सात सुरों की सफल साधना / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
साथ छेद वाली मैं (ताँका-संग्रह) : डॉ सुधा गुप्ता , प्रकाशक :निरुपमा प्रकाशन 506/13 शास्त्री नगर , मेरठ (उ प्र0) , पृष्ठ: 64 (सज़िल्द), मूल्य :100 रुपये ; संस्करण : 2011 ई -मेल- nirupmaprakashan@gmail.com
डॉ सुधा गुप्ता जी हाइकु जगत् की सम्बद्ध विधाओं की प्रयोगधर्मी रचनाकार हैं ; चिन्तन और शिल्प दोनों ही क्षेत्रों में आपका रचनात्मक व्यक्तित्व पूरी तरह उभरकर आया है । साहित्यकार अगर लकीर का फ़क़ीर रहा होता तो ताँका से हाइकु उद्भूत न हुआ होता । जापान की ये विधाएँ दरबारी परम्परा का ही चक्कर लगाती रहतीं । स्वानुभूति कविता का प्राण है ।कवि की ईमानदारी अपने अनुभवजन्य संसार के प्रति ज़्यादा होती है।शिल्प का निरन्तर विकास विधा को निखारता है । डॉ सुधा गुप्ता जी की हर नई कृति नए साहित्य -संस्कार के रूप में हमारे सामने आती है ।वैसे तो आपने सन् 2000 में ताँका लिखना शुरू किया था। इनके 56 ताँका ‘बाबुना जो आएगी’(2004) में तथा 61ताँका ‘कोरी माटी के दिये’(2009) में छपे। ‘सात छेद वाली मैं’ इनका नया ताँका संग्रह है । इसमें इनके 153 ताँका संगृहीत हैं । पुस्तक को सात अध्यायों में बाँधा गया है -नीराजना,, बाँसुरी अष्टक,राधिका और कान्हा,प्रकृति और परी, शैशव और सपने,दु:ख मेरे अपने, सच से मुठभेड़ । ‘प्रकृति -परी’ और ‘सच से मुठभेड़’ दोनों अध्याय बड़े हैं ।इनमें क्रमश 48 और 40 ताँका हैं । पाँच पंक्तियों और 5+7+5+7+7= 31 वर्णों के लघु कलेवर में भावों को गुम्फित करना सतत अभ्यास और सजग शब्द साधना से ही सम्भव है ।
‘बाँसुरी अष्टक’ में बाँस की निकम्मी पोरी के बेसुरे रूप से बाँसुरी तक की यात्रा को व्यंजित किया गया है -
बाँस की पोरी / निकम्मी खोखल मैं /बेसुरी , कोरी /तूने फूँक जो भरी /बन गई ‘बाँसुरी
जीवन को मुग्ध करने वाला प्रमुख कारक होता है सुर । सुरविहीन जीवन तो जीवन नहीं है ।इसी से जीवन -रस का उद्रेक होता है । मनुष्य क्या पशु-पक्षी भी इसी सुर के वशीभूत हैं । इसका प्रभाव जादू -टोने की तरह मुग्धकारी होता है , तभी तो गैया का छौना दूध पीना भूल गया है , मोर और शुक चित्रवत् हो गए हैं-
तेरा ही जादू /दूध पीना भूला है /गैया का छौना /चित्र -से मोर,शुक / कैसा ये किया टोना
‘राधिका और कान्हा’ में संयोग का मन -प्राण को बाँध लेने वाला दृश्य उपस्थित कर दिया है । रूप- माधुर्य का ऐसा अद्भुत प्रभाव राधिका की नींद ही छीन लेता है ।उसकी एक पल को भी पलक नहीं लगती-
मिली झलक / लगी नहीं पलक/रूप सलोना/श्याम ने किया टोना/राधिका भूली सोना
नीरस बाँस की बाँसुरी श्याम और राधा के बीच की सबसे बड़ी बाधा बन जा रही है, ईर्ष्या का संचार करने वाली । इस सौत -बाधा के कारण राधा का बुरा हाल हो गया ।वह बाँसुरी को किसी भी तरह से छुपाकर कन्हैया की आँखों से दूर करना चाहती है-
बाँस कि पोरी / बनी रे मुरलिका /श्याम दीवानी /राधिका रो-रो मरे /चुराए, छिपा धरे
कान्हा के चले जाने पर राधा की व्याकुलता कई गुना बढ़ जाती है । उसका आँचल सदा आँसुओं से भीगा रहता है । किसी भी पल वह आँचल सूख नहीं पाता है । विरह की यह मार्मिक व्यंजना आँखों के आगे विरह-विधुरा राधा की व्यथा का भावानुवाद बन जाती है-
