साड़ी / रीना मेनारिया / कथेसर
मुखपृष्ठ » | पत्रिकाओं की सूची » | पत्रिका: कथेसर » | अंक: जुलाई-सितम्बर 2012 |
बजाजी बाजार रै मांय काज-बटण अर तुरपाई रो कांम करवा वाळी सुनीता नै आपरी सोसन्या साड़ी घणी व्हाली लागती ही। घणी जूनी होयगी तो ई कदैई-कदैई बा उण साड़ी नै ओढती कै माथा पै राख लेती अर कांच रै साम्हीं ऊभी होय'र खुद नै निरखती— छानै-छानै सूं। कारण, कै कोई देख लेवैला तो कांई कैवैला! मांग भर्यां नै तो दोय बरस व्हेगा हा।
दिन उगतां ई बेटी साधना तो भणवा सारू इस्कूल कानी वहीर व्हैती अर सुनीता घर रो काम-काज निपटायनै सिनान-सपाटा कर लेती। साधना रै टीपण रै सागै ई उण रै भी साग अर दो रोट्यां उतर जाती। भूख पकवा रै पछै इज वा रोट्यां कानी देखती, नींतर तो डोरा में इज उळज्योड़ी रैवती। रैवै ई कानी, काम ई सुई-डोरा सूं इज चालतो हो।
भूख लागती तो वा रोट्यां रा फोरा-फोरा कौर करती जाती अर निगळनै पाणी पीव लेती। सुवाद किण नै करणो हो? उण री तो जिंदगाणी ही बेसुवाद, बेसुरी होयगी ही। पेट-पीठ अेकमेक अनै हाथां पर उभरी नसां।
भूपेंदर ने हरिसरण हुयां दोय बरस होय गिया हा। नौकरी सूं आती वेळा घर रै गेला में इज एक बस आळै टक्कर कांई मार दी, प्राण ई काढ ले गियो। कोई बंचावण सारू नीं आव्यो। स्हैर रै मांय इत्तो टेम किणनै। साग-भाजी रो थैलो तो गाय डकार गी अर जेब साफ कर दीनी गेलै बगतां।
घरै नीं पूगौ भूपेंदर... तो आज गियौ कठै... सुनीता री तो आंख फडूका मारती जाय री ही... रैय-रैय'र... कंपणी रो चौकीदार आ कैय'र फोन मेलै हो कै बाबूजी तो आफिस सूं टेमसर इज निकळ गिया हा। सांझ री रात होयगी अर घड़ी-घड़ी उडीकती सुनीता नै लगै-टगै आधी रात अेक पुळिस आळै आय'र कैयौ कै सॉरी! भूपेंदरजी री बॉडी मोरचरी मांय राख्योड़ी है, परभात व्हैता ईं सूंप देस्यां...।
सुणतां ई तो सुनीता नै विसवास कोनी हुयो। पगां सूं जमीं खिसक गी। माथौ चकरी चढ गियो। उणरी तो बसी-बसाई दुनिया ही उजडग़ी। रोवण लागी तो रोवती ई गी। मिरग जैड़ी आंख्यां रै मांय बुण्योड़ा छोटा-छोटा सुपना अेक ई समचै चिंथीज गिया।
पाड़ौस री लुगायां उणनै धीर बंधाई— 'आंख्यां मत फोड़ौ बींदणी! होणी नै कुण टाळ सकै है... विधाता री खैंच्योड़ी लकीरां नै कोईज नीं मिटाय सकै। कद किणरो बुलावो आय जावै, कांई ठा!'
