साथ चलते हुए / अध्याय 18 / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
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तलाक की एक लंबी लड़ाई में भी वह अकेली ही रही। किसी से भावनात्मक सहारा तक नहीं मिला। सब अपनी-अपनी दुनिया में गुम थे। अपनों का साथ देने का, दुख-दर्द बाँटने का जो संस्कार अपनी जमीन, अपने देश में मिलता है, यहाँ लोग उनसे महरूम रह गए थे। दोष किसे देती! आसमान पाने की फिराक में अपने पाँव की जमीन भी खो बैठी थी। अब तो बस बहना और अंततः डूबना ही था।

चार साल तक हाथ में फाइल लिए वह इधर-उधर भटकती रही थी, वकीलों के हाथों शोषित होती रही थी। घरों में आग लगाकर हाथ सेंकनेवाले लोग थे वे। अच्छी संभावनाएँ दिखाकर गहरे पानी में ले जाकर हाथ छोड़ दिया था उसका। कानून ने भी कोई खास सहारा नहीं दिया था।

इन दिनों विदेशों में तलाक संबंधी कानून में बहुत सारे परिवर्तन आए थे। अब स्त्रियों को पहली जैसी सहूलियतें और लाभ नहीं मिलता है। एक तरह से उनके विरोध में ही कानून की कई धाराएँ खड़ी हो गई थीं। बच्चे के वयस्क हो चुकने की स्थिति में उनका प्राप्य सीधे उन्हें ही दे दिया जाता है। उसे बताया गया था तलाक हो जाने पर गुजारे लायक एक बँधी हुई रकम हर महीने पाँच साल तक उसे दिया जा सकता था। उसके बाद यह रकम भी मिलनी बंद हो जानेवाली थी। अदालत भविष्य के लिए अपनी योग्यता के अनुसार कोई काम ढूँढ़ने की सलाह तलाकशुदा औरतों को देती है। वैसे आशुतोष के पेंशन से उसे कुछ मिलनेवाला था जरूर, मगर वह पैसठ वर्ष की अवस्था के बाद ही।

इसी लड़ाई के बीच काजोल बीमार पड़ गई थी और वह सब कुछ भूलकर उसके साथ व्यस्त हो गई थी। सारी दुनिया पड़ी रहे, पहले काजोल, सिर्फ काजोल...

इन्ही दिनों उनके जीवन में तापसी का प्रवेश हुआ था। दुख की घड़ियों में वह सतर्क रहना भूल गई थी, दुनियादारी भूल गई थी, शी कुड नॉट केयरलेस... उसने एक बच्चे की तरह यकीन किया था, उसका तो यही हश्र होना था।

सुबह शॉपिंग के लिए निकलते हुए तापसी ने उसे सामानों का एक अदद लिस्ट पकड़ा दिया था, जो वह अपने साथ ले जा सकती थी। वह चाँदी का कटोरा जिससे उसने अपने बेटे को पहली बार अन्नप्रासन का खीर खिलाया था, अब महज एक सामान में तब्दील हो गया था। उसके बेगम अख्तर की गजलों का सी.डी. कलेक्शन भी अब पराया हो गया था, वह कश्मीरी कालीन भी जो उसने अपने हनीमून पर खरीदी थी।

पैसा आशुतोष का था, और पैसा जिसका होता है, सामान भी उसीका होता है, उसका नहीं जो उससे प्यार करता या सँभालता है। जो चीजें संवेदनाओं से जुडी थी, वे अब बेजान सामानों की फेहरिस्त में आ गई थीं। कल तक ये चीजें उसकी छुअन से धड़क-धड़क उठती थीं। उसकी उंगलियों के पोरों पर उनका स्पर्श हर क्षण जीवित था। बिना सोचे उसने काजोल के अन्न प्रासन का कटोरा उठा लिया था - इसकी कोई कीमत नहीं हो सकती थी...

जहाँ अपने होते हैं, वही अपना देश होता है। यही सोचकर एक दिन इस विदेश में आ बसी थी। मगर अपना परिवार खोने के बाद तो यह विदेश भी छूट गया था। बेघर हो जाना शायद सही अर्थों में इसी को कहते हैं। मगर इसका भी अपना एक परवटेड किस्म का सुख होता है, उसने पहली बार जाना था। कुछ भी खो जाने के भय से मुक्ति, निःशेष हो जाने की उपलब्धि... अचानक उसने लेंडिंग में जाकर अपना ओवरकोट पहन कर कानों पर शॉल लपेट ली थी - जरा ताजी हवा में घूम आएगी। झरते बर्फ में चलना उसे हमेशा अच्छा लगता है।

दरवाजा खोलते ही ठंडी हवा का रेला उसे झकझोर गया था। सारा दिन बैठे-बैठे कट गया था। अब शाम गहरी हो गई थी, रात से पहले का गहरा नीला अंधकार...

आज तक वह सुख-सुविधा की जिंदगी जीती रही थी, मगर एक कीड़े की तरह रेंगते हुए। आज भले वह यथार्थ की कठोर जमीन पर खड़ी है - मगर अपने पैरों पर, अपनी रीढ़ के बल पर खड़ी है! सामने निपट अँधेरे में डूबी सर्द रात है, मगर वह आगे बढ़ना चाहती है, रास्ता तलाशना चाहती है। अब बस, यही बात महत्व का है, बाकी सब गौण है।

उसने फ्रिज में एक शैंपेन की बोतल चिल करने के लिए रखी हुई है - आजादी, चाहे वह जिस कीमत पर भी मिली हो - उसका जश्न तो होना ही चाहिए। धीरे-धीरे टहलते हुए वह रूई के गालों-से झरते वर्फ के साथ अपने चेहरे पर सर्द हवा की हल्की थपथपाहट को आँखें मूँदकर महसूस करती है। उसे रात के और गहराने का इंतजार है, क्योंकि वह जानती है, सुबह ठीक उसके बाद ही आ सकेगी। एक उमर तक दूर-दूर तक भटकने के बाद आज उसे अपनी ओर लौटना अच्छा लग रहा है। एक निरर्थक तलाश को छोड़कर अपना देश, अपना घर अब उसे स्वयं ही बनना है...