साए में धूप का पुनर्पाठ / हरेराम समीप
किसी लेखक ने ठीक ही लिखा है-"कोई कलाकृति तभी मूल्यवान होती है, जब उसमें भविष्य की आहटें मौज़ूद होती हैं।"
आधुनिक हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक उद्धरणीय कवि दुष्यंत कुमार के संग्रह 'साए में धूप' की ग़ज़लों से भी हमें अपने समय की टकराहटों की प्रतिध्वनियाँ बराबर सुनाई देती रहती हैं। यह ग़ज़ल संग्रह उनके संक्षिप्त जीवन के अवसान के पहले तब आया, जब उनका लेखन चरमोत्कर्ष पर था।
आपात्काल (1975) में प्रकाशित इस संग्रह की बावन ग़ज़लों ने तब न केवल ग़ज़ल-विधा का मुहावरा ही बदल दिया था; बल्कि साहित्य की दिशा ही मोड़कर रख दी। उन्होंने ग़ज़ल को अवास्तविक काल्पनिकता से निकालकर यथार्थ के नए परिसर में अवस्थित कर दिया था। इस संग्रह के प्रभाव से उर्दू ग़ज़ल और हिन्दी ग़ज़ल दोनों में ही एक नया वातावरण निर्मित हुआ और एक नई भावभूमि तथा एक नया तेवर सामने आने लगा। ग़ज़ल के माध्यम से सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्त करने में दुष्यंत की सहज, सरल हिन्दी भाषा एवं उनकी अनूठी सम्प्रेषणीय शैली ने बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस तरह दुष्यंत ने हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, निराला, शमशेर और त्रिलोचन से आगे विकसित कर एक नई परम्परा का सूत्रपात किया, जिसे हम 'दुष्यंत की परम्परा' भी कह सकते हैं।
'साए में धूप' की ग़ज़लों में एक ओर तो आमजन की पीड़ा, व्यथा और बेबसी के मार्मिक स्वर मिलते हैं, तो दूसरी ओर अनैतिक व्यवस्था की कारगुजारियों के प्रति जनाक्रोश की बुलन्द ललकार भी सुनाई देती है, साथ ही व्यवस्था परिवर्तन के स्वप्नों और संघर्षों के लिए उम्मीद की दस्तक भी गूँजती महसूस होती है। इन्हीं कारणों से 'साए में धूप' न केवल हिन्दी ग़ज़ल का सर्वश्रेष्ठ संग्रह बना, बल्कि हिन्दी साहित्य के सबसे लोकप्रिय काव्य-संग्रह के रूप में भी प्रतिष्ठित हुआ।
कहा भी जाता है कि कठिनतम समय में ही श्रेष्ठतम साहित्य का सर्जन होता है। तत्कालीन भारतीय समाज में फैले अन्याय, अत्याचार और अराजकता से दुष्यंत बहुत बेचैन रहते थे और दिन-ब-दिन आम आदमी की बढ़ती पीड़ा को अपने भीतर रखे आग के गोले की तरह महसूस कर रहे थे। "मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ" की विकलता ने उनको कविता-लेखन छोड़कर ग़ज़ल के माध्यम से आमजन की पीड़ा को सीधे ही सम्बोधित करने की ओर मोड़ दिया। उन्होंने नई कविता से अलग होकर ग़ज़ल की ओर आने के कारणों की चर्चा अनेक स्थानों पर की है। 'सारिका' पत्रिका के दुष्यंत विशेषांक में वे कहते हैं-"मैंने अपनी तकलीफ को...उस शदीद तकलीफ़ को, जिससे सीना फटने लगता है, ज़्यादा से ज़्यादा सच्चाई और समग्रता के साथ, ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए ग़ज़लें कही हैं।" इस अनूठे संग्रह की ग़ज़लों का तब इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि हिन्दी गीतिधारा के अनेक बड़े कवि हिन्दी ग़ज़ल की ओर आकृष्ट हो गए और देखते ही देखते जिस अभिनव ग़ज़ल का प्रादुर्भाव हुआ, उसमें एक नया मुहावरा, नए तेवर, नए संस्कार और नया युगबोध स्पष्ट दिखाई देने लगा, जिसे 'हिन्दी ग़ज़ल की दुष्यंत परम्परा' के नाम से अभिहित किया गया। स्वाभाविक रूप से इस परम्परा का नेतृत्व 'साए में धूप' ने ही किया। आज लगभग आधी सदी के बाद हिन्दी ग़ज़ल की यह परम्परा उत्तरोतर विकासमान है, गतिमान है।
