साथ चलते हुए / अध्याय 24 / जयश्री रॉय
न जाने किस अधिकार भावना से भरकर उसने उसे अपनी बाईं बाँह में बाँधकर डाक बँगले की ओर लौटना शुरू कर दिया था। वह भी बिना किसी प्रतिवाद के उसके संग चुपचाप चल पड़ी थी। इस सामीप्य से उसकी देह की हल्की आँच उसकी शिराओं में बह आई थी। नासापुटों में स्त्री देह की गंध थी, कहीं भँवरा फूलते हुए जंगली फूलों पर गुनगुना रहा था। रात की पलकें भारी हो आई थीं। कौशल ने उसे अपने और निकट खींचते हुए गहरी आवाज में पूछा था -
जीवन के सबसे खूबसूरत दिनों का एक हादसा बन जाना आपके अंदर सब कुछ ऊसर कर गया होगा, देह का स्वाद, चाहना - क्या आपके लिए यह सब एकदम वर्जित हो गया है?
उसके इस प्रश्न के पीछे कई प्रश्न छिपे हुए हैं, शायद यह वह भी समझ रही थी, तभी उससे यकायक परे हो गई थी -
'ऐसा कतई नहीं है। सेक्स मेरे लिए देह से की गई प्रार्थना है। ऐसी प्रार्थना जो दो शरीर दो हथेलियों की तरह एक साथ जुड़कर एक ही छंद, लय और ताल में एक ही उद्देश्य में करते हैं - उस बंधन में जो योग और अर्द्धनारीश्वर है और उस मुक्ति के लिए जो बुद्ध का निर्वाण या आशुतोष का मोक्ष है। प्रेम में घटित हुआ संभोग बंधन में अपनी मुक्ति तलाश लेता है और हर मुक्ति को अपना आलिंगन बना लेता है।'
अपनी बात समाप्त कर वह थोड़ी देर चुपचाप चलती रही थी। रुपहली चाँदनी में उसके अंग के रचाव और कटाव रह-रहकर तलवार की तरह चमक उठते थे, और वह उस क्षण के सम्मोहन में बँधा चलते-चलते ठिठककर खड़ा हो जाता था। रोशनी और छाया के मायावी आलोक में उसका कमनीय चेहरा उस समय कितना विलक्षण हो उठा था, कैसा दुर्दांत भी... और फिर उसके चेहरे के भाव देखते हुए अपर्णा के चेहरे की कठिन रेखाएँ अनायास नर्म हो आई थीं
सेक्स एक बहुत खूबसूरत अनुभव है। मगर हमें हमारी देह को जीना चाहिए, न कि उसमें मरना-खपना... आत्मा देह में रह सकती है, मगर आत्मा पर देह नहीं लद सकती, वर्ना इसकी यात्रा भी श्मशान की चिता तक पहुँचकर समाप्त हो जाएगी।
बँगले पर पँहुचकर अंदर घूसने से पहले उसने मुड़कर न जाने उसे किस नजर से देखा था - एक अनचीन्ही भाषा जो इससे पहले उसने कभी नहीं बोली थी - अपने पूरे वजूद में थी वह उस रात, एक मुकम्मल औरत... आधी-अधूरी या सिर्फ माँ नहीं। ममता के मातम में उसने अपने अंदर की औरत को मर जाने दिया था। मगर जीते जी मर जाना... मरने से पहले शायद ही कोई मर पाता है! वह जिंदा थी, उसकी आँखों में चमकता हुआ-सा कुछ निःशब्द कह रहा था - एक छोटी-सी चाहना... कि जी लूँ, कुछ साँसें, अपनी ही...
कौशल उसे निष्पलक देखता रहा था - आज क्या हुआ है इसे... बाँध टूटी नदी की तरह हो रही है, बह रही है निरंतर - अबाध्य, उश्रृंखल, एकदम अराजक... बढ़कर उसने उसका एक हाथ पकड़ लिया था -
सच कहो अपर्णा, क्या हुआ है तुम्हें? इतनी बातें, मुस्कराहट, उछाह... कौन-सा दुख तुम्हें आज इतना सता रहा है?
