साठोत्तरी हिन्दी कविता में दलित-चेतना / मानवेन्द्र पाठक

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साठोत्तरी हिन्दी कविता में दलित-चेतना
समीक्षा लेखक: डॉ० मानवेन्द्र पाठक

भारतीय अधिनियम १९३५ के अनुसार हरिजन एक्ट के आधार पर कुछ जातियों को अनुसूचित किया गया है तथा पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट के अनुसार इन्हें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग कहा गया है। कुछ निम्नवर्गीय जातियाँ ऐसी हैं जो सामान्य बोलचाल की भाषा में शूद्र कही गयी हैं। हरिजन एक्ट के अनुसार उन्हें हरिजन कहा गया, बाबा साहब अम्बेडकर के अनुसार उन्हें अछूत कहा गया है, महात्मा ज्योतिराव गोविन्दराव फुले के अनुसार उन्हें दलित या दास कहा गया है।

इस प्रकार भारतीय समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया, एक उच्च वर्ग सवर्णों का और दूसरा निम्नवर्ग दलित, दास और हरिजनों का। यह कटु सत्य है कि दलितों के प्रति भारत के उच्च वर्गीय समाज का व्यवहार अत्यंत अमानवीय और पाशविक रहा है। हरिजनों की बस्ती सवर्णों से अलग रहती थी। वे जीवन पर्यन्त सवर्णों की सेवा करते हुए भी सवर्णों से दूर रहे और तो और, उनके मरघट भी सवर्णों से अलग रहते थे -

ओ! मेरे गाँव!

तेरी जमीन पर

घुटी-घुटी साँसों के साथ

चलना पड़ता है अलग-थलग

लड़खड़ाते कदमों से

चलना पड़ता है अलग-थलग

मरने के बाद भी

जलना पड़ता है अलग-थलग॥

ईश्वर की उपासना के निमित्त मंदिर में तो उनका प्रवेश वर्जित था ही, इससे भी आगे उन्हें किसी भी स्थान पर तपस्या करने तक की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त नहीं थी, क्योंकि वे शूद्र, दास, दलित एवं हरिजन थे -

कर रहा तप शूद्र कोई

अधोमुख दण्डक गहन में

स्वर्ग को सुख लूटने की

लालसा को लिए मन में

चाहता है एक दिव्य कृपाण

किन्तु जायेंगे उसी के प्राण॥

और यदि शूद्र ने कहीं छिपकर तपस्या प्रारम्भ कर दी तो उसे जीवन से भी हाथ धोना पड़ता।

यह दुर्दशा भी किसी साधारण मानव के द्वारा नहीं, अपितु अयोध्या नरेश राम के द्वारा हुई -

कटा सिर लोहू रहा है थूक

मृत्यु में अमरत्व का स्वर घोल

चित्त की सब वृत्तियों को तोल

राम को कुछ कह रहा शम्बूक

प्राण की टूटी हुई डोर

टकटकी बाँधे बधिक की ओर

मानता फिर भी न अपनी चूक

सुनो क्या कुछ कह रहा शम्बूक।

दलितों और शूद्रों के प्रति यह अमानवीय व्यवहार नगरों, कस्बों तथा गाँवों में सभी जगह होता रहा। परन्तु फिर भी गाँवों में इनकी दुर्दशा अधिक रही। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत यद्यपि दलितों के उत्थान हेतु जागृति समाज में आई है, किन्तु फिर भी अभी बहुत कुछ बाकी है। इसी सदंर्भ में उल्लेखनीय है कि स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी कविता दलित-चेतना के लिए सुविख्यात रही है।

प्रयोगवाद और नयी कविता से लेकर आज तक दलितों को उनके अधिकार प्रदान करने हेतु, उनको समाज में प्रतिष्ठा दिलाने हेतु हिन्दी कविता में यह दलित-चेतना अजस्रगति से आगे बढ़ रही है। प्रयोगवाद और नयी कविता तो दलित-चेतना के बीच वपनकाल थे। साठोत्तरी कविता में वह बीज अंकुरित हुआ एवं बढ़कर हरीतिमा से सुशोभित हुआ। डॉ० रामकुमार वर्मा का 'एकलव्य' यद्यपि छठे दशक से पूर्व ही लेखनी का विषय बन चुका था, किन्तु साहित्य जगत् के समक्ष वह प्रकाशन के रूप में छठे दशक के आस पास ही आया। दलित-चेतना के रूप में इस ग्रन्थ ने साठोत्तरी कविता में शीर्ष स्थान पाया। प्रस्तुत ग्रन्थ में युगों से उपेक्षित दलित-चेतना का अद्वितीय धनुर्धर एकलव्य अपना जो परिचय देता है, वह निश्चित ही दलित-चेतना को अमरत्व प्रदान करता है -

जय! गुरुदेव!