चूँकि ये ग़ज़लें राजनीतिक, सामाजिक चेतना से ओतप्रोत हैं और इक्कीसवीं सदी का भारतीय समाज अधिक जागरूक हुआ है, इसलिए 'साए में धूप' की ग़ज़लों की माँग और प्रासंगिकता अपने प्रकाशन काल से कहीं अधिक हो गई है। भारतीय राजनीति के विद्रूपों पर किए गए उनके तंज़ आज भी उतने ही ताज़ादम और प्रासंगिक लगते हैं, जितने उनके समय में लगते थे। यह तय है कि जब तक राजनीति में विद्रूपता रहेगी, उनकी ग़ज़लों के शेर उसके विरोध में सामने आकर खड़े हो जाएंगे। तभी देखा गया है कि उनके जो शेर जनता द्वारा अपने हुक्मरानों को सम्बोधित हुए हैं, वे कहीं ज़्यादा प्रासंगिक हुए हैं। मसलन, भ्रष्टाचार और सरकार की निष्क्रियता के सन्दर्भ में उनका एक शेर है-'यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ / मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।' इस शेर को बाद में बने प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने खुले आम स्वीकार किया-'ऊपर से जो एक रुपया चलता है, वह नीचे तक पहुँचते-पहुँचते पन्द्रह पैसे रह जाता है।' आख़िर ऐसा क्यों होता है? यह यक्ष प्रश्न आज भी जस का तस हमारे देश में खड़ा है और इन्हीं कारणों से दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें प्रासंगिक हो जाती हैं।
इन ग़ज़लों की प्रासंगिकता को नए परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए ज़रूरी है कि हम इन ग़ज़लों का पुनर्पाठ करें और आज की पीढ़ी से इसका परिचय कराएँ। पुनर्पाठ के द्वारा हम अपने समकाल को समझने की एक नई दृष्टि भी प्राप्त कर सकते हैं। पुनर्पाठ के जरिए यह भी जाना जा सकता है कि इस ग़ज़लसंग्रह में ऐसे कौन से तत्व हैं, जो इस छोटे से कलेवर में सिमटी अंतर्वस्तु की अभिव्यक्ति को पिछले पचास सालों से इसे इतना सार्थक, प्रासंगिक और कालजयी बनाए हुए हैं।
तो सबसे पहले हम 'साए में धूप' की इन ग़ज़लों के कुछ चर्चित शेरों के विश्लेषण से दुष्यंत के लेखकीय सरोकारों की पड़ताल करते हैं। प्रस्तुत है दुष्यंत का वह प्रसिद्ध शेर, जो दुष्यंत की रचनात्मकता की पहचान बन गया है-
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
अपने आत्मकथ्य को उन्होंने जैसे उपर्युक्त शेर में समेट दिया है। यह उनकी पूरी ग़ज़लधर्मिता का न केवल परिचय दे रहा है बल्कि परवर्ती ग़ज़लकारों को उनके लेखकीय सरोकारों का एक सीधा रोडमैप भी तैयार करके दिखाता है। इसी 'ओढ़ते-बिछाते' को विस्तार देते हुए दुष्यंत उस धारणा को भी निरस्त करते हैं कि कविता लिखने के लिए धुर एकांत की ज़रूरत होती है। जबकि वे बताते हैं कि वे समाज के बीच रहकर कविता करते हैं और उन करोड़ों दुखी लोगों के अधिवक्ता बनकर सल्तनत से सवाल करते हैं, यह शेर उनके जन-सरोकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करता है-
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है
दुष्यंत की यह जो समाज से संलग्नता है, यही एक सच्चे कवि की पहचान है। कबीर भी अपने बारे में कहते हैं-सुखिया सब संसार खावे और सोवे / दुखिया दास कबीर जागे और रोवे ...दुष्यंत अपने इस शेर में यही कहना चाहते हैं-
रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है
यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है
दुष्यंत का एक और मार्मिक शेर जो बहुत उद्धृत होता है, जिसमें वे एक दरख़्त से प्रेम का इज़हार कर रहे हैं। यहाँ गुलमोहर मात्र एक वृक्ष नहीं है, बल्कि देश का प्रतीक है। अपनी दरख़्त रुपी राष्ट्र की भक्ति को यहाँ बड़े अनूठे अंदाज़ में वे प्रस्तुत कर रहे हैं, जो आज जन-जन का प्रिय शेर बन गया है-
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
कवि देश के प्रति अपनी निष्ठा और समर्पण दर्शाते हुए समर्पित भाव से कहता है कि 'जिएँ तो इसी गुलमुहर के नीचे और कहीं बाहर जाएँ तो भी उसके लिए ही मरें।' यह राष्ट्रीय भावना का उनका सबसे बोलता हुआ शेर है। लेकिन वे इस राष्ट्र भावना में बह नहीं जाते बल्कि अपनी तड़प, अपनी विकलता और अपनी बेचैनी को शेर में ढाल कर एक अनूठे अंदाज़ में प्रस्तुत करते हैं-
हाथों में अंगारों को लिये सोच रहा था
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए
