साजिश के खिलाफ़ / रूपसिह चंदेल

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सुन्दरलाल की बात सुनकर वह ऊपर से नीचे तक सिहर उठे। क्षणभर के लिए आँखों के आगे अंधेरा-सा छा गया। उन्होंने पत्नी की ओर देखा। उसका चेहरा भी मुरझाया हुआ था। कुर्सी में अधलेटी-सी वह भी चिन्ता की गहरी खाई में खोई हुई थी। सुन्दरलाल मेज से पत्रिका उठाकर उसके पन्ने पलटते हुए वातावरण के अनुकूल अपने को गंभीर बनाने का प्रयत्न कर रहे थे।

कुछ संयत होकर उन्होंने पुनः एक नज़र पत्नी पर डाली, फिर रसोई की ओर देखा। सुनीता चाय बना रही थी। सुन्दरलाल के कमरे में क़दम रखते ही उनके चेहरे के भाव देखकर ही वह समझ गए थे कि निश्चित ही उन पर दूसरा कहर बरपा होने वाला है और इसीलिए उन्होंने सुनीता को चाय बना लाने के लिए भेज दिया था।

वह नहीं चाहते थे कि सुनीता उनके और सुन्दरलाल के बीच होने वाली बातचीत सुने। उन्होंने सिर कुर्सी से टिका लिया और छत पर लगे मकड़ी के जाले को देखने लगे और सोचने लगे सुनीता के बारे में। अचानक घड़ी की टन की आवाज़ से उनका ध्यान भंग हुआ। साढ़े चार बने थे। उन्होंने सुन्दरलाल की ओर देखा और बातों को सिलसिला शुरू करते हुए बुझे स्वर में बोले, "...तो आपने फैक्ट्री वालों की तरह ही मुझे चोर समझ लिया... बाबू सुन्दरलाल।"

"नहीं... नही... शर्मा जी, यह क्या कह रहे हैं आप? म... म... मेरे लिए तो आप वैसे ही हैं जैसे... आप मुझे बिल्कुल गलत न समझें।" दोनों हाथ हिलाते हुए सुन्दरलाल ने कहा, "वास्तविकता मैं समझता हूँ। आपको झूठा ही फँसाया गया है... वह जनरल मैनेजर परले दरज़े का बदमाश है और यह लेखराम... लेकिन सभी तो इस बात को नहीं मानते । आख़िर उड़ती हुई ख़बर कुन्दनलाल जी तक पहुँची होगी। उनका बड़ा लड़का भानुप्रताप आज सवेरे-सवेरे दौड़ा आया मेरे पास। मैंने उस भले आदमी को हर तरह से समझाया, लेकिन मेरी एक भी बात उसकी जेहन में नहीं उतरी।"

"ज़रूर कुन्दनलाल डर गए होंगे कि अब मैं दहेज दूंगा भी या नहीं।" एक लंबी आह भरकर वह बोले और पुनः छत की ओर देखने लगे। एक बार फिर कमरे में नीरवता फैल गई। कुछ क्षणों बाद वह बोले, "सगाई करना और तोड़ देना आजकल लड़के वालों के लिए खिलवाड़-सा हो गया है, लेकिन लड़की वालों के लिए तो यह इज़्ज़त का सवाल है... बाबू सुन्दरलाल! कुन्दनलाल के लड़के के साथ सुनीता की शादी तय होने की बात सभी को मालूम हो चुकी है। बताओ मैं उन सबको क्या जवाब दूंगा। नाते-रिश्तेदार सभी को तो मालूम है यह सब।" उनकी आवाज़ भर्रा उठी। लगा जैसे मन की पीड़ा आँखों के रास्ते निकलना चाह रही है। वह चुप हो गए।

"मैं सब समझता हूं शर्मा जी और भानु को भी मैंने यही सब समझाने की कोशिश की थी, लेकिन... ।" कुछ कहते-कहते सुन्दरलाल रुक गए।

"हुँ...।" उन्होंने दीर्घ श्वास छोड़ी और पत्नी की ओर देखा। पत्नी अभी भी उसी प्रकार कुर्सी पर बैठी थी। मानो जड़ हो गयी हो। जड़ तो वह तब से ही है जब से उसने उनके मुअत्तल होने की ख़बर सुनी।

"कोई उपाय निकालो, सुन्दरलाल! मेरी तो अक्ल ही काम नहीं कर रही। एक के बाद एक आफ़तों का सिलसिला शुरू हो गया है मेरे साथ।" अत्यधिक विनीत स्वर में चेहरे पर उग आई ठूठियों पर हाथ फेरते हुए वह बोले।

