साठ के दशक का इलाहाबाद / नीलाभ
एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञान लूकरगंज में रहता था। साठ के दशक का लूकरंगज इलाहाबाद में अपनी तरह का अनोखा मुहल्ला था। दारागंज, अहियापुर, ख़ुशहाल पर्वत और अतरसुइया को देख कर बनारस की याद आती थी, तो ख़ुल्दाबाद, नख़ास कोहना, या रानी मण्डी को देख कर दिल्ली के चाँदनी चौक, बल्लीमारान और खारी बावली की। इलाहाबाद के अपने ख़ास मुहल्लों में लूकरगंज हिरावल दस्ते में शामिल था। खुली सड़कें, नफ़ासत से बने बँगले, साफ़-सुथरी फ़िज़ा और हरियाली। यहाँ कुछ पुराने ईसाई परिवार रहते थे, जो उन्नीसवीं सदी की अन्तिम चौथाई में यहाँ आ बसे थे जब रेलवे लाइन नैनी से जमुना पार करके दिल्ली की ओर बढ़ गयी थी; एक बंगाली टोला था और कुछ ठेठ क़िस्म के इलाहाबादी। 1947 से कुछ पहले या बाद में हालाँकि सिन्धियों ने भी यहाँ सदल-बल बसने का फ़ैसला किया था, पर वे भी इसे उस तरह शरणार्थी मुहल्ला नहीं बना पाये थे, जैसे मीरापुर को पंजाबी शरणार्थियों ने बना दिया था। लूकरगंज की फ़िज़ा शरणार्थियों की उद्वेलन-भरी उदग्रता और आगे बढ़ने की मारा-मारी से अछूती थी।
वैसे तो यहाँ एक ज़माने में खड़ी बोली हिन्दी के पहले कवि माने जाने वाले श्रीधर पाठक रहा करते थे। लूकरगंज मैदान के पास ही उनकी ‘पद्मकोट’ नाम की कोठी थी और उनके बारे में क़िस्सा मशहूर था कि उनकी बग्घी कवि सुमित्रा नन्दन पन्त को लेने ऐलनगंज जाती थी।