सागर-संभवा / राजकमल चौधरी

Gadya Kosh से
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राजेश्वरी ने पहली बार उसे देखा था, उसमें ज्वार नहीं था। सिर्फ कुछ बच्चे थे, जो लाल-पीले कपड़ों में मचलते हुए यहां-वहां भाग रहे थे और कुछ औरतें थीं, जो अपने अंदर किसी-न-किसी ज्वार के आने की बातें सोचती हुई, हंसती जा रही थीं। राजेश्वरी ने देखा, ज्वार नहीं है। वह धीरे-धीरे समर से अलग होकर समुद्र के नजदीक चली आई। रुकी-थमी दिखती हुई लहरें उसके पांवों के करीब हैं। लेकिन, वह पानी छूने से डरती है। समुद्र उसने पहली बार देखा है। इतना बड़ा नीला आसमान जैसे समुद्र में डूब गया है।

सूरज नहीं है। अंधेरा भी नहीं। शाम की परछाइयां चुप हैं। कहीं कोई गीत नहीं बजता। गंध नहीं। किनारे की बालू की सतह पर कोई परछाईं नहीं रुकती है।

वे लोग पहली बार बंबई आए थे। राजेश्वरी और समर। इतनी लंबी जिंदगी में पहली बार समुद्र इतने पास आ गया। राजेश्वरी अब तक नहीं जानती है कि उसने इस बार पहाड़ नहीं जाकर, बंबई जाने का फैसला क्यों लिया? हर साल वे लोग पहाड़ जाते हैं। मसूरी की शाम राजेश्वरी को बेहद पसंद है। दार्जिलिंग की टाइगर हिल पर सूरज उगता है तो राजेश्वरी खुली हवा के सपनों में डूब जाती है। ऐसा लगता है, सुगंधियों की लय पर हवा खुल गई है, नाचती हुई खुल गई है, नंगी, सपाट, सादी और आजाद हवा। लेकिन, समुद्र और आसमान के नीले डब्बे ने इस शहर को अपने गोल ढक्कन से बंद कर लिया है। और ज्वार नहीं आया है, क्योंकि राजेश्वरी को उसका इंतजार अब नहीं है।

“इस होटल में सिर्फ आज की रात गुजार लेंगे, यहां रहना ठीक नहीं है,” समर पास आता है और राजेश्वरी से उत्तर चाहता है। वे लोग स्टेशन से टैक्सी लेकर सीधे यहां चले आए थे। जूहू-समुद्र के किनारे किसी होटल में रहेंगे, ऐसा तय किया गया था। बंबई शहर से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है यह सोया हुआ समुद्र, जिसके कारण यह शहर, यहां के लोग और मशीनें जीवित रहती हैं और चुप रहती हैं। होटल का नाम अजीब है: ‘सी-बेले‘। राजेश्वरी इसी अर्थ पर मुस्कराने लगी थी। समर की निगाहें रुक गई थीं। इर्दगिर्द के टेबुलों पर कोकाकोला के साथ कई मर्द और कई औरतें बैठी थीं और लग रहा था, ये लोग खरीदकर यहां लाए गए हैं, जैसे नया कमरा सजाने के लिए तस्वीरें और फूलदान लाए जाते हैं। सामने समुद्र अपने पूरे नंगेपन में सोया हुआ है। होटल के लॉन में कुर्सियां बिछी हुई हैं, कोकाकोला की बोतल कुल चालीस पैसों में मिलती है। समर कहता है, “चलो, एक टैक्सी लेते हैं। दादर से बांदरा में कहीं-न-कहीं एक कमरा जरूर मिल जाएगा। किसी होटल में, जहां किसी बात का कोई डर नहीं हो सके।”

राजेश्वरी अब तक समुद्र में खोई थी। वी. टी. स्टेशन पर टैक्सी में बैठने के बाद उसने अपनी आंखें बंद कर ली थीं। वादा किया था, सबसे पहले वह समुद्र देखेगी। जुहू आ गया। टैक्सी रुकी। होटल के बैरे सामान उतारने लगे। राजेश्वरी ने आंखें खोलकर देखा एक ही परिवार के आठ-दस बच्चे बालू पर दौड़ रहे हैं और कई औरतें चाट बेचने वाले को घेरकर खड़ी हैं।

