साफ -सुथरी आँखों वाले / सुकेश साहनी
दफ्तर से लौटा तो गेट के पास मटमैले रंग का एक लिफाफा पड़ा हुआ था। लिफाफे पर जगह-जगह ग्रीस के दाग और कालिख लगी हुई थी। लिफाफे के एक ओर मोटे-मोटे शब्दों में बचकाने ढंग से लिखा था-सत्ते उस्ताद।
पिछले हफ्ते मेरी एक कहानी स्थानीय अखबार में छपी थी। पाठकों के दो-तीन खत मुझे रोज ही मिल रहे थे। यह लिफाफा भी मुझे उसी तरह का लगा, पर लिफाफे की मोटाई और भेजने वाले का अपने नाम के आगे उस्ताद लिखना मुझे बहुत अटपटा लग रहा था। घर में प्रवेश करते ही मैंने उसे खोल डाला।
पत्र किसी सत्ते उस्ताद ने ही मुझे लिखा था। भीतर के कागजों पर भी जगह-जगह दाग-धब्बे लगे हुए थे और लिखावट तो बहुत ही बचकाना थी। पत्र में उसने मेरी सोने के हार वाली कहानी से प्रभावित होने की बात एक-दो पक्तियों में लिखी थी। शेष पत्र में उसने अपने जीवन की कुछ घटनाओं के बारे में लिखा था। सत्ते उस्ताद ने क्या सोचकर मुझे अपने जीवन के बारे में लिखा होगा? हो सकता है, उसे लगता हो कि उसके जीवन में ऐसा कुछ है, जिस पर कहानी लिखी जा सकती है। जो भी हो, उस बचकाना ढंग से लिखे गए खत में मुझे ऐसी खुशबू महसूस हुई थी कि मैं उसके खत को पूरा पढ़े बिना नहीं छोड़ सका था। यही नहीं, उसकी कहानी को आपके साथ साझा भी करना चाहता हूँ-
सत्ते को नहीं याद कि उसके माँ-बाप कौन थे। बचपन की कोई स्मृति भी शेष नहीं है। जब उसने होश सँभाला तो खुद को बनारसी उस्ताद की शागिर्दी में पाया। धंधा-वही पाकेटमारी, उठाईगीरी या फिर जब जैसा दाँव लग जाए. जैसा कि अमूमन होता है, बनारसी उस्ताद की मौत के बाद उस्तादी की गद्दी अपने हुनर के बल पर सत्ते के हाथ आ गई थी और वह कहलाने लगा था-सत्ते उस्ताद।
सत्ते की अँगुलियों में बला का जादू था। उसके बारे में कहा जाता था कि उस्ताद पास बैठे आदमी के कपड़े उतार ले और उसको पता भी नहीं चले। चुस्ती-फुर्ती इतनी कि प्रतिद्वंद्वी वार करने की सोचे ही सोचे कि चारों खाने चित्त और सत्ते उस्ताद का कमानीदार चाकू उसकी गर्दन पर। अपने हुनर के बल पर सत्ते के दिन मजे में कट रहे थे। तभी एक विचित्र घटना घटी.
