साथ चलते हुए / अध्याय 12 / जयश्री रॉय
एक रात जब कौशल उसके कॉटेज से निकल रहा था, अपर्णा ने बिना कुछ कहे उसकी हथेली पर चंपा का एक पीला फूल रख दिया था। चंपा के ये फूल मानिनी ने उसे भेजे थे। वह रोज मुल्की के हाथों उसके लिए रकम-रकम के मौसमी फूल भिजवाती थी। साथ में उसके किचन गार्डन में उगाई हुई सब्जियाँ भी।
चंपा की तेज-तुर्श गंध में रात की हल्की गर्म हवा नहाई हुई थी। कौशल ने हल्की चाँदनी में उसे देखा था। उसकी वे हर पल सिसकती हुई-सी आँखें इस समय बुझकर दो गहरी काली, शांत झील में तब्दील हो चुकी थीं। अब वहाँ सपनों के उजले राजहंस थे, इच्छाओं के नीले, ताजे कमल थे और था आकाश में चमकते हुए चाँद का टूटता-जुड़ता प्रतिबिंब... कैसा मायावी था सब कुछ, एकदम अशरीरी, देहातीत, यथार्थ से परे...
कौशल ने उस फूल के साथ उसकी अंगुलियाँ भी अपनी मुट्ठी में बाँध ली थी। अपर्णा ने प्रतिरोध नहीं किया था। बस, सोती-सी आँखों से तकती रही थी। उनके बीच वह रात एक टुकड़ा चाँद और चंपा के उस फूल के साथ न जाने कितनी देर तक ठिठकी रह गई थी। उन्होंने एक-दूसरे से कुछ कहा नहीं था, सिर्फ सुनते रहे थे चुपचाप... उस दिन बोलने के लिए उन्हें शब्दों की जरूरत नहीं पड़ी थी। मन बोलने के लिए कब भाषा का मुखापेक्षी हुआ है, अपने अंदर के अर्थमय मौन को बहुत शिद्दत से महसूसते हुए पहली बार शायद उन्होंने इस तरह से सोचा था। कुछ है जो उन्हें अजाने बदल रहा है...
नाजुक उंगलियों-सा वह फूल अपने सरहाने रखकर कौशल उस रात सोया था और सुबह तक खुशबू की एक तरल नदी में डूबता-उतराता रहा था। नींद में शायद अपर्णा थी, अपने मोरपंखी आँचल में ढेर सारे नक्षत्र समेटे, आँखों से बोलते हुए, एकदम चुप रहकर... उस रोशनी, उस सुगंध, उस जादू को वह और किस नाम से पुकारता... इसके बाद से लगभग हर रोज वह अपर्णा के कॉटेज से एक महकते हुए फूल का सौगात लेकर लौटा था। धीरे-धीरे वह इकट्ठा होकर उसके भीतर एक पूरा बगीचा बन गया था।
उन कुछ दिनों के साथ ने उन्हें एक-दूसरे के काफी नजदीक ला दिया था। वे अधिकतर दुपहर के निर्जन एकांत में या साँझ के उतरते हुए अंधकार में साथ-साथ घूमते या देर तक कही बैठे रहते। खिड़की-दरवाजे पर ग्रीष्म ऋतु की गर्म, तांबई संध्या निःस्तब्ध झरती रहती - रकम-रकम के रंगों में, सुगना की क्षीण धारा में सुडौल चाँद का प्रतिबिंब बनता-बिगड़ता, काँपता, कभी पनकौड़ी के साथ झप्-से किसी ताल के नीले जल में डूब जाता... चंपा की तेज सुगंध में हवा मदिर हो उटती... ये सारे अक्स उनके अंदर धीरे-धीरे इकट्ठे होते जाते। एक अनाम संबंध मधु के छत्ते की तरह उनके अंदर चुपचाप आकार ले रहा था, उनके ही अनजाने।
एक साँझ जब आकाश का रंग गहरा कासनी हो रहा था और नदी के ऊपर जंगली सुग्गे झुंड में उडते हुए कलरव कर रहे थे, कौशल ने अपर्णा की संध्या तारा-सी उज्ज्वल आँखों में ढेर-से अनकहे शब्द देखे थे, अपनी ही तासीर से लरजते हुए... वे सुनने के लिए नहीं, जीने और अनुभव करने के लिए बने थे। वह अनुभव अनाम गंध की तरह उसके अंदर गहरे तक उतरा था। वह जैसे किनारे-किनारे तक भर आया था। किसी भी क्षण छलक पड़ने को आमादा...
उसने धीरे से अपना हाथ उसके हाथ पर रख दिया था, अपर्णा ने कुछ कहा नहीं था, बस, एक पलक उसे देखा भर था, न जाने कैसी आँखों से। कौशल को लगा था, अपर्णा की दो गर्म हथेलियों में उसका सारा अकेलापन किसी मेले की गुंजार भरी खूबसूरती बनकर सिमट आया है। उस छोटे-से क्षण में सुख की एक पूरी दुनिया थी, उसने उसे जिया था उस दिन आखिरी बूँद तक...
अपनी उंगली के पोरों पर उसके हल्के-से स्पर्श का स्वप्निल स्वाद लिए उस रात कौशल अपने कमरे में लौटा था - एक खुमार और अद्भुत मनःस्थिति के साथ। अपर्णा उसके पीछे उसकी देहगंध में डूबी माधवी की छाँव में लेटी रही थी देर तक... रात की साँवली सलाइयों पर एक नर्म कहानी धीरे-धीरे बुनती रही थी आखिरी प्रहर तक।
कुछ विशेष घटा नहीं था दोनों के बीच दैहिक स्तर पर, मगर मन किनारे-किनारे तक पुर आया था, भर आषाढ़ की किसी आप्लावित नदी की तरह! उसकी जलभरी आर्द्र, मेघिल आँखों को देखकर न जाने क्यों कौशल को उस दिन अनायास ख्याल आया था, मछली ही पानी में नहीं, अपितु पानी भी मछली में रहता है, अपने जीवन के लिए, कुछ इसी तरह... अपनी सोच उसे किसी कविता की तरह लगी थी, खूबसूरत और पागल...
उस क्षण का असीम सुख जैसे अपर्णा से भी गुजरकर जा नहीं पाया, रह गया अंदर - सारे दुखों का उत्स बनकर। एक बहुत बड़े सुख की तुलना में जीवन की दूसरी बातें गौण होकर रह गईं। बहुत बाद में जाकर समझ पाई थी वह, एक अकेला सुख किस तरह जीवन के तमाम सुख-दुखों पर भारी पड़ जाता है। जो गुजर न सका वह क्षण उसके जीवन का सबसे बड़ा संबल और अभाव बनकर रह गया...