सानदार नवाज, जबरजस्त पहाड़ और जिंदाबाद नवाज / नवल किशोर व्यास

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सानदार नवाज, जबरजस्त पहाड़ और जिंदाबाद नवाज


नवाज के लाजवाब अभिनय से सजी मांझी- दा माउंटेन मैन केतन मेहता की अब तक की सबसे अलग पर बहुत हद तक प्रभावशाली फिल्म है। इसे केतन की मसालेदार रियलिस्टिक फिल्म कहना ज्यादा उचित होगा। अधेड़ केतन पर इन दिनों के युवा फिल्मकारो का प्रभाव साफ तौर पर फिल्म में देखा जा सकता है। कह सकते है कि केतन इस फिल्म से अपने रटे रटाये और पढ़े पढ़ाये प्रौढ़ सिनेमा से मुक्त हुए है। केतन की पिछली फिल्मो की तरह इस फिल्म में गंभीर सिनेमा का मेकेनिज्म, तय मेनेरिज्म या विषय के सहारे खुले छोड दिए गए किरदार नही है। बीच बीच में फिल्म की पकड़ ढीली भी पड़ती रहती है पर बॉयोपिक की अपनी मजबूरिया भी होती है। उम्मीद के मुताबिक फिल्म का मुख्य आकर्षण नवाज का अभिनय ही है। दशरथ मांझी के किरदार में नवाज ने अपने आपको पूरी तरह से झोंक दिया है। दशरथ मांझी के प्रेम, खिलदंडपन, सनक, तड़प और सबसे जरूरी दशरथी ठसक को नवाज ने भावना की तीव्रता से निभाया है। बाइस साल तक भीतर और बाहर तपती देह से पहाड़ को छैनी और हथौड़े से काटते दशरथ की संघर्ष गाथा को नवाज ने जिस तरह जिया है वो निश्चित रूप से खुद उसके संघर्ष की भी विजय है। नवाज ने दशरथ मांझी के बहाने लगभग परकाया प्रवेश किया है। फिल्म के अंतिम दृश्यों में बौरी पहने, लाठी थामे, सिर पर अजीब सा टोपा लगाए नवाज अपनी चाल ढाल और बॉडी लेंग्वेज से दशरथ मांझी की इमेज को लगभग जिंदा कर देते है। नवाज का ही कमाल है कि मांझी नाम का ये सिनेमा दर्शको में सदभाव नही बल्कि समभाव जगाता है। नवाज की स्पीच,वॉइस मॉडुलेशन और टाइमिंग के साथ केतन के आंचलिक भाषा के रस और रिदम के साथ किये गए महीन काम ने मांझी किरदार को अमर बना दिया है। हिंदी सिनेमा में आंचलिक भाषा को आम तौर पर किरदार की स्थानीयता को जताने और जमाने के लिए लाया जाता है। लगान जैसी उम्दा फिल्म में भी भाषा और उसके लहजे में रस का अभाव था पर मांझी सहित इन दिनो आई पानसिंह और वासेपुर जैसी फिल्मो में भाषा का स्थानीय रस, आनंद और उसका ख़ास लहजा भी फिल्म का मुख्य आकर्षण है। ये लहजा एक किरदार के जैसे पूरी फिल्म में चलता है। अंधी बंधुआ व्यवस्था के कारण मरे अपने दोस्त की मौत से दुखी शोषित लोग आसमान की और देखकर मातमी उलाहनों के बीच अचानक टूटते तारे को देखकर आंचलिकता के उस ख़ास ह्यूमर के साथ कहते है- ऊ देख भूरा...हमार भूरा...मर के तारा बन गया....जिंदगी भर बेगारी किया...मरकर चमक गया साला। स्क्रिप्ट के इतने महीन काम से ही किरदार मनगढंत नही होकर देखे और भोगे हुए से लगते है। केतन की ही फिल्म मिर्च मसाला में गुजरात के छोटे से गाँव के मुखिया बने सुरेश ओबेराय और चौकीदार ओम पूरी जिस तरह से शुद्ध स्पीच में रेडियो हिंदी बोलते है, वो साफ तौर पर अभिनेता और निर्देशक की किरदार के प्रति किये गए होमवर्क की कमी को जताता है। अभी के गंभीर युवा फिल्मकार इस और काफी ध्यान देते है और केतन भी इससे अछूते नही रहे। फिल्म में प्रेम कहानी के साथ साथ छुआछुत, दलित शोषण, नक्सलवाद, बंधुआ मजदूरी, राजनीति, आपातकाल जैसे विषय भी डाले है पर इन घटनाओ के किसी प्रसंग के लिए लोग दशरथ मांझी को नही जानते। दशरथ मांझी को लोग इसलिए जानते है कि पहाड़ से गिरकर घायल अपनी पत्नी को समय पर नही पहुचा पाने के कारण वो मर जाती है। इस आग में जलते हुए बाइस साल तक अकेले दिन रात पहाड़ काटकर चालीस मील के रस्ते को चार मील का कर देता है ताकि किसी और को ये वियोग ना सहना पड़े। अन्य प्रसंग फिल्म में उस ख़ास किरदार की डेवलॅपमेंट के लिए जमीन ही तैयार करते है। केतन ने फिल्म में पहाड़ को भी एक पात्र की तरह रखा है, मांझी का उससे एकतरफा संवाद चुटीला, मजेदार और भावनात्मक है। मांझी केतन मेहता का चौथा बॉयोपिक है पर सरदार पटेल, मंगल पांडे और राजा रवि वर्मा की तरह इस बॉयोपिक का नायक इतिहास का हीरो नही है। ये अभी इन दिनों खबरों में अचानक आया एक आम आदमी है। ये ऐतिहासिक नही बल्कि एक आम आदमी के ऐतिहासिक बनने की गाथा का बायोपिक है। फिल्म मनोरंजक भी है और गंभीर भी, इन्ही दोनों सिरो को नवाज अपने अभिनय से विश्वसनीय बनाते हुए आगे ले जाते है। 

