कैसे साथी मिलेंगे वे ही न जो बैठकर हा हा ठी ठी करते हैं, ताश खेलते हैं और बाजारों में मुजरे सुनते फिरते हैं? यदि वे ऐसे ही हैं और उनका आनन्द इसी प्रकार का है, तो वे बहुत ही ओछे विचार और निकृष्ट बुध्दि के हैं। पर यदि आप बड़े बड़े कारखानों और कार्यालयों में जाकर देखिए तो आपको गुण में, अनुभव में, सच्चाई में, ईमानदारी में, उनसे बढ़चढ़ कर लोग मिलेंगे जो नजारत के दफ्तरों और वकीलों के डेरों पर मिलते हैं। अपने अपने कामों में लगे हुए उन गुणी पुरुषों के विचार कहीं ऊँचे होंगे, उनमें आत्ममर्यादा का भाव कहीं अधिक होगा।

अस्तु; मैं अपने नवयुवक पाठकों को यह सम्मति देता हूँ कि जो काम उनके सामने आवे उसे वे करें, यदि उन्हें इस बात का निश्चय है कि वे उसे अच्छी तरह से कर सकेंगे। चाहे जो काम हो, वे अपने अध्य वसाय और गुण के बल से उसे उच्च और प्रतिष्ठित करके दिखला सकते हैं। एक बार किसी सरदार का कोई सम्बन्धी हत्या के अपराधा में पकड़ा गया। सरदार ने बादशाह से जाकर कहा-'यदि उसे फाँसी होगी तो हमारे कुल के लिए अप्रतिष्ठा की बात होगी।' बादशाह ने उत्तर दिया-'अप्रतिष्ठा की बात अपराधा है, दण्ड नहीं।' अत: यह बात निश्चय समझो कि किसी काम में अप्रतिष्ठा नहीं होती; बल्कि जिस ढंग वा भाव से वह किया जाता है, उससे अप्रतिष्ठा होती है। दुकानदारी, मुहर्रिरी, कारीगरी-कोई काम हो-तुम अपनी सादी रहन और उच्च विचार से अपने पेशे को प्रतिष्ठित बना सकते हो। तुम उस काम को अपना काम समझकर प्रसन्नतापूर्वक उत्साह के साथ किए चलो, इस बात की परवाह न करो कि दुनिया उसे कैसे समझती है। परवाह तुम केवल इस बात की रखो कि तुम अपना कर्तव्यै भलीभाँति कर रहे हो या नहीं। इस रीति से आत्मा में शान्ति और सन्तोष स्थापित करते हुए और चुपचाप अपनी जानकारी बढ़ाते हुए तुम अपने को निरन्तर अधिक योग्य बनाते रहो; और जब दूसरे उच्च पथ पर बढ़ने का अवसर आवे, तब चट उस पर हो जाओ।

तुम्हारे लिए एक और अच्छी बात यह होगी कि तुम अपने व्यवहार और कामकाज में भद्रता का भाव लाओ, वह शिष्टता और विनय दिखलाओ जो तुमने घर में और समाज में रहकर सीखी है। यदि सब लोग मिलकर आपस में रगड़े झगड़े मिटाकर शान्ति के मार्ग का अवलम्बन करें और उसके कंटकों को दूर करें तो जीवन का व्यापार कितना सुगम हो जाय! यदि कार्य में लगे हुए सब लोग मृदुलता के मन्त्र का प्रयोग करें तो वह कार्य बड़ी सुगमता और बड़े आनन्द के साथ हो। क्लार्क वा कारीगर होकर भी मनुष्य भलामानुस हो सकता है और अपने साथियों, मालिकों तथा उन सब लोगों के साथ जिनसे काम पड़ता है, उस मृदुलता का व्यवहार कर सकता है जो चित्त के उत्तम संस्कार और हृदय की उदारता से उत्पन्न होता है। एक प्रसिध्द राजनीतिज्ञ ने अपने पुत्र को शिक्षा देते समय मृदुलता का लक्षण 'छोटी-मोटी बातों में उदारता अर्थात् जीवन के नित्य प्रति के छोटे-मोटे व्यापारों में दूसरे का ध्याछन पहले और अपना पीछे रखना, ही बतलाया है। यही मृदुलता है जो युवा पुरुष के जीवन में उसके नित्यप्रति के व्यवहार में एक नए आनन्द का संचार करती है। क्या दफ्तर में, क्या कारखाने में, उसके दृष्टान्त का बड़ा भारी प्रभाव पड़ता है और ऐसे बहुत से झगड़े बखेड़े जिनमें निर्बल लोगों को सबल लोगों से हानि पहुँच जाया करती है, नहीं उठते पाते। सच्ची मृदुलता उन लोगों की छोटी मोटी आवश्यकताओं की ओर ध्या,न देने में है जो हमारे साथ हैं। यह बात अभ्यास से आती है। लम्बे चौड़े सलाम करना, अदब-कायदे बर्तना, हाँ जी, हाँ जी करना मृदुलता नहीं है। मृदुलता सरल, स्वाभाविक और पुरुषार्थपूर्ण होनी चाहिए। ये बातें तभी आ सकती हैं जब हमारा हृदय उदार हो और हम निरन्तर उनके प्रति कोमल चेष्टा प्रदर्शित करते रहने का उद्योग करें जिनके साथ हमें बातचीत करना वा रहना पड़ता है।

