साधु की कमाई / विजयदान देथा 'बिज्जी'
एक जाट बैलगाड़ी से कहीं जा रहा था। रास्ते में उसे एक साधु मिला। चौधरी भला था गाड़ी रोकते हुए कहा,
‘महाराज, जय राम जी की! गाड़ी के रहते आप पैदल क्यों जा रहे हैं! रास्ता आराम से कटे उतना ही अच्छा। आइए, गाड़ी पर बैठ जाइए! आपकी संगत से मुझे भी थोड़ा धरम-लाभ हो जाएगा।’
महाराज के पास एक वीणा थी। पहले उसे गाड़ी पर रखा और फिर खुद भी बैठ गया। चौमासे के कारन रास्ता बहुत उबड़खाबड़ था। हिचकोलों से गाड़ी का चूल-चूल हिल गया। चौधरी ने बैलों को पुचकारकर रास खींची। नीचे उतरकर देखा -
पहिए की पुट्ठियाँ खिसककर बाहर निकल आई थीं। ठोंकने के लिए और कुछ नहीं दिखा तो उसने महाराज की वीणा उठा ली। एक तरफ बड़ा-सा तूंबा देख कर उसे लगा यह ठोंकने के लिए अच्छा औजार है। उसने पूरे जोर से पुट्ठी पर वीणा का प्रहार किया। तूंबा भीतर से थोथा था। पुट्ठी और पाचरे पर पड़ते ही उसके परखच्चे उड़ गए। चौधरी ने महाराज को उलाहना दिया,
‘वाह महाराज, सारी उम्र भटककर एक ही औजार सहेजा और वह भी थोथा! आपकी इस भगति में मुझे कुछ सार दिखा नहीं।’