एकलव्य दास हूँ।

है निषाद वंश मेरा, श्री हिरण्यधनु हैं मेरे पिता

तृण के समान हूँ मैं मार्ग में जो पदों का

भार बार-बार निज शीश ले,

बढ़ता है नवल हरीतिमा में मोद से।

एक ही चरण से खड़ा है जन्म काल से

अपनी तपस्या में। मैं एक ऐसा तृण हूँ।

दलित एकलव्य को अमर एवं यशस्वी महाकाव्य 'महाभारत' के संभव पर्व के १३२ वें अध्याय में भगवान व्यास जी ने कुल ३० श्लोकों में प्रस्तुत किया है। तत्कालीन सामाजिक स्थिति दलितों के प्रति अच्छी नहीं थी। किसी दलित को शिष्य बनाना भी पाप समझा जाता था।

अतः द्रोणाचार्य ने दलित निषाद पुत्र एकलव्य को बाण-विद्या सिखाने हेतु अपना शिष्य नहीं बनाया। विनम्र एवं वीर एकलव्य आचार्य द्रोण को अपना गुरु मानते हुए उनकी मिट्टी की प्रतिमा बनाकर वन में जाकर बाण-विद्या का अभ्यास करने लगा और अद्वितीय तथा महान् धुनर्धर बना। किन्तु द्रोणाचार्य से विद्वान एवं सवर्ण उसकी बाण-विद्या को सहन नहीं कर पाए, फलस्वरूप गुरु-दक्षिणा में उससे हाथ का अँगूठा माँग लिया -

गुरु-प्रण-पूर्ति करे सब काल के लिए

जय गुरुदेव! यह रही मेरी दक्षिणा।

क्षण ही में अर्धचन्द्र-मुख-बाण से,

तूर्ण से निकाल कर लिया बाम कर में

गुरु-मूर्ति के समीप हाथ रख दाहिना

एक ही आघात में अंगुष्ठ काटा मूल से।

अपने गुरु-ऋण से उऋण होने वाला विनम्र वीर एवं लगनशील दलित एकलव्य जैसा महान् न हुआ एवं न ही कोई होगा।श्री नरेश मेहता का सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'शबरी' में भी साठोत्तरी कविता में दलित-चेतना का आधार स्तंभ है। शबरी नाम की दलित नारी सवर्णों के तिरस्कार का शिकार कभी नहीं हुई।

सवर्ण भी आज सहर्ष अपनी पुत्रियों का नाम शबरी रखते हैं। सवर्ण नारी सूर्पण खाँ का नाम तक कोई नहीं लेना चाहता है, न सुनना चाहता है, परन्तु असवर्ण एवं दलित नारी शबरी को महर्षि बाल्मीकि ने भी अमरत्व प्रदान किया है। भगवान राम उसके आश्रम पर जाते हैं तथा उसके आदर को स्वीकार कर उसे 'तपोधने' का नाम देकर उसकी सम्मान-वृद्धि करते हैं। साठोत्तरी कविता में दलित-चेतना की प्रतीक शबरी को अनुपम रूप दिया गया है -

त्रोता युग की व्यथामयी

यह कथा दीन नारी की

राम-कथा से जुड़कर

पावन हुई, उसी शबरी की।

बदल गया था सतयुग

का सारा समाज त्रोता में,

वन-अरण्य की ग्राम्य-सभ्यता

नागर थी त्रोता में।

श्री नरेश मेहता ऐसे आदर्श कवि हैं, जिन्होंने अपनी 'शबरी' नामक काव्य में दलित-चेतना को साकार किया है। शबरी भले ही भील जाति की दलित महिला थीं, परन्तु साहित्य में जो गौरवपूर्ण स्थान उसने पाया है, कोई दलित नारी क्या सवर्ण भी नहीं पा सकी। वह महान् तपस्विनी एवं त्याग तथा परिश्रम की साक्षात् प्रतिमूर्ति थीं। श्री नरेश मेहता ने शबरी के माध्यम से दलित-चेतना को साकार कर दिखाया है -

