साइबरमैन / सुषमा गुप्ता

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साइबरमैन सुकेश साहनी का तीसरा लघुकथा संग्रह है। इसकी सभी लघुकथाएँ अपने आप में मील का पत्थर -सरीखी हैं। लघुकथा लिखने वालों के लिए सुकेश साहनी की लघुकथाएँ एक ट्यूटोरियल की तरह विभिन्न शैलियों का अद्भुत समागम तो होती ही हैं, विविध विषय और कथ्य को कलात्मक रूप में सम्प्रेषित करते अद्भुत शीर्षक उन्हें विशिष्ट बना देते हैं।

‘अथ उलूक कथा’ में ‘उल्लू’ प्रतीक( दिन में न देख पाने वाले) के माध्यम से आज के राजनेताओं की ‘बाँटो और राज करो’ की नीति का रोचक खुलासा हुआ है। ‘ओएसिस’ में बहुत ही रोचक ढंग से इस तथ्य को उजागर किया गया है कि कठोर से कठोर व्यक्ति के भीतर भी अतिसंवेदनशील दिल धड़कता है। ‘बेटी का खत’ में ‘अपने’ ही घर में असुरक्षित बेटियों के सच को बहुत ही मार्मिक अंदाज़ में पेश किया गया है। ‘ईश्वर’ लघुकथा बहुत गहराई लिये हुए है। इससे हमें लघुकथा-प्रस्तुति की ताकत का अहसास होता है, छोटी -सी लघुकथा में पूरे जीवन दर्शन के सत्य को समझा जा सकता है।

‘राजपथ’ लघुकथा ने तो चौंका दिया, उस लघुकथा के नीचे लिखा है कि वह अक्टूबर, 1998 में हंस में प्रकाशित हुई थी, पर पढ़कर ऐसा लगा-जैसे वह अभी ही कुछ साल पहले हुई एक घटना को केंद्र में रखकर लिखी गई हो। क्या इस तरह के राजनीतिक हथकंडे कभी नहीं बदलते !बार-बार दोहराए जाते हैं ! ऐसी रचनाएँ कालजयी कहलाती हैं ।


‘मेढकों के बीच’ का रचनाकाल 98 का है,देखकर हैरानी होती है कि किस प्रकार लेखक आने वाले संकट की आहट को महसूस कर लेता है। अच्छा लेखक भविष्यद्रष्टा भी होता है। यह लघुकथा इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है। पिछले दिनों हमारे देश में गाय को लेकर जो राजनीति हुई,जो मेढक उसमे शामिल हुए, उनसे सचेत करती है यह लघुकथा। खलील जिब्रान की रचनाओं की तरह ये लघुकथा सदैव प्रासंगिक रहेगी; क्योंकि न तो इंसान धर्म( वास्तव में सम्प्रदाय) से ऊपर उठकर मानवता की बात करना सीख पा रहा है, न ही इस चक्रव्यूह से बाहर निकल रहा है। ऐसी लघुकथाओं का लगातार लिखा जाना और पाठकों के बीच पहुँचना बहुत ज़रूरी है।

समाज में इतनी विसंगतियाँ हैं कि उनके चक्रव्युह में हम स्वयं को असहाय महसूस करते हैं। ‘बादल पानी और हवा’ लघुकथा पढ़कर ऐसी ही बेबसी मुझे महसूस हुई। पर्यावरण असंतुलन पर केंद्रित सशक्त लघुकथा हैं।

इस लघुकथा- संग्रह में सुकेश की बहुत ही प्रचलित लघुकथा ‘ श्वान विलाप’ भी है। जिसे जितनी बार भी पढ़ा जाए उतनी बार ही हृदय द्रवित हो उठता है। समाज का एक वीभत्स चेहरा इस लघुकथा के माध्यम से हम सबके सामने हैं । दुःखद बात यह है कि हम अधिकतर लोग इसी समाज का हिस्सा है । हमारी आत्मकेंद्रित सोच पर करारी चोट करती हैं यह लघुकथा।

ऐसी ही एक दूसरी लघुकथा है ‘खेल’ जिसमें छुपी समाज की घिनौनी सच्चाई ने अंतर्मन को हिलाकर रख देती है। इस लघुकथा में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की ‘छदम धर्म निरपेक्षता’ को बेनकाब किया गया है। प्रतीक -चयन में बहुत सजगता बरती गई हैं। यहाँ रेनड्रॉप(वर्षा की बूँद)से अच्छा कोई दूसरा प्रतीक नहीं हो सकता था।

‘दाहिना हाथ’ व्यंग्यात्मक लघुकथा है, इतनी रोचक कि अंत तक बाँधे रखती है। यहाँ ‘दाहिना हाथ’ कर्म का प्रतीक है। यह लघुकथा बहुत ही रोचक अंदाज़ में तथा कथित ‘कर्महीन’ लोगों की ओर ध्यान खींचती है, जो बैठे- बिठाए’ आम जन का शोषण कर ठाठ का जीवन ते हैं।

