साक्षी / पदमज पाल / दिनेश कुमार माली

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पदमज पाल (1947)

जन्म-स्थान :- कुसिंगा, कादुआपड़ा, जगतसिंहपुर

प्रकाशित-गल्पग्रंथ-“निषिद्ध अरण्य “,1977, “अपेक्षा कर मु फेरुछी”,1980,”इगलर नखदंत “,1983, “सबुठू सुंदर पक्षी “,”जीवनमय “, “उंतर पुरुष “,1977, इत्यादि।


“हुजुर ! मैं गीता पर हाथ रखकर शपथ लेता हूँ जो भी कहूंगा सच कहूंगा।”

वकील महाशय अपने चश्मे को थोड़ा नीचे करते हुए उस आदमी को देखने लगे जैसे किसी सांप ने अपना फन उठाया हो। उसके बाद सिर से लगाकर पैर तक उसका सारा शरीर ऐसे हिलने लगा जैसे वह सब समझ गया हो, जान गया हो कि वह आदमी शैतान है, झूठा साक्षी है।

-“तुम्हारा नाम क्या है? ”

- “गिरधारी साहू”

- “तुम क्या करते हो? ”

-“श्रीमान, कुछ नहीं।”

- “तो क्या सारा समय बाजार में घूमते हो? ”

-“नहीं, सर। अपने काम के लिए तो समय मिलता नहीं है, मैं क्यों बाजार में खाली घूमूंगा।”

-“तब सारा समय घर पर रहते हो? ”

-“नहीं, खेतों में मजदूरी का काम करता हूँ।”

-“अभी- अभी तो तुमने कहा था तुम कुछ नहीं करते हो? ”

गिरधारी हकबकाकर वकील की ओर देखने लगा। असहायता के भाव से वह कहने लगा- “मुझे और मत घुमाओ, श्रीमान। इतने लोगों, साहबों तथा वकीलों के सामने मेरा गला सूख जाता है। हृदय की धडकन बढ़ जाती है। मुझे लग रहा है कि मैं गिर जाऊंगा ! मुझे छोड़ दीजिए।”

-“तुम तो उस दिन बाजार में घूम रहे थे? ”

-“नहीं, सर।”

-“तब तुमने कुछ भी नहीं देखा? ”

-“नहीं, सर।”

-“फिर तुम्हारा नाम साक्षी में कैसे आया? ”

-“सर, मेरी औरत ने मुझे रहने नहीं दिया, हर समय परेशान करने लगी।”

अचानक वकील सीधी बात पर आकर गिरधारी को और कुछ कहने का मौका नहीं देकर पूछने लगा- “तुम्हारी औरत तुम्हें जबरदस्ती साक्षी दिलवा रही है। मगर तुम उस दिन न तो बाजार में थे तो तुम्हारी औरत ने कुछ देखा था।”

-“माई लॉर्ड। यह पाइन्ट नोट किया जाए। गिरधारी साहू एक मिथ्या साक्षी है। वह अपनी औरत के दबाव पर साक्षी देने आया है।”

गिरधारी साहू घबरा गया। अचानक उसके मुंह से निकल पडा- “नहीं सर, मैं कभी भी कोर्ट-कचहरी के चक्कर में नहीं पड़ा। इन सभी जगहों पर मुझे आने में बहुत डर लगता है। मैने इसलिए नागमणि बाबू को मना भी किया था। मैं यह काम नहीं कर सकता हूँ। मैं कुछ भी नहीं कह सकता।”

इस बार जज ने अपनी कुर्सी पर आराम से बैठते हुए सहज भाव से कहा- “नहीं, तुम डरो मत। सब सही- सही बात कहो। तुम्हारी साक्षी बहुत ही महत्वपूर्ण है।”

गिरधारी इस बार थोड़ी हिम्मत जुटाकर कहने लगा- “हुजुर, मुझे और कुछ भी मत पूछो। मुझे छोड़ दीजिए। मेरे हाथ-पांव कांप रहे हैं। मुझे और कुछ दिनों की मोहलत दे दो, मैं सब बता दूंगा। आज....” गिरधारी हाथ जोड़कर विकल भाव से जज और वकील के सामने प्रार्थना करने लगा।

जज साहब ने नाजर की ओर देखते हुए कहा- “इस साक्षी को फिर एक बार बुलवाने के लिए तारीख निश्चय करो। आज उसे जाने दो।”

-“हाँ तुम जाओ।” वकील महाशय का आदेश पाकर गिरधारी साहू कृतकृत्य होकर कोर्ट को दंडवत करने लगा। जब तक वह कटघरे से नीचे नहीं उतरा तब तक वह चैन की सांस नहीं ले पा रहा था। वह अपने को ढकेलते हुए कोर्ट के बरामदे में बैठ गया।