“सी-बेले मुझे पसंद है। यहीं रह जाते हैं। बुरी जगह नहीं है। रात में कमरे की खिड़कियां खोलकर समुद्र देख सकते हैं। तुम्हें किस बात का डर होता है?” राजेश्वरी ने उत्तर देने के बदले समर से सवाल किया। समुद्र के किनारे कुल दो व्यक्ति हैं। राजेश्वरी। समर। दोनों एक-दूसरे को समझने की कोशिश करते हैं। इतने साल साथ रहने के बाद भी कोशिश करते हैं। समर किस बात से डरता है? राजेश्वरी किस बात के लिए समुद्र के साथ बनी रहना चाहती है? एक क्षण के लिए समर के मन में या फिर बालू की सपाट सतह पर ‘फ्लैश बैक‘ उभरता है। जगह-जगह से टूटा-बिखरा हुआ एक ‘फ्लैश बैक‘। दो अलग-अलग कमरों में दो व्यक्ति सोए हुए हैं। एक स्त्री। एक पुरुष। बीच का दरवाजा बंद है, कई बरसों से बंद है। नींद का वक्त बीता जा रहा है। सुबह हो जाएगी। शीशे के सामने बैठकर राजेश्वरी अपने ओठ, अपनी आंखें, अपना चेहरा देखेगी, जिस पर वक्त की धुंधली लकीरें खिंचती जा रही हैं। सुबह की चाय के बाद समर टाइपराइटर लेकर बैठ जाएगा। कई पत्रों के उत्तर। कई समस्याओं के सुलझाव। लोहा, सीमेंट और कागज। सस्ती कीमतों पर खरीदने और बेचने की दो अलग-अलग कीमतों के बीच का फर्क जिंदगी है। समर ने अपनी डायरी में एक ‘सभाषित‘ लिखा है: कुछ लोग हैं, जो जिन चीजों को बेच नहीं पाते, उसके बादशाह बन जाते हैं।

समर बादशाह नहीं है। समुद्र के किनारे खड़े होकर राजेश्वरी के सवाल पर सोचते हुए भी बादशाह नहीं है। वह पूछता है, “तुम्हारी एक तस्वीर खींच लूं?”

“नहीं जी, मेरी तस्वीर नहीं,” वह कहती है और घुटनों तक साड़ी उठाकर समुद्र में बहुत दूर तक दौड़ जाती है। ऊपर एक हवाई जहाज जुहू की परिक्रमा कर रहा है। एक औरत किराए के घोड़े पर चढ़कर सैर कर रही है। पालों वाली एक नाव कभी बहुत दूर चली जाती है, कभी बेहद पास। कैमरे के ‘लेन्स‘ में और ‘फ्रेम‘ में राजेश्वरी बंध पाती है तो समर को उसका चेहरा नहीं दिखता, सिर्फ एक तस्वीर दिखती है, जैसे समुद्र की लहरों पर तैरती हुई एक तस्वीर। तस्वीर बनने के बाद राजेश्वरी लौट आती है।


कच्चे नारियल बेचने वाले के पास अकेली खड़ी उस लड़की को समर पहचानता है। यह लड़की कुछ ही देर पहले ‘सी-बेले‘ में थी। कोकाकोला पीकर टेबुल से उठ गई। लाल बेल्टों वाली नीले रंग की फ्राक में और भी छोटी लगती है। वह समुद्र की ओर नहीं देखेगी। किनारे पर चहलकदमी करते हुए लोगों को देखेगी। सड़क पर कतारों में खड़ी टैक्सियों और कारों पर उसकी निगाहें रुक गई हैं। नारियल का पानी पीने के बाद भी वह घूमती रहेगी। देखती रह जाएगी। अंधेरा होगा। रोशनी होगी। फिर ऐसा होगा कि रोशनी और अंधेरा, दोनों ही इस जमीन से गायब हो जाएंगे। समुद्र एक तस्वीर बनेगा। ‘सी-बेले‘ किसी फिल्मी गजल की कड़ी बन जाएगा। एक आदमी ने कुछ ही दिनों पहले इस लड़की की एक तस्वीर बनाई थी और तस्वीर को एक नाम दिया था -- ‘इन्नोसेंट सॉकरर्स‘। इस आदमी का नाम था आन्द्रे वाजदा और तस्वीरें बनाने के सिवा, इस आदमी ने कभी कोई काम नहीं किया था।...शहर। रेस्तरां की भीड़। लगातार कमरों में बने हुए ‘फ्लैट‘, जिनमें आदमी रहते हैं और बिखरे हुए ‘फ्लैश बैक‘। वाजदा ने इस तस्वीर के बारे में कहा था: आदमी क्यों जी रहा है, यह जानने से ज्यादा जरूरी मैं यह समझता हूं कि आदमी क्यों नहीं मरता, कौन-सी बात उसे हर वक्त मर जाने से रोकती रहती है, यह जानते रहा जाए।