वर्ष 2005 में लिखी गई ‘साइबरमैन’ लघुकथा मानव- जीवन में ‘साइबर दुनिया’ के हस्तक्षेप को बहुत ही प्रभावी ढंग से पेश करती है। आज बढ़ते क्राइम जो इंटरनेट की दुनिया से हम लोगों की जिंदगी में प्रवेश कर गए हैं और हमारी मानसिकता को गहरा प्रभावित कर रहे हैं, उसका एक बहुत ही सशक्त चित्रण है ‌। यह लघुकथा आपको बहुत देर आत्ममंथन में ले जाकर छोड़ देगी।

‘बॉलीवुड डेज़’ और ‘उतार’ डायरी शैली में लिखी हुई बिल्कुल अलग तरह की लघुकथाएँ हैं। जहाँ ‘बॉलीवुड डेज़’ बढ़ती उम्र के बच्चों पर उनके आसपास के परिवेश किस हद तक असर डालता है यह दर्शाती है वहीं ‘उतार’ एक कुआँ खोदने वाले एक ऐसी मिस्त्री की डायरी है, जो आजीवन कुआँ खोदने का काम करते करते साल दर साल देख रहा है किस तरीके से भूमिगत जल खत्म होता जा रहा है और अपने स्वार्थ के लिए लोग किस हद तक धरती का दोहन करने पर उतर आए हैं। जो ज़िंदगी भर दूसरों के लिए पानी तक पहुँचाने का ज़रिया बना रहा, वही अंत में वही एक-एक बूँद को तरस जाता है।

‘कसौटी’ लघुकथा मल्टीनेशनल कंपनियों के नाम पर उनकी आड़ में होने वाले दुराचार और उनके हथकण्डों को एक्सपोज करती है, जिसको सभ्य समाज का बड़ा वर्ग देखकर भी हमेशा से अनदेखा करता आया है।

‘शिनाख्त’ लघुकथा समाज का वह घिनौना चेहरा उघाड़ती है। जो इतना डरावना है कि रोंगटे खड़े हो जाएँ।

इस संग्रह की एक बेहद शानदार लघुकथा है ‘कोलाज़’। आपके ज़ेहन को बुरी तरह झकझोर कर रख देगी। उपभोक्तावाद के इस दौर में इंसान की क्या हैसियत रह गई है! मानवीय मूल्यों की क्या धज्जियाँ उड़ गई हैं और इन सब की आड़ में एक आम इंसान को क्या-क्या सहना पड़ता है, उसका एक ऐसा चित्र है, जो वीभत्स है पर दुख की बात यह है कि वह उतना ही सच भी है‌।

‘मास्टर’ सुकेश की यह मार्मिक लघुकथा बहुत प्रचलित है । एक बार इसे पढ़ लेंगे तो भूल नहीं सकेंगे। किसी चलचित्र की तरह वह मोची, जूता, मास्टर सब हमारी नज़रों के सामने जीवंत हो उठते हैं। बहुत ही भावपूर्ण लघुकथा है यह।

एक और लघुकथा ‘आधी दुनिया’ बिल्कुल अलग शैली की लघुकथा है। कालखंड दोष जो लघुकथाओं में गिनाते रहते हैं ,उनको ऐसी लघुकथाओं से सीखना चाहिए कि किस तरीके से सिलसिलेवार संवाद बदलते गए और पूरा का पूरा एक वन, एक लघुकथा में समेट दिया गया। इस लघुकथा का क्राफ्ट बेहद काबिल-ए-तारीफ है।

‘सेल्फी’, ‘मसिजीवी’ और ‘ब्रेक प्वाइंट’ समाज में फैली कुरीतियों विसंगतियों को उजागर करती हुई मार्मिक लघुकथाएँ हैं।

‘पहचान’ भी एक अचंभित करती लघुकथा है ,जो हमारा ध्यान इस तरफ आकर्षित करती है , जो गलती आम ज़िंदगी में हम सब करते हैं; पर हमारा ध्यान कभी इस तरफ़ नहीं जाता । बहुत सी चीजों के सही नाम हम पूरी तरह से से भूल बैठे हैं और प्रचलित नामों में इतना अटक गए हैं कि उनके सही अर्थ हमारे मेमोरी मकैनिज्म से लगभग लुप्त हो चुके हैं।

‘अच्छाई’ लघुकथा, अलग कलेवर की लघुकथा है । आम सी लगने वाली बात किस कदर गहरे मन पर असर डालती है कि उससे इस तरह की मारक लघुकथा बन पड़े, यह ऐसी लघुकथा पढ़ कर ही जाना जा सकता है।

संग्रह की आखिरी लघुकथा ने तो मुझको बेहद भावुक कर दिया। माँ ईश्वर का दिया हुआ सबसे बड़ा वरदान है। माँ जीते ही नहीं, मरने के बाद भी अपने बच्चों की सुरक्षा हेतु तत्पर रहती है। बहुत ही सुंदर और संवेदनशील लघुकथा है ‘चिड़िया’। जीवन के प्रति सकारात्मक सन्देश, इस लघुकथा का परण तत्त्व है।

यह कहना बिल्कुल अतिशयोक्ति न होगी की लघुकथा में जितने प्रयोग संभव है इस लघुकथा संग्रह को पढ़कर वह सब सीखे जा सकते हैं

-0-