"उपाय क्या बताऊँ शर्मा जी। बुरे वक़्त में तो अपना साया भी साथ छोड़ देता है फिर उन लोगों के साथ तो रिश्ता जोड़ने की अभी शुरुआत ही हुई थी।"

"ख़ैर, यह भी...।" कुछ कहते-कहते वह रुक गए। सुनीता चाय ले आई थी। सुन्दरलाल की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा, "अंकल को दो बेटा, मेरी इच्छा नहीं है।"

"आपने सुबह भी नहीं पी, बाबूजी!... आधा कप ही...।"

"बेटे, मेरी बिल्कुल इच्छा नहीं है। तुम अंकल को दो।" सुनीता की बात उन्होंने बीच में ही काट दी और सुन्दरलाल की ओर मुख़ातिब होकर बोले, "सुन्दर भाई, मेरे न लेने का बुरा न मानिएगा। आप लीजिए।"

नमकीन की प्लेट सुन्दरलाल की ओर बढ़ाकर सुनीता कप में चाय डालने लगी। वह पत्नी की ओर देखने लगे थे, जो अपनी गीली आँखों को पोंछते हुए दूसरे कमरे की ओर जा रही थीं। सुन्दरलाल को इत्मीनान से चाय पीते देख उन्होंने पुनः कुर्सी से सिर टिका लिया और आँखें बन्द कर सोचने लगे, उस दिन की उस घटना के बारे में जिसके कारण आज सुनीता की सगाई टूट गयी थी।

उस दिन से ही परिवार का सारा वातावरण बदल गया था। परिवार के सभी सदस्यों में मुर्दनी-सी छा गई थी। सारा परिवार एक प्रकार के भयावह वातावरण में जी रहा था। यहाँ तक कि हर समय घर में उछल-कूद मचाने वाले सोनू और पिंकी भी उस दिन से सहमे-सहमे से रहने लगे थे। वे अबोध बच्चे स्थिति की वास्तविकता समझने में भले ही असमर्थ थे, किन्तु बड़ों को उदास तथा परेशान देखकर शायद उन्होंने भी यह अनुमान लगा लिया था कि अवश्य ही कुछ अघटित हो गया है। उस दिन के बाद न ही दोनों ने उनसे टॉफी की मांग की थी और न ही घुमा लाने की ज़िद।

घुमाने का प्रश्न तो इसलिए भी नहीं उठता, क्योंकि वह स्वयं उस दिन के बाद एक-आध बार के अतिरिक्त घर से बाहर नहीं निकले थे। आखिर किस-किस की नज़र का सामना करते वह। उससे एक दिन पहले तक जो शर्मा जी सारी बस्ती के लिए नेक और ईमानदार व्यक्ति थे, रात-भर में ही वह चोर और बदमाश करार कर दिए गए थे। पच्चीस वर्षों की ईमानदारी का किला मात्र एक रात्रि के षड्यन्त्र ने ढहा दिया था, जिसकी कल्पना उन्होंने स्वप्न में भी नहीं की थी। जिस बस्ती में उनका अच्छा-खासा प्रभाव था, अब उसी की गलियाँ पार करते समय उन्हें अपने अंदर कँपकँपी-सी महसूस होने लगती है। कल तक उनके ख़ैरख़्वाह रहे अनेक चेहरे अब एकाएक उनके प्रति शंकालु हो उठे थे। "ज़रूर शर्मा जी का हाथ रहा होगा इस मामले में।"

"अजी, मैं तो पहले ही समझता था कि वह आदमी देखने में ही भोला दिखाई देता है। इसके तो पेट में पैर निकले... पेट में।"

बाहर जाते समय एकाध बार उन्हें उन लोगों की टिप्पणियों का भी सामना करना पड़ा, जिन्हें कभी वह अपना समझते थे। उस समय उन्हें ऎसा लगा था कि शायद उनके क़दम लड़खड़ाने लगे हैं, और वह अपने को किसी प्रकार घसीट-घुसीट कर ही घर तक ला पाए थे। उसके बाद न ही उन्हें बाहर जाने की कोई आवश्यकता प्रतीत हुई और न ही मन के बोझ को हल्का करने के लिए शाम को स्टेशन की ओर घूमने जाने की बात उनके दिमाग में आई। उन्होंने अपने को पूरी तरह घर में ही बन्द कर लिया था। जब भी पत्नी थोड़ा इधर-उधर घूमने जाने के लिए कहती, वह जवाब देते, "क्या मुँह लेकर लोगों के सामने से निकलूँ! झूठा इल्ज़ाम थोप कर फ़ैक्ट्री वालों ने इस योग्य नहीं रखा कि फिलहाल लोगों की आँखों का सामना कर सकूँ।" और वह बुझे से पलंग पर ढह जाया करते।

