साथ चलते हुए / अध्याय 11 / जयश्री रॉय
ऐसे ही कितने दिन- बेतरतीब, बिखरे-बिखरे... कभी पूरी शाम नदी किनारे टहलते हुए तो कभी जंगलों में दूर-दूर तक भटकते हुए। गहरी होती शाम या गिरती हुई रात में साथ-साथ चलना... जाने कहाँ-कहाँ... कई बार चाँद नहीं होता। गहरे स्लेटी अंधकार में झाड़ियों में जुगनुओं की अनवरत झिलमिल और झींगुरों की तेज आवाज... इसी में घुला कहीं पास बहते पहाड़ी नाले का कलकल और दूर से आती हुई सियारों की हूक... कभी वह डर जाती। कौशल का हाथ कसकर पकड़ लेती। अँधेरे में दोनों की साँसें तेज होकर सुनाई पड़तीं। गर्म, भाप उड़ाती हवा में कौशल की देह से उठती पसीने की गंध मिली रहती। साथ में अपर्णा के शरीर से आती हल्की, मीठी पर्फ्युम की सुगंध...
कौशल जैसे आँख मूँदें इन जंगली पगडंडियों में चल सकता था। कहता था, मेरी आँखों में पट्टी बाँध दीजिए और देखिए, मैं ठीक रास्ता पहचानकर चल सकूँगा। कभी झुककर जमीन पर जानवरों के पैरों के निशान देखता और रास्ता बदलकर चलने लगता - अभी इस तरफ से जाना ठीक नहीं होगा, थोड़ी देर पहले इधर से बाघिन गुजरी है, नदी की तरफ... साथ में उसके बच्चे हैं, अभी बहुत छोटे। ऐसे में बाघिन के सामने न पड़ना ही श्रेयस्कर है, बच्चों की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त आक्रामक हो जाती है...
सुनकर वह सहम उठती। हवा में न जाने कैसी गंध होती, बहुत उग्र... दूर सियार कोरस में लगातार बोलते रहते, उधर पेड़ों की डालियों पर बंदर बेचैन होकर ऊधम मचाते। कौशल के पास सुनाने के लिए इस जंगल की न जाने कितनी कहानियाँ थी - वह किसी बच्चे की-सी उत्सुकता से सुनती रहती।
कौशल ने बताया था, एक बार उसके कैंप के अंदर रात को एक भालू घुस आया था। - फिर...? सुनकर उसकी आँखें विस्मय से फैल गई थी
- फिर क्या... मैं नेवाड़ के बिस्तर पर सोया था। वह भालू बिस्तर के नीचे घुसा लगातार खाट की पट्टियों को उधेड़े जा रहा था। जब उसके नाखून मेरी पीठ पर चुभने लगे तब जाकर मेरी नींद खुली और मैंने शोर मचाया...
- फिर भालू ने क्या किया? अपर्णा की आँखों की पुतलियाँ डर से और भी फैल गई थीं।
- क्या करता... वह बिचारा तो खुद ही इतना डरा हुआ था... बाहर निकलने के लिए पूरे कैंप में इधर से उधर दौड़ता फिर रहा था। कभी मैं उससे टकराता, कभी वह मुझ पर गिर पड़ता। आखिर कैंप का पर्दा उठाकर मै किसी तरह बाहर निकला तो वह भी मेरे पीछे-पीछे निकलकर जंगल में भाग खड़ा हुआ। सुनकर अपर्णा स्तंभित होकर रह गई थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह हँसे कि रोए। उसके चेहरे के भाव देख कौशल कौतुक से हँसता रहा था - अरे, आप तो सुनकर ही इतना डर गईं?
- और नहीं तो क्या... आप को हँसी आ रही है!
- भई! हम जंगली लोग हैं, जंगली-जानवरों से कैसे डर सकते हैं। ये बाघ-भालू तो हमारे भाई-बंधु, पडोसी हैं... रोज का मिलना-मिलाना, घर में आना-जाना है...
- बहुत हुआ... इतना हाँकने की जरूरत नहीं... अपर्णा ने मुँह बनाया था - अभी जो एक बाघ आ गया तो... क्या करेंगे?
- मैं क्या करूँगा, जो करेगा बाघ ही करेगा... कहते हुए कौशल एक बार फिर ठहाका लगाकर हँस पड़ा था। अपर्णा भी खुद को रोक नहीं पाई थी, हँस पड़ी थी - वेरी फनी...
- यस मैम, इनडिड वेरी फनी...