उस दिन सत्ते बहुत सवेरे ही घर से निकल पडा़ था। अपने शिकार का पीछा करते हुए वह बस अड्डे तक पहुँच गया था। वह लड़की बस में चढ़ गई थी। उसका पति भी उसके साथ था।
वह भी उनके पीछे-पीछे बस में चढ़ गया। उसने उचटती-सी निगाह चारों ओर डाली। लड़की और उसका पति ड्राइवर के पीछे वाली सीट पर बैठे हुए थे। बस लगभग भर चुकी थी। खिड़की के पास वाली खाली सीट पर वह भी बैठ गया।
आदत के मुताबिक सत्ते अपने आपसे उलझा हुआ था, " सत्ते गुरु, बहुत दिनों बाद मोटी मुर्गी हाथ लगी है...अबे देख...उसके गले में खालिस सोने की मटरमाला और हाथों में चम-चम करते कड़े। ...हाँ, अगर लड़की के साथ यह रखवाला न होता तो काम थोड़ा आसान हो जाता। साला...अब इस धंधे में भी कुछ रहा नहीं। लोग बहुत होशियार हो गए है। औरतों ने गहने पहनकर बाहर निकलना बंद कर दिया है। इक्का-दुक्का शिकार नजर आ भी जाए तो साथ में यह...बॉडीगार्ड ...अबे, लौंडिया का रखवाला तो इधर ही देख रहा है...कहीं इसे शक तो नहीं हो गया? ...तूने अभी किया ही क्या है, जो उसे शक हो जाएगा। बेट्टा, अब तेरी फूँक बहुत जल्दी सरक जाती है।
खिड़की से सीधी धूप सत्ते पर पड़ रही थी। वह पसीने-पसीने हो रहा था। ड्राइवर-कंडक्टर का कहीं पता नहीं था। लोग बस के न चलने से परेशान थे। इस बात को लेकर बस में तेज शोर हो रहा था। धूप जब असह्यय हो गई तो सत्ते अपनी सीट से उठकर कंडक्टर की सीट के पास खड़ा हो गया। वह बार-बार रुमाल से अपना पसीना पोंछ रहा था।
लोगों के शोर का असर हुआ था। ड्राइवर ने अपनी सीट पर बैठकर बस स्टार्ट कर दी थी।
"सुनिए..."
"जी?" युवक के सम्बोधन से सत्ते बुरी तरह चौंक पड़ा। पहली बार उसने युवक की आँखों में सीधे देखा। सत्ते को उसकी आँखें बहुत अजीब लगीं।
"शायद आप धूप से परेशान हैं?" उसने मुस्कराकर कहा।
"जी हाँ," उधर की सीट पर सीधी धूप पड़ रही है। " अब वह संभल गया था।
"आप चाहें तो यहाँ बैठ सकते है," युवक ने अपनी सीट की ओर संकेत किया, "मैं तो इन्हें छोड़ने आया था...यहीं उतर रहा हूँ।"
"शुक्रिया!" सत्ते को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ, अंधा क्या माँगे-आँखें। उसने देर नहीं की, युवती के बगल में धीरे से बैठ गया।
सीट पर बैठते ही सत्ते खुद से बातें करने लगा, "बेटा, आज ऊपर वाला मेहरबान है, रास्ते का एकमात्र काँटा भी दूर हो गया। अब तो मैदान बिल्कुल साफ है...इतना माल हाथ लग गया तो कई दिनों की छुट्टी. आखिर उस आदमी ने तुझमें क्या देखा, जो तुझे अपनी सीट दे दी?"
बस ने गति पकड़ ली थी। सत्ते ने युवती की ओर देखा, वह खिड़की से सिर टिकाए किसी गहरी सोच में डूबी हुई थी। कंडक्टर यात्रियों को टिकट के लिए आवाज दे रहा था। सत्ते के लिए यह जानना ज़रूरी था कि उसके शिकार की मंजिल क्या है, ताकि उसी के अनुसार वह भी अपना टिकट ले सके। उसने सीट से उठते हुए युवती से पूछा, "आपका टिकट? क्या मैं मदद कर सकता हूँ?"