उन्होंने अर्धनिमीलित आँखों से सुन्दरलाल की ओर देखा। सुन्दरलाल को नमकीन का स्वाद लेते हुए चाय पीते देखकर उन्होंने पुनः आँखें बन्द कर लीं और सोचने लगे।

उस दिन सुबह वह दफ़्तर जाने के लिए तैयार हो ही रहे थे कि एक सिपाही के साथ पुलिस इंस्पेक्टर को दरवाज़े पर देखकर वह एकदम हतप्रभ रह गए थे। और जब उन्हें यह ज्ञात हुआ था कि इंस्पेक्टर उन्हें ’फर्नेस आयल’ चोरी करने के आरोप में गिरफ़्तार करने आया है, तब वह अर्द्धमूर्छित से माथा पकड़कर कुर्सी पर बैठ गए थे। कमीज़ की बटनें बन्द करने तक का ध्यान नहीं रहा था उन्हें।

इंसपेक्टर के कई बार साथ चलने के लिए कहने पर वह किसी प्रकार उठकर लड़खड़ाते हुए उसके साथ चले गए थे। थाने पहुँचकर सारे रहस्य पर से पर्दा उठ गया था।

एक दिन पहले उन्हें दिल्ली से चालीस हज़ार लीटर ’फर्नेस आयल’ लाने के लिए भेजा गया था। वापस लौटने में उन्हें काफ़ी देर हो गई थी। रात ग्यारह बजे वह फैक्ट्री पहुँचे थे। पूरे चालीस हज़ार लीटर ’आयल’ से भरे टैंकर स्वयं अपने सामने फ़ैक्ट्री के अंदर करवाकर ’सिक्योरिटी ऑफिस’ में अपने हस्ताक्षर करके वह घर आ गए थे। लेकिन उन पर बीस हज़ार लीटर ’आयल’ बेच आने का आरोप लगाया गया था। बताया गया था कि फ़ैक्ट्री में केवल बीस हज़ार लीटर ’आयल’ पहुँचा था, शेष आया ही नहीं था। हुआ यह था कि आधी रात के बाद ’इंसपेक्शन विभाग’ के सुपरवाइजर ने टैंकर से निकाले गए ’आयल’ को चेक किया था। केवल बीस हज़ार लीटर ’आयल’ पाकर उसने रात में ही चारों ओर टेलीफ़ोन खटका दिए थे। तब तक टैंकर वापस जा चुके थे और उन्हें ’आयल’ बेच आने के आरोप में फँसा दिया गया था। जबकि वास्तविकता कुछ और ही थी।

उन्हें पूरे चौबीस घंटे थाने में क़ैद रखा गया था। चौबीस घंटे मुअत्तल किए जाने के लिए पर्याप्त थे। बाद में ’इन्क्वायारी’ के आदेश दिए गए थे।

उन्हें सिक्योरिटी गार्ड रामरिख की याद हो आई । उनके छूटकर आने के बाद वह घर पर आया था और उन्हें दिलासा देता हुआ बोला था, "घबराना नहीं शर्मा जी, होने दो इन्क्वारी। मैं आपका साथ दूंगा। मेरी ड्यूटी भी उस समय गेट पर ही थी।"

कुछ आशान्वित होते हुए उन्होंने पूछा था, "कैसे रामरिख?"

"आपको जान-बूझकर फँसाया गया है, शर्मा जी। लबालब ’फर्नेस आयल’ से भरे टैंकर आप मेरे सामने ही फ़ैक्ट्री के अंदर करवा कर गए थे। फिर तेल गायब हुआ कैसे?" एक रहस्य भरी मुस्कान चेहरे पर लाते हुए वह बोला, "इसमें जनरल मैनेजर, बड़े बाबू लेखराम और उस... हाँ... हाँ बदमाश सिक्योरिटी सुपरवाइजर हरबीर दोनों का ही हाथ है। अब समझे आप"