कौशल देर तक हँसता रहा था। अपर्णा उसके चेहरे पर से अपनी नजर हटा नहीं पाई थी। मुग्ध होकर देखती रह गई थी। कुछ देर के बाद यकायक गंभीर होकर कौशल ने उसे देखा था, उसी पहचानी-सी दृष्टि से। वह सकपका गई थी, समझ में नहीं आया था, क्या करे, बस ठगी-सी उसे देखती ही रह गई थी, काँपी हुई पलकों से। दोनों के बीच ठिठका हुआ एक पल न जाने कितनी दूर तक खींचा था, बहुत असहज और मौन... एक चोरी और दो रँगे हुए चेहरे... कहीं कुछ साझे का था, समान हिस्से का था, साथ-साथ का था...
कभी-कभी बातें करते हुए कौशल उसका हाथ अपने हाथ में ले लेता, वह मना नहीं करती। उसकी हथेली की ऊष्णता धीरे-धीरे उसकी शिराओं में उतरती और वह एक अनाम इच्छा से भर उठती। ऐसे क्षणों में उसे आश्चर्य होता था। उसे लगा था, वह हर तरह से मर गई है। मगर इनसान शायद मरने से पहले कभी नहीं मरता। वह बार-बार जीवन की ओर लौटना चाहता है, जीवन का उत्सव चाहता है। कृष्ण की तरह ही है जीवन की यह जिजीविषा, राम के वनवास में भी उसी की तरह प्रेम का महारास चाहता है। सूरजमुखी की तरह अंधकार से मुँह मोड़कर उजाले की ओर बढ़ना चाहता है... और यह चाहना ही सहज, स्वाभाविक है शायद। फिर ये मन किस वर्जित की ग्लानि में डूबकर खुशियों के इंगित अदेखा करता है! कभी-कभी हाँड़-मांस का इनसान होना ग्लानिकर क्यों हो जाता है! मिट्टी के ढेले और मेह-बारिश में गले भी नहीं...! यह उनकी प्रकृति ही नहीं, नियति भी तो है...
किसी असतर्क-से क्षण में वह अपनी देह की अबाध्य चाहना सुनती है और अनमन हो जाती है। एक वर्जित-सी इच्छा, जिसे दमित किया जा सकता है, मगर शेष नहीं, गाहे-बगाहे उद्दंडता से अपना सर उठाती है। उसने अब स्वयं से लड़ना छोड़ दिया है, हथियार गिरा दिए हैं। तभी जीना कुछ-कुछ सहज हो गया है, वर्ना एक अर्से तक अपने ही हाथों लहूलुहान होती रही थी।
कभी-कभी उसने कौशल को उसकी नजर बचाकर देखा था। गहरे साँवले रंग और तीखे नाक-नक्शेवाले कौशल का व्यक्तित्व काफी आकर्षक था। वह हमेशा हल्के-फीके रंगों की सूती शर्टस् तथा जींस पहना करता था। कभी बहुत पास होने पर उसकी देह की हल्की गंध मिलती - पसीना, कोलोन और सिगरेट की मिली-जुली गंध! एक चिनगारी हल्के से जलकर बुझ जाती। ऐसे में वह एकदम से उठ खड़ी होती और चलने के लिए तैयार हो जाती। कौशल भी अपने स्वभाव के अनुसार बिना कुछ पूछे उसके साथ हो लेता।
शाम के नीले, मटमैले अंधकार में दोनों निःशब्द चलते रहते। ऊपर माधवी के फूलों की तरह तारे एक-एककर खिल उठते, एक मोतिया आब से आकाश के श्यामल विस्तार को निखारते हुए। सर के ऊपर उड़ते पक्षियों के पंखों की हल्की झटपट के साथ वर के अधखाए फल इधर-उधर बिखर जाते। एक उदास शाम रात के नीरव में धीरे-धीरे डूबकर खो जाती। कोई रात की पक्षी घने जंगलों के बीच से कहीं रह-रहकर उदास स्वर में बोलती रहती, एक ही लय में...
कौशल उसे बँगले के गेट तक पहुँचाकर अक्सर बाहर से ही लौट जाता था। कभी-कभी उसके आग्रह पर अंदर भी आ जाता था। वे देर रात गए तक बरामदे में बैठकर बेगम अख्तर की गजलें सुना करते थे। कभी शहर से लौटते हुए कौशल वाइन की बोतलें भी ले आया करता था, जिसे फ्रिज में ठंडा न कर पाने की विवशता में वे गर्म ही गुटकते रहते। रात का निःशब्द कोलाहल तीव्न होते-होते न जाने कब शिथिल पड़ जाता। रात्रि की गहन नील पृष्ठभूमि में जंगल की आदिम दुनिया एक रहस्यमयी छवि की तरह स्तब्ध पड़ी रहती।