पण, धणी सूं मोटो कांई भरोसो। सुनीता तो आपरै पति सूं बारै दुनिया ई कोनी देखी, वा आज उणरै बिना कीकर रैसी। उणरा नैण सावण-भादो बण गिया।
वा हाय-तौबा करती कैयरी ही— 'कांई म्हारी झूंपड़ी इज निंगै आवी थनै रामजी! अरे काइज नीं मांग्यौ थारै सूं फगत धणी री जिंदगी रै सिवाय अर वा ई थांरै सूं देवणी नीं आवी... अरै कांई पाप कर्यो म्हैं अैड़ो... किण बात री सजा दीवी है म्हनै... म्हारी मांग सूनी कर दी... विधाता... थूं तो साव उजळो रैयगो अर नाम बस रै डरेवर रो आयग्यो... कांई लीला है रै थारी...।' अर वा छाती-माथा कूटण लागी।
वा थावस देवां सूं नीं मानै। कैवती जावै—'अरै रामजी... ओ कांई कर्यो! ईं दुनिया रै मांय कांई म्हारी छोटीक गिरस्थी भी थां सूं देखी नीं गी... म्हारो अेक सहारो भी थैं छीण लियो... अरै क्रूर विधाता! भूपजी रा प्राण हरण सूं पैलां सोचतौ तो... धणी तो गारा रो हुवै तो ई धणी तो धणी है... वो हाजो-मांदौ, जैड़ो भी वंच सकतो, वंचायनै राखती, म्हैं देखती अर सेवा ई करती...।'
भूपेंदर रा पछै किरिया-करम रा तेरा दिन कठैई निकळ गिया। महीना री धूप लागी। छै महीना री धूप लागी अर वरसी भी होयगी। फूल मुरझाय गिया। फूलां री बास हीज रैयगी। खाली उण री बातां ही रैय-रैय'र याद आवती।
भूपेंदर भणाई में हो तो अव्वल पण नौकरी मांय पाछै रैय गियो। वो कदैई-कदैई कैवतो हो कै जद भगवान रै दुवार माथै अकल अर किस्मत बंट रैयी होवै तो अपांरै तो किस्मत मांग लेणी चाइजै क्यूंकै तकदीर आळां रै घरां तो अकलमंद भी नौकर हुया करै... भागवानां रै भूत कमावै, खरचो हुवै तो ई ब्याज सूं आवै।
कैई-कैई जग्यां इंटरव्यू देतो फिर्यो जद कदैई जाय'र अेक नानीसीक नौकरी हाथ आवी। नौकरी कांई मिली, कंपनी आळै तो भूपेंदर नै जाणै मोल ई ले लियो कै पछै गैणै मांड लियो। सुबै 9 बज्यां सूं लेय'र रातै 7 बज्यां तांई कंप्यूटर रै स्क्रीन माथै ई आंख्यां चिपक्योड़ी। हाथ चालै, दिमाग दौड़ै पण जीभ तो मूंडा मांय चिपकी इज रैवै।
ऊपर सूं कमरा मांय सीसी कैमरा लाग्योड़ा। मैनेजर देखबो करै, कुण कांई करै है? कुण कमरा मांय है अर कुण बारै। कुण हाथ माथै हाथ राख'र बैठ्यो है अनै कुण काम कर रियो है? मैनेजर री निजरां मांय नौकरी बचावण री इज परीक्षा रोजाना हुया करती। भूपेंदर आपरै काम में इज लाग्यो रैवतो। स्हैर अर गांव रा जाया-जळमिया में ओ ई फरक हुया करै। गांव रो जळमियो ल्याज में भी नौकरी करै, खुद रो खून पायां जावै, पण मूंडै कोनी आवै अर स्हैर वाळो दूजै ठौड़ नौकरी करण री सोचै कै उठै आछो परमोसण अर रिपिया दोनूं बढ़'र मिलसी।
भूपेंदर में गांव रा घणां ई गुण कूट-कूट'र भर्योड़ा हा। उणरी कैई बातां सुनीता री आंख्यां आगै घूमती। वा रैय-रैय'र उणरी आदतां नै याद करती... उणरा प्रेम नै याद करती... उणरा संघर्ष नै याद करती... मालिक अर मैनेजर उणरी ईमानदारी अर काम री खिमता री बड़ाई कर-कर'र दो जणां जित्तो काम उण री छाती पै मांड्यां राखता। इण काल में कंपनी में कैई लोग आया अर चालता बण्यां, पण भूपेंदर री गाड़ी चोखी चालती रैयी।
सुनीता उण बात नै कीकर भूल सकै जद पैलड़ली वार तनख्वाह मिली। लोग तो पैलड़ली तनख्वाह नै किणी मंदर में परसादी सारू खरच करै कै आपरै धरम रै गेला मांय चढाय दै, पण भूपेंदर तो वो कर्यो जो कोईक इज करै, जिण सूं दोयां रै विच्चै प्रेम री बेलड़ी अमर व्है जावै।
तनख्वाह लेय'र वो बजाज्यां रै बजार री सैरां चाल्यो अर सोसन्या साड़ी लेय'र आयो। पाको रंग अर सोभती-सुहाती। पैलड़ली तनख्वाह री पैलड़ली साड़ी। पैलड़ली रात अर पैलड़ली बात कदैई काळ नीं भुलाय सकै। थबौळा खाता सागर जित्तौ प्रेम उण साड़ी रै ओळावै भूपेंदर आपरी सुनीता रै माथै उळीच दियो हो।