वह चौंक पड़ी, फिर उसने पर्स खोला, तभी सत्ते ने आँखें भरकर उसके कड़ों की ओर देखा, तीन-तीन तोले से कम के नहीं होने चाहिए, उसने सोचा।
युवती ने पचास का नोट सत्ते की ओर बढ़ाते हुए कहा-"मुरादाबाद।"
उसने दो टिकट मुरादाबाद के लिए और अपनी सीट पर लौट आया।
बस पूरी रफ्तार से दौड़ने लगी थी। सत्ते ने इस बार थोड़ा ध्यान से युवती की ओर देखा। सत्ते की नजर लड़कियों के मामले में उसे कभी धोखा नहीं देती। पहली नजर में ही वह ताड़ लेता है कि लड़की सीधी-सादी है या खुर्राट, या फिर उसी की तरह कोई सड़क-छाप। शिकार के बारे में राय कायम करने के बाद ही वह आगे की योजना बनाता है। भोली-भाली लड़कियों के मामले में वह स्पर्श से शुरुआत करता है। वह जानता है, अच्छे घर की लड़कियाँ लज्जावश उसे बर्दाश्त करती रहती हैं और धीरे-धीरे पूरी तरह उसके चंगुल में फँस जाती हैं।
सत्ते की नजरें ड्राइवर के सामने वाले शीशे के बाहर सड़क पर स्थिर थीं...चेहरे पर दीन-दुनिया से बेखबरी का भाव लिये। बस की गति के साथ उसके और युवती के बीच की बची-खुची दूरी भी कम होती जा रही थी।
उसने पतलून से कटर निकालकर अपनी कमीज की ऊपर वाली जेब में रख ली थी, ताकि मौका मिलते ही इस्तेमाल कर सके।
सत्ते अजीब उलझन में था। वह पूरी तरह सक्रिय नहीं हो पा रहा था। युवती का पति उसके सामने आकर उसकी एकाग्रता को भंग कर देता था...क्या सोचकर उसने उसे अपनी पत्नी के साथ की सीट पर बैठने को कहा होगा...उस युवक ने निश्चित रूप से उसे शरीफ आदमी समझा होगा। सत्ते के यार-दोस्तों का कहना है कि गुंडई तो सत्ते की आँखों से हर वक्त टपकती रहती है...तो फिर? उस युवक की आँखें हवा में तैरती हुई आईं और उसके सामने स्थिर हो गईं...उसने ध्यान से देखा...ऐसी साफ-धुली आँखें उसने अपने जीवन में किसी की नहीं देखी थीं...बिल्कुल साफ, निर्दोश, चम-चम चमकती आँखें।
युवती ऊँघने लगी थी।
बस गजरौला अड्डे पर रुकी तो भीड़ का रेला बस में आया। चढ़ने-उतरने वालों के बीच धक्का-मुक्की का माहौल था। सत्ते को तो ऐसे ही मौके की तलाश रहती है। भीड़-भाड़ में अपना काम आसानी से निबटाकर वह खिसक लेता है।
इस बार वह चाहकर भी मौके का फायदा नहीं उठा सका। विचित्र-सी शिथिलता उस पर छाती जा रही थी। सत्ते को अपनी कमजोरी पर आश्चर्य हुआ, पर वह निश्चिंत था-अपने काम के लिए दो घंटे का समय उसके पास था।
बस अब चौ्ड़ी-चिकनी सड़क पर पहले से कहीं तीव्र गति से भागी जा रही थी। ऐसा लगता था मानो युवती कई रातों की जागी हो, क्योंकि वह चाहते हुए भी खुद पर नियंत्रण नहीं रख पा रही थी। ऊँघते हुए उसका सिर बार-बार आगे की ओर लुढ़क जाता था। बस में दूसरे यात्री भी ऊँघने लगे थे। किसी का ध्यान सत्ते की ओर नहीं था। सत्ते के सामने स्वर्ण अवसर था, पर वह खुद को बेबस महसूस कर रहा था...उसकी आँखों के सामने धुंध -सी फैलती जा रही थी...उसने महसूस किया कि उसका शरीर धीरे-धीरे एक पेड़ में तबदील हो रहा है...पहले पैर तने के रूप में फिर बाहें शाखाओं के रूप में...धीरे-धीरे वह एक घने छायादार वृक्ष में बदल जाता है...तभी कहीं से थकी-हारी चिड़िया उड़ती हुई आती है और उसकी घनी छाया के बीच एक डाल पर सुस्ताने लगती है...वह हैरानी से देखता है...चिड़िया, चिड़िया न होकर बस वाली लड़की है! एकाएक धुंध बर्फ के रूप में गिरने लगती है...बेआवाज। चारों ओर बर्फ ही बर्फ है...एक नन्ही-सी बच्ची बाहें फैलाए उसकी ओर दौड़ी आ रही है...ठंड से उसका चेहरा और होंठ नीले पड़ गए हैं...वह उससे चिपट जाती है, काँपती आवाज में कहती है, "पापा...मुझे नींद आ रही है।"
