साथी / सत्य के प्रयोग / महात्मा गांधी

Gadya Kosh से
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ब्रजकिशोरबाबू और राजेन्द्रबाबू की तो एक अद्वितीय जोडी थी। उन्होने अपने प्रेम से मुझे इतना पंगु बना दिया था कि उनके बिना मै एक कदम भी आगे नही जा सकता था। उनके शिष्य कहिये अथवा साथी , शंभूबाबू, अनुग्रहबाबू , धरणीबाबू और रामनवमीबाबू -- ये वकील लगभग निरन्तर मेरे साथ रहते थे। विन्ध्याबाबू और जनकधारीबाबू भी समय समय पर साथ रहते थे। यह तो बिहारियो का संघ हुआ। उनका मुख्य काम था लोगो का बयान लेना।

अध्यापक कृपालानी इसमे सम्मिलित हुए बिना कैसे रह सकते थे ? स्वयं सिन्धी होते हुए भी वे बिहारी से भी बढकर बिहारी थे। मैने ऐसे सेवक कम देखे है , जिनमे वे जिस प्रान्त मे जाये उसमे पूरी तरह घुलमिल जाने की शक्ति हो और जो किसा को यह मालूम न होने दे कि वे दूसरे प्रान्त के है। इनमे कृपालानी एक है। उनका मुख्य काम द्वारपाल का था। दर्शन करनेवालो से मुझे बचा लेने मे उन्होने जीवन की सार्थकता समझ ली थी। किसी को वे विनोद करके मेरे पास आने से रोकते थे, तो किसी को अहिंसक धमकी से। रात होने पर अध्यापक का धन्धा शुरू करते और सब साथियो को हँसाते थे और कोई डरपोल पहुँच जाय तो उसे हिम्मत बँधाते थे।

मौलाना मजहरुल हक ने मेरे सहायक के रूप मे अपना हक दर्ज करा रखा था और वे महीने मे एक-दो बार दर्शन दे जाते थे। उस समय के उनके ठाटबाट और दबदबे मे और आज की उनकी सादगी मे जमीन-आसमान का अन्तर है। हमारे बीच आकर वे हमसे हृदय की एकता साध जाते थे , पर अपनी साहबी के कारण बाहर के आदमी को वे हमसे अलग जैसे जान पड़ते थे।

जैसे-तैसे मुझे अनुभव प्राप्त होता गया वैस-वैसे मैने देखा कि चम्पारन मे ठीक से काम करना हो तो गाँवो मे शिक्षा का प्रवेश होना चाहिये। लोगो को अज्ञान दयनीय था। गाँवो के बच्चे मारे-मारे फिरते थे अथवा माता-पिता दो या तीन पैसे की आमदनी के लिए उनसे सारे दिन नील के खेतो मे मजदूरी करवाते थे। उन दिनो वहाँ पुरूषो की मजदूरी दस पैसे से अधिक नही थी। स्त्रियो की छह पैसे और बालको की तीन पैसे थी। चार आने की मजदूरी पाने वाला किसान भाग्यशाली समझा जाता था।

साथियो से सलाह करके पहले तो छह गाँवो मे बालको के लिए पाठशाला खोलने का निश्चय किया। शर्त यह थी कि उन गाँवो के मुखिया मकान और शिक्षक का भोजन व्यय दे , उसके दूसरे खर्च की व्यवस्था हम करे। यहाँ के गाँवो मे पैसे की विपुलता नही थी, पर अनाज वगैरा देने की शक्ति लोगो मे थी। इसलिए लोग कच्चा अनाज देने को तैयार हो गये थे

महान प्रश्न यह था कि शिक्षक कहाँ से लाये जाये ? बिहार मे थोडा वेतन लेने वाले अथवा कुछ न लेनेवाले अच्छे शिक्षको का मिलना कठिन था। मेरी कल्पना यह थी कि साधारण शिक्षको के हाथ मे बच्चो को कभी न छोडना चाहिये। शिक्षक को अक्षर-ज्ञान चाहे थोड़ा हो , पर उसमे चरित्र बल तो होना ही चाहिये।