शबरी की दिनचर्या अब

पूजा प्रबन्ध था करना,

अब थी अभिभावक पूरी

सब पर निगरानी रखना।

अब कभी-कभी प्रवचन में

उल्लेखित होती शबरी

मानो वह परम सती हो

हो भक्त शिरोमणि शबरी।

शबरी के माध्यम से महाकवि नरेश मेहता ने दलितों की अध्यात्मपरायणता एवं पवित्राता का महान् यशस्वी वर्णन किया है। वास्तव में साठोत्तरी हिन्दी कविता ने दलित-चेतना को जो चारुता प्रदान की, वह इससे पूर्व के साहित्य में दुर्लभ हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है -

नभ का पवित्रा नीलापन

था श्याम बरन में,

चन्दन सुगन्ध थी उसके

उस सात्विक भोलेपन में।८श्

री नरेश मेहता की कविता शबरी तो एक माध्यम है। वे शबरी को माध्यम बनाकर दलितों की भक्ति-भावना को प्रस्तुत करना चाहते हैं। जिन्हें आज सवर्ण दलित कहते हैं। वे दलित तो समाज ने बना दिए हैं। यदि वास्तविक रूप से देखें तो इनकी पवित्रा भक्ति किसी सवर्ण से कम नहीं हैं -

शबरी अपनी कुटिया में

थी महाभाव में डूबी

वह समय-देश से ऊप

प्रभु में तन्मय, रस-डूबी।

भीड़ के निकट आ पहुँची तो

ऋषि आश्रम बाहर आये,

तब तक दो देव पुरुष से

ऋषि चरणों पर झुक आए।

भगवान राम जब उसके आश्रम पर पहुँचते हैं तो उनके मुख से दलित-चेतना साकार हो उठती है -

प्रभु को देगी वह चरव

कर, होंगे रसाल जो मीठे,

वह प्रभु की जिह्वा बनकर

चक्खेगी कड़वे-मीठे।१०

साठोत्तरी हिन्दी कविता में श्री जगदीश गुप्त ने भी दलित-चेतना में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। आपका 'शम्बूक' नामक काव्य दलित-चेतना में मील का पत्थर सिद्ध हुआ है। 'शम्बूक' नाम का दलित पात्र महान् तपस्वी था। फिर भी घोर तपस्या करते समय उसका सिर काट दिया गया। वह भी किसी साधारण मानव ने नहीं, अपितु भगवान राम ने। दलितों के प्रति अपमान एवं शोषण तथा अन्याय की यह विषाक्त भावना समाज के मस्तक पर निश्चित ही कलंक है। इस कलंक को धोने का प्रयास साठोत्तरी हिन्दी कविता में हुआ है। समाज इस कुत्सित विचारधारा से मुक्ति पाने के लिये सजग है। श्री जगदीश गुप्त कृत 'शम्बूक' इसका यशस्वी उदाहरण है -

'हे राम!

तुम्हारी रची

रक्त की भाषा में

हर बार

तुम्ही से कहता है

शम्बूक मूक,

तज कर्म-वेद-पथ,/

.../मानव समाज की

ऊर्ध्वमुखी मर्यादा में

तुम गए चूक।११

शम्बूक जैसा दलित तपस्वी समाज के लिए पवित्र उदाहरण है। तपस्या करने का अधिकार तो सभी को है। दलित वर्ण तपस्या क्यों नहीं कर सकता? सवर्ण और असवर्ण तो समाज की देन है। हर कोई इंसान है तथा वह अपनी योग्यता एवं प्रतिभा के अनुसार कार्य कर सकता है। यह बात दूसरी है कि एक वर्ण को असवर्ण एवं दलित मानकर उसे उसके अधिकारों से वंचित कर दिया गया है। अब दलितों को उनके अधिकार प्रदान करने के लिए समाज कटिबद्ध हैं, साठोत्तरी कविता इसका प्रबल प्रमाण है -

मैंने जब माँगा

जन्म-सिद्ध अधिकार

आत्मा के शिखरों को छूने का

स्वयं खड्ग-पाणि हो

उतर आये हिंसा पर

मर्यादा पुरुषोत्तम।१२

साठोत्तरी हिन्दी कविता में दलित-चेतना की कड़ी में महाकवि दिनकर की 'परशुराम की प्रतीक्षा' नामक कृति भी अपना उल्लेखनीय स्थान रखती है। आपका विचार है कि जातिगत विद्वेष भारतीय समाज को कमजोर बना रहा है। जब तक यह जातिगत भावना भारतीय समाज से पूर्णतया समाप्त नहीं होगी, तब तक भारतीय समाज सशक्त नहीं बन सकेगा -

सबसे पहले यह दुरित-मूल काटो रे!

