साथ चलते हुए / अध्याय 23 / जयश्री रॉय
रात के आठ बजे के करीब जब कौशल डाक बँगले पर पहुँचा था, अपर्णा बरामदे में बैठी पी रही थी। आज उसके तेवर कुछ बदले हुए से लग रहे थे। उसे देखकर मुस्कराई थी, एक मदालस-सी मुस्कराहट - आओ... आइए कौशल, लेट्स सेलिब्रेट...
- 'तुम' ही कहो, अच्छा लगता है,
कौशल कुर्सी पर बैठ गया था -
और हाँ, क्या सेलिब्रेट करना है!'
- जब कोई खुशी न बची हो सेलिब्रेट करने के लिए तब दुख ही सेलिब्रेट करना सीख लेना चाहिए...
- बिल्कुल ठीक!
वह मुस्कराया था -
आज क्या पी रही हो! अरे, टकीला... लगता है, उस दिन पूरी बोतल खत्म नहीं हुई थी।
अपर्णा मुँह बनाकर नींबू का टुकरा चाटती रही थी। कुछ कहा नहीं था। कौशल ने छोटा-सा पैग ऊपर तक भरकर एक ही घूँट में गले से नीचे उतार दिया था। तेजाब की एक सुनहरी नदी उसकी शिराओं में चिनगारी फूँकती चली गई थी। और यकायक उसके सामने बैठी अपर्णा का चेहरा केसर हो उठा था। उसका बिगड़ा हुआ चेहरा देखकर अपर्णा अनायास खुलकर हँस पड़ी थी। हवा में बजते जल तरंग की नाजुक ठुनक महसूसते हुए वह चुपचाप बैठा रह गया था। कुछ बोलकर वह इस क्षण के तिलस्म को तोड़ना नहीं चाहता था। अपर्णा उसके लिए सचमुच स्वप्न-सा कुछ पारदर्शी रच रही थी। वह मंत्रमुग्ध था बिल्कुल।
- जानते हो कौशल, आज काजोल को गए एक साल हो गया...
कहते हुए वह अचानक रुक गई थी, जैसे शब्दों का बोझ उठा नहीं पा रही हो। उसके चेहरे की गहरी होती रेखाओं को देखकर प्रतीत हो रहा था कि वह अपने ही अंदर की किसी यंत्रणा भरी यात्रा में बहुत दूर निकल गई है। अप्रैल की हवा में सितारे घुले थे, क्षितिज की साँवली उजास में हल्का-सा मोतिया आब था, चाँद से अबरक झरकर रात गोरी हो आई थी...
कई क्षणों के लिए ठिठककर वह अपने लरजते हुए शब्दों के साथ इस तरह आगे बढ़ी थी जैसे कंधे पर मय्यत उठाए हुए हो -
- पहले-पहल लगा था, मैं जी नहीं पाऊँगी, मगर देखो, जी गई... कभी-कभी अपनी बेशर्मी पर शर्मिंदा हो उठती हूँ...
- हम सब को अपने हिस्से की जिंदगी जीना है अपर्णा...
- और अपना-अपना सलीब भी उठाना है...
- हाँ...
- कभी-कभी सिर्फ एक मौत नहीं होती, आस्था की एक पूरी दुनिया मर जाती है...
अपर्णा अपने गिलास के पारदर्शी द्रव्य को घूरती रही थी-
इनसान रोज मरता है, मगर जब साथ में किसी का भगवान भी मर जाय... ऐसी मौत की कल्पना कर सकते हो...
देर तक लगातार बोलते हुए अब वह शायद सचमुच थक गई थी, और उसकी यह थकान मानसिक ज्यादा प्रतीत हो रही थी। कौशल बैठा हुआ उसकी गहरी साँसों की आवाज सुनता रहा था। बहुत पहले उसने एक हलाल हुए जानवर को देर तक छटपटाने के बाद अंत में मरते हुए देखा था, तब वह कुछ इसी तरह साँसें ले रहा था। उस स्मृति की मटमैली छायाएँ उसे आज भी समय-असमय बोझिल कर जाती हैं। अपनी डूब से उबरने के लिए शांत जल में कंकर मारने की तरह हल्के-से पूछा था उसने -
हो गई खत्म तुम्हारी बातचीत? एकदम से चुप हो गईं...
