साथ चलते हुए / अध्याय 19 / जयश्री रॉय
न जाने रात का क्या समय हुआ था, जब उसके दरवाजे पर जोर से दस्तक हुई थी। थोड़ी देर पहले ही उसकी आँख लगी थी। खाने के बाद वह काफी देर तक पुनिया की बहन सकालो से बात करती रही थी। सकालो देर शाम को उनके यहाँ आई थी, काफी अस्त-व्यस्त अवस्था में। परेशान लग रही थी। बाद में उसी ने बताया था, गोपाल एक दिन पहले फरार हो गया है। पुलिस उसे ढूँढ़ रही है।
क्या वह सचमुच नक्सल बन गया है? उसके सवाल पर सकालो उसे टुकुर-टुकुर ताकती रही थी - अब ई हम का जाने दीदिया, बात तो सिरफ यही है कि गाँव के महाजन ने हमरी जमीन ले ली। पूछताछ करने लगे तो मार-पीट की। इसको भी गुस्सा आ गया, उल्टा हाथ छोड़ बैठा। फिर पुलिस आई, का जाने महाजन ने का समझाया-बुझाया, अब पुलिस कहती है कि उ नक्सल बन गया है...
कौशल के कहे अनुसार उसने उसे उस रात अपने कमरे में सुला लिया था। फर्श पर एक तरफ चटाई बिछाकर वह सोई थी।
दस्तक की आवाज से उसके साथ-साथ सकालो भी उठ बैठी थी। दरवाजा अभी तक लगातार खटखटाया जा रहा था। उसने सकालो की तरफ देखा था। वह गठरी बनी फर्श पर बैठी हुई थी। उसका चेहरा सफेद पड़ गया था। विस्फारित आँखों से वह उसे देख रही थी।
उसे अलमारी की ओट में छिपने का इशारा करके उसने दरवाजा खोल दिया था। सामने इंस्पेक्टर खड़ा था -
आपने दरवाजा खोलने में बड़ी देर की मैडम! सो रही होंगी। एक बात बताइए, इधर सकालो आई थी! दोनों औरत, मरद भागे हुए हैं, बहुत बड़ा कांड किए हैं इलाके में...
- नहीं, इधर तो नहीं आई...
कहते हुए उसने यथासाध्य अपनी आवाज को संयत रखने की कोशिश की थी। अंदर अनायास आतंक की सर्द लहरे घुमड़ने लगी थीं। क्या हो जो वे उसके कमरे की तलाशी लेने लगे...
- अच्छा, नहीं आई...!
इंस्पेक्टर ने एक बार कमरे के अंदर सरसरी-सी निगाह फिराई थी और फिर मुड़कर सीढ़ियाँ उतर गए थे - आखिर भागकर जाएँगे कहाँ...
दरवाजा बंदकर वह अपने बिस्तर पर बैठ गई थी। उसका दिल बुरी तरह धड़क रहा था। सकालो भी आकर उसके सामने जमीन पर बैठ गई थी। वह भी शायद बहुत डर गई थी। दोनों एक-दूसरे से कुछ कह नहीं पाए थे। बस चुपचाप बैठे रह गए थे, बाहर की आहट लेते हुए। बाहर कोई जोर-जोर से बोल रहा था। उनमें पुनिया की आवाज भी सम्मिलित थी। वह रो रही थी शायद।
बहुत देर बाद, जब बाहर सुनाई देता हुआ शोर धीरे-धीर कम हुआ था, दोनों सो गए थे, न जाने कब! अपने ही अनजाने...
नींद में किसी पहर उसे अस्पष्ट-सा लगा था कि जैसे उसने कहीं दूर गोली चलने की आवाज सुनी हो। कुछ देर तक वह कान लगाकर सुनने की कोशिश करती रही थी, मगर फिर सब कुछ शांत हो गया था।
सुबह उठकर उसने देखा था, सकालो का बिस्तर खाली पड़ा है। जाने कब वह उठकर चली गई थी। बाहर निकलकर उसने देखा था, महुए के पेड़ के नीचे बैठी पुनिया रो रही है। गेट के पास कुछ लोग खड़े आपस में धीमी आवाज में बाते कर रहे थे। उसे देखकर सब चुप हो गए थे।
बाद में पुनिया ने ही बताया था, भोर रात को पुलिस ने गोपाल को सूखे नाले के पास गोली मार दी है। उसकी लाश को सदर अस्पताल ले जाया गया है। सुनकर सकालो भी वहाँ चली गई है। पुनिया ने उसे बहुत मना किया था, मगर उसने उसकी एक नहीं सुनी थी।
सुनकर वह देर तक चुप रह गई थी। पुनिया की आँखों से बहते हुए आँसू ने उसे कहीं से बहुत छोटा, बहुत बौना कर दिया था। कोई कद नहीं है उसका - उन जैसे लोगों का...