समर वाजदा की बात सोचता है और तय करता है कि यह समुद्र और नीली फ्रॉक वाली यह कच्ची उम्र की लड़की, इन्हीं दो घटनाओं के कारण यह शहर जिन्दा रहना चाहता है, मरना नहीं चाहता। वैसे, मर जाना बेहद जरूरी है। शायद ‘कम्पलसरी‘ भी है। अनिवार्य धर्म है मृत्यु, वाजदा की तरह नहीं, कभी-कभी पलायनवादी लेखकों की तरह समर सोचने लगता है। राजेश्वरी इस सोच-विचार में कोई फर्क नहीं डालती। न ही उसकी उपस्थिति और कभी न ही उसका अभाव। दस बजे सुबह समर अपनी ‘फिएट‘ में बैठकर अपने दफ्तर चला जाता है। राजेश्वरी कहीं नहीं जाती, पड़ोस में तो किसी भी बात पर नहीं जाती। घर में नौकर है। सुबह-शाम एक नौकरानी आती है, घर संभालकर चली जाती है। नींद के अलावा कोई जरूरी काम राजेश्वरी नहीं करेगी। वह घर में है या कहीं बाहर चली आई है, यह जानने के लिए समर दफ्तर से फोन करेगा। राजेश्वरी कहेगी, “मैं सो रही हूं। तुम अकेले सिनेमा चले जाओ।”

अकेले चले जाने का सुख या क्षोभ समर शुरू से ही सहता आया है। उसके सारे दोस्त जानते हैं, पढ़ी-लिखी, खूबसूरत और समझदार होकर भी राजेश्वरी कभी समर के साथ बाहर नहीं जाती है। मसूरी और दार्जिलिंग जाना या साल में किसी एक दिन बनारस जाकर समर की मां से मिल आना भी औपचारिक ही होता है, उपचारिक नहीं। दूरियां नहीं टूटतीं। एक-दूसरे के पास होने का मौके नहीं मिलते। राजेश्वरी बंद और सोई हुई, चुप पड़ी रहती है। समर किसी रेस्तरां में दिन, किसी उदास मौसम में शाम काट आता है। कोई गांठ है, जो नहीं खुलती। बीच में कोई दरवाजा है, जो हमेशा बंद रह जाता है।


‘चलो, मलबार हिल जाकर सत्तो से मिल आएं,‘ समर कहता है। राजेश्वरी पहले चुप रहती है, फिर अचानक हंस देती हुई कहती है, “वही सत्तो न, जो पिछले साल बनारस में मिली थी? जरूर जाओ। हमने वादा किया था। लेकिन, मैं नहीं जाती। मैं होटल जाकर सो जाऊंगी। तुम हो आओ।”

