साथ चलते हुए / अध्याय 6 / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
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'मेरी बेटी दीया भी इतनी ही बड़ी है।'

न जाने कब कौशल उसके पास आ खड़ा हुआ था।

'अच्छा! आज साथ क्यों नहीं लाए?'

उसने आग्रह के साथ पूछा था।

'वह मेरे साथ नहीं, अपनी माँ के साथ रहती है। हमारे डिवोर्स के बाद उसकी कस्टडी उसकी माँ को मिली है।'

कौशल ने यह बात बहुत ही सपाट लहजे में कही थी।

'ओह!'

उसने चौंककर कौशल की तरफ देखा था। वह अब एकटक उस बच्ची को देख रहा था। उसकी आँखों में न जाने क्या था कि उसका अपना मन अनचन कर उठा था। दोनों के बीच कुछ साझा था - शायद किसी बहुत अपने को खो देने का दर्द! अपने ही अनजाने बढ़कर उसने उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया था। कौशल ने एक पलक उसकी तरफ देखा था, फिर अपनी दृष्टि फेर ली थी। नहीं, अपनी गीली आँखों की नुमाइश नहीं की जा सकती। हँसना सबके साथ होता है, मगर रोना तो अकेले ही पड़ता है... यह बात अपर्णा भी जानती है, तभी तो इस तरह से अनजान बन गई है। नहीं, उसने कुछ भी नहीं देखा, कुछ भी नहीं समझा...

खाना बन जाने के बाद कमलिका उन्हें बुलाने आई तो दोनों को एक साथ बैठे देखकर उसके होंठों पर कौतुक भरी मुस्कराहट फैल गई। मगर उसे देखकर भी दोनों ने एक-दूसरे का हाथ नहीं छोड़ा था। अपने में डूबे-से देर तक बैठे रहे थे। उनकी उंगलियाँ आपस में उलझी रही थीं।

उस दिन उसे लगा था, उसके अलक्ष्य कहीं एक दस्तक हुई है। वह अधीर आग्रह से अनायास आगे बढ़ना चाहती है, मगर ठहरी रह गई है, दरवाजा खोल नहीं पा रही है... एक वर्जित की ग्लानि... मन इतना डूबा हुआ है दुख की मटमैली अनुभूतियों में कि खुशी का क्षणिक अहसास भी अपराधबोध से भर देता है। अभी उसका मातम पूरा नहीं हुआ है, अभी उसका रोना शेष है! काजोल की गीली आँखों की स्मृति उसकी पलकों को सूखने नहीं देती। सारी हँसी, सारी खुशी एक नन्हे, निस्पंद देह पर वार आई है। एक रक्तहीन चेहरा और दो फीकी आँखों की कातर दृष्टि उसकी स्मृतियों का हासिल है, वहाँ वह मुस्कराहटों के लिए हथेली भर भी जगह कहाँ बनाए...

उसकी सूनी कोख उसके अंतस में, उसके रगो-रेश में व्याप गई है। अब यह शून्य कैसे पुरेगा, यह रीता हुआ मन - किसी परित्यक्त गाँव-सा... अब इसे कभी नहीं बसना है, कभी भी नहीं... बंजर रहेगा यह देश हमेशा, इसकी ऊसर जमीन पर कभी कोई फूल नहीं खिलेगा... वह निःस्तब्ध रात के एकांत में कराह-कराहकर रोती है, खिड़की पर खड़ा चाँद चुपचाप पिघलता है, उसके हिस्से की रात खत्म होती है, मगर नहीं होती... बनी रहती है - उसके मन में - अपने सारे अपरिमित अंधकार और सन्नाटे के साथ...

अपनी अभावात्मक मानसिक अवस्था में वह जिंदगी को अब कोई दूसरा मौका नहीं देना चाहती, और यही शायद उसकी यंत्रणा और त्रासदी है। एक मन की जमीन उर्वर हो रही है, शनैः-शनैः अखुँआ रही है, तैयार है खुशियों की सुनहरी फसल उगाने के लिए, दूसरा मन श्मशान बना पड़ा है - चिता की धधकती लपटों और चिरांध से भरी हुई... उसे जीवन का कोई उत्सव नहीं चाहिए, मेला नहीं चाहिए। अपने निर्जन में संपृक्त, संतुष्ट है वह!

कभी संवेदना के स्तर पर दिनों तक सपाट दीवार-सी बन जाती है वह, कभी इसी के आकस्मिक सैलाब से दुहरी होकर रह जाती है, बिखर-बिखर जाती है। यह अंदर की लड़ाई है जो उसे तोड़ रही है, निःशेष कर रही है - प्रतिदिन, तिल-तिल...