अपर्णा ने अपनी तंद्रालस आँखें खोली थी और उसके पार देखती हुई जैसे नींद में बोली थी -
'कभी-कभी चुप रहकर ही सही अर्थों में बोला जा सकता है, विशेषकर तब जब मन की गहनतम भावनाएँ भाषा से परे हटकर स्वयं को निःशब्द व्यक्त करना चाहती हैं। ऐसे में भाषा की विडंबनाओं और सीमाबद्ध सत्य से परे होकर शब्द एकदम अर्थहीन हो जाते हैं। और फिर, हम दोनों का यूँ लगातार बोलना किसी सत्य को छूने से बचने की एक बचकानी कोशिश जैसी लगता है जो शायद हमारे चुप होते ही मुखर हो उठे...'
अपनी बात समाप्त करते हुए उसने उसे फिर अपनी उनींदी आँखों से देखा था। वह उसे उसके आरपार देख रही है, ये उसकी तरल हो आई चावनी से स्पष्ट था। कौशल यकायक अपनी शिराओं में पिघलते हुए शीशे का बहाव महसूस करने लगा था। उसकी निःशब्द इंगित उसके कपड़ों के अंदर पहुँचकर देह को छूने लगी थी शायद... अपने अंदर की आश्वस्ति को उसने सहेजा था, इतना धीरे कि कोई आहट न हो। इतनी जल्दी वह उसकी पकड़ में आना नहीं चाहता था। एक अर्सा हो गया था उसे खुद को छिपाते हुए। अब इस लुका-छिपी में मजा आने लगा था।
यह निशिगंधा-सी महकती रात और सागौन के दैत्याकार घने पेड़ों के पीछे से झाँकता शुक्ल पक्ष का आधा चाँद... उसने पलाश की सुलगती हुई डालों पर रात के किसी पक्षी की झटपटाहट टोहने का भान करते हुए अपनी दृष्टि फेर ली थी।
उसकी झिझक पर मुस्कराते हुए अपर्णा ने उसकी बाईं बाँह पर अपना हाथ हल्के से रख दिया था-
'क्या हुआ, झेंप गए?
- नहीं तो... कौशल का चेहरा अपने शब्दों के विरुद्ध रँग गया था।
- अच्छा, कौशल, तुम मेरा मौन गा सकते हो तो क्या मैं तुम्हारे गीतों की खामोशी नहीं सुन सकती! ऐसा तो अब तक हमारे बीच कुछ बँध ही चुका है जिसे रिश्तों का इल्जाम दिए बगैर जीया जा सकता है, ढोने की विडंबना से परे होकर...'
उसके इंगित बहुत विलक्षण हो उठे थे, कौशल ने अनुभव किया था, उसके अंदर माधवी की मीठी-कड़वी गंध के साथ किसी ग्लैशियर के निःशब्द दरकने का धीरे-धीरे फैलता हुआ कंपन तरंग था... बर्फ का एक पूरा प्रदेश आज अपना युगों का पथराया हुआ मौन तोड़ देना चाहता है... इस शोर की कल्पना नहीं की जा सकती। वह स्वयं को प्रस्तुत करने लगा था, न जाने किस आकस्मिकता के लिए। एक लंबे मौन के बाद उसने यकायक प्रसंग बदला था
'कहो, क्या लिखती रही इन दिनों? मैं तो बहुत व्यस्त रहा...
'जिंदगी, और क्या!'
- कितनी अजीब बात है, जिंदगी कागजों में छपती है... इतने सारे स्वप्न, उच्छ्वास, दर्द और संवेदनाओं की एक पूरी दुनिया और इनका कुछ पन्नों का अनुवाद... बस! क्या कभी तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि अगर एक कहानी की सफलता के लिए एक पूरे जीवन का विफल हो जाना जरूरी हो जाता है तो फिर इस कहानी का जन्म न लेना ही उचित है? किस-किस के मृत सपनों पर ये कागजी राजप्रसाद खड़े होते हैं... जीवन की विडंबनाओं को नकद करके लोग अपनी आजीविका चलाते हैं, कागज की जमीन पर लफ्जों का व्यापार... चिता पर हाथ सेंकते हुए लोग... नपुंसक बुद्धिजीवी...
कौशल के चेहरे पर आग रिस आई थी, कितना अजीब लग रहा था वह, एक तरह से निष्ठुर... शब्दों को चबाते हुए। अपर्णा डर गई थी। आहत भी हुई थी।
- कौशल...
- ओह! आई एम सॉरी अपर्णा... कौशल सचमुच झेंप गया था, अपने अभद्र शब्दों के इस्तेमाल पर -
डोंट टेक इट परशनली... मैं एक वर्ग विशेष की बात कर रहा था।
अपर्णा चुप रह गई थी। कुछ कह नहीं पाई थी। उसकी बातों की सच्चाई में हर रचनाकार के जीवन की विडंबना छिपी है, उसे बताना नहीं चाहती थी। शायद यह उसके कन्फेशन का समय नहीं था। उसने एक तटस्थ-सा बयान देने का प्रयत्न किया था -
हाँ, जीवन को शब्द देना...