दुष्यंत अपनी 'उस शदीद तकलीफ को जिससे सीना फट जाए' का अपने एक शेर में कुछ यूँ अनुवाद करते हैं-
ये ज़ुबाँ हमसे-सी नहीं जाती
ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती
दुष्यंत के समकालीन महाकवि मुक्तिबोध बार-बार अपने सहकवि से पूछते थे कि पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है? अर्थात् कवि स्वभाव से बाग़ी होता है; इसीलिए वह सत्ता द्वारा उत्पीड़ित किया जाता है, जबकि हुकूमत को यह कानून और व्यवस्था का मामला लगता है-
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए
लेकिन कितनी भी ज़ुबान सिल दी जाए, अभिव्यक्ति की तलाश में निकले लोगों को कोई रोक नहीं सकता है। इसी सन्दर्भ का एक और शेर भी देखिए, जिसमें प्रतिकार का एक अभिनव दृश्य देखते ही बनता है-
होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिए
इस परकटे परिंद की कोशिश तो देखिए
गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए
महान शायर 'मीर' अपनी शायरी के बारे में कहते हैं-'शेर मेरे हैं गो ख़वास-पसंद / पर मुझे गुफ़्तुगू अवाम से है' के अंदाज़ से हिन्दी ग़ज़ल में पहली बार अवाम से गुफ़्तगू के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया है। उनका शेर आमजन तकलीफ यूँ पूछ रहा है-
माथे पर हाथ रख के बहुत सोचते हो तुम
गंगा क़सम बताओ हमें क्या है माजरा
इस छद्म जनतंत्र पर सवाल उठाते हुए दुष्यंत पूछते हैं कि जो साधारण आदमी है, वह आज क़दम-क़दम पर क्यों चोट खा रहा है। इस आत्मकेंद्रित और स्वार्थी समय में एक कवि के सरोकारों की चिंता भला किसको है। कवि जो अवाम की भावनाओं का प्रतिनिधि होता है, समाज का राजदूत होता है, क्यों कोई उसकी नहीं सुनता कि वह कवि आख़िर क्या कह रहा है-
यहाँ कौन देखता है, यहाँ कौन सोचता है
कि ये बात क्या हुई है, जो मैं शे' र कह रहा हूँ
आज के कट्टरता, घृणा, हिंसा और आतंक के शिकारी मौसम ने अनेक 'गुलेलें' थाम रखी हैं, जो प्रेम, समरसता, भाईचारा और इंसानियत जैसे मानवीय मूल्यों का संदेश बांटने वाले कबूतर को उड़ते ही पट्ट से नीचे गिरा देते हैं-
एक कबूतर चिठ्ठी लेकर पहली-पहली बार उड़ा
मौसम एक गुलेल लिये था पट-से नीचे आन गिरा
दुष्यंत इस शेर के माध्यम से समाज में बढ़ती क्रूरता और अतिवाद से मानवता को आने वाले खतरे की चेतावनी दे रहा है-
लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है
लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है
आज की कविता में शब्दों ने अनुभूतियों को ढक लिया है और शब्दों के सही अर्थों की संभावनाएँ घटती चली जा रही हैं। ऐसे में शब्दों की सार्थक पहचान के लिए एक तरफ़ नई कविता की दुरूहता ने उन्हें निराश किया तो दूसरी तरफ़ उर्दू ग़ज़ल की सामाजिक सरोकारों से बेख़बर इश्किया शायरी की वायवीयता ने उन्हें बेचैन किया, तब वे नई ज़मीन तोड़ने के मक़सद से हिन्दी ग़ज़ल में उतरे और उन्होंने अवाम को अपनी क़लम की ताक़त महसूस करा दी-
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए
यह शेर यहाँ जड़ता के विरुद्ध चेतना का द्वंद्व प्रस्तुत करता है और हमें हमारे सर्जन के सरोकार याद दिलाता है। ग़ज़लकार जहाँ अपनी अभिव्यक्ति में असर पैदा करने को बेचैन है वहीं कलावादी उसे बहार और वज़न में उलझाए हैं और किसी लायक नहीं समझते हैं। वास्तव में उन कलावादियों के लिए कला सिर्फ़ कला के लिए है जबकि दुष्यंत यहाँ कला को जीवन की अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं।
'साए में धूप' की पहली ग़ज़ल का मतला वैसे ही प्रश्नवाचक है, जैसे गीता का पहला श्लोक, जिसे पढ़ते ही पाठक जैसे जीवन की नई मीमाँसा के द्वार खुलने की प्रतीक्षा करने लगता है। यह शेर हमें आज़ादी के संघर्ष के दौरान देखे गए सपनों और आज़ादी के बाद आज, इस अमृत महोत्सव वर्ष तक पेश हक़ीक़त का मिलान करने को कहता है और उत्तर में पाठक इक मोहभंग की टीस से कराह उठता है–