बस के हार्न से सत्ते चौंक गया। बस अभी भी सड़क का सीना चीरते हुए दौड़ी जा रही थी...युवती का सिर सत्ते के कंधे से टिका हुआ था। वह गहरी नींद में थी। सत्ते अपने काम पर बिल्कुल चौकन्ना रहता है, झपकी लेने की बात तो वह सोच भी नहीं सकता है। आज उसके साथ यह क्या हो रहा है, उसने सोचा। सपने के बारे में सोचकर उसके शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई. इस सपने का क्या मतलब है? उसकी तो अभी शादी भी नहीं हुई...फिर...वह बच्ची। सपने के प्रभाव से वह खुद को मुक्त नहीं कर पा रहा था। उसने युवती को उसी तरह सोने दिया।
बस के मुरादाबाद में प्रवेश करते ही ट्रैफिक के शोर से वह जाग गई. खुद को सत्ते के कंधे पर सिर टिकाए सोते देख वह शर्म से लाल हो गई, फिर संभलकर बैठ गई. अड्डे पर बस के रुकते ही वह अन्य सवारियों के साथ उतर गई। सत्ते को जैसे लकवा मार गया था। वह युवती को जाते देखता रहा।
तभी सत्ते को लगा, युवती ने पलटकर उसकी ओर देखा है। युवती की आँखों में उसे अपने लिए आदर के भाव दिखाई दिए। युवती की आँखें भी बिल्कुल अपने पति जैसी थीं...साफ-सुथरी। सत्ते को विचित्र अनुभूति हुई. उसने अब तक लोगों की नजरों में अपने लिए नफरत और घोर उपेक्षा के भाव ही देखे थे।
विचारों में डूबता-उतराता सत्ते बस-अड्डे से सीधे अपने कमरे में लौट आया। दो दिन तक अपने कमरे से बाहर नहीं निकला। आँखें मीचे चुपचाप चारपाई पर पड़ा रहा। दोस्तों ने समझा-उस्ताद नशा करने लगे हैं।
दो दिन बाद सत्ते उस्ताद अपने कमरे से बाहर आया तो उसे दुनिया बदली-बदली नजर आ रही थी। वह घर से सीधे इरफान के मोटर गैराज पहुँचा और उससे काम माँगा। इरफान ने डरकर उसे काम पर रख लिया।
कुछ दिनों बाद जब सत्ते के हाथ का हुनर मोटरों की मरम्मत में अपना रंग जमाने लगा, तो इरफान उसकी बहुत इज्जत करने लगा। कहने वाले कहते हैं कि सत्ते उस्ताद की अँगुलियाँ मोटरों के पेंच-पुर्जों से बातें करती हैं। इस तरह अब सत्ते उस्ताद इरफान मोटर गैराज की ज़रूरत हो गया है।
सत्ते के पुराने साथी एवं चेले-चापड़ कहते फिरते हैं-"सत्ते ने चूड़ियाँ पहन ली हैं...सत्ते उस्ताद चुक गए." सत्ते इन बातों की फिकर नहीं करता। इस तरह के फिकरे सुनकर उसके होठों पर बारीक मुस्कान रेंग जाती है। सत्ते बहुत खुश है। उसके जीवन के सबसे खुशी भरे क्षण वे होते हैं-जब वह 'ड्राइविंग सीट' पर बैठा गाड़ी का ट्रायल ले रहा होता है और उसके बगल में निश्चित बैठा कार का मालिक उसकी ओर प्रशंसा भरी नजरों से देखता है या फिर जब मोटर की स्पीड चेक करते हुए गाड़ी की गति खतरनाक हद तक बढ़ जाती है और उसके साथ बैठी मोटर की युवा मालकिन के चेहरे पर डर या असुरक्षा के भाव दिखाई नहीं देते। सत्ते उस्ताद के अनुसार उसके अतीत की पृष्ठभूमि में ये क्षण उसे ताकत देते हैं, उसे और भी मेहनत एवं ईमानदारी से काम करने के लिए प्रेरित करते हैं।
सत्ते उस्ताद की भेजी कहानी यहीं खत्म हो जाती है। कभी-कभी मुझे यह महसूस होता है कि यह कहानी सत्ते उस्ताद की कहानी न होकर, इस दुनिया के तमाम साफ-सुथरी आँखों वाले लागों की कहानी है। क्या आपको भी ऐसा लगता है!