'मगर तुम लेखकों को शब्दों, संवेदनाओं की क्या कमी, इमोशन के गोदाम होते हो - जब चाहे लज्जतदार शब्दों के ढेर लगा दो - रेडीमेड, ताजे - ओवन फ्रेश! रुपये के दस... अच्छा, चलो, बारह ले लो...
कहते हुए कौतुक में उसकी पुतलियाँ झिलमिलाने लगी थीं। शायद माहौल को हल्का करने की ही गरज से वह उसकी बात बीच में काटकर इस तरह से हँसने लगा था।
- ऐसा नहीं, हमारे अंदर नदी होती है तो पत्थर भी होते हैं। मन टकसाल होता तो संवेदनाओं की किल्लत पड़ते ही छाप लेते - हरे-हरे करारे नोट की तरह करारी संवेदनाएँ...'
कहते हुए इस बार अपर्णा भी खिलखिलाकर हँस पड़ी थी। कौशल को प्रतीत हुआ था, एकदम से रात रानी फूल गई है, तंद्रालस, गर्म हवा उसी की तुर्श गंध से बोझिल है। यह मौसम जादू का है, शरीर टोनों का है, पल-पल घट रहा है - कुछ इस तरह - मौन में कविता रचते हुए निरंतर, खनकती मुस्कराहटों से...
कौशल अचानक उठ खड़ा हुआ था -
- अब चलूँगा, बहुत रात हो गई...
- अरे भई! तुम वन के इस निविड़ दुनिया में भी अपना समय ले आए! चलो, इस यंत्र को उतार फेंको और आज की रात को यहीं ठहर जाने दो हमेशा के लिए, इस आधे चाँद और नीली हवा में गूँथी आदिम चाहना की गंध के साथ... लिबास और मुखौटों की दुनिया से दूर, त्वचा पर अपना मन ओढ़े, ईप्सा के अतर में सराबोर, किरणों की गीली पगडंडियों पर महुआ मदालस हवा की तरह - उश्रृंखल, अबाध्य...'
कौशल समझा था, टकीला के नन्हें पैग अब उसके अंदर बड़े होने लगे थे, वह बहक रही थी -
मैं तो काजू टूँगकर गले तक भर गई हूँ। भूख बिल्कुल भी नहीं है, व्हाट एबाउट यु?
- मैं भी तो काजू खा रहा था, बिल्कुल भूख नहीं है...
- तब ठीक है, फिर क्यों न हम थोड़ा चलें... ये शाल, सागौन, महुआ, करम की आदिम, अभेद्य दुनिया हमें बुला रही है। यह दूर से आती संथालों के माँदल की धप्-धप् और हवा में महुआ की माताल गंध...'
वह अपनी बाँहें फैलाकर किसी राज हंसिनी की तरह अपनी मराल गीवा तानकर खड़ी हो गईे थी। उसे प्रतीत हुआ था, चाँदनी रात में ताजमहल देख रहा है - वही जमुना की नीली गवाही में ख्वाब और मुहब्बत से रची गई संगमरमर की उजली कहानी - हमेशा की तरह खूबसूरत और बेतरह उदास भी... वह एक गहरी साँस लेता है, अपने ही अनजाने। अपर्णा चलते-चलते रुक जाती है -
'नहीं चलोगे?'
'क्यों नहीं, तुम साथ दो तो चले हम आसमाँ तक...'
वह किसी पुराने गीत के बोल गुनगुना गया था। चलते हुए अंदर कोई अजनबी आवाज में कह रहा था, तुम्हारे साथ मैं जीवन के पार तक चलने के लिए तैयार हूँ... फिर ये आकाश और धरती क्या! अपने इस ख्याल पर उसे स्वयं आश्चर्य हो रहा था। अब तक कहाँ छिपी थी यह संवेदनाएँ, उसे पता तक नहीं चला... इनसान बहुत बार स्वयं को भी ठग लेता है, जैसे आज वह...
'तुम शायद सोच रहे हो इस वक्त हम कहाँ जा सकते हैं!'
वह कभी उसे आप कहकर संबोधित कर रही थी तो कभी तुम कहकर।
'तुम जैसी कोई शख्सियत साथ हो तो चलना अहम हो जाता है, मकसद या मंजिल नहीं!'
'अब आप कविता करने लगे...'