कोर्ट के बाहर और भीतर बहुत लोग थे। बाहर कोलाहल हो रहा था। गिरधारी साहू एक घड़ी चैन की सांस लेने के बाद बेसब्री से नागमणि बाबू को खोजने लगा। लेकिन उनके अलावा बाकी सब लोग वहां दिखाई दे रहे थे। वह वकील जो उसके साथ जिरह कर रहा था, वह उससे कुछ ही दूरी पर खडे होकर सिगरेट सुलगा रहा था। उसके पास खडा होकर हँसते हुए उनका मुवक्किल घन राऊत कुछ पूछ रहा था। मोहरीर भी वहीँ फाइल लेकर खड़ा था। वे सब लोग खुश थे। विरक्त भाव से वहां से मुंह मोड़ लिया गिरधारी ने। उसने देखा, उसके पास दो पुलिस वाले खडे थे। वे उसको सुनाते हुए कह रहे थे- “ साला डर रहा था। घर में इतने कानून कायदे दिखा -रहा था, जैसे दुनिया का सारा कानून जानता हो। यहां साला दूसरों के खर्चे से आया केस को बिगाडने के लिए।”

-“अरे तूने उसका मर्डर होते समय देखा नहीं था? ”

-“गिरधारी खड़ा होकर कहने लगा- “हाँ, सर, देखा था।”

-“देखा था तो और पत्नी ने कहा, मां ने कहा, बाप ने कहा क्यों कह रहा था, बे? ” पुलिस वाले क्रोधित हो गए थे।

-“सर, मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा था।”

-“साला, उधर से कुछ माल मिला है क्या? ” एक पुलिसवाले ने अंगुलियों को परस्पर रगड़ते हुए कहा।

-“सर, जगन्नाथ की सौगंध। यहां धर्म-कोर्ट कचहरी लगी हुई है। ये सारी बातें गिरधारी के लिए नहीं है।”

और कुछ सुनने के लिए पुलिस वाले राजी नहीं थे। गिरधारी हताश हो गया और मुंह घुमाकर आवाज देकर नागमणि बाबू को खोजने लगा। उसके पास न तो गांव जाने के लिए पैसे थे और न ही खाना खाने के लिए। क्या करेगा, वह समझ नहीं पा रहा था। वह केवल आत्मग्लानि से भरकर छटपटाते हुए नागमणि बाबू को खोज रहा था।

उसके इतने पास कोर्ट बरामदे में जो नागमणि बाबू खडे हुए थे देखकर वह अपने आप पर विश्वास नहीं कर पा रहा था। वह उनको देखते ही अपने आपको अपराधी सोचने लगा। उसके पास जाने का साहस और इच्छा नहीं थी। वह वहां केवल इधर-उधर हो रहा था।

-“गिरिया भाई, आओ खाना खाएंगे।” कुछ समय बाद उसे नागमणी बाबू का सूखा स्वर सुनाई पड़ा और वह चलने लगा। गिरधारी उसके पीछे- पीछे चलने लगा।

वे दोनो अन्नपूर्णा होटल के अंदर चले गए। बाल्टी में से मग से पानी लेकर हाथ मुंह धोकर एक लंबे बेंच और डेस्क के बीच में बैठ गए।

-“नागू बाबू ! भले ही आपको झूठ लग रहा हो, मगर मेरे लिए सत्य बात है, मेरा दिमाग खराब हो गया था।” गिरधारी अपने आपको समझाने की कोशिश करने लगा। “लक्ष्मी को छूकर कह रहा हूं अगर झूठ कहता हूं तो सात पीढ़ी तक खाने को अन्न का दाना नसीब न हो।”

“क्या खाओगे? मछली !” नागबाबू सारी बात अनसुनी करते हुए पूछने लगे।

ऐसा व्यवहार देखकर गिरधारी के खाने की इच्छा नहीं हुई। वह नाराजगी और पश्चाताप के स्वर में कहने लगा- “आप मुझ पर नाराज हो? ”

“बेटे के मरने के दिन से मैं और आमिष नहीं खाता हूँ। एक आमिष और एक निरामिष मील।” नागूबाबू ने बैरे को आदेश दिया।

गिरधारी रोने जैसे हो गया। वह अपने को खूब छोटा समझकर कहने लगा- “जो हो गया सो हो गया, नागूबाबू ! जो भूल होनी थी वह हो गई। तुम्हारे साथ आने से ना तुम्हारा ना मेरा, किसी को कुछ भी फायदा नहीं हुआ। घर जाकर मुझ पर किया हुआ खर्च मैं तुम्हें लौटा दूंगा।”

