सांस्कृतिक कर्म / मुकेश मानस

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हमारे देश में छोटे-बड़े सैकड़ों सांस्कृतिक संगठन मौजूद हैं। राजनीति और संस्कृति के बारे में उनकी समझ के रंग, मानदंड और आधार भी भिन्न हैं। इतनी विविधता के बावजूद सभी संगठन अपना उददेश्य जन-जन को जागृत करना ही बताते हैं। इतने सांस्कृतिक संगठनों के प्रयासों के बावजूद समाज में कोई सांस्कृतिक उत्थान नजर नहीं आता। हालत ये है कि लोगों के सांस्कृतिक पतन का नारा भी यही संगठन लगाते हैं। इस स्थिति को देखकर किसी भी समझदार और संवेदनशील आदमी को यह समझने में देर नहीं लगनी चाहिए कि कहीं न कहीं इस पूरे परिदृश्य में ही कोई न कोई गड़बड़ जरूर है।

आजकल ऐसे संगठनों की कमी नहीं है जो राजनीति और संस्कृति को अलग-अलग चीजें मानते हैं। इनके लिए राजनीतिक कर्म एक बात है तो सांस्कृतिक कर्म दूसरी। दोनों में कहीं मेल-मिलाप नहीं। इस तरह के संगठनों में से अधिकतर सरकारी संगठन हैं। इनके पास अकूत आर्थिक स्रोत व सुविधाएं हैं। इसके बावजूद इनका कर्म क्षेत्रा एकदम सीमित और संकुचित है। इस तरह के संगठन अपने कामों के ज़रिए लोगों की रूढ़ियों को और बढ़ाने व उनकी समझ को और भोंथरी करने का ही काम करते हैं। कहीं-कहीं इनकी भूमिका प्रगतिशील भी होती है किन्तु अपने समग्र रूप में इनकी भूमिका सरकारी प्रचारतत्र का हिस्सा बने रहने की ही है। यह एक सच्चाई है कि जिस सांस्कृतिक संगठन ने एक ज़माने में दहेज विरोधी प्रचार किया था उसी ने राजस्थान के गांवों में घूम-घूमकर परमाणु बम के समर्थन में नाटक किए।

दरअसल, इस तरह के सांस्कृतिक संगठन सरकार और सरकारी मशीन के पुछल्ले होते हैं। वे सांस्कृतिक कर्म को सरकार की नीतियों और कार्यों की प्रशंसात्मक नाटयात्मक, काव्यात्मक और कलात्मक अभिव्यक्ति मानते हैं। जिस प्रकार की विचारधारा और राजनीति वाली सरकार देश की गददी पर बैठती होती है वे उसी प्रकार की मानसिकता से लैस संस्कृति का प्रचार करने लगते हैं। इनको जनता की उन मुसीबतों से कोई मतलब नहीं होता जो अंतत: सरकार की गलत नीतियों के परिणामस्वरूप उसको झेलनी पड़ती हैं। इसलिए अपने समग्र परिणाम के रूप में यह संगठन जन विरोधी ही साबित होते हैं।

आज नज़र उठाकर देखें तो अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों से जुड़े सांस्कृतिक संगठन भी बहुत नजर आएंगे। हर पार्टी का अपना एक सांस्कृतिक संगठन दिखाई देता है जो उस पार्टी की विचारधारा और तंत्र से जुड़े होते हैं। वास्तव में ये पार्टी की उपशाखा के रूप में काम करते हैं। इनका मुख्य काम पार्टी की विचारधारा, नीतियों और कायो± का प्रचार करना होता है। आम जनता और सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली साम्यवादी राजनीतिक पार्टियों के भी लेखक व सांस्कृतिक संगठन मौजूद हैं। साम्यवादी राजनीतिक विचारों से लैस यह संगठन भी आज मौजूदा सांस्कृतिक ठहराव को तोड़ पाने में नाकामयाब साबित हो रहे हैं। ये भी लोक संस्कृति और जनचेतना के संवाहक नहीं बन पा रहे हैं। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की भूमिका काफी संघर्षशील रही किन्तु आजाद भारत में यह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उपशाखा के रूप में काम करने लगा। पार्टीगत नीतियों से संचालित होने के कारण यह धीरे-धीरे संकुचन का शिकार होकर बिखर गया। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से संबंध सांस्कृतिक संगठन ने भी आजाद भारत में को व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष छेड़ा। इसने लोगों की चेतना विकसित करने और उसे जुझारू रूप प्रदान करने में काफी मेहनत की। किन्तु यह भी पार्टी की संकीर्ण नीतियों में फंसकर कमजोर होता गया। यह भी देखने में आता है कि इन संगठनों में व्यापक सांस्कृतिक कर्म की दृष्टि वाले लोकप्रिय सांस्कृतिक कर्मियों को नेतृत्व के शीर्ष पर रखने की बजाय ठेठ राजनीतिक कर्मियों को रखा जाता है जिससे सारा का सारा सांस्कृतिक क्षेत्र पार्टी की राजनीति से संचालित होने लगता है और सांस्कृतिक कार्य महज राजनीतिक मुहावरों का शिकार होता चला जाता है।