वह हल्के से हँसी थी और उसके चेहरे पर चाँद उतर आया था। वह उसे रात की ओट में देखता रहा था। आसपास फूलते किसी जंगली फूल की तेज, मदिर गंध उसे अनमन कर गई थी। मन का कोई अजाना कोना मीठे दर्द से नहा आया था। यह रात उसे ठग लेगी, बहुत बेईमान है... मगर वह सावधान नहीं होना चाहता, कैसी विंडबना है! वर्जनाएँ जब टूट गई हैं तब सीमाओं का अतिक्रमण भी होगा ही...
ग्रीष्म ऋतु में कोयल नदी की धार भी कृशकाय हो आई है। उसकी चाँदी की जंजीर-सी पतली धारा रात के फिके अंधकार में प्रायः निःशब्द बह रही है। आसपास फैली रेत की शुभ्र राशि में अबरक के अजस्र कण चाँद के आलोक में जुगनू की तरह झिलमिला रहे हैं। यहाँ पहुँचकर एक बड़े पत्थर का टेक लगाकर वह पैरों से पानी छपछपाने लगी थी। ऐसा करते हुए उसके चेहरे पर बचपन का दूध छलक आया था। कौशल इस क्षण की मासूमियत को मन के अदृश्य कैमरे में कैद कर लेना चाहता था। ऐसी तस्वीरों पर कभी समय की धूल नहीं बैठती।
थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर एक गंभीर-सा प्रश्न कर बैठी थी -
'क्यों कौशल, अपने विवाहित जीवन से कभी खुश थे?'
'हाँ, था, मगर खुशी की फितरत में ठहराव नहीं होता, भागती रहती है, लुका-छिपी का वही पुरातन खेल... अब सोचता हूँ, हमारे दुख के पीछे हमारी गलत उम्मीदें होती हैं, और कुछ नहीं... काश हम दूसरों से इतनी उम्मीदें न किया करें! जब तक यह बातें समझ पाया, बहुत देर हो चुकी थी, जिंदगी अपनी खुशियाँ समेटकर बहुत दूर निकल चुकी थी... जब हम अपने रिश्तों से ज्यादा उम्मीद नहीं करते, बहुत कुछ सहनीय हो जाता है। वर्ना उम्मीद और अपेक्षा में जीना बहुत कठिन होता है, यू सी...
वह घुटनों तक पानी में डूबी दोनों हाथों से पानी उलीचती रही थी, जैसे कुछ सुन ही न रही हो -
कभी प्यार किया है कायदे से...?
'हम क्या करें या करते प्यार-व्यार, प्यार तो अपनी मर्जी का मालिक होता है, वह आपको चुनता है, आप प्यार को नहीं! और जब ये आपके जीवन में घटित होता है, आप बस इसके साथ हो लेते हैं। इसके सिवा आपके पास कोई दूसरा विकल्प होता ही नहीं। प्यार हमारे चाहने न चाहने पर निर्भर नहीं करता अपर्णा, न यह कोई निर्णय ही होता है... अंदर एक इशारा होता है और बस, हम चल पड़ते हैं - इस पर खत्म होकर पूरे होने के लिए या फिर ठीक इसका उल्टा भी। प्रेम की यात्रा में सिर्फ यात्रा होती है, कोई मंजिल नहीं, क्योंकि मंजिल का अर्थ होता है ठहराव और ठहराव प्यार में आ जाए... यह हो नहीं सकता! कहते हैं न - 'न ये रुकती है, न ठहरी है, न ठहरेगी कभी, नूर की बूँद है सदियों से बहा करती है...'
'हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू...'
अपर्णा ने न जाने कैसी स्वप्न भरी आवाज में उसकी पंक्तियाँ पूरी की थी।
'तुम ठीक कहते हो।'
कहते हुए उसका मोतिया आँचल हवा के हल्के झोंके से यकायक ढलक गया था और इसके साथ ही आकाश का आधा चाँद उसके सीने के दो पूरे चाँदों पर चमक उठा था। पीछे के बूढ़े बरगद पर कई रात के पक्षी एक साथ बोल उठे थे। कौशल भूला-सा उसे देखता रहा था। अंदर एक श्रृंखलाबद्ध आदिम पशु अपने बंधनों से जूझ रहा था। वह उसकी छटपटाहट से अस्थिर हो रहा था। मगर वह इस सबसे अनजान कहे जा रही थी -
'प्रेम हममें घटित होता है, हम प्रेम में होते हैं, ठीक जैसे जीवन हमारे अंदर होता है - किसी दैवीय इच्छा से, हमारे चाहने या न चाहने से नहीं। इस प्रेम का वितरण भी हमारे अधिकार में नहीं होता। कोई होता है अदृश्य जिसके संकेत से हम इसे सौंप देते हैं उसे, जिसका यह प्राप्य होता है। हमारा प्रेम किसी की सनातन थाती होता है। हमें तो बस इस अमानत को सँभालना होता है।'
'मगर अपना सब कुछ देकर भी प्रेम को जीवन में रोक कहाँ पाया...'