कान्हा क्या गए /राधा हुई बावरी /कैसी विकल सदा गीला आँचल सूखे न किसी पल
‘प्रकृति-परी’ में सुधा जी का मन खूब रमा है ।इनका प्रकृति -प्रेम कोई किताबी ज्ञान नहीं ,वरन् जीवन-जगत् का अनुभूत सत्य है । प्रकृति को रूपाकार देते इनके बिम्ब नवीनता तो लिये हुए हैं ही ,साथ ही अर्थ को सम्प्रेषित करने में भी सक्षम हैं । चाँदनी रात का प्रभाव देखिए , पक्षियों तक को कैसे भ्रमित कर देता है-
चाँदनी -स्नात /शरद-पूनो रात /भोर के धोखे /पंछी चहचहाते /जाग पड़ता वन
सूरज दादा का मानवीकरण तो बहुत ही सहज बन पड़ा है । किरण छड़ी फटकारते मास्टर जी का बरसों पुरान रौबीला रूप और बड़ी सुबह पाठ सुनाते पंछी , जैसे कि वे पंछी न होकर किसी पाठशाला के नन्हे -मुन्ने बच्चे हों और मास्टर जी को एक स्वर में ,ऊँची आवाज़ में अपना याद किया हुआ पाठ सुना रहे हों ।प्रकृति और जीवन का अद्भुत बिम्ब प्रस्तुत किया है -
बड़ी सुबह /सूरज मास्टर दा’/किरण-छड़ी/ले, आते धमकाते/पंछी पाठ सुनाते
गर्मी का भीषणतम का रूप भी दर्शनीय है । लगता है पूरा जंगल तेज़ बुखार से तप रहा , उस पर कड़ी धूप ,जो पैताने आकर बैठ गई है । पानी का अभाव और पिपासाकुल प्रकृति रूपी बैचैन रोगी की दारुण स्थिति का बहुत ही प्रामाणिक चित्रण किया गया है । पाठक एक बार सोचने लगता है कि क्या केवल पाँच पंक्तियों में इतनी तीव्रता समा सकती है ! हाँ जी , सुधा गुप्ता जी को यह कमाल हासिल है , देखिए-
ज्वर से तपे /जंगल के पैताने /आ बैठी धूप /प्यासा बेचैन रोगी /दो बूँद पानी नहीं।
इसी तरह इस ताँका में दिलजले सूरज के कारण भीषण गर्मी का रौद्र रूप देखिए-
फेंकता आग /भर-भर के मुट्ठी/धरा झुलसी/दिलजला सूरज/जलाके ही मानेगा।
जीवन की सार्थकता छोटे या बड़े कार्यकाल में नहीं वरन् जिए गए पलों की सार्थकता में है। तितली का साधारण -सा जीवन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है -
बहुत छोटा /तितली का जीवन/उड़ती रहे/पराग-पान करे/कोई कुछ न कहे।
हरसिंगार का सौन्दर्य उसका अपने पुष्पों के भार में झुक जाना ही है। वह बोझ उससे उठाए नहीं बनता, वैसे भी सौन्दर्य का भार किससे कब उठा है भला जो बेचारा हरसिंगार उठाता-
अपने भार /झुका हरसिंगार/फूलों का बोझ/उठाए नहीं बने/खिले इतने घने
गुलमोहर का बिम्ब तो सार्वजनिक जीवन से लिया है; जिसमे नवीनता तो है ही ,साथ ही हरी पोशाक पहनकर और चोटी में फूल गूँथकर स्कूल जाती छात्राओं का बड़ा ही मनोहर सादृश्य है। सारा मानवीकरण और दृश्य बिम्ब मानस पटल पर उतर आया है-
पाँत में खड़े /गुलमोहर सजे /हरी पोशाक /चोटी में गूँथे फूल /छात्राएँ चलीं स्कूल
चपन वह अमूल्य निधि है जो सबको उस समय मिलती है , जब उसकी कीमत का पता नहीं होता है और जब कीमत का पता चलता है , उस समय वह निधि कहीं गुम हो चुकी होती है , कभी न मिलने के लिए । अलभ्य क्षण बनकर । छोटे -छोटे नयनों में सपनों का विस्तार तो आकाश जैसा सीमा हीन है।‘शैशव , यौवन और सपने’ में सुधा जी ने इसे प्रस्तुत किया है -
सुन रे बच्चे /सपने तेरे बड़े /नयन छोटे /आकाश तेरा घर /ले उड़ान जीभर
और इस सपनों की गठरी को भी देखिए-
मीठी है हँसी ।मधुर बचपन /बेफ़िक्र दौड़ /सपनों की गठरी /उठाए फिरे मन