स्नेह का एक छोटा कतरा मरु को समंदर बना गया था - अपर्णा रोने को हो आई थी, साथ में शर्मिंदा भी - उसे कुछ भी छिपाना नहीं आता, आँखें चुगली कर जाती हैं हर बार...
- ऐसी कोई बात नहीं...
अपने शब्दों पर उसे भी यकीन नहीं आया था, मगर इस झूठ को निभाना जरूरी हो गया था - हर तरफ से कैसे पराजय स्वीकार ले...
- इससे अच्छा तो रो लेती...
कौशल ने उसकी चिकनी पलकें सहलाई थी, मौसम के नए पत्तों की तरह, उतना ही मुलायम, कोमल, हल्के-हल्के काँपती हुई...।
- हर बार रोना, वही रोना... ऊब गई हूँ... इसलिए...
उसकी आवाज गीली थी, रिसती हुई-सी। अपने कमरे के दरवाजे पर खड़ी होकर अब वह उसे देख रही थी, ऐसे जैसे उसमें अपने पूरे वजूद के साथ उतर रही हो। इसी क्षण कौशल के जेहन में कुछ अद्भुत, कुछ विलक्षण-सा घटा था, जिसे एक जाना-पहचाना नाम देकर वह उसे सरलीकृत नहीं करना चाहता था। वह अपने अनुभव पर स्वयं चकित था। पीड़ा और हर्ष का ऐसा दुर्दांत स्वाद उसने आज से पहले इस तरह से कभी एक साथ नहीं चखा था। वह जो अब तक उसके आसपास थी, अब उसके अंदर थी, कुछ इस तरह से कि उसके लिए भी जैसे उसके ही अंदर अब कोई जगह नहीं बची थी। आश्रय पाकर निराश्रित हो जाने का ये कैसा अद्भुत अनुभव था...
अपर्णा ने यकायक आगे बढ़कर उसे अपने पास खींच लिया था, इतना कि वह नजर भर की दूरी तलाशने लगे। कैसी विडंबना है कि प्यार और आतंक की अनुभूति एक-सी होती है - वही नसों में लहू की नीली सनसनाहट, कनपटियों पर धड़कता दिल और निगाहों के सामने धुंध और धुआँ... अपर्णा ने उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिए थे - भीगे और ऊष्ण! उनके मखमली दबाव को महसूस करते हुए कौशल अपनी नसों में बहती शहद की मीठी धार में अनायास डूबने लगा था। वह उसे हल्के-हल्के चूमती रही थी, रगो-रेश में स्फुलिंग जगाते हुए - चाहना के जलते-बुझते जुगनू, इच्छा के दीबे - आग के सुनहरे फूलों की पाँत, फागुन की इस रात - देह के आदिम वन में... यह क्षण सर्जना का था, एकमेव, एकसार हो जाने का था। देह का आदिम उत्साह अपना चरम चाहता था, सारी वर्जनाओं से परे होकर, सत्य की तरह निरावरण, निर्भय होकर...
उसकी देह से उठती पसीने और परफ्युम की मिली-जुली मादक स्त्री गंध का मौन निमंत्रण उसके अंदर कहीं आँच देने लगा था। वह अपनी रगो-रेश में उत्तेजना महसूस कर रहा था - स्वयं को पूरी तरह देकर उसे उसकी संपूर्णता में पाने की एक पागल इच्छा... अपने ही अनजाने उसके हाथ उसकी खुली हुई कमर के इर्द-गिर्द लिपट गए थे। उसके उरोजों का हरारत भरा नर्म दबाव उसके सीने पर था। उसे प्रतीत हो रहा था, दो सहमे हुए कपोत थरथराते हुए उसकी गर्म हथेलियों में अपना आश्रय ढूँढ़ रहे हैं। वह उन्हें इच्छा और प्यार से भरकर दबोच लेना चाहता था, सहलाना चाहता था दुलार से देर तक...