वह तब भी कुछ नहीं समझ पाए थे क्योंकि कानून की दृष्टि में वह अभी भी चोर थे। वह अपनी बढ़ आई दाढ़ी सहलाते रहे थे।

कुछ देर बाद भेद भरी दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए रामरिख आगे बोला, ’फर्नेस आयल’ पूरा निकाला ही नहीं गया था, शर्मा जी। केवल बीस हज़ार लीटर, यानी कि आधा निकालकर शेष से भरे टैंकर वापस लौटा दिए गए थे क्योंकि शेष बीस हज़ार लीटर का सौदा उन लोगों ने पहले ही किसी दूसरी कम्पनी से कर रखा होगा। ... और ख़ुद फँसने की नौबत सिर पर आती देख उन लोगों ने आपको फँसा दिया। आपको पता है कि मुझे भी एक बार ऎसे ही फँसाने की कोशिश की थी इसी सिक्योरिटी सुपरवाइजर और लेखराम ने तांबे के तार वाले केस में। जबकि तार पार करवाकर बेचने वालों से वे दोनों ही मिले हुए थे।

उन्हें मालूम था कि एक बार फ़ैक्ट्री से कई हज़ार रुपए तांबे का तार चोरी गया था, जिसमें रामरिख को फँसाने की कोशिश की गई थी, लेकिन वह किसी प्रकार बच गया था। बच तो वास्तविक चोर लेखराम और हरबीर भी गये थे और फँसा दिया था फैक्ट्री के उत्तरी गेट में उस दिन तैनात दूसरे सिक्योरिटी गार्ड रघुबीर को।

"आप बिल्कुल मत घबराइए, शर्मा जी।" कहकर रामरिख उठकर चला गया था। उस समय वह रामरिख को कोई उत्तर न दे पाए थे। उसके जाने के बाद केवल उसकी बातों के बारे में ही सोचते रहे थे। उस दिन से एक ही बात को न जाने कितनी बार वह सोच चुके थे, "क्या इन भ्रष्ट लोगों से लड़ना इतना आसान है, जिनके खूनी पंजे व्यवस्था के हर महत्त्वपूर्ण स्थान पर जमे हुए हैं... ये वर्तमान व्यवस्था का वह गलित अंग हैं जो अपने लिए... केवल अपने लिए राष्ट्र को भी दाँव पर लगा सकते हैं... आखिर कब तक फ़ैक्ट्री के ग़रीब कर्मचारी इनकी साजिश का शिकार होते रहेंगे।" एक चुनौती भरा प्रश्न उन्हें आन्दोलित कर उठा। उनकी चिन्तन प्रक्रिया तीव्र हो गई।

"...नहीं अब इस फ़ैक्ट्री में ऎसा कभी नहीं होने पाएगा।" वह एकाएक चीख़ उठे।

"शर्मा जी... आपकी तबीयत शायद ठीक नहीं है... मैं चलने की इजाज़त चाहता हूँ... आप आराम करें।" सुन्दरलाल के शब्द सुनकर वह संभलकर बैठ गए।

"नहीं... मैं अब बिल्कुल स्वस्थ हूँ।" चेहरे पर सामान्य भाव लाते हुए वह बोले, "सुनीता की शादी कुछ दिनों के लिए और टालनी पड़ेगी... कोई बात नहीं... अब मैं पहले अपने विरुद्ध हुई साजिश के खिलाफ़ लड़ूंगा, फिर उसके बाद... तब तक सुनीता भी एम०ए० कर लेगी...।"

सुन्दरलाल उनके इस परिवर्तन को साश्चर्य क्षण भर तक देखते रहे, फिर, "आप ठीक कह रहे हैं शर्मा जी" कहकर नमस्कार कर चले गए।

सुन्दरलाल के जाने के बाद उन्होंने उठकर शीशे के सामने जाकर अपने बाल ठीक किए। उनके चेहरे पर से कुहासा अब बिल्कुल साफ़ हो चुका था। अब वह अपने अंदर स्फूर्ति अनुभव कर रहे थे। उन्होंने पैरों में चप्पलें डालीं और पत्नी को आवाज़ दी। पत्नी के आने पर बोले, "मैं जरा रामरिख के पास जा रहा हूँ... तुम, सोनू और पिंकी को तैयार रखना , लौटकर स्टेशन की ओर घुमाने ले जाऊंगा।"

पत्नी की प्रतिक्रिया जाने बग़ैर वह सड़क पर आ गए। उनके कदम रामरिख के घर की ओर बढ़ने लगे थे।