इस काम के लिए मैने सार्वजनिक रूप से स्वयंसेवको की माँग की। उसके उत्तर मे गंगाधरराव देशपांडे ने बाबासाहब सोमण और पुंडलीक को भेजा। बम्बई से अवन्तिकाबाई गोखले आयी। दक्षिण से आनन्दीबाई आयी। मैने छोटेलाल, सुरेन्द्रनाथ तथा अपने लड़के देवदास को बुला लिया। इसी बीच महादेव देसाई और महादेव देसाई और नरहरि परीख मुझे मिल गये थे। महादेव देसाई की पत्नी दुर्गाबहन और नरहरि परीख की पत्नी मणिबहन भी आयी। मैने कस्तूरबाई को भी बुला लिया था। शिक्षको और शिक्षिकाओ का इतना संघ काफी था। श्रीमति अवन्तिकाबाई और आनन्दीबाई की गिनती तो शिक्षितो मे हो सकती थी, पर मणिबहन परीख और दुर्गाबहन को सिर्फ थोडी-सी गुजराती आती थी। कस्तूरबाई की पढाई तो नही के बराबर ही थी। ये बहने हिन्दी-भाषी बच्चो को किसी प्रकार पढ़ाती ?

चर्चा करके मैने बहनो को समझाया कि उन्हे बच्चो को व्याकरण नही, बल्कि रहन-सहन का तौर तरीका सिखाना है। पढना-लिखना सिखाने की अपेक्षा उन्हें स्वच्छता के नियम सिखाने है। उन्हें यह भी बताया कि हिन्दी, गुजराती, मराठी के बीच कोई बड़ा भेद नही है , और पहले दर्जे मे तो मुश्किल से अंक लिखना सिखाना है। अतएव उन्हें कोई कठिनाई होगी ही नही। परिणाम यह निकला कि बहनो की कक्षाये बहुत अच्छी तरह चली। बहनो मे आत्मविश्वास उत्पन्न हो गया और उन्हें अपने काम मे रस भी आने लगा। अवन्तिकाबाई की पाठशाला आदर्श पाठशाला बन गयी। उन्होने अपनी पाठशाला मे प्राण फूँक दिये। इस बहनो के द्वारा गाँवो के स्त्री-समाज मे भी हमारा प्रवेश हो सका था।

पर मुझे पढ़ाई की व्यवस्था करके ही रुकना नही था। गाँवो मे गंदगी की कोई सीमा न थी। गलियो मे कचरा, कुओं के आसपास कीचड़ और बदबू, आँगन इतने गंदे कि देखे न जा सके। बड़ो को स्वच्छता की शिक्षा की जरूरत थी। चम्पारन के लोग रोगो से पीडित देखे जाते थे। जितना हो सके उतना सफाई का काम करके लोगो के जीवन के प्रत्येक विभाग मे प्रवेश करने की हमारी वृत्ति थी।

इस काम मे डॉक्टरो की सहायता की जरूरत थी। अतएव मैने गोखले की सोसायटी से डॉ. देव की माँग की। उनके साथ मेरी स्नेहगांठ तो बंध ही चुकी थी। छह महीनो के लिए उनकी सेवा का लाभ मिला। उनकी देखरेख मे शिक्षको और शिक्षिकाओ को काम करना था।


सबको यह समझा दिया गया कि कोई भी निलहो के विरुद्ध की जाने वाली शिकायतो मे न पड़े। राजनीति को न छुए। शिकायत करनेवालो को मेरे पास भेज दे। कोई अपने क्षेत्र से बाहर एक कदम भी न रखे। चम्पारन के इन साथियो का नियम-पालन अद्भूत था। मुझे ऐसा कोई अवसर याद नही आता , जब किसी ने दी हुई सूचनाओ का उल्लंघन किया हो।