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यह मतला यहाँ देश की स्वार्थी राजनीति की कथनी और करनी के अंतर का भी पर्दाफाश करता है। उपर्युक्त मतले में सन्नद्ध राजनीतिक चेतना को विस्तार देता तथा देश की आर्थिक विषमता के प्राचीन वीभत्स को प्रस्तुत करता व्यंग्य की पराकाष्ठा पर स्थित एक सच दिखाता दुष्यंत का यह शेर, जो जनता को बेहद अपना लगने लगा है-
कल नुमाइश में मिला वह चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है
एक ओर विकास की यह नुमाइश है और दूसरी ओर बदहाल भारत का भयावह मंज़र है, तब दुष्यंत यह विचलित कर देने वाला बिम्ब पेश कर देते हैं, जो सचमुच मारक और कटु यथार्थ से भरा हुआ है। इसी सन्दर्भ को आगे बढ़ाते हुए दुष्यंत अगले ही शेर में चेतना से दबी कुचली जनता की भी यूँ ख़बर लेते हैं-
न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
इस शेर के माध्यम से दुष्यंत जनता की उस निष्क्रियता और उदासीनता पर तंज करते हैं, जो यथास्थितिवादी है और जिसमें बदलाव के लिए किसी प्रतिरोध की इच्छा नहीं बची है, जहाँ अपने अधिकारों के लिए कहीं कोई प्रतिवाद उनमें नहीं जागता है। विडम्बना यह है कि यह बात हमारे सत्ताधारी बखूबी जानते हैं, इसीलिए यह वर्ग उनके लिए बेहद मुनासिब लगता है। दुष्यंत को सत्ता और जनता की बहुत गहरी समझ थी, तभी तो उनका एक-एक शेर बेहद तीखे व्यंग्य भरे और मारक लहजे से लैस होता है-
बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं,
और नदियों के किनारे घर बने हैं
उनकी राजनीतिक समझ का एक उदाहरण ये शेर भी है, जिसमें वे कहते हैं कि आजकल एक नागरिक की हैसियत चुनाव में एक वोट से ज़्यादा नहीं रह गई है। यह शेर तब हमें झिंझोड़कर रख देता है, जब वे चुनाव के वक़्त वोट डालते एक नागरिक को पानी में भीगती हुई वह ईंट कहते हैं, जिसको यह भी नहीं पता कि वह इमारत बनाने में कहाँ काम आएगी-
धीरे-धीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में
इनको क्या मालूम कि आगे चलकर इनका क्या होगा
यहाँ व्यंग्य का जबदस्त प्रहार करते हुए दुष्यंत इस निष्क्रिय अवाम को झुनझुना की संज्ञा तक देते हैं। आमजन को सम्बोधित यह एक तिलमिला देने वाला व्यंग्य वास्तव में उसे जगाने के मकसद से लिखा गया है। यह शेर पूरे लोकतंत्र को भी सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर देता है-
जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में,
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं।
इसमें ग़ज़लकार स्वयं अपनी बेकली को और उसे व्यक्त न कर पाने की बेचैनी को ज़िन्दगी के एक बड़े संकट के रूप में पेश करता है, जो आमजन को गंभीरता से सोचने पर मजबूर करता है-
हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब
चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब
उत्सवधर्मी सरकारों को अपने समाज की दुर्दशा की कहाँ फ़िक्र होती है? अपितु सरकारें इस दुर्दशा को अपने चमचमाते विज्ञापनों से यूँ छिपा रही है, जैसे दरारों वाली दीवार को इश्तहार से ढंक कर कोई छिपाता है। विकासवादियों के लिए यह शेर ख़ास गौरतलब है-
अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार
आज भी अभावग्रस्त गरीब का जीवन ज्यों का त्यों है। लेकिन वह अखबारों, टी वि चैनलों से विकास की मनमोहक ख़बरें देख सुन रहा है और सोचता है कि अगर हमारे गाँव की तरफ़ भी बहार आती तो हम भी देख पाते-
रोज़ अखबारों में पढ़कर यह ख़्याल आया हमें
इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले-बहार
आज भ्रष्टाचार का ज़हर समाज की नस-नस में बह रहा है। मार्के की बात यह है कि ऐसी स्थिति में भी आम नागरिक जागरूक नहीं हैं और ख़ुद को बेफिक्र महसूस कर रहा है। ऐसे बेयकीनी के दौर में दुष्यंत कुमार अवाम पर तंज कसते हुए उसे यूँ चेता रहा है-
तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
भ्रष्टाचार सचमुच आज कैंसर के रोग की तरह इतना बढ़ गया है कि हर व्यक्ति भ्रष्टता की कीचड़ से जैसे सन गया है, तब दुष्यंत एक चित्रात्मक और सटीक शेर से प्रहार करते हैं-
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है।
जब कवि को मालूम है-'पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा' तब वह फैलाया गया झूठ को कैसे स्वीकार करे-
मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं
उपर्युक्त शेर में असहमति और अस्वीकार के लिए जो 'अन्धा तमाशबीन' का रूपक प्रस्तुत किया है वह उसके प्रतिरोध की घोषणा करता है शेर में ऐसा प्रयोग बिलकुल नया किन्तु और असरदार है।
इस ग़ज़ल संग्रह का यह शीर्षक शेर है, जो पूरी किताब के केन्द्रीय विचार के रूप में बिलकुल नई अभिव्यक्ति के साथ यहाँ प्रस्तुत हुआ है, देखिए-
यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए
दरख्त जो सदैव कल्याणकारी होते हैं, उनको दुष्यंत ने नेताओं के प्रतीक रूप में प्रयोग किया है। दरख़्त जो जीवन को प्राणवायु प्रदान करते हैं, भोजन और आश्रय देते हैं अर्थात् हमारे हितैषी होते हैं; लेकिन आज इस भ्रष्ट राजनीति के दरख़्त रूपी नेता भ्रष्टाचार में लिप्त मिलते हैं, जिनसे अब भय लगने लगा है। उनके 'साए में धूप' लगना इसी अद्भुत विरोधाभास की प्रस्तुति है। इसी विरोधाभासी व्यवस्था को बदलने की पहल करते हुए कहीं और चलने का भी दुष्यंत आह्वान करते हैं।
वे अवाम की पीड़ा को जो हिमालय हो गई थी, उसे पिघलाने और उससे नई गंगा निकालने की आकांक्षा करते हुए दुष्यंत ग़ज़ल के माध्यम से जनसंवाद करना चाहते हैं। दरअसल इस शेर के माध्यम से वे व्यवस्था परिवर्तन का तीव्र उद्घोष कर रहे हैं और इसके लिए सामूहिक व सक्रिय संघर्ष का सीधा आह्वान भी करते हैं, जो ग़ज़ल के अन्य शेरों में उजागर हो जाता है–
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
एक अन्य ग़ज़ल का शेर भी उनके इस आह्वान की तस्दीक करता है-
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
दुष्यंत इस तालाब के पानी को इसलिए बदलने की बात करते हैं क्योंकि इसके कमल यानी युवा पीढ़ी अत्यंत हताश है अर्थ कुम्हलाने लगे हैं ...इस बदलाव को दुष्यंत एक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की तरह लेते हैं ताकि समाज में अविरल ताज़गी बनी रहे-
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
दुष्यंत इस 'सूरत बदलने' की कोशिश करने का कोई दिखावा नहीं करना चाहते बल्कि यथार्थ में परिवर्तन चाहते हैं । उन्होंने 'नई गंगा' निकलने की तो बात की है, परन्तु उसके स्वरूप या किसी राजनीतिक विकल्प के प्रति वे मौन रह जाते हैं। ऐसा लगता है, जैसे यह मानव-मुक्ति के लिए किसी सतत संघर्ष की प्रस्तावना का आहवान है। इस आह्वान में वे युवाओं से सामूहिक जिम्मेदारी माँगते हुए समर्पण की बात करते हैं-
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
समाज का शोषित, पीड़ित वर्ग पूरी तरह से यह मान चुका है कि शोषक वर्ग, अर्थात सम्पन्न सत्ताधारी वर्ग के सीने में पत्थर का दिल होता है, वह पिघल नहीं सकता। यह केवल संघर्ष से ही सम्भव है, अत: समाज में बदलाव लाने के लिए संघर्ष के बिना गुजर नहीं होगी-
पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं
यहाँ दुष्यंत तत्कालीन भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था को हटा कर नई ईमानदार व्यवस्था को लाने का आह्वान कर रहे थे। यह बात ध्यान देने लायक है कि दुष्यंत की ग़ज़लों में व्यवस्था-विरोध अलग से आरोपित नहीं है, बल्कि एक अंर्तधारा की तरह प्रत्येक रचना में प्रवाहित हो रहा है-
कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