देखने में यह भी आता है पार्टियों से जुड़े और पार्टियों के लीडरों के ऐसे संगठनों के नेतृत्व के शीर्ष पर होने से सांस्कृतिक महज उत्सवधर्मी होता जाता है। विभिन्न विशेष दिवसों पर ही सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं और जीवन के अनेक पहलुओं पर सांस्कृतिक कर्म की आवश्यकता की उपेक्षा की जाती है। राजनीति को सीधे-सीधे लोगों तक पहुंचाना ही ये सांस्कृतिक कर्म का उददेश्य मानते हैं। इसलिए राजनीतिक मुहावरे उन तक सीधे-सीधे पहुंचाए जाने के कलात्मक प्रयास ही सांस्कृतिक कर्म की इतिश्री मान लिए जाते हैं। यह भी अजीब विडम्बना ही है कि जो लोग नाटक में किरदार निभाते हैं, वही राजनीति भी करते हैं। वही इनकी पत्रिकाओं के सम्पादक भी होते हैं। नतीजतन, साम्यवादी विचारों को जीवन के विभिन्न संदर्भों में पिरोकर पेश करने वाले, उन्हें व्यापक धरातल पर प्रस्तुत करने वाले कवि, लेखक, गायक, चित्रकार और नाटयकर्मी इन संगठनों में सामने नहीं आ पाते हैं। यदि दिखते भी हैं तो अधकचरे और अपूर्ण रूप में, जिन्हें न राजनीति की सही समझ होती है और न संस्कृति की।

राजनीति संस्कृति से अलग नहीं होती किंतु सांस्कृतिक कर्म में राजनीतिक उददेश्यों की पूर्ति के लिए ज्यादा व्यापक और गहरे धरातल की आवश्यकता होती है। संस्कृति राजनीति से आगे-आगे चलकर लोगों को उसके आने की खबर देती है और लोगों को प्रेरित करती है कि वे राजनीति को अपने जीवन में गहराई से रेखांकित करें। सांस्कृतिक कर्म को पार्टी संगठन की सीमाओं के भीतर कैद नहीं करना चाहिए और जब-जब ऐसा किया जाता है सांस्कृतिक कर्म सीमित और संकुचित होता जाता है। जिससे राजनीतिक विचारों का प्रचार-प्रसार भी सीमित और संकुचित होता जाता है। परिणामस्वरूप, जनवादी मूल्यों और जन संस्कृति के सम्वाहक कहे जाने वाले संगठन और उनके विचार ठहराव के शिकार हो जाते हैं। आज ऐसे कितने ही जनवादी और प्रगतिवादी संगठन ठहराव के शिकार हो चुके हैं या हो रहे हैं। स्थिति ये है कि इन संगठनों की पहुंच लोगों तक नहीं है और न ही इन्हें आम जनता की वास्तविक स्थिति का अंदाज है। सब के सब अंधे होकर जन संस्कृति के हाथी के अलग-अलग हिस्सों को महसूस कर पूरे हाथी को समझने का भ्रम पाले हुए हैं। आज की दुनिया में चीजें तेजी से बदल रहीं है। कहा जा रहा है कि विदेशी संस्कृति बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के जरिए भारतीय संस्कृति को प्रभावित कर रही है। विदेशी टी.वी. चैनलों के जरिए पाश्चात्य संस्कृति भारतीय संस्कृति पर हावी हो रही है। दूसरी तरफ सामंती अवशेष और पूंजीवादी विकास भी कुसंस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। इस स्थिति में भारतीय संस्कृति में तेजी से हो रहे इन बदलावों को फार्मूलाबद्ध तरीके से न तो समझा जा सकता है। किन्तु विडंबना ये हैं कि हमारे देश की साम्यवादी पार्टियों के बुद्धिजीवी भी फार्मूलाबद्ध तरीके से ही हर समस्या का समाधान निकालने की कोशिश कर रहे हैं।

आज सांस्कृतिक कर्म धुंधलेपन और ठहराव के जिस मोड़ पर खड़ा है उसका समाधान फार्मूलों से नहीं निकलने वाला है। इसके लिए जीवन के हर क्षेत्र में सांस्कृतिक रूझान पैदा करने के लिए छोटे-छोटे सैकड़ों आंदोलनों की उपस्थिति की जरूरत है। सांस्कृतिक कर्म को कविता, नाटक में ही सीमित करके देखने की बजाए जीवन के समूचे संदर्भों में व्यापक रूप में देखने की आवश्यकता है। बदलती हुई दुनिया में सांस्कृतिक कर्म का असली मर्म समझने के लिए नयी आंखों की आवश्यकता है। जनता के पास एकदम निखालिस स्लेट के रूप में जाना पड़ेगा। अन्तरों को पहचानना और उनको भरने का प्रयास करना पड़ेगा। इस ठहराव को समझकर उसे तोड़ने की कोशिश करना ही वास्तविक सांस्कृतिक कर्म होगा। यह निश्चित है कि आगे आने वाले समय में सही सांस्कृतिक कर्म ही भविष्य के राजनीतिक कर्म की व्याख्या करेगा और उसे मजबूती देगा। 2000