कमरे में बंद होकर वह अपने उपन्यास के पन्ने निरुद्देश्य उलटती-पलटती रही थी। कागजों पर लिखे इन्कलाब और उनका झूठा गुमान... मगर आज... जब जिंदगी की कटु सच्चाइयाँ सामने नंगी होकर खड़ी हैं, दरवाजा बंद करके स्वयं को महफूज कर लेने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प उसके पास नहीं है। शब्द और शब्द... खोखले और निरर्थक! इनमें अर्थ कहाँ है, सामर्थ्य भी क्या है इनका! इनके वास्तविक अर्थ को जीने का साहस तो इनके रचयिता के पास भी नहीं है। शब्दों के कागजी हथियार और नारे...
यकायक सब कुछ निरर्थक प्रतीत होने लगा था। जी चाहा था, अपना लिखा सारा कुछ अपने ही हाथों से मिटा दे, फूँक डाले...
उसे सकालो की याद आई थी, शादी के बाद सद्य प्रस्फुटित कुमुदिनी की तरह झिलमिला रही थी - उसी दुधिया आभा और लहक के साथ। बसंत में खिले किसी अमलतास की तरह उसका वह रूप, लावण्य - युवा और कोरा... चेहरे पर बैशाख की भोर की तरह निश्छल, ताजी हँसी... कितनी प्रांजल, जीवंत! बरसाती नाले की तरह उफनता हुआ यौवन उसका - उद्दाम और अबाध्य... साक्षात जीवन थी वह - जीवन का शाश्वत उत्स... बात-बात पर हँसकर दुहरी होती हुई, जैसे अंतस में खुशी का कोई बाँध टूट गया हो! आँखों की चावनी में प्रथम अनुराग का रंग था - ढेर सारा... गोपाल की तरफ देखकर न जाने किस आंतरिक ऊष्मा में ओस की बूँद की तरह पिघली जा रही थी। प्रेम का स्वप्निल स्वाद, उसका मोहमय बंधन... कितना खूबसूरत रहा होगा सब कुछ उसके लिए!
उसे उस दिन उस अपढ़, वन्य लड़की से ईर्ष्या हो आई थी। कुछ नहीं था उसके पास, मगर प्यार था - पूरी छाती भरकर, किनारे तक छलकी पड़ रही थी। अपने मरु हुए जीवन में उसने बहुत ढूँढ़ा था उस रात, कहीं एक फूल या मुस्कराहट नहीं था। जो कुछ भी सुंदर था, कमनीय था, एकदम से निःशेष हो गया था जैसे। कितनी गरीब हो गई थी वह उस दिन उस निर्धन के सामने...!
उस रात वह रोई थी, न जाने किस लिए। एक अबूझ पीड़ा में मन डूब गया था बेतरह। रूप है, गुण है, विद्या है उसके पास, मगर किसी का बूँद भर प्यार नहीं... अपना इस तरह एकदम से बेघर होना, होते चले जाना उसे दंश देता रहा था। सो नहीं पाई थी रात भर। बिस्तर के दूसरे हिस्से का सूनापन दरअसल उसी के जीवन का शून्य है, इस सत्य को शिद्दत से महसूस कर पाई थी वह।
पुलिस कह रही थी गोपाल खूनी है। बछरा गाँव की हत्या और लूटपाट में उसी का हाथ था... उसे सुनकर यकीन नहीं हो पाया था। उस गहरे साँवले युवक की आँखों में कैसा उजलापन था। हँसता था तो जैसे उसके अंदर की अच्छाइयाँ उसके चेहरे पर दूध की तरह रिस आती थी। हाथ में जंगली बेर का दोना लेकर उससे मिलने आया था। लड़कियों की तरह शर्मीली हँसी हँस रहा था... वह किसी की हत्या करेगा!