भद्रता एक ऐसा गुण है जिससे सब लोग मोहित हो जाते हैं। मैं एक बार एक सरकारी दफ्तर में था जहाँ एक दीन सुकुमार स्त्री किसी काम के लिए खड़ी थी। वह बहुत दूर से चलकर आई थी और उसकी आकृति से जान पड़ता था कि वह दरिद्रता के घोर दु:ख से दबी हुई है। वह थकी माँदी और मुरझाई हुई बड़ी देर से आसरे में खड़ी थी और क्लार्क लोग आराम से टाँग फैलाए कुरसियों पर बैठे थे। जैसा कि सब जगह के क्लार्कों का दस्तूर है, उन्हें उसके काम को झटपट भुगता देने की कुछ भी परवाह न थी। वहाँ कोई चौकी वा तिपाई भी न थी। जिस पर वह बैठ जाती। मैं अपने मन में उसकी सहायता करने का विचार कर ही रहा था कि इतने में एक नवयुवक क्लार्क कुछ सकुचाता हुआ उठा और उसने अपनी कुरसी को ऍंगीठी के पास ले जाकर उस स्त्रीत को बैठने के लिए कहा। इतना करके फिर वह अपनी जगह पर चला आया। मैंने देखा कि उसके साथी उसके इस कार्य को मन ही मन सराह रहे हैं। यद्यपि उनमें परोपकार में तत्पर होने की बुध्दि नहीं थी, पर परोपकार को सरहाने की बुध्दि थी। इसके उपरान्त मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि उन सभों ने जो पहले उसकी ओर कुछ भी ध्या न नहीं देते थे, चटपट उसका काम कर दिया। सज्जनता का ऐसा प्रभाव पड़ता है! मैंने संवादपत्रों में पढ़ा था कि एक बार एक स्टेशनमास्टर को एक वृध्दा स्त्रीप से अचानक बहुत सी सम्पत्ति प्राप्त हुई थी। उस स्टेशनमास्टर ने उस स्त्रीत के साथ कभी कुछ मृदुलता का व्यवहार किया था। मेरा अभिप्राय यह नहीं कि मेरे नवयुवक पाठक इस प्रकार के पुरस्कार के लाभ से इस गुण का सम्पादन करें। उनके लिए सबसे बढ़कर पुरस्कार तो वह सच्चा आनन्द है जो शिष्टता के प्रत्येक व्यवहार से प्राप्त होता है, जो दया का आचरण करने और कृपापूर्ण वचन बोलने से प्राप्त होता है। मैं एमर्सन की भाँति यह तो नहीं कहता कि मैं अशिष्ट और बेढंगी चाल ढाल के आदमी के साथ बैठने की अपेक्षा ऐसे आदमी के साथ मजे में बैठ सकता हूँ जिसमें सत्य और शास्त्रमर्यादा का भाव न हो, पर इतना अवश्य कहता हूँ कि शिष्ट और सभ्य व्यवहार से सत्य और भी चमक उठता है। सभ्य और असभ्य आचरण की परख यह बताई गई है कि एक से मेल जोल बढ़ता है और दूसरे से घटता है। मेल जोल में कार्यनिर्वाह सुगम होता है। इससे प्रत्येक स्थान पर भद्रता कितनी आवश्यक है, यह समझने की बात है.