बहरहाल फिल्म आर्ट और कमर्शियल सिनेमा के विशेषण को तोड़ती है। फिल्म जितनी कलात्मक है उतनी ही आनंददायक। सत्तर और अस्सी के दशक में समानांतर सिनेमा के नाम पर विषय को जिस पेचीदगी और किताबी अंदाज में प्रस्तुत किया जाता था, उसे उस समय के कला समीक्षकों ने साहित्यिक अथवा गंभीर विषय के तौर पर ही देखा, जाना और उसके फतवे जारी किये। ऐसी फिल्मो की मेकिंग और विषय के प्रस्तुतिकरण में सिनेमा तत्व और विषय के सम्प्रेषण पर ठोस चर्चा की आज भी कमी है। समानांतर सिनेमा की इस मुहिम में बहुत अच्छी फिल्मे भी बनी पर बहती धारा में कुछ बुरी फिल्मो ने भी क्लासिक की श्रेणी में घुसपैठ की है। इन फिल्मो का दायरा आम दर्शको की समझ और पहुच से दूर रखना भी इन फिल्मकारो की जिद का ही नतीजा थी माने जिन गरीब, कमजोर और वंचित वर्ग के विषय को भुनाया जा रहा था, वो वर्ग ही इन फिल्मो से कौसों दूर है। युवा फिल्मकारों ने साहस दिखाते हुए इस धारणाओं की तोड़ते हुए विषय को उसके किताबी व्याकरण से मुक्त कर उसे ठेठ सिनेमा की भाषा दी। विषय को उसी संजीदगी, संवेदनशीलता और तीखेपन से प्रस्तुत किया पर मेकिंग और बनावट को सम्प्रेषण में बाधा नही बनने दिया। इसी मुहीम का कमाल है कि पान सिंह तोमर, गैंग ऑफ वासेपुर, हैदर और मांझी का भी खुला दर्शक वर्ग है। इन फिल्मो का कोई कैटेगराइजेशन नही हुआ और ना कोई नया विशेषण इन्हें दिया गया। सुखद अहसास है कि इरफ़ान, नवाज और मनोज वाजपेयी के लिए भी आम दर्शक में दीवानो जैसा प्यार है। इस लिहाज से भारतीय सिनेमा का ये स्वर्णिम समय है और मांझी इसी स्वर्णिम समय का एक और नया अध्याय है।