राजेश्वरी हंसती है, दो-एक क्षण के लिए, जैसे होटल के दरवाजों पर रुके हुए रेशमी पर्दे हिलने लगते हैं, ट्रांजिस्टर पर कोई भी मौसमी गीत हवा को सहलाने लगता है, कई मर्द और कई औरतें एक साथ खिलिखिलाने लगते हैं, ऐसा लगता है, जैसे दरवाजे और खिड़कियां खुल गई हैं और अब इन दरवाजों और खिड़कियों से निकलकर एक अल्हड़ और अनजान लड़की बाहर आ जाएगी। सीधी चलती हुई जुहू के इस अल्हड़ और अनजान समुद्र के किनारे चली जाएगी। कह दे सकेगी, “चलो, सत्तो के यहां चलते हैं। चलो, बड़ी टैक्सी में बैठकर सत्तो के साथ ‘हैंगिंग-गार्डन‘ में घूमते हैं, ‘नाज‘ रेस्तरां की छत पर बैठकर पीते हुए, सस्सते चुटकुले कहते हुए, मौसम और हवा का मजाक बनाते हुए, नीचे समुद्र के किनारे फैले हुए शहर को देखते हैं। चौपाटी पर थककर, अलग टोलियों में बिखरे हुए लोग नन्हें कबूतरों की तरह दिखते हैं। ब्रुकबॉण्ड, टाटा-मर्सडीज, मर्फी-रेडियो के आदमकद विज्ञापन, ऊंची बिल्डिंगों के धुंधलके में यंत्र-संगीत की तरह गूंजते रहते हैं। ‘मेरीन-ड्राइव‘ नीचे झुककर किसी आवारा मटमैले शीशे में अपना चेहरा देखती है और पीछे मुड़कर बंद कमरों के अंधेरे में काफी देर के लिए गुम हो जाती है। चलो, चलते हैं। कहीं भी चल दो, मुझे कोई एतराज नहीं है।”

लेकिन यह कह देना नहीं हो पाता है। राजेश्वरी की हंसी रुक जाती है और दरवाजे बंद-बंद रह जाते हैं। एक क्षण का वक्त हवा, मौसम और रोशनी में फैलकर कोई लगातार हकीकत नहीं बन पाता है। यह पहली बार नहीं, हर बार यही हुआ है। समर ने राजेश्वरी के इतने पास खड़े होकर यही फैसला किया कि हर बार यही होता रहेगा। राजेश्वरी दरवाजे तक आएगी, राजेश्वरी खिड़की के ‘फ्रेम‘ में एक क्षण खड़ी होकर कोई अधूरा-सा पुराना ‘फ्लैश बैक‘ बन जाएगी और दूसरे ही क्षण बरसात बिजली, आंधी-पानी के डर से अपने अंदर कैद हो जाएगी। उमर कैद। कुल सत्ताइस साल की उम्र में समरजीत त्रिपाठी से ब्याही हुई राजेश्वरी जयसवाल अब छह-सात साल बाद भी उमर कैद काट रही है। कैद वह खुद हुई है, जबकि आजादी की हर राह उसके लिए समर ने खुद बनाने की कोशिश की है।

समर बहुत मामूली आदमी है। सुख उसे अच्छा लगता है। नौकरी, व्यापार, पैसा, ‘फिएट‘ गाड़ी, शहर, फिल्में, उपन्यास, दोस्ती बातचीत और यह राजेश्वरी-समर अपनी जिंदगी को बड़ी बात नहीं मानता है। उसकी आंखें शांत, झुकी हुई रहती है। वह मुस्कराता है तो उसमें नकल या असल कुछ नहीं होता, बस, एक नागरिक शिष्टता होती है। समर बातें करता है और उसी सादे अंदाज में दूसरों की बातें सुनने की शराफत रखता है। ठीक सिले हुए और वक्त पर धुले हुए कपड़े, दफ्तर में पास के किसी रेस्तरां का ‘लंच‘, हफ्ते में कोई एक फिल्म और साल में एक बार छुट्टी मनाने के लिए कहीं चल देना-उसकी घड़ी कभी गलत वक्त नहीं देती है। लेकिन, उसकी पत्नी राजेश्वरी के वक्त के बहाव से ज्यादा, अपनी विरक्ति और अपनी अंतर्लीन मनःस्थिति का खयाल रहता है। वह रुकी रहती है।

उसकी आंखें बिजली के लैंपपोस्ट की तरह एक क्षण चमकती है और दूसरे क्षण बहुत देर के लिए बुझ जाती है।


“लेकिन क्यों? किसलिए तुम यहीं रुकी रहना चाहती हो? यह होटल अच्छी जगह नहीं है। तुम्हारा अकेले रहना ठीक नहीं होगा। रात होने लगी है। चलो, शहर घूम आएं?” समर थोड़ा संजीदा होकर पूछता है। वह चुप हो जाती है। धीमे कदमों से ‘सी-बेले‘ की तरफ बढ़ने लगती है। चौदह-सोलह का एक शहरी लड़का समर के पास-पास चलता हुआ कहने लगता है, “सर, कमरा चाहिए? होटल में चाहिए? दिलाएगा सर! दस रुपया में कमरा दिलाएगा।”