लड़कियों के लिए वर्जना की कोई सीमा नहीं है ,फिर भी उसकी उड़ान देखिए कि वह बिना पंखों के भी सभी बन्दिशों को ठेलते हुए कितनी ऊँची उड़ान भरने की क्षमता और लालसा रखती है -
बिना पंख के /उड़ती है लड़की /खुले आकाश /बरज रही दुनिया /माने न कोई बाधा
सुख डाली पर लगे फूल की तरह होता है ; जो सदा नहीं रहता।,जल्दी ही झर जाता है । भाव को हम जीवन का सच्चा स्वरूप मानते हैं ; परन्तु बिना अभाव के इस भाव के महत्त्व का पता भी नहीं चल पाता है । जो वस्तु या सुख हमारे पास है , उसका महत्त्व हम तब जान पाते हैं ; जब वह हमारे हाथ से रेत की तरह फिसल जाता है । इसीलिए सुधा जी ‘दु:ख मेरे अपने’ में कहती हैं-
सुख पराया / दु:ख मेरे अपने/ साथ निभाते /सहचर बनाया / सदा गले लगाया ।
कोई कितना भी प्रिय क्यों न हो , कभी सदा साथ नहीं रहता और न साथ जाता ही है ।यह जीवन का ध्रुव सत्य है कि सबको अकेले ही आपना काँटों- भरा सफ़र तय करना होता है-
कोई दो जन / कभी साथ न जाते /धैर्य न पाते / अकेले रह गए / मौत से छले गए
खोने की व्यथा तो वही जान सकता है , जो दहकते अंगारों पर वह चला है; जिसने जीवन के उन कठिन पलों को जिया है । दु:खों का यह सान्निध्य भी अनोखा है कि इसे गले लगाना पड़ता है-
तुम्हें क्या खोया /ज़िन्दगी की स्लेट से / नाम मिटाया /आँसुओं डूब गई / दु:ख गले लगाया
‘सच से मुठभेड़’ में सुधा जी ने जीवन के कटु यथार्थ को बड़ी तीव्रता से व्यंजित किया है ।अकेलेपन के सिवाय दु:ख में कोई भी किसी का साथी नहीं बनता । घर-परिवार साथी हैं तो सिर्फ़ सुखों की सीमा तक , उससे बाहर नहीं ।
सुख का साथी / घर-परिवार/ दु:ख का साथी / सिर्फ़ अकेलापन / किसे खोजे पागल
सुख -दुख के लिए सुधा जी ने जो प्रतीक प्रयुक्त किया है , वह हमारे दैनन्दिन जीवन का अटूट हिस्सा है -
भाई-बहन / सुख-दु:ख की जोड़ी /साथ रहती / कभी मत भूलना / झूले पर झूलना
दु:खों के दरिया में यदि कोई कश्ती चल पाती है तो वह है दु:खों की कश्ती । उसके चलने का कारण कवयित्री ने बहुत ही सहज भाव से बताया है-
अकेली चली / दु:खों के दरिया में/ आँसू की कश्ती /खुद ही मँझधार / खुद ही पतवार
सुधा गुप्ता जी की इस ‘सात छेद वाली मैं’ में सात तरह की भाव -जलधारा बहती जाती है और रसिक पाठक को आप्लावित करती जाती है । कवयित्री ने संश्लिष्ट अभिव्यक्ति के माध्यम से भावों की अनुपम छटा बिखेरी है । सफल काव्य का शाश्वत प्रतिमान यही हो सकता है कि रसज्ञ पाठक रचना से तादात्मय कर सके , सह-अनुभूति कर सके ; अर्थात् जो रचनाकार से अनुभव किया है ठीक वैसा ही प्रामाणिक अनुभव पाठक का भी हो जाए । डॉ. सुधा गुप्ता जी ने ताँका में पिरोकर ऐसे ही अविस्मरणीय विविधवर्णी और सुगन्धित पुष्प प्रस्तुत किए हैं ।इनकी सफल प्रस्तुति के पीछे डॉ सुधा गुप्ता जी की भावों में अनुस्यूत शब्द और अर्थ की लम्बी साधना है-वागर्थ से पूरी तरह सम्पृक्त ।ताँका में उदात्त रचना का यह प्रथम प्रयास है जो आने वाली पीढ़ी के लिए चुनौती है । चुनौती इस रूप में नहीं कि आने वाली पीढ़ी ताँका रचना करेगी या नहीं। मेरा सोचना है कि अनुभव और अनुभूति से आप्लावित , भाषा का ऐसा लालित्य कोई दो -चार दिन में नहीं आता। यह जीवन के सागर में गहन अवगाहन से ही प्राप्त होता है। ऐसी भाव-शक्ति और शब्द -सामर्थ्य विरले साहित्यकारों के पास होती है। -0-