लेकिन इससे पहले कि उसके हाथ कुछ ज्यादा उद्दंड होते, वह अचानक उससे अलग हो गई थी -
नहीं! हम यही ठहर जाएँगे कौशल! अगर इतना-सा करीब नहीं आते तो जिंदगी भर एक ख्वाहिश हमारा पीछा करती रहती, और अगर इससे आगे बढ़ गए तो कुछ बहुत खूबसूरत हमेशा के लिए खो देंगे...'
वह कुछ न समझ पाने की स्थिति में उसे चुपचाप देखता रह गया था। वह पुरुष था, देह उसके लिए पूरा सच नहीं, मगर बहुत बड़ा सच जरूर था। देह के बिना न वह, न कोई संबंध मुकम्मल था; मगर अपर्णा सच होकर भी परछाईं बनकर खो जाना चाहती थी। उसने फिर आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया था -
'आज तुमसे बहुत कुछ पाया है कौशल! इसे आगे की यात्रा के लिए सहेजकर रखना चाहती हूँ - जिस्म के जंगल में खोना नहीं! तुम नहीं समझोगे, हम औरतों के लिए यह जिस्म ही अधिकतर पिंजरा बन जाता है... चाहती हूँ, इस देह से आगे भी कोई आए- वहाँ जहाँ पशुता की सीमा समाप्त करके इनसान इनसान बनता है, रूह, सोच और अहसास बनता है! अपनी रूहों के बीच से यह तन की माटी हटाना चाहती हूँ, यह हमें एक-दूसरे तक पहुँचने नहीं देती...! बहुत अकेलापन है इस हाँड़-मांस के राजप्रासाद में, ठीक जैसे राम का वनवास...
कौशल के लिए उसके सारे शब्द पहेली थे। वह अभी भी अपने शरीर की आँच और उत्तेजना से उभर नहीं पाया था। उसका हवा, रेशम और गंध से गुँथा यह तिलस्मी शरीर उसे अपनी आदिम कैफियत में डाला हुआ था। अपर्णा ने हल्के-से उसके होंठों को अपनी उंगली से सहलाया था -
'आज की ये खूबसूरत रात हमेशा के लिेए रहने दो हमारे बीच... ताकि कभी उजाले में मिले तो नजर न चुराकर एक-दूसरे को पहचान सके।'
'मगर...'
उसके अंदर इच्छाओं का एक अनाम बवंडर उठकर उसकी आवाज को रौंद डाला था। 'अब कुछ मत कहना कौशल! जरूरी नहीं कि स्त्री-पुरुष के जिस्म हमेशा एक प्रार्थना में दो हथेलियों की तरह जुडे, वे एक ही दुआ में दो हाथ की तरह अलग-अलग रहकर भी एक सनातन साथ में हो सकते हैं! आओ, हम हमेशा एक दुआ की तरह साथ रहे, प्रार्थना में जुड़कर अपना अस्तित्व समाप्त न कर लें... तुमसे बहुत कुछ चाहती हूँ... पता नहीं क्या, मगर तय है कि कुछ इस देह से परे, इससे भी ज्यादा, कभी समझ पाई और समय या हौसला हुआ तो माँग लूँगी... मगर आज यह नहीं... इसके लिए तैयार नहीं... सच!'
बात खत्म करके उसने अपने कमरे में घुसकर अंदर से दरवाजा बंद कर लिया था और वह उसकी कही हुई बातों का तात्पर्य समझने का प्रयत्न करता हुआ वहाँ न जाने कब तक खड़ा रह गया था।
पूरब में रात की साँवली कोर हल्के से रसमसाई थी, क्षितिज पर उजाले की नर्म दस्तक-सी थी। पास ही कही हरसिंगार के फूल निःशब्द झर रहे थे। हवा सुंगध से बोझिल हुई जा रही थी। सुबह होने में अब ज्यादा देर नहीं थी शायद, मगर ये रात अपनी गहरी तृष्णा और अमित तृप्ति के साथ अब उसके जीवन से कभी नहीं बीत पाएगी, ठहरी रह जाएगी अपनी अनोखी रस, गंध और स्वाद के साथ चिर दिन के लिए... अपने अंदर कहीं गहरे बहुत शिद्दत से वह यह महसूस कर रहा था।