“नहीं चाहिए,” समर तेज होता हुआ कहता है। वह अपनी पत्नी के साथ यहां आया है, किसी पराई औरत के साथ नहीं। सामाजिक जिम्मेदारियां, व्यक्तिगत आत्मीयता, स्नेह, पारिवारिक निर्भरता और धर्म, कितने सारे नियमों और सूत्रों में बंधे रहकर वे अपना दाम्पत्य बिताते हैं। दस रुपए का कमरा इन्हें नहीं चाहिए। ऊंची कीमत में ‘सी-बेले‘ का ऊंचा कमरा इन्होंने लिया है। ताकि, राजेश्वरी प्रसन्न हो सके और अपनी गिरहें खोल सके। बालू की सतह पार करके राजेश्वरी सड़क पर आ गई और पांव पटककर चप्पल में भर आई हुई बालू साफ करने लगी। बोली, “मुझे अकेले डर नहीं लगेगा। तुम सत्तो से मिल आओ। मेरा जी नहीं करता।”

“तुम्हें जाना ही चाहिए, राज,” वह धीमी आवाज में प्यार में डूबकर कहता है। उसे मालूम है, वह अकेला जाएगा, सत्तो यानी सतवन्ती यानी फिल्मों में छोटे-मोटे काम करने वाली लंबी-चौड़ी लड़की से अकेले मिलेगा तो बाद में राजेश्वरी कोई-न-कोई तमाशा खड़ा कर देगी। ‘हिस्टिरिक‘ हो जाएगी। पुराना दुखड़ा ले बैठेगी। कमरा अंदर से बंद कर लेगी और पूरे अड़तालीस घंटे बिना खाए-पिए बंद रह जाएगी। कुछ भी कर सकती है, कुछ भी हो सकती है। सफेद पत्थर की चट्टान को तराश कर यक्षिणी या गांधारी या सूर्यतपा बनाई गई यह राजेश्वरी। सत्तो बनारस में मिली थी, कई दिनों तक साथ रही थी। राजेश्वरी के साथ सारी दुनिया की भरपूर बातें करती रही थी। उसकी आंखों में सस्तापन था, सस्ती चंचलता थी, अपने शरीर के चढ़ाव-उतार उजागर किए रहने की आदत थी-फिर भी राजेश्वरी ने उसका साथ दिया था। अब वह साथ देना नहीं चाहती। कहती है, “क्यों जाना चाहिए? दो दिन और दो रातें ट्रेन में सफर करना पड़ा। थक गई हूं। मुझे सो जाना चाहिए। तुम जाओ।”

“यहां, इस होटल में अकेली कैसे तुम रहोगी? यहां इतना शोरगुल है, फिर जगह भी अनजान...” समर ने अपना वाक्य पूरा नहीं किया। राजेश्वरी सीढ़ियां चढ़ने लगी थी। रुक गई। घूमकर बोली, “मैंने कह दिया न, तुम जाओ!”

समर नीचे रुक गया। इन सीढ़ियों पर चढ़ना अब उससे होगा नहीं। राजेश्वरी अकेली रह जाए, वह चला जाएगा सतवन्ती से मिलकर खुश होगा। घूमता रहेगा। एक टैक्सी लेगा और कहेगा, पूरे शहर का चक्कर काटते रह जाओ! समर रुक गया और एक बार तेज निगाहों से राजेश्वरी को देखकर वापस मुड़ गया। यह भी कह नहीं सका कि वह कब, कितना देर में वापस आ रहा है। राजेश्वरी लॉन में सजाई गई टेबुलों की कतारें पार करके ‘सी-बेले‘ के अंदर चली गई। बैरे ने पूछा, “मेम सा‘ब, खाना किस वक्त लेंगी?”

“नहीं चाहिए,” संक्षिप्त-सा यह उत्तर देकर राजेश्वरी अपने कमरे में चली गई। दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। ड्रेसिंग-टेबुल के सामने शीशे में खड़ी हो गई। मुस्कराने लगी। होटल के इस कमरे में कोई तस्वीर नहीं है। किसी एक बच्चे की भी तस्वीर नहीं।