दुष्यंत जीवन संघर्ष में अटूट आस्था के कवि हैं। वे लोकशाही में लोक शक्ति पर पूरा विश्वास रखते हैं और इसी विश्वास को बार-बार अपने अशआर में आवृत्ति करते हैं, ताकि वे लोकजीवन के अशआर बन जाएँ और एक सूक्ति की तरह लोक में रच-बस जाएँ। ठीक इसी सन्दर्भ में युवा पीढ़ी में आ रहे असंतोष और अस्वीकार की सुबुगाहट पर भी वे यह शेर लिखते हैं-
परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं
हवा में सनसनी घोले हुए हैं
नई पीढ़ी में आ रही इसी जागृति की आहट को वे एक दिशा देने का प्रयास करते हैं-
फिर धीरे-धीरे यहाँ का मौसम बदलने लगा है,
वातावरण सो रहा था अब आँख मलने लगा है
ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं
उपर्युक्त शेर में ग़ज़लकार का प्रयास साधारणजन के भीतर सोई उसकी प्रतिरोधी चेतना को जगाने का है, जिसे हुकूमत सदैव दबाए रखना चाहती है। देखिये इसमें कितना नूतन बिम्ब आया है, जहाँ परिवेश अनकहे ही खुलता जाता है कि हम अँधेरे में हैं और उजाले के लिए एक चिंगारी की तलाश करना है, क्योंकि दिए में तेल से भीगी बाती भी है बस आग की ज़रूरत है ...राजनीतिक चेतना को जागृत करने हेतु इससे असरदार शेर और कहाँ होगा-
एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है
वैसे तो यह पूरा ग़ज़ल-संग्रह व्यंजनापूर्ण अशआर से भरा है, लेकिन जब सत्ता की संवेदनहीनता उघाड़ता कोई शेर उभरता है तो उसकी व्यंग्यशक्ति किसी को भी विचलित कर देती है। यहाँ हुकूमत भूखी अवाम को सब्र करने की सलाह देते हुए कहती है कि 'रोटी नहीं तो क्या हुआ? अभी राजधानी दिल्ली में इस विषय पर बहस तो हो रही है'-
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दआ।
अथवा-
कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा
अगली ग़ज़ल के शेर में दुष्यंत लोकतंत्र के लगातार कमजोर होते जाने की चिंता करते हुए आम नागरिक को उसके अधिकारों के खो जाने की ख़बर यूँ तंजिया अंदाज़ में देते हैं-
हमको पता नहीं था हमें अब पता चला
इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही
दुष्यंत आर्थिक विकास का जो मंज़र देख रहे थे उसे वे एक तरह का झूठ, फ़रेब मानते थे। इस बढ़ती धन-संस्कृति और महानगरीय चकाचौंध को दुष्यंत एक मायावी छल कहते हैं। वे इसे पानी में दीखते उस महल के प्रतिबिम्ब की संज्ञा देते हैं, जो अवास्तविक है-
ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो
दिन ब दिन राजनीतिक मूल्यों में आ रही गिरावट को लेकर दुष्यंत चिंतित थे, तब ही वे यह शेर लेकर आ पाए है। आज़ादी की लड़ाई के हमारे नेता और आज के बाहुबली नेताओं का अंतर बतलाता मारक शेर दुष्यंत अत्यंत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करते हैं-
दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगाके बैठ गए।
हमेशा से हुकूमतें केवल प्रशंसा सुनने की आदी रही हैं, उन्हें अपनी आलोचना कतई बरदाश्त नहीं होती। कहीं जो परोक्ष में भी कोई कटाक्ष कर दे तो भी उसे वह बग़ावत ही समझती है...आपात्काल में दुष्यंत का एक व्यंग्यपूर्ण शेर ऐतिहासिक और अविस्मरणीय है-
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
दुष्यंत ने इमरजेंसी के दौर में राजनीतिक यथार्थ का जो बयान किया था, वह अद्भुत है। यहाँ यह शेर द्रष्टव्य है-
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है
अपनी ग़ज़लों में वे राजनीति के उस चरित्र पर भी चोट करते हैं, जिसमें झूठ बढ़ता जा रहा है। यहाँ विकास की उपलब्धियों का श्रेय लेने के लिए तो पक्ष और विपक्ष के नेता प्रतिस्पर्धा करते हैं, मगर किसी संकट या समस्या पर बात करनी हो, तो यही नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर बचना चाहते हैं-
पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