कैवा सूं तो आ साड़ी खाली लूगड़ी ही, पण ही प्रेम रो चीर। सुनीता उणनै खूब ओढी। भूपेंदर फरमाइस कर-कर'र ओढाई। दोनूं ई साड़ी री मैमा करता नीं थाकता। साड़ी रै अेक कानी जद आखो आय गियो तो भूपेंदर आपरै हाथ सूं अेक वणावटी फूल सींव दियो। बजार सूं थैगळी रो गाभो लायो। उण में अेक चिंदी रै माथै गुलाब रै फूल रो कसीदो हो। भूपेंदर सोचियो कै ओ फूल साड़ी रै ईं आखा पै चोखो लागसी। आखा नै ढांकणा रो ढांकणो अर फूल रो दीसणो रो दीसणो।
आपरा हाथै कतरणी उठाई अर तरकीब सूं काट-छांट'र तुरपाई री सुई अर साड़ी रो इज डोरो खींच'र उणी आखा नै ढांक द्यो। पैलड़ली तनख्वाह री पैलड़ली साड़ी सारू कर्यो ओ जतन भाटा पै मंड्या आखर ज्यूं उणरा हिया में मंड गियो। सोसन्या साड़ी इतरी मन भाती कै कदैई सुनीता रो भूपेंदर पै पे्रेम उमड़तो तो वा साड़ी ओढती परी।
साधना रै जळम सूं पैलां इत्ता कितरा ही मौका आया जद सुनीता साड़ी ओढ्यां-ओढ्यां ही सोयगी। भूपेंदर रातै हळकी ठंड लागण री बात कैय'र जोड़ायत री साड़ी ओढ़ लेवतो अर सुनीता... इण में सरम किसी ही। दो ई तो हा, देखण आळा अर सोवण आळा...। सुनीता उठ'र चादरो ओढ़ाय देती तो वो आंख्या मींच्या ही बड़बड़ातो- 'चादरा मांय तो तपै। साड़ी इज आछी है, ओढ़ण दो...।'
आ साड़ी इज तो सगळी साडिय़ां में पटराणी ही। भूपेंदर कैवतो— 'थूं इणनै संभाळ'र राखिजै। इण में म्हारा प्रेम रा तार तो ताणो है अर थांरै प्रेम रा तार रो बाणो... इण रै ओढवा सूं प्रेम बढैला।'
'आ साड़ी ओढूं तो म्हनै ई लागै कै थे म्हारै सागै ही हो राज!'
भूपेंदर ओ सुण'र मुळक देवतो अर अेक पल्लू उण रै माथा पै ढांक देवतो। कैवतो कै प्रेम रा ताणा-बाणा रै नीचै म्हारी सन्नू...!'
कदैई जद वा साड़ी ओढ़ती अर खाणो बणाय देती तो भोजन आरोगियां पछै भूपेंदर आपरा हाथ उणी साड़ी सूं पूंछतो। जद वा कैवती— 'थे खाणो जीम'र हाथ-मूंडो इण साड़ी सूं ई पूंछता रिया तो आ तो तार-तार व्है जावैली। हाथ तो नैपकीन सूं पूंछ लिया करो।' सुनीता कैय तो देवती, पण उण सूं दूर नीं होवणो चावती।
आज सुनीता नै वै सगळी बातां याद आय री ही जद उण सोसन्या साड़ी ओढी। कांच रै साम्हंै ऊभो होवणो, उणनै आत्मा सूं मंजूर कोनी हो, पण वा आपरी आंख्यां में भूपेंदर री आंख्यां जाण'र खुद नै निरखवा रो लोभ नीं छोड़ सकी ही। वार-तिंवार नुंवा कपड़ा नीं पैरती-ओढती। सोसन्या साड़ी इज उणरै वेस सूं कांई कीधा कमती नहीं ही।
अेकर साधना टुकारो द्यो— 'कांई मां! तिंवार पै तो भीलड़ी भी भुजिया बणा'र खावै। आ बात थे ही तो कैया करो... आखो मुलक नुवा गाभा पैरै, पण थूं है कै या थैगळी लागी साड़ी टांक ले... आ जूनी-पुराणी साड़ी म्हनै कोनी सुहावै।'
बेटी रै आगै मुलजिम री नाईं ऊभी सुनीता कांई कैवती। उण रै मूंडै सूं ओ हीज निकळ्यो— 'बेटी म्हारै किसा वार अर किसा तिंवार! होक पै किसा सिणगार। आ साड़ी थारा बापू लेय'र आया हा... पैली अर आखिरी साड़ी। कैवता कै इण नै संभाळ'र राखिजै... आ थैगळी भी उण रै हाथां सूं ई तुरपी... इण नै ई ओढ्यां म्हारा तिंवार होय जावै...।' मां री बात सुण'र बेटी कांई करती।
मां रै आंसूड़ा आगै साधना री पीड़ ई बैयगी ही। वा जाणगी ही कै आ साड़ी मां अर बापू रै प्रेम री सैनाणी है... साधना ई आपरै आंसूड़ा नै नीं रोक सकी।
उण दिन पछै साधना कदैई माऊं नै नीं वरजी। साधना रै किरोध री बाढ नै माऊ री आंख्यां रा आंसू बांध बण'र रोक ली अर दूजी आड़ी सुनीता उण साड़ी नै पछै इण कारण सूं नीं ओढी कै कठैई फाट नीं जावै। भूपेंदर उण साड़ी नै जतन सूं राखण री भळावण दी ही। जद कदैई ओळूं आवै, सुनीता उण साड़ी नै माथै चढ़ाÓर पाछी पेटी मांय मेलती परी।