समतल पीटो, खाइयाँ-खड्ड पाटो रे!

बहुपाद वटो की शिरा-सोर छाँटो रे!

जो मिले अमृत, सबको समान बाँटो रे!

वैषम्य घोर जब तक यह शेष रहेगा,

दुर्बल का दुर्बल यह देश होगा।१३

आपका भारतीय समाज को स्पष्ट उद्बोधन था कि हम स्पर्श और अस्पर्श की द्वंद्वात्मक भावना को दूर करके ही भारत माता की सीमाओं की रक्षा करने में समर्थ हो सकेंगे -

पर सावधान! जा कहो उन्हें समझा कर,

सुर पुनः भाग जाएँ मत सुधा चुरा कर।

...इस बार जहर का भाग उन्हें भी देंगे।

वैषम्य शेष यदि रहा, शांति डोलेगी,

इस रण पर चढ़कर महाकांति बोलेगी।१४

इस प्रकार साठोत्तरी हिन्दी कविता में दलित-चेतना का अत्यंत मार्मिक और हृदयस्पर्शी चित्रा देखने को मिलते है। साठोत्तरी कवियों ने सबसे बड़ी और महान् चेतना मानव-समाज से संबंधित ही मानी है।

सभी मनुष्य समान हैं। शूद्र-समाज और ब्राह्मण-समाज का भेद व्यर्थ हैं, वास्तविक और आदर्श समाज यदि कोई है तो वह मानव-समाज है जिसमें सभी मानव एक दूसरे का हित चिंतन करते हुए परस्पर गले लगते हैं -

जब वह दानव को मानव बना सके,

और सब मानवों में साम्य की हो स्थापना

हम हैं अछूत, तो हमारे अंग स्पर्श से,

आर्यों के सुअंग क्या कु-अंक बन जावेंगे?

/.../

शूद्र मान, हम आर्य अपने को कहते।

किन्तु शूद्र और ब्राह्मणों में भेद कैसा?

जबकि सम्पूर्ण अंग मानवों के सब में?१५

निष्कर्ष यह है कि जब तक हमारे देश में छूत-अछूत एवं सवर्ण-असवर्ण की कुत्सित विचारधारा प्रचलित रहेगी, तब तक देश उन्नति के शिखर पर नहीं पहुँच सकता है।

दलितों के प्रति अत्याचारों का जब तक यह ताण्डव नृत्य होता रहेगा, तब तक मानवता कराहती रहेगी। जिस दलित जाति को सवर्ण सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते तथा उसे उसके अधिकारों से वंचित करते रहते हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसी दलित जातियों में ही कर्ण जैसे महावीर योद्धा एवं दानी, शम्बूक सरीखे घोर तपस्वी, एकलव्य जैसा वाण-वीर, शबरी जैसी निष्कलंक भक्तिन आदि ने जन्म लिया है और जिनके जीवन चरित्र पर कवियों ने अपनी लेखनी चलाई है।

संदर्भ ग्रन्थ

१. डॉ० सुखवीर सिंह-दीर्घा, पृ. १३

२. डॉ० जगदीश गुप्त-शम्बूक, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद षष्ठ संस्करण, पृ. ११

३. वही, पृ. ७१

४. डॉ० राम कुमार-एकलव्य, भारती भण्डार इलाहाबाद, संवत् २०१

५ पृ. ७०५. वही, पृ. १६५

६. श्री नरेश मेहता-शबरी, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण १९९६, पृ. 1

७. वही, पृ. ३९

८. वही, पृ. ३९९. वही, पृ. ६७

१०. वही, पृ. ७०११. डॉ० जगदीश गुप्त-शम्बूक, पृ. 1

१२. वही, पृ. ९९-१००

१३. श्री रामधारी सिंह दिनकर-परशुराम की प्रतीक्षा, उदयाचल प्रकाशन, राजेन्द्र नगर, पटना-१६, पृ. ३०

१४. वही, पृ. ३११५. श्री राम कुमार वर्मा-एकलव्य, पृ. ११२