लेकिन जनता की माँग या किसी आन्दोलन होने पर हुकूमत उसे उनकी क्षणिक उत्तेजना कह कर नजरअंदाज करती रहती है, जो एक सच्चे लोकतंत्र का धर्म नहीं होता। उदाहरण के लिए हाल ही में हुए 'किसान आन्दोलन' के दिनों में सरकार के रवैया को देखा गया था-
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है।
दुष्यंत उस आपात्काल में तानाशाही की जंज़ीरों में जकड़े निरीह होते लोकतंत्र को देख रहे थे, जिसमें न्याय और नैतिकता की बात करने पर लोगों को संदेह से देखा जाता और क़ैद कर लिया जाता था। दुष्यंत की नज़र से अराजकता का वह मंज़र बच नहीं पाया था। उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति के अगुआ जयप्रकाश नारायण के बारे में भी एक अप्रतिम शेर कहा था, जो बहुत चर्चित हुआ था-
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो-
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है
प्रेम और संघर्ष का अटूट सम्बन्ध होता है। दुष्यंत की संघर्षधर्मी चेतना में प्रेम का भाव कभी तिरोहित नहीं हुआ है ।साथ ही दुष्यंत ने उर्दू परम्परा की इश्किया शायरी से भी पूरे तौर पर विद्रोह कभी नहीं किया। शायद यही वज़ह है कि उनकी दसेक ग़ज़लों की भाषा अचानक से परम्परागत क्लिष्ट फारसी प्रयोग वाली उर्दू के रंग में रंगी मिलती है, उर्दू शायरों के लहजे में अनेक प्रेमपरक शेर लिखे हैं। मसलन, मीर तकी मीर का एक मशहूर शेर है-'नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए / पंखुड़ी इक गुलाब की—सी है' के जैसा उनका यह शेर भी आता–मैं तुम्हें छूकर जरा—सा छेड़ देता हूँ / और गीली पाँखुरी से ओस झरती है' । लेकिन संग्रह में ऐसे शेर बहुत कम संख्या में ही हैं। उनके यहाँ से ग़ज़ल रूमानियत के दायरे को तोड़कर सामाजिक यथार्थ को व्यक्त करने हेतु जल्दी ही आगे निकल आई। बहरहाल, उनका एक और प्रेमपरक किन्तु अविस्मरणीय शेर प्रस्तुत है–
तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा
अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा
उनका एक ऐसा ही अद्भुत संवादमय शेर है, जिसे बहुअर्थी शेर भी कहा जा सकता है-जो रूमानी भी है, सूफियाना भी है और अन्यार्थी भी... बरसों से लोग इसके अपने पसंद अर्थ निकालते रहे हैं-
तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ
दुष्यंत जीवन संघर्ष के पथ पर अपनी आस्था और जिजीविषा को बचा कर रखने की सलाह देते हैं-
थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो
कल देखोगी कई मुसाफ़िर इसी बहाने आएँगे
रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढ़ें तो शायद दृश्य सुहाने आएँगे
आशा या उम्मीद जीवन की प्राणवायु है, अक्षय ऊर्जा है। इसीलिए उनका आशावादी स्वर उनकी संघर्षधर्मिता का दामन कभी नहीं छोड़ता है-
इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी
आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है
उनकी इसी 'गूँगी पीर' से आप्लावित 'साए में धूप' के पुनर्पाठ से यह पुष्ट हो जाता है कि ये ग़ज़लें उनकी पीड़ा की फसलें हैं। दुष्यंत कुमार वाकई एक तेजस्वी कवि थे। उनकी काव्य-दृष्टि और जीवन दृष्टि में कहीं कोई फांक नहीं नज़र आती है। चूँकि उनकी रचना-यात्रा गीत-कविता-कहानी-उपन्यास से होकर ग़ज़ल तक आई है; इसलिए उनकी ग़ज़ल-भाषा और शिल्प में प्रौढ़ता मिलती है ।यहाँ पर वे एक मँजे हुए ग़ज़लकार के रूप में उतरे हैं। उनकी भाषा का चमत्कार अद्भुत है। यहाँ दुष्यंत ने नई कविता की क्लिष्ट भाषा और उर्दू ग़ज़ल की पारम्परिक रसिक भाषा को त्याग कर एक नई जनधर्मी ग़ज़ल-भाषा ईजाद की है, जिसमें व्यंग्यात्मकता और कथ्य की नवीनता ने इसको अद्भुत शक्ति प्रदान की। लोक जीवन और संस्कृति से उतरे प्रचलित शब्द, मुहावरे और प्रकृति तथा परिवेश से आए बिम्ब उनके कथ्य को यूँ सम्प्रेषित करते हैं कि वे पाठक के दिल में अपनी स्थायी जगह बना लेते हैं। यहाँ भाषा न तो विशुद्ध हिन्दी है और न ही विशुद्ध उर्दू। वास्तव में दुष्यंत की ग़ज़लें आपसी बतकही का, संवाद का वह गीतिमय वातावरण निर्मित करती हैं, जिसमें वे अवाम से, अपने हुक्काम से यहाँ तक कि अपनी प्रेमिका से भी उसी गीत-रंग में बातें करते नज़र आते हैं। इसका नतीज़ा यह हुआ है कि गुफ़्तगू की इसी रौ में उनकी कुछेक ग़ज़लें अनजाने ही मुसलसल ग़ज़ल की शक्ल अख्तियार कर लेती हैं।
