सात अरबवें का स्वागत / गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'
कुछ दिनों पहले प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया तक में सात अरबवें बच्चे के जन्म को लेकर हाय-तोबा मची हुई थी। पहले यह बधाई नवाबों के शहर लखनऊ को मिलने वाली थी फिर किसी और ने लपक ली। अभी कुछ पक्का नहीं कहा जा सकता कि इसका असली हकदार कौन होगा। गिनीज बुक में किसकी फोटो छपेगी।
इस प्रसंग में अपने गिरगिट की राय गजब की है। उसका कहना है कि, क्या यह खबर कालाहांडी में पहुँची है? यदि नहीं पहुँची है तो तुरंत पहुँचाओ.........। यह मेडल पक्का वहीं गिरेगा। अगर आप सही टेम बताओ तो मैं बता सकता हूँ कि इसका असली हकदार कौन है क्योंकि जिस समय यह खबर टी.वी. पर आ रही थी उस समय से 15 मिनट पहले अकेले मेरे गाँव में एक साथ सात-सात शिुशु अवतार ले चुके थे। ठीक उसी समय तीन-चार कन्याएँ या तो तकिए से दबकर या परात के पानी को पीकर परलोक जा चुकी थीं। यदि उन अभागी प्रसूताओं को पता होता तो सात अरबवें की सच्ची हकदार इन्हीं में से कोई बच्ची होती। अपने देश की एक चौथाई जनसंख्या आंकड़ों में या तो पैदा ही नहीं होती और सरकारी आँकड़ों में किसी तरह पैदा करा भी दी जाए तो फिर मरती नहीं।
हमारे गिरगिट के अनुसार गाँवों की प्रसूति गृह की घुप्प अँधेरी कोठरी में ढिबरी के उजाले में ठीक घड़ी भी नहीं देखी जा सकती और कोई देखने वाला मिल भी जाए तो मानक समय से घंटों का अंतर पिए बैठी ये घड़ियाँ कब किसी को कुछ देने-दिलाने देंगी? आज से तीन-चार दशक पहले के गाँवों में हमारे आप जैसों में से कितनों के घर घड़ियाँ होती थीं? ऐसे में गाँव के मुखिया की घड़ी ही काम आती थी। उसी से कुंडलियाँ काढ़ी जाती थीं। भविष्य का निर्धारण होता था। उन्हीं से शादी-ब्याह जैसे अहम फैसले होते थे। इन्हीं घड़ियों और बनारस के खटखटिया प्रेसों में छपे पंचागों ने मिलकर न जाने कितनों को मंगली करार देकर कोख से लेकर कब्र तक क्वाँरा रखा।
गनीमत है कि हिंदू धर्म की तरह घड़ी घंटाल का बवाल अन्य धर्मों में नहीं होता वरना ओसामा के पिता कितनी कुंडलियाँ मिलाते बनवाते। अभी हाल में असम के एक ऐसे महान व्यक्ति का पता चला है जिसके शायद 40 पत्नियाँ और 94 बच्चे हैं। यदि इन महापुरुषों का दुनिया को यही योगदान आगे भी मिलता रहा तो जहाँ एक अरब जनसंख्या बढ़ाने में बारह बरस लगे वहीं आगे यह अवधि घट कर साल दो साल से ज्यादा नहीं रह पाएगी।
सात अरबवें गुमनाम बच्चे की खुशी में केक काटने वाला ही था कि इतने में न जाने कहाँ से गिरगिट आ धमका। उसने मेरे हाथ से चाकू छीन लिया और बोला, मूरख! केक काटने के पहले क्या तुमने यह सोचा कि यह सात अरबवाँ बच्चा आखिर पैर कहाँ रखेगा? क्या इतनी जगह दुनिया में बची है कि वह अपना पाँव इस धरा पर टिका सके?
यह प्रश्न सुनते ही मेरे पावँ के नीचे की किराए की जमीन खिसकने लगी। हकीक़त में तो वहाँ ज़मीन थी ही कहाँ, जो खिसकती? जहाँ मैं खड़ा था वहाँ एक बहुमंज़िली इमारत के कुतुबमीनारी खंभों पर लटकी ग्यारहवीं मंज़िल का वन बी.एच.के. फ्लैट था। खैर! उसे फ्लैट कहकर केवल मैं खुश होता रहा हूँ। वरना उसके ढाई फुटे ट्वायलेट में फँसे मेरे ताऊ, चिकनी टाइल्स पर लुढ़की मेरी माँ से पूछो तो वे इस फ्लैटिया कल्चर को सिरे से ही खारिज करते हैं। उनके अनुसार इन फ्लैटों में यदि एक भैंस बाँध दी जाए तो वह सही से ढंग से साँस भी न ले सकेगी।
खैर! यदि फ्लैट कल्चर विकसित न होती तो शहरों में ज़मीन पर पाँव रखने की जगह न मिलती, विशेष रूप से महानगरों में फिर भी स्वागत है उस नरगिस का जो दिला सकती है सात सौ करोड़वें शिशु(व्यक्ति) का तोहफा! हमारे जनसंख्या प्रधान महान देश भारत को!