नागूबाबू, पहला कौर मुंह में डालते- डालते रूककर गिरधारी साहू की तरफ देखने लगे। वह भारी आवाज में कहने लगे- “हाँ, अगर तुम मेरे सारे पैसे लौटा दोगे तो भी मेरे बाईस साल के बेटे को नहीं लौटा पाओगे ”

गिरधारी मुट्ठी भर चावल को चुपचाप मसलने लगा।

“तुम चाहते तो जो कुछ देखा था कोर्ट में कह सकते और उन दुष्ट लोगों को दंड मिलता। जो तो तुमने कही नहीं। पता नहीं क्यों, वे सारी बातें नहीं कही, क्या तुम सोचते हो मुझे पता नहीं है? मुझे सब पता है।”

“क्या जानते हो? ” गिरधारी ने मुंह ऊपर करके कहा।

“रहने दो, खाना खाओ। खाना ठंडा हो रहा है। मैं तो और नहीं खा पाऊंगा मेरा दिल जल रहा है। किसे वे सारी बातें कहूंगा? आंखों देखे लोग, फिर मेरे अपने आदमी होकर सच बोलने के लिए मुंह नहीं खुला। पुत्र मरने के दुख के साथ-साथ यह दुख भी सहन करना पड रहा है। क्या आजकल मनुष्यता नहीं है? सत्य, न्याय, धर्म जरा-सा भी किसी के पास में और नहीं है। क्या पता, कैसे यह दुनिया चलेगी? मैं सोच रहा था, वे गुंडे बीच बाजार में सभी की औरतों के सामने मेरे बेटे को मारकर भाग नहीं पाएंगे। जरुर ही दंडित होंगे। इतना होने पर भी, सारा दृश्य देखने के बाद भी लोग साक्षी देने को तैयार नहीं हैं। कहते हैं हमने कुछ भी नहीं देखा। इस मामले में हमें मत फंसाओ।” लंबी सांस छोडते हुए नागमणी बाबू खाना छोड़कर उठ गए। हाथ धोकर गिरधारी के पास आकर कहने लगे, “भाई, तुम खाओ। दुखी मत होओ। मैं बाहर से पान-पुडिया लाता हूँ।”

गिरधारी ने चुपचाप सारी बातें सुनी। वह अपने आप को इतना अपराधी अनुभव कर रहा था कि भयंकर भूख लगने पर भी कुछ नहीं खा पा रहा था। थाली झूठी छोडकर उठ जाने का भी उसका मन नहीं हो रहा था। किसी तरीके से खाना खाकर वह वहां से उठा और हाथ धोने लगा। हाथ-मुंह पोंछकर जब उसने नागमणि के हाथ से दो पान लिए तो वह अपने आप को खूब एकाकी और हीन अनुभव करने लगा। चुपचाप उनके पीछे चलने लगा।

बस से उतरकर रात होते- होते सीधे वे गांव पहुंच गए। गिरधारी का घर गांव से थोडा दूर था।

“चलो, तुम्हें मैं तुम्हारे घर छोड़ आता हूं।” अचानक नागमणि ने कहा।

“नहीं, मैं चला जाऊंगा।”

“अंधेरा हो गया है, डर लगेगा।”

“मुझे डर नहीं लगता है।” कहते-कहते गिरधारी रुक गया।

“तुम्हें डर नहीं लगता है? ” नागमणि ने तेज स्वर में कहा।

गिरधारी चुप रह गया। क्या उत्तर देगा वह नहीं समझ पाया। आगे-आगे नागमणि बाबू चल रहे थे। एक लुटे हुए आदमी की तरह। जो सोच रहे थे, वह कर रहे थे। जिधर पैर गिर रहे थे, उधर जा रहे थे।

“नांडि अपा, नांडि अपा ( दीदी) ! दरवाजा खोलो।” नागमणी बाबू के लिए गिरधारी ने दरवाजा खटखटाया।

हाथ में एक डिबरी लेकर नांडि अपा ने दरवाजा खोला और कहने लगी- “आ गए, घर में आओ।”

“नहीं मैं जा रहा हूँ। डर लगेगा सोचकर मैं भाई को छोडने आया था।”

“क्या हुआ, जरा बता तो सही।” नांडी अपा ने उद्विग्न होकर कहा।

“आप उसे पूछ लो सारी बातें। मुझे बहुत बड़ी थकावट लग रही है।” कहते हुए नागमणी बाबू बाहर निकल गए।