आम आदमी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता असंदिग्ध थी। आमजन के पक्ष में लड़ने के लिए उन्हें जिस अस्त्र की ज़रूरत थी, वह उन्हें गज़़ल के रूप में मिल गया था। यद्धपि दुष्यंत भी मंचीय कवि थे; लेकिन वे अपनी रचनाओं से जनता के बीच एक विद्रोही की तरह व्यवस्था की विसंगतियों को उजागर करते थे और सच्चे जनकवि का दायित्व निभाते थे। इस सन्दर्भ में आज के मंचीय कवियों को उनसे प्रेरणा लेना चाहिए, जो आर्थिक लाभ के लिए सरकारों की आरती उतारने में तल्लीन हैं।
दुष्यंत की ग़ज़लों में मोटे तौर पर हमें तीन स्वर सुनाई देते हैं। एक स्वर उस 'दोहरी तकलीफ़' (जिसे वे वैयक्तिक और सामाजिक कहते हैं) से उपजा है, जिसमें इस विसंगत वर्तमान से उनकी असहमति, अस्वीकार और प्रतिरोध का स्वर पूरी प्रखरता से फूटा है।
दूसरा, आमूलचूल व्यवस्था परिवर्तन का स्वर है, जिसमें दमघोंटू यथास्थिति से देश के आमजन की मुक्ति का आह्वान है और एक मानवतावादी और सच्चे लोकतन्त्रीय समाज की स्थापना की प्रस्तावना है, जहाँ एक ओर लोगों में प्रेम, त्याग भाईचारे का वातावरण हो, वहीँ देश की रक्षा के लिए त्याग और समर्पण की भावना यूँ गुनगुना रही हो-'मरूँ तो गुलमोहर के लिए' और इन ग़ज़लों में दुष्यंत का तीसरा और सबसे बुलंद स्वर इस दुधर्ष समय से संघर्ष में भविष्य के प्रति उनकी अदम्य आस्था, आशा और जिजीविषा का है।
यह भी स्पष्ट है कि दुष्यंत की ग़ज़लों में राजनीतिक चेतना पूरी सजगता के साथ प्रस्तुत हुई है। कुछ लोग तो इन्हें राजनीतिक ग़ज़लें भी कह देते हैं। वास्तव में इस राजनीतिक चेतना के ज़रिए दुष्यंत ने ग़ज़ल के कथ्य को नई दिशा एवं नई धार प्रदान की है। एक प्रकार से हिन्दी ग़ज़ल में राजनीतिक-चेतना की मुखर अभिव्यक्ति के आरम्भ का श्रेय भी दुष्यंत को जाता है। एक जागरूक कवि के रूप में उन्होंने ग़ज़लों में भारतीय समाज और राजनीति पर अपने विचारों को खुलकर उतारा है। वे इन ग़ज़लों को सदैव चेतनासम्पन्न बनाने के प्रयास में रहते थे क्योंकि वे जानते थे कि अगली पीढ़ियाँ अधिक चेतनासम्पन्न हैं। लेकिन सिर्फ़ 'साए में धूप' की नक़ल करके रातों-रात दुष्यंत कुमार बनने वाले अनेक ग़ज़लकार यह नहीं जान पाए कि ग़ज़ल तब तक कामयाब नहीं हो सकती, जब तक ग़ज़लकार ज़माने के दुःख और तकलीफ़ से तादात्म्य स्थापित न कर ले।
ख़ुशी की बात यह है कि 'साए में धूप' से प्रारम्भ हुई हिन्दी ग़ज़ल की इस विकास-यात्रा में ऐसे अनेक समर्पित ग़ज़लकार आए हैं, जिन्होंने अपनी सार्थक ग़ज़लों से न केवल दुष्यंत की परम्परा को आगे बढ़ाया है, बल्कि उसे और अधिक समृद्ध कर विराट हिन्दी कविता परम्परा का महत्त्वपूर्ण अंग बनाया है। अर्थात दुष्यंत कुमार ने 'साए में धूप' के रूप में हिन्दी साहित्य को एक अनुपम कृति प्रदान की है, जिसकी अर्थवत्ता, महत्ता और प्रासंगिकता मानव समाज को सुखद और सुंदर बनाने में सर्वदा बनी रहेगी। इस संग्रह की ग़ज़लें समकालीन जीवन का ऐसा आइना हैं, जिसमें हम अपने समय और समाज का अक्स साफ़-साफ़ देख सकते हैं। यद्यपि, 30 दिसम्बर, 1975 को, केवल 42 वर्ष की उम्र में हिन्दी के आसमान का यह जाज्वल्यमान सितारा अचानक डूब गया, लेकिन 'साए में धूप' की अपनी ग़ज़लों से दुष्यंत यह सुनिश्चित कर गए कि हिन्दी साहित्य उनके इस अप्रतिम योगदान को कभी नहीं भूल सकेगा।
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