कौशल की आवाज में न जाने क्या था कि उठकर वह एकदम से उसके कंधे से लग गई थी -
'प्रेम को बांधना चाहोगे तो एक दिन यह जरूर खो जायगा। बंधन में कभी प्यार बँधा है! यह तो हवा की उंगलियों में उलझी खुशबू का झोंका है, मुक्त होकर दूर तक फैलती है, मगर मुट्ठी में बंद होकर मर जाती है
'नहीं, ऐसा नहीं कि मेरी जिंदगी में कुछ भी नहीं है। हैं कुछ लोग...' अपने एक क्षण की दुर्बलता के लिए अब वह शर्मिंदा हो रहा था।
'हाशिए में ठिठके हुए रिश्ते भी हमारे जीवन के हिस्से होते हैं, चाहे वह हिस्सा कितना ही छोटा क्यों न हो। मगर हाँ...'
अब वह उसकी बाँहों पर कुछ अदृश्य शब्द लिख रही थी, और उसके अंदर एक पागल नदी अपना तटबंध तोड़ देने के लिए मचली जा रही थी -
'कृष्ण की तरह सबमें बँटकर भी सबके हिस्से में पूरा-पूरा आ सको तो देने का सुख जान सको। सब में बँटकर खत्म हो जाना उदारता नहीं, अपने अंदर का कंगालपना है!
उसने महसूस किया था, एक आदमकद आईने के समान वह कभी-कभी जानलेवा सच बोलती है। उसके सामने किसी झूठ के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचती। न जाने चोट पहुँचाने की किस आदिम हिंस्र इच्छा के वशीभूत होकर उसने पूछ लिया था -
'और तुम, सिर्फ बेवफाई ही झेलती रही या कभी प्रेम-वेम भी किया...?'
कहते ही उसे लगा था, चाँद सफेद शव की तरह उसकी पुतलिओं पर उतर आया है। उसी समय आसमान पर रात के ढेर सारे पक्षी अपने पंख झटपटाते हुए सर के ऊपर से उड़ते हुए गए थे। उसके अंदर कहीं गहरे एक कच्ची दीवार जैसा कुछ अनायास बैठ गया था। अपर्णा एक ही क्षण में आत्मीयता का हाथ छुड़ाकर मीलों दूर चली गई थी। फिर न जाने कितनी सदियों बाद उसने अजनबी-सी आवाज में कहा था -
'हाँ, प्रेम मेरे जीवन में भी आया था। जब मैं प्रेम में थी, जाहिर है, बहुत अच्छी थी। प्रेम आप को मुकम्मल ही नहीं, बहुत अच्छा भी बना देता है। मगर एक भूल हो गई, लालच कर बैठी। प्रेम को पूरी तरह से पाना चाहती थी। अपने लॉकर में डालकर सुरक्षित महसूस करना चाहती थी। कुछ चीजें सिर्फ बाँटने से, शेयर करने से ही बढ़ती है, ये बात भूल गई थी। इसका प्रायश्चित भी किया - इसे अपना सर्वस्व दे दिया। तुम हैरान होकर मेरी बात सुन रहे हो, मगर प्रेम में सब कुछ इसी तरह लक्षणा में होता है - खोकर पाना, देकर लेना... तुम यह सब नहीं समझोगे। शब्दकोश के अर्थ से जो प्रेम को समझते आए हो अब तक। अच्छा, जो परिभाषित हो जाय वह प्रेम कैसा! यह तो गूँगे के मुँह में धीरे-धीरे पिघलती हुई गुड़ की डली है...'
कुछ देर चुप रहकर जैसे उसने स्वयं को ही सुनाकर कहा था -
'मैंने रुक्मिणी होकर सहेजा है, राधा होकर अराधा है और मीरा होकर त्यागा है... मगर, हर रूप में बस पाया ही पाया है। अपने ईष्ट को पूरी तरह समर्पित हुए बिना उसे पूर्णता में पाया नहीं जा सकता, यह हर औरत का सच है, फिर वह माँ हो, बहन हो या फिर प्रेयसी।'