“टॉर्च तो लेते जाओ। अंधेरे में कैसे जाओगे? ”

“मैं चला जाऊँगा। बेटे के मरने के बाद और मेरे लिए क्या बचा है, कहो? और जीने की इच्छा नहीं है? आप जाइए।” नागमणी बाबू कहते हुए आगे निकल गए। नांडि अपा के सीने में ये बातें मानो चुभ गई। उसका संवेदनशील हृदय दुख से तड़प उठा।

किवाड़ बंद कर वे घर के अंदर चले गए। गिरधारी बिना कुछ बोले कुंए पर हाथ मुंह धोने के लिए चला गया। नांडि अपा ने अपने पति के लिए गमछा आगे बढ़ा दिया। उसने मुंह पोंछ लिया।

“क्या हुआ, क्यों नहीं कर रहे हो? ” नांडि अपा हाथ में पकड़ी डिबरी को फर्श पर रखकर नीचे बैठ गई।

“और क्या होगा? ” लंबी सांस लेते हुए गिरधारी खाट पर बैठ गया।

“तुमने क्या साक्षी नहीं दी? ”

“दी, मगर कुछ नहीं कह पाया।”

“जो देखा था, वह भी नहीं कह पाया।”

“नहीं।”

“नहीं ! क्यों? ” चिढ़कर नांडि अपा पूछने लगी।

“डर लगा।”

“किसको? ”

“तुम घबरा जाओगी, इसलिए तुम्हें कुछ नहीं बताया था।”

नांडि अपने आदमी को गुस्से में देखने लगी। “मुझ से कौन-सी बात छुपाकर रखी थी।”

दो दिन पहले मुझे पांच गुंडों ने घेर लिया था। धमकाकर कहा था तुम हो जो आज मर्डर के साक्षी होना चाहते हो। मैं तो हक्का-बक्का होकर खड़ा हो गया। मुझे भी वे कुछ कहने देना नहीं चाहते थे। केवल अपनी तरफ से कह रहे थे- “देख, साले, तुझे अच्छी तरह से कह रहे हैं। अजु को मरना था वह तो मर गया। उसके लिए क्यों व्यर्थ में अपना जीवन गंवा रहे हो? साला, यदि तुमने कुछ देखा है कहकर कोर्ट में कहोगे, तो अपने घर से पत्नी की चूडियां निकाल कर जाना। याद रखना, कोर्ट से बाहर निकलते ही कोई तुझे बचाने नहीं आएगा।”

“तुमने इस डर से साक्षी नहीं दी? ” नांडी का स्वर घृणा से भर आया। डर के मारे दूसरे लोगों के मुंह बंद हो गए, आँखें फिर गई। जैसे किसी ने कुछ भी देखा नहीं हो कुछ भी नहीं जानते हो। नब नपुंसक अजु मर्डर देखकर ऐसे बात कर रहे थे जैसे सब कर लेंगे। असली समय आया तो उस बदमाश खूनी के पापा और दोस्तों ने कुछ पैसे-वैसे पकडा दिए या डरा कर धमकी दी तो मुंह बंद हो गया। बचे थे तुम तो तुमने भी वैसा ही किया ! तुमने धर्म की ओर बिल्कुल भी नहीं देखा। मेरे नागू भाई के चेहरे की तरफ भी नहीं देखा। कितने अच्छे इंसान है वह ! मुझे उन्होंने अपनी धर्म बहिन बनाया था, यहां तक वह मुझे अपनी सहोदरा बहिन जैसे देखते थे। तुम्हारी कितनी इज्जत करते हैं? उनके साथ तुमने ऐसा किया। डर के मारे तुम लौट आए? छि !छि!... छि! छि! इस देश में और कौन रह पाएगा? गुंडे बदमाश हर समय हर काल में रहते हैं... रहेंगे... हम जैसे लोग उन गुंडे लोगों से डरते रहेंगे? कोई भी सही बात, आंखों देखा सत्य भी नहीं बतला पाएंगे।

नांडि की आंखे विद्वेष और घृणा से जलने लगी। इन चूडियों के लिए तुमने सही बात नहीं कहकर अपने आपको मेरी नज़रों में नीचे गिरा दिया है। क्या मर्यादा रह गई चूड़ियों की। ये रहे या न रहें क्या फायदा?

नांडि ने फर्श के ऊपर खूब जोर से दोनों हाथ पटक दिए। जिससे हाथ में पहनी हुई कांच की चूडियां टूटकर छिटक गई। उसके बाद वह जोर-जोर से रोने लगी।

गिरधारी